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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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___अरिहन्त -जिन, सिद्ध, साधु और धर्म के प्रति होने वाला राग प्रशस्त है। दृष्टि-राग, विषय-राग और स्नेह-राग यह त्रिविध राग अप्रशस्त है।' यही बात द्वेष की है। अज्ञान और असंयम के प्रति जो द्वेष होता है, वह प्रशस्त है और मोहोदय के कारण होने वाला द्वेष अप्रशस्त'। इस प्रकार हमें समझना होगा कि किसी भी शब्द को एक ही अर्थ में बांधा नहीं जा सकता। इसलिए शब्द को लेकर खींचतान नहीं होनी चाहिए। अनुकम्पा मात्र मोक्ष का साधन है, यह भी एकान्त है । अनुकम्पा मोक्ष का साधन है ही नहीं-यह भी एकान्त है । हम सत्य को अनेकान्त दृष्टि से पा सकेंगे। उसके अनुसार जो अनुकम्पा राग-भावना रहित है, वह मोक्ष की ओर ले चलती है, इसलिए वह उसका साधन है और रागात्मक अनुकम्पा प्राणी को मोक्ष की ओर नहीं ले जाती, इसलिए वह उसका साधन नहीं है। सार इतना ही है। इससे आगे जो कुछ है, वह सब प्रपंच है।
अहिंसा और दया __ अहिंसा और दया दोनों एक तत्त्व है। दया में हिंसा या हिंसा में दया कभी नहीं हो सकती। यदि हम इनको पृथक् करना चाहें तो निवृत्त्यात्मक अहिंसा को अहिंसा एवं सत्प्रवृत्त्यात्मक अहिंसा को दया कह सकते हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र में अहिंसा के साठ पर्यायवाची नाम बतलाए हैं। उनमें ग्यारहवां नाम 'दया है । टीकाकार मलयगिरि ने उसका अर्थ-दया देह रक्षा'-'देहधारी जीवों की रक्षा करना किया है । यह उचित भी है क्योंकि अहिंसा (प्राणातिपात-विरमण) में जीवरक्षा अपने-आप होती है। मुनि सब जीवों के रक्षक होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि दुनिया में जो जीव मर रहे हैं या मारे जा रहे हैं, उनको वे येन-केनप्रकारेण बचाते हैं। इसका सही अर्थ यही है कि अपनी असत्-प्रवृत्ति से प्राणीमात्र को न कष्ट देते हैं और न मारते हैं। अहिंसा या दया की पूर्णता अपनी असत्-प्रवृत्ति का संयम करने से ही होती है या हो सकती है। कल्पना कीजिए कि दो व्यक्ति पशु-वध करने की तैयारी में हैं, इतने में संयोगवश वहां मुनि चले गए। मुनि ने उनके आत्म-कल्याण की भावना से उन्हें प्रतिबोध दिया। उनमें से एक ने हिंसा छोड़ दी और दूसरे ने मुनि का उपदेश नहीं माना। एक व्यक्ति ने हिंसा छोड़ी उससे मुनि की दया पूर्ण नहीं बनी और दूसरे ने हिंसा नहीं छोड़ी, उससे उनकी दया अपूर्ण नहीं बनी। यदि ऐसे अपूर्ण बन जाए तब फिर कोई भी व्यक्ति पूर्ण दयालु बन ही नहीं सकता। पूर्ण दयालु हुए बिना आत्मा पूर्ण शुद्ध नहीं हो सकती, इसलिए
१. आवश्यक वृत्ति मलयगिरि ६१८ २. पंचास्तिकाय १४४
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