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अहिंसा तत्त्व दर्शन प्राणातिपात विरमण के इस विस्तृत अर्थ को संक्षेप में रखने की आवश्यकता हुई तब 'अहिंसा' शब्द प्रयोग में आया। इसका सम्बन्ध केवल प्राण-वध से न होकर असत्-प्रवृत्ति मात्र से होता है। कल्पना की दृष्टि से भी यह संगत लगता है। पहले-पहल जब दूसरों को न मारने की भावना उत्पन्न हुई, तब उसकी अभिव्यक्ति के लिए 'प्राणातिपात विरति' शब्द ही पर्याप्त था। किन्तु अनुभव जैसे आगे बढ़ा, प्राण-वध के बिना भी प्रवृत्तियों में दोष प्रतीत हुआ, तब एक ऐसे शब्द की आवश्यकता हुई, जो केवल प्राण-वध का अभिव्यंजक न होकर सदोष-प्रवृत्ति मात्र (आत्मा की विभाव परिणित मात्र) का व्यंजक हो। इसी खोज के फलस्वरूप अहिंसा शब्द प्रयोग में आया । इस कल्पना को साहित्य का आधार भी मिल जाता है। १. आचारांग सूत्र में तीन महाव्रत-अहिंसा, सत्य और बहिद्धादान का
उल्लेख मिलता है। २. स्थानांग, उत्तराध्ययन आदि में चार याम-अहिंसा, सत्य, अचौर्य और
वहिद्धादान का उल्लेख मिलता है। चातुर्याम का उल्लेख बौद्ध पिटकों
में भी हुआ है। ३. पांच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का
उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है ।' जैन आगमों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर ने पांच महाव्रतात्मक धर्म का निरूपण किया और शेष बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का।
इस त्रिविधि परम्परा का फलित यह हुआ कि धर्म का मौलिक रूप अहिंसा है। सत्य आदि उसका विस्तार है। इसीलिए आचार्यों ने लिखा है-'अवसेसा तस्स रक्खट्ठा'--शेष व्रत अहिंसा की सुरक्षा के लिए हैं। काव्य की भाषा में 'अहिंसा धान है, सत्य आदि उसकी रक्षा करने वाले बाड़े हैं ।५ 'अहिंसा' जल है और सत्य आदि उसकी रक्षा के लिए सेतु हैं।६ सार यही है कि दूसरे सभी व्रत
१. आचारांग ८।१५ : जामा तिण्णि उदाहिया। २. (क) स्थानांग २६६ : (ख) उत्तराध्ययन २३।२३ :
चाउज्जामो उजो धम्मो, जो इमो पंच सिक्खियो।
देसिओ वद्धमाणेयं, पासेण य महामुणी ॥ ३. दीर्घनिकाय : चातुर्याम संवर संबुत्ती। ४. उत्तराध्यय २१।२२: ।
अहिंससच्चं च अतेणगं च, ततो य बंभं च अपरिग्गहं च ।
पहिवज्जिया पंच महन्वयाई, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ।। ५. हारिभद्रीय अष्टक १६।५ अहिंसाशस्यसंरक्षणे वृत्तिकल्पत्वात सत्यादिवतानाम् ६. योगशास्त्र प्रकाश २ : अहिंसा पयसः पालिभूतान्यन्यव्रतानि यत्..."
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