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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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___ इसी प्रकार मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है वैदिक मन्त्रों में जिन याज्ञिक कर्मों का विधान है, वे निःसंदेह त्रेता युग में ही बहुधा फलदायक होते हैं । उन्हें करने से पुण्यलोक की प्राप्ति होती है। इससे मोक्ष की सिद्धि नही होती। क्योंकि ये यज्ञ-रूपी नौकाएं; जिनमें अठारह प्रकार के कर्म जुड़े हुए हैं, संसार-सागर से पार करने के लिए असमर्थ हैं। जो नासमझ लोग इन याज्ञिक कर्मों को कल्याणकारी समझकर इनकी प्रशंसा करते हैं, उन्हें पुनः-पुनः जरा और मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है। बन्धन और बन्धन-मुक्ति का विवेक
लोग कहने लगे—'भीखणजी दया में पाप बतलाते हैं । दान में पाप बतलाते हैं।' दूर-दूर के लोग शब्द-जाल में फंस जाते हैं, पाप शब्द को सुन चौंक उठते हैं।
पाप आखिर वस्तु क्या है, इसे समझिए तो सही। अन्य दर्शन जिसे बन्धन कहते हैं, वह जैन-दर्शन की भाषा में पाप कहलाता है । साधारणतया पाप शब्द का अर्थ समझा जाता है-दुष्ट, निन्दनीय, दुराचार, बुरा और जैन-दर्शन में उसका अर्थ होता है-अशुभ-कर्म-बन्धन। तत्त्व-मीमांसा में हम दूसरे दर्शनों से अधिक दूर नहीं हैं। सिर्फ शब्द की परिभाषा हमें बहुत दूर किए हुए हैं। दूसरे बहुत सारे आचार्य मोह-दया और असंयमी-दान को शुभ बन्ध का हेतु मानते हैं और हम अशुभ बन्ध का। इसे आत्म-शुद्धि का कारण या साधना का मार्ग न दूसरे धर्म मानते हैं और न हम भी। शुभ कर्म बन्ध भी बन्धन है, अशुभ कर्म बन्ध भी बन्धन । एक सोने की बेड़ी है, दूसरी लोहे की। ____ उपाध्याय विनयविजयजी के शब्दों में—'शुभ कर्म सोने की जंजीर है, जो मोक्ष-सुख या आत्म-स्वातन्त्र्य को रोके हुए है।"
आचार्य कुंदकुंद के शब्दों में - 'सोने की और लोहे की दोनों प्रकार की बेड़ियां जैसे मनुष्य के लिए बन्धन हैं, वैसे ही शुभ और अशुभ कर्म-'पुण्य-पाप मनुष्य को बांधने वाले हैं।
__ आचार्य भिक्षु के शब्दों में-'पुण्य संसार की दृष्टि से श्रीकार है, मोक्ष-सुख की तुलना में वह सुख है ही नहीं। पुण्य जन्य सुख पौद्गलिक हैं, क्षणभंगुर हैं, खुजली जैसे मीठे हैं। आत्मिक सुख या मोक्ष-सुख शाश्वत, अविकारी, स्वाभाविक और अपार है।
१. शान्ति सुधारस, ७ २. समयसार १४६ ३. नवसद्भाव पदार्थ निर्णय ३।४६-५०
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