Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
ई ध्रुवबंधिगोडनध्रुवबंधिगळं कूडुतं विरलु गुणस्थानदो पूर्वोक्त मोहनीयस्थानप्रकृतिगळमवर भंगंगळुर्वदु पेदपरु :
सगसंभवधुवबंधे वेदेवके दोजुगाणमेक्के य ।
ठाणा वेदजुगाणं भंगहदे होंति तब्भंगा ||४६६ ॥
स्वसंभवध्रुवबंधे वेदैकस्मिन्द्वियुगलयोरेकस्मिश्च स्थानानि वेदयुगलानां भंगहते भवंति
तदुभंगाः ॥
आ गुणस्थानंगळो पेद स्वसंभवध्रुवबंधिप्रकृतिसंख्येगळोळ स्वयोग्य वेदमनों दं हास्यारतियुगलद्वयदोळोंदु युगळमुमं कूडुतं विरल स्थान प्रकृतिसंख्याप्रमाणमुं स्वसंभववेदसंख्येयं स्वसंभवयुगळ संख्ययदं गुणिसुतं विरल स्वस्वस्थानदोळु भंगंगळुमप्पुर्व ते दोर्ड मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदो मोहनीय बंधकूटमिदी दो ओदु मिथ्यात्वप्रकृतियुं १०
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कषा १६ मि
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षोडशकषायंगळु भयद्विकमुं मितु एकान्नविंशति प्रकृतिगळु ध्रुवबंधिगळु इवरोळु वेदत्रयदोळों दं द्विकद्वयदलों द्विकमुमं कूडिदोर्ड द्वाविंशतिप्रकृतिगप्पुवी स्थानदोछु हास्यद्विकक्के मूरुं वेदंगलमरतिद्वय के मूरुं वेगळंतु षड्भंगंगळवु २२ सासादननोळु मोहनीयबंधप्रकृति कूटमिदी
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उक्तस्वस्वध्र ुवबंधिषु पुनर्वेदेष्वेकस्मिन् हास्यर तियुग्मयोरेकस्मिश्च मिलिते तानि स्थानानि तद्वेदयुग्मभंगे च हते तदूंगा भवंति । तद्यथा — मिथ्यादृष्टिबंधकूटे मिथ्यात्व षोडशकषायभयद्विकध्रुव
२ भ २ । २
१ । १ । १
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बंधिषु वेदत्रये युग्मयोश्चैकैकस्मिन् मिलिते द्वाविंशतिकं । तदूंगा हास्यरतिद्विकाभ्यां वेदत्रये हते षट् २२ ।
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अपने-अपने स्थानों में कहीं इन ध्रुवबन्धी प्रकृतियों में यथा सम्भव तीन वेदों में से एक वेद और हास्य - शोकके युगल और रति- अरतिके युगल में से एक मिलानेपर स्थान होता है। तथा वेदोंके प्रमाणको युगलके प्रमाणसे गुणा करनेपर भंगोंका प्रमाण होता है। वही कहते हैं
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मिथ्यादृष्टि के बन्धकूट में एक मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा ये उन्नीस तो ध्रुवबन्धी हैं। और तीन वेदों में से एक वेद तथा दो युगलों में से एक युगल मिलकर बाईस प्रकृतिरूप स्थान होता है । यहाँ कूटके आकार रचना है इससे इसे कूट कहा है। तीन वेदोंको हास्य रतिके युगलसे गुणा करनेपर छह होते हैं । सो इस स्थान में छह भंग होते हैं ।
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