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[ २० उक्त ८० वें पद्य से पहले आदिपुराण का जो १२४ वाँ पद्य उद्धृत किया गया है वह एक प्रकार से बेढंगा तथा असंगत जान पड़ता है । वह पद्य इस प्रकार है
वसावतरणं चेदं गुरुसातिकृतार्चनम् । ___घत्तरात् द्वादशादू मथवा षोडशात्परम् ॥६-७६ ॥
इसमें 'इदं' शब्द का प्रयोग बहुत खटकता है और वह पूर्वकथन को 'व्रतावतरण' क्रिया का कथन बतलाता है परन्तु ग्रन्थ में वह 'व्रतचर्या' का कथन है और 'वतचर्यामहं वक्ष्ये' इस ऊपर उद्धृत किये हुए पद्य से प्रारम्भ होता है । अतः भट्टारकजी की इस काट छाँट और उठाई धरी के कारण दो क्रियाओं के कथन में कितना गोलमाल होगया है, इसका अनुभव विज्ञ पाठक स्वयं कर सकते हैं
और साथ ही यह जान सकते हैं कि भट्टारकजी काट छाँट करने में कितने निपुण थे।
(५) श्रीशुभचन्द्राचार्य-प्रणीत ' ज्ञानार्णव ' ग्रन्थ से भी इस त्रिवर्णाचार में कुछ पद्यों का संग्रह किया गया है। पहले अध्याय के पाँच पद्यों को जाँचने से मालूम हुआ कि उनमें से तीन पद्य तो ज्यों के त्यों और दो कुछ परिवर्तन के साथ उठा कर रक्खे गये हैं । ऐसे पद्यों में से एक एक पद्य नमूने के तौर पर इस प्रकार है:
चतुर्वर्णमयं मंत्रं चतुर्वर्गफलप्रदम् । चतूरानं जपेद्योगी चतुर्थस्य फलं भवेत् ॥ ७५ ॥ विद्यां षड्वर्णसंभूतामजय्यां पुण्यशालिनीम् ।
जपन्प्रागुक्तमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम्॥७६ ॥ ये दोनों पद्य ज्ञानाणर्व के ३८ वें प्रकरण के पद्य हैं और वहाँ क्रमशः नं० ५१ तथा ५० पर दर्ज हैं-यहाँ इन्हें आगे पीछे उद्धृत किया गया है । इनमें से दूसरा पद्य तो ज्यों का त्यों उठा कर रक्खा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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