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अहिंसा तत्त्व दर्शन सारांश यह है कि सत्पुरुषों का खाना, पीना, चलना, उठना, बैठना, आदि जीवन-क्रियाएं, जो अहिंसा-पालन की दृष्टि से सजगतया की जाती हैं, वे सब अहिंसात्मक ही हैं।
७. अहिंसा त्याग में है, भोग में नहीं। अहिंसा आत्मा का गुण है। अहिंसा से हमारा कल्याण इसलिए होता है कि वह हमें हिंसा के पाप से बचाती है और हमारा कल्याण वही है कि हम अपनी असत् प्रवृत्ति के द्वारा किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचाएं और न मारें। हम नहीं मारते हैं, वह अहिंसा है किन्तु हमारी अहिंसात्मक प्रवृत्ति के द्वारा जो जीवित रहते हैं, वह अहिंसा नहीं।
चोर चोरी नहीं करता, वह उसका गुण है किन्तु चोर के चोरी न करने से जो धन सुरक्षित रहता है, वह उसका गुण नहीं है। एक व्यक्ति अपनी आशाओं को सीमित करता है अथवा उपवास करता है, उसे उपवास करने का लाभ होता है परन्तु उसके उपवास करने से जो खाद्य पदार्थ बचे रहते हैं, उनसे उसकी कोई आत्मशुद्धि नहीं होती।
अहिंसा की मर्यादा : आत्म-रक्षा
रक्षा का सामान्य अर्थ है बचाना । इससे सम्बन्ध रखने वाले महत्त्वपूर्ण प्रश्न चार हैं-रक्षा किसकी ? किससे? क्यों? और कैसे ? प्रत्येक प्रश्न के दो विकल्प बनते हैं :
१. रक्षा शरीर की या आत्मा की ? २. रक्षा कष्ट से या हिंसा से?
३. रक्षा जीवन को बनाए रखने के लिए या संयम को बनाए रखने के लिए।
४. रक्षा हिंसात्मक पद्धति से या अहिंसात्मक पद्धति से ?
अहिंसात्मक पद्धति द्वारा संयम को बनाए रखने के लिए, हिंसा से आत्मा को बचाने की वृत्ति का नाम है-आत्म-रक्षा।
हिंसात्मक पद्धति द्वारा जीवन को बनाए रखने के लिए कष्ट से बचाव होता है, वह शरीर-रक्षा है।
वास्तव में शरीर-रक्षा और आत्म-रक्षा- ये दोनों लाक्षणिक शब्द हैं। इनका तात्पर्यार्थ है-हिंसात्मक प्रवृत्ति द्वारा विपदा से बचने का प्रयत्न करना शरीर-. रक्षा और हिंसा से बचने का प्रयत्न करना आत्म-रक्षा।
साध्य जैसे शुद्ध हो, वैसे साधन शुद्ध होने चाहिए । आत्म-रक्षा के लिए साध्य और साधन दोनों अहिंसात्मक होने चाहिए। थोड़े में यूं कहा जा सकता है
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