Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003133/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SIECI युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो दशक भी पूरे नहीं हुए हैं। जन-साधारण के लिए तेरापंथ और आचार्य भिक्षु अज्ञेय थे। जो कुछ श्रेय था वह भी भ्रमपूर्ण । आचार्यश्री तुलसी इस स्थिति को बदलने में संलग्न थे। वे आचार्य भिक्षु के दृष्टिकोण को युग की भाव-भाषा में प्रस्तुत कर रहे थे। आचार्यश्री की वाणी में नये तर्क थे, नवीन पद्धति भी और स्पष्टोक्ति का नया प्रकार था। प्रतिपादन की इस पद्धति ने दूसरे लोगों को विस्मय में डाल दिया। वे अश्रुत को सुन रहे हों, वैसा मान रहे थे। कुछ तेरापंथी भी अपने को सम्हाल नहीं सके । इस स्थिति में यह अपेक्षा हुई कि एक दोहरा उपक्रम किया जाए-जो तेरापंथ के अनुयायी नहीं हैं उनके लिए जैनागम सूत्रों के व अन्यान्य विचारकों के माध्यम से आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जाए और जो तेरापंथी हैं उनके लिए आचार्य भिक्षु की वाणी ही प्रस्तुत की जाए। इस भित्ति पर 'अहिंसा तत्त्व दर्शन' के दो खण्ड बन गये। अहिंसा कोरा विचार नहीं है। मूलतः वह आचार है । आचार के साथ उतना न्याय नहीं होता जितना विचार के साथ होता है। विचार से अधिक यदि आचार न हो तो कम-से-कम इतना अवश्य हो कि विचार से कम आचार न हो। तीसरा खण्ड आचार पक्ष से संबंधित है। इस दृष्टि से यह पुस्तक अपने आप में पूर्ण है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DDDDDDDDD अहिंसा GOO दर्शन our युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकः मुनि दुलहराज © आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) पूज्य बड़े दादा जी स्वर्गीय श्री गंगाजल जी डाबड़ीवाला एवं दादा जी __ स्वर्गीय श्री जालूराम जी डाबड़ीवाला की पुण्य स्मृति में श्री राजेन्द्र कुमार डाबड़ीवाला कलकत्ता के सहयोग से प्रकाशित। मूल्य : बारह रुपये / तृतीय संस्करण, १९८८ | प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी, प्रबंधक : आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान)/मुद्रक : पङ्कज प्रिंटर्स, दिल्ली-५३ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी शब्दात्मा में जिनकी अर्थात्मा का चैतन्य है उन आचार्यश्री तुलसी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण की भूमिका लगभग सोलह वर्ष पहले की बात है मैं गोचरी करके आया और प्रथम दर्शन में ही आचार्य श्री ने पूछा-'क्या तुम लिखोगे? लिख सकोगे?' मैंने कहा-'हां ।' मेरी स्वीकारोक्ति में आत्म-विश्वास और आचार्य श्री के आशीर्वाद का संकेत था। आचार्य श्री कुछ संदिग्ध थे। उन्हें मेरी 'लेखनी' के बारे में कोई संदेह नहीं था, सन्देह था भाषा के बारे में। उससे पूर्व आचार्यश्री नहीं जानते थे कि मैंने हिन्दी में कुछ लिखा है या मैं लिख सकता हूं। मैं भी नही जानता था कि मैंने हिन्दी में कुछ लिखा है या मैं लिख सकता हूं। मैं भी नहीं जताना चाहता था कि मैंने हिन्दी में कुछ लिखा है । उस समय तक मैं अधिकांशतः संस्कृत में ही लिखता रहा। मन में संकोच था कि हिन्दी में लिखें उसे आचार्यश्री क्या समझेंगे? __ आचार्यश्री ने कहा, 'हीरालाल रसिकदास कापडिया का पत्र आया है। वे अहिंसा के विषय में एक पुस्तक लिख रहे हैं। उन्होंने आचार्य भिक्षु की व्याख्या के अनुसार एक अहिंसा विषयक निबन्ध मांगा है। हिन्दी में मांगा है। हिन्दी में लिखना है-लिख लोगे ?' मैंने कहा--'हां।' ___आचार्य भिक्षु को पढ़ने का पहला अवसर था। उनको पढ़ने का अर्थ था अहिंसा को पढ़ना। मेरे लिए अहिंसा और आचार्य भिक्षु एकार्थक जैसे बन गए। अब हिन्दी में लिखने का द्वार खुल गया। अहिंसा की गहराई में पैठने की भावना बल पकड़ती गई। निमित्त और अवसर मिलते गए। क्रम आगे बढ़ा। 'धर्म और लोक-व्यवहार,' 'उन्नीसवीं सदी का नया आविष्कार', 'वस्तु-दर्शन', 'दया-दान', 'अहिंसा और उसके विचारक', 'अहिंसा की सही समझ' आदि पुस्तकें और निबन्ध लिखे गए। दो दशक भी पूरे नहीं हुए हैं। जन-साधारण के लिए तेरापंथ और आचार्य भिक्षु अज्ञेय थे। जो कुछ ज्ञेय था वह भी भ्रमपूर्ण । आचार्यश्री तुलसी इस स्थिति को बदलने में संलग्न थे। वे आचार्य भिक्षु के दृष्टिकोण को युग की भाषा में प्रस्तुत कर रहे थे। आचार्यश्री की वाणी में नए तर्क थे, नवीन पद्धति थी और स्पष्टोक्ति का नया प्रकार था। प्रतिपादन की इस पद्धति ने दूसरे लोगों को विस्मय में डाल दिया। वे अश्रुत को सुन रहे हों, वैसा मान रहे थे। कुछ तेरापंथी भी अपने को सम्हाल नहीं सके । इस स्थिति में यह अपेक्षा हुई कि एक दोहरा उपक्रम किया जाए-जो तेरापंथ के अनुयायी नहीं हैं उनके लिए जैनागम सूत्रों व अन्यान्य विचारकों के माध्यम से आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाए और जो तेरापंथी हैं उनके लिए आचार्य भिक्षु की वाणी प्रस्तुत की जाए । इस भित्ति पर 'अहिंसा तत्त्व दर्शन' के दो खण्ड बन गए । अहिंसा कोरा विचार नहीं है । मूलत: वह आचार है । आचार के साथ उतना न्याय नहीं होता जितना विचार के साथ होता है । विचार से अधिक यदि आचार न हो तो कम-से-कम इतना अवश्य हो कि विचार से कम आचार न हो । तीसरा खण्ड आचार-पक्ष से सम्बन्धित है । इस दृष्टि से यह पुस्तक अपने आप में पूर्ण है । पूर्ण का अर्थ यह नहीं कि अपूर्ण नहीं है । अहिंसा जैसे विषय को शब्दों की पूर्णता कब कैसे प्राप्त हो सकती है ? इस ग्रन्थ में ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करना अपेक्षित था पर इसका निर्माण अकल्पित ही हुआ । आचार्यश्री ने एक निबन्ध लिखने को कहा था, निबन्ध कुछ बड़ा हो गया। सहज ही कल्पना आगे बढ़ी और एक ग्रन्थ बन गया। छह वर्ष पहले ही यह सम्पन्न हो गया था। दूसरे- दूसरे कार्यों में व्यस्त रहा, इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करने की इच्छा को अभी भी मैं अपने संजोए हुए हूं । आचार्यश्री की प्रेरणा के प्रति मन में जो कृतज्ञता का भाव है, वह शब्दों की पकड़ से परे है । अहिंसा का समुद्र महान् है । उसमें मिल यह ग्रन्थ- बिन्दु भी अपने आपको अमित पाएगा । २०१७ श्रावण शुक्ला १३ बाल निकेतन, राजसमंद उदयपुर (मेवाड़) द्वितीय संस्करण 1 'अहिंसा तत्त्व दर्शन' का द्वितीय संस्करण सचमुच नया संस्करण है । प्रथम संस्करण में सामग्री का चयन प्रमुख था, गुम्फन गौण । फूलों के चयन में वह सुषमा नहीं होती, जो उनके गुम्फन में होती है । माला में जो क्रमबद्ध विन्यास होता है, वही इस संस्करण में किया गया है । विचारों की क्रमबद्धता और नए गुम्फन के कारण प्रस्तुत संस्करण पाठक को नए ग्रन्थ जैसा ही लगेगा । तेरापंथ भवन, मद्रास - १ १० सितम्बर, १९६८ ( मुनि नथमल ) - युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय संस्करण अहिंसा तत्त्व दर्शन का तृतीय संस्करण ईस्वी सन् १९८७ के परिसमापन में ही आ रहा है । जैसे-जैसे हिंसा बढ़ रही है, वैसे-वैसे अहिंसा के प्रति ध्यान आकर्षित हो रहा है। किन्तु हिंसा की जड़ तक पहुंचे बिना इसका निराकरण संभव नहीं और अहिंसा की गहराइयों में गोता लगाए बिना उसकी संप्राप्ति भी संभव नहीं। प्रस्तुत ग्रन्थ में हिंसा के विभिन्न पहलुओं पर विमर्श किया गया है। वह उसके हृदय को छूने का एक प्रयत्न है। इस विमर्श में प्राचीन आचार्यों के साथ-साथ आचार्य भिक्षु और महात्मा गांधी भी जुड़े हुए हैं। पारिभाषिक शब्दावली के कारण कहीं-कहीं इस ग्रन्थ का विषय अधिक गहरे चिन्तन, मनन और मंथन की अपेक्षा रखता है। आकाश की ऊंचाइयों को छूने के लिए अतल की गहराइयों में जाना अवश्य संप्राप्त है । उसके लिए आवश्यक होगा-एक नया प्रयत्न और नया प्रस्थान । वह समाज, राज्य आदि सभी क्षेत्रों को प्रभावित करने पर भी अपनी सत्ता को स्वतंत्र रखने वाली अहिंसा का स्वरूप समझा सकेगा। अणुवत-विहार नई दिल्ली २५ दिसंबर १९८७ -युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम प्रथम खण्ड अध्याय १ अहिंसा का आदिस्रोत; सामाजिक अस्तित्व और अहिंसा; आत्मा का अस्तित्व और अहिंसा; भागवान् ऋषभ और अहिंसा; प्राणातिपात विरमण और अहिंसा; भगवान पार्श्व; भगवान् महावीर; मुनिधर्म; गृहस्थ-धर्म; अहिंसा के सन्दर्भ में नैतिक निर्देश; सत्य के सन्दर्भ में नैतिक निर्देश; अचौर्य के सम्बन्ध में नैतिक निर्देश; ब्रह्मचर्य के संदर्भ में नैतिक निर्देश; परिग्रह के संदर्भ में नैतिक निर्देश; तीन गुणवत; चार शिक्षाव्रत । अध्याय २ अहिंसा; अहिंसा की परिभाषा; अहिंसा का स्वरूप; अहिंसा की मर्यादा; अहिंसा का व्यावहारिक हेतु; अहिंसा का नैश्चयिक हेतु; आत्मौपम्य-दृष्टि; अहिंसा के दो रूप; नकारात्मक अहिंसा; अहिंसा आत्म-संयम का मार्ग; अहिंसा : अपनी-अपनी दृष्टि में; अहिंसा की समस्या; आत्म-रक्षा; शस्त्र-विवेक । अध्याय ३ हिंसा; हिंसा की परिभाषा; हिंसा के प्रकार; अर्थ-दण्ड; अनर्थ-दण्ड; हिंसा-दण्ड; अकस्मात्-दण्ड; दृष्टि-विपर्यास-दण्ड; हिंसा के निमित्तः मित्र-दोष-निमित्तक; मान-निमित्तक; माया-निमित्तक; लोभ-निमित्तक; त्रस जीवों की हिंसा के निमित्त; स्थावर जीवों की हिंसा के निमित्त; अज्ञानवश हिंसा; स्थावर जीवों की दशा और वेदना; हिंसा सबके लिए समान; हिंसा-विरति का उपदेश; हिंसा के परिणाम का निर्णय; हिंसा का सूक्ष्म विचार; अधिकरण; हिंसा का विवेक और त्याग; हिंसा जीवन की परवशता । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ४ ४६ आध्यात्मिकता का मापदण्ड : विरति; वृत्ति, व्यक्ति और वस्तु का सम्बन्ध; संयम और असंयम की भेदरेखा; अहिंसा और हिंसा के निर्णायक कोण; प्राणातिपात (प्राण-वध); निष्काम-कर्म और अहिंसा। ७० अध्याय ५ सुखवादी दृष्टिकोण; आत्मवादी दृष्टिकोण; अध्यात्मवादी दृष्टिकोण; मूल्यांकन के सापेक्ष दृष्टिकोण। ७८ अध्याय ६ अहिंसा का राजपथ : एक और अखण्ड; स्थावर-जीव-हिंसा; जीवन की अविभक्ति और विभक्ति; सामाजिक-दृष्टि और मोक्ष-दृष्टि; सामाजिक भूमिका और अहिंसा; सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्ति का पृथक्करण क्यों ?; सामाजिक व्यक्ति समाज-विमुख नहीं हो सकता; सामाजिक कर्तव्य का आधार सामाजिकता । अध्याय ७ ८६ प्रवर्तक और निवर्तक धर्म; प्रवर्तक और निवर्तक धर्म का आधार; प्रवर्तक और निवर्तक धर्मः स्वरूप और फलित; प्रवर्तक धर्म की तुलना में; धर्म का तुलनात्मक अध्ययन; लौकिक; वैदिक; आध्यात्मिक; बौद्धप्रवचन में धर्म शब्द; आत्म-धर्म और लोक-धर्म; अध्यात्म-धर्म और लोक-धर्म का पृथक्करण । द्वितीय खण्ड अध्याय १ १०५ आचार्य भिक्षु कौन थे ?; सिंह-पुरुष आचार्य भिक्षु (जीवन-झाँकी); आचार्य भिक्षु का अध्यात्मवादी दृष्टिकोण; शब्द-रचना में मत उलझिए; विवेकशील उत्तर-पद्धति; शब्द-रचना की प्रक्रिया; विश्लेषण का मार्ग। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय २ १२० अहिंसा के फलितार्थ; अहिंसा की मर्यादा : आत्म-रक्षा; अहिंसा का उद्देश्य; राग और द्वेष; तत्त्व : दो रूप; अनुकम्पा : दो रूप; अहिंसा और दया; अहिंसा और दया के उद्गम स्रोत; अहिंसा और दया की एकात्मकता; आत्म-दया और लौकिक दया। अध्याय ३ १४८ प्रेय और श्रेय का विवेक; बन्धन और बन्धन-मुक्ति का विवेक; उठो और उठाओ-जागो और जगाओ; जैन-परम्परा के आरोह-अवरोह; जैन-धर्म का आधार; विचार-परिवर्तन । अध्याय ४ जैन-दर्शन की समग्र दृष्टि और हिंसा-अहिंसा; हिंसा और अहिंसा का विवेक; पुण्य और धर्म का स्वरूप-भेद; सकषाय जीवन : एक और अखण्ड। अध्याय ५ दान-मीमांसा; सुपात्र-कुपात्र; पात्र-कुपात्र-विचार; पुरानी परम्परा; धर्माधर्म के निर्णय की कसौटी विरति है, वेश नहीं; दस प्रकार के दान। तृतीय खण्ड अध्याय १ १८३ अहिंसा की कुछ अपेक्षाएं; अन्याय का प्रतिकार; अध्यात्म के विचारबिन्दु; निष्क्रिय अहिंसा का उपयोग; अहिंसा का समग्र रूप; स्वास्थ्यसाधना; अहिंसा का विवेक; खाद्य-विवेक; अन्तर्मुखी दृष्टि; विकारपरिहार की साधना; विवेक-दर्शन; आत्म-दर्शन; बहिर्व्यापार-वर्जन। २०४ अध्याय २ हृदय-परिवर्तन की समस्या। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का आदिस्रोत ___ अहिंसा की स्थापना का पहला दिन सुन्दर अतीत के गर्भ में है, इसलिए वह हमें ज्ञात नहीं है । अज्ञात के विषय में हम या तो कल्पना कर सकते हैं, या अनुमान । कल्पना और अनुमान अपने-अपने संस्कारों के अनुसार चलते हैं, इसीलिए सारे कल्पनाकार और अनुमाता किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते। मेरी कल्पना और अनुमान सर्वथा अभ्रान्त है, यह कहकर तो मैं अपनी अपूर्णता की ही अभिव्यक्ति कर पाऊंगा, सचाई का वह आधार प्रस्तुत नहीं कर सकूँगा जो सबके लिए समान रूप से मान्य हो । इस विषय में मुझे इतना ही कहना चाहिए कि मेरी कल्पना और अनुमान की आधार-भूमि सुस्थिर है, प्रकम्पमान नहीं है। आज भी अहिंसा की व्याप्ति और स्वीकृति अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन में अधिक है, इसलिए उसका आदिकालीन अस्तित्व जैनदर्शन और धर्म की परम्परा में खोजना ही अधिक वास्तविक होगा। सामाजिक अस्तित्व और अहिंसा सामाजिक अस्तित्व से पहले यौगलिक जीवन की पद्धति प्रचलित थी। पुरुष और स्त्री का सहजीवन था। वे लोग प्राकृतिक सम्पदा के सहारे जीते थे। खाने, रहने और पहनने-ओढ़ने के लिए वृक्षों पर निर्भर थे। यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि वे वृक्षोपजीवी थे। आवश्यकताएं कम थीं, इसलिए प्रवृत्तियां भी कम थीं। जनसंख्या कम थीं। इसलिए उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी सरलता से हो जाती थी। आवश्यकताओं की पूर्ति सहजभाव से हो जाती थी, इसलिए यौगलिक मनुष्यों के सामने संघर्ष की स्थितियां नहीं थीं। वे शांत जीवन जीते थे। क्रोध, अभिमान, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन माया और लोभ उपशान्त थे । संग्रह नहीं था, इसलिए न चोरी थी, न हिंसा और लड़ाइयां। न कोई विधि-विधान था, न शासन और न कोई व्यवस्था। वे मुक्त और स्वावलम्बी जीवन जीते थे। जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ नया मोड़ आ गया। अब प्राकृतिक वनसम्पदा उनकी आवश्यकता-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं रही। संघर्ष और छीनाझपटी के अंकुर पनपने लगे। इस परिस्थिति में सामाजिक जीवन और व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। प्रारम्भ में कुलों और कुलकरों की व्यवस्था हुई। कृषि, व्यापार और सुरक्षा के प्रवर्तन के साथ-साथ आवश्यकताएं और प्रवृत्तियां दोनों बढ़ गई । ___ जहां अनेक आवश्यकताएं और अनेक प्रवृत्तियां होती हैं, वहां संग्रह-वृत्ति का विकास होता है । संग्रह के परिपार्श्व में हिंसा, असत्य और चोरी को भी विकसित होने का अवसर मिलता है। सामाजिक प्रवृत्तियों के विकास के साथ-साथ हिंसा आदि भी विकसित हुए। हिंसा आदि के विकास से नवनिर्मित समाज में अव्यवस्था फैली, उसे कुलकर नहीं सम्हाल सके । उस परिस्थिति में राजतंत्र का उदय हुआ। दण्ड के द्वारा हिंसा आदि की रोकथाम और व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया गया। यह हिंसा और उसके दमन की आदिम कहानी है । सामाजिक अस्तित्व और अहिंसा जिस दिन मनुष्य समाज के रूप में संगठित रहने लगा, आपसी सहयोग, विनिमय तथा व्यवस्था के अनुसार जीवन बिताने लगा, तब उसे सहिष्णु बनने की आवश्यकता हुई। दूसरे मनुष्य को न मारने, सताने और कष्ट न देने की वृत्ति बनी। प्रारम्भ में अपने परिवार के मनुष्यों को न मारने की वृत्ति रही होगी, फिर क्रमशः अपने पड़ोसी को, अपने ग्रामवासी को, अपने राष्ट्रवासी को, होते-होते किसी भी मनुष्य को न मारने की चेतना बन गई। मनुष्य के बाद अपने उपयोगी जानवरों और पक्षियों को भी न मारने की वृत्ति बन गई। अहिंसा की यह भावना सामाजिक जीवन के साथ-साथ ही प्रारम्भ हुई और उसकी उपयोगिता के लिए ही विकसित हुई, इसलिए उसकी मर्यादा बहुत आगे नहीं बढ़ सकी। वह समाज की उपयोगिता तक ही सीमित रही। ___ सामाजिक जीवन, आवश्यकताओं का विकास और प्रवृत्तियों का विकासयह सामाजिक विकास का प्रवाह-क्रम है। इसमें दो विरोधी धाराएँ विकसित होती हैं। जैसे १. हिंसा और अहिंसा, २. सत्य और असत्य, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ३. चौर्य और अचौर्य, ४. स्वार्थ और परार्थ । यदि हिंसा आदि तत्व ही विकसित होते तो सामाजिक जीवन उदित होने से पहले ही अस्त हो जाता और यदि अहिंसा आदि तत्त्व ही विकसित होते तो सामाजिक जीवन गतिशील नहीं बनता। इस तथ्य की स्वीकृति वास्तविकता की अभिव्यक्ति मात्र होगी कि हिंसा और अहिंसा-ये दोनों तत्त्व सामाजिक अस्तित्व को धारण किए हुए हैं। ये दोनों भिन्न दिशागामी हैं. इसलिए इन्हें विरोधी धाराएं कहा जा सकता है किन्तु दोनों एक लक्ष्य (समाज-विकास)-गामी हैं, इस स्तर पर इन्हें अविरोधी धाराएँ भी कहा जा सकता है। आत्मा का अस्तित्व और अहिंसा कोई भी विकास एकपक्षीय धारा में अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता। हर विकास की प्रतिक्रिया होती है और उसके परिणामस्वरूप प्रतिपक्षी तत्त्व का विकास-क्रम प्रारंभ होता है। भौतिक अस्तित्व की प्रतिक्रिया ने मनुष्य को आत्मिक अस्तित्व की ओर गतिमान् बनाया। उसे इस सत्य की दृष्टि प्राप्त हुई कि चेतन का अस्तित्व अचेतन से स्वतंत्र है। यह जगत चेतन और अचेतन-इन दो सत्ताओं का सांसर्गिक अस्तित्व है। उस दिन सामाजिक विकास के सामने आत्मिक विकास और राजतंत्र के सामने आत्म-तंत्र का प्रथम सूत्रपात हुआ। इस सूत्रपात ने अहिंसा आदि का मूल्य-परिवर्तन कर डाला। सामाजिक अस्तित्व के स्तर पर उनका मूल्य सापेक्ष और ससीम था, वह आत्मिक अस्तित्व के स्तर पर निरपेक्ष और निःसीम हो गया। सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा का अर्थ था प्राणातिपात का आंशिक निषेधमनुष्यों तथा मनुष्योपयोगी पशु-पक्षियों को न मारना। और न मारने का लक्ष्य था, सामाजिक सुव्यवस्था का निर्माण और स्थायित्व । आत्मिक क्षेत्र में अहिंसा का अर्थ हुआ प्राणातिपात का सर्वथा निषेध -किसी प्राणी को न मारना, न मरवाना और मारनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करना । प्राणातिपात के सर्वथा निषेध का लक्ष्य था मुक्ति यानी परिपूर्ण आत्मोदय । मुक्ति का दर्शन जैसे-जैसे विकसित हुआ, वैसे-वैसे अहिंसा की मर्यादा भी व्यापक होती चली गई। व्यापक मर्यादा में इस भाषा को अव्याप्त माना गया कि प्राणातिपात ही हिंसा है और अप्राणातिपात ही अहिंसा है। वहाँ हिंसा और अहिंसा की परिभाषा की आधार-भित्ति अविरति और विरति बन गई। अविरति-यानी वह मानसिक ग्रन्थि जो मनुष्य को प्राणातिपात करने में सक्रिय करती है, जब तक उपशान्त या Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन क्षीण नहीं होती तब तक हिंसा का बीज उन्मलित नहीं होता। इसलिए हिंसा का मूल अविरति है, प्राणातिपात उसका परिणाम है । यह व्यक्त हिंसा उस मानसिक ग्रन्थि या अव्यक्त हिंसा के अस्तित्व में ही संभव है। विरति-हिंसा-प्रेरक मानसिक ग्रन्थि की मुक्ति जब हो जाती है, तब हिंसा का बीज उन्मूलित हो जाता है। अहिंसा का मूल विरति है, अप्राणातिपात उसका परिणाम है, यह व्यक्त अहिंसा हिंसा-प्रेरक मानसिक ग्रन्थि की मुक्ति होने पर ही विकासशील बनती है। इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व में अहिंसा के अर्थ, उद्गम और लक्ष्य में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। भगवान् ऋषभ और अहिंसा कर्म-युग के विकास के साथ राजतंत्र की स्थापना हुई, तब पहले राजा ऋषभ बने थे। वे कुलकर नाभि के पुत्र थे। उनकी राजधानी थी अयोध्या। ___ ऋषभ ने प्रजा के निर्वाह और अभ्युदय के लिए प्रवृत्तियों का विकास किया-कृषि, व्यापार और सुरक्षा आदि सामाजिक कर्मों का स्वयं संचालन किया। शिल्प, कला और व्यवसाय के प्रवर्तन का उद्देश्य यही था कि जनता की जीविका चले, भली-भाँति निर्वाह हो, जिससे चोरी और छीना-झपटी की आदत पनप रही है, वह निर्मूल हो जाए। सामाजिक विकास और जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ यदि प्रवृत्तियों का विकास नहीं हुआ होता तो संभव है खाद्याभाव के कारण समाज असामाजिक तत्त्वों का गढ़ बन जाता और फिर हिंसक पशुओं की भांति असामाजिक अवस्था में चला जाता। किन्तु ऋषभ का कर्तव्य-बोध इतना प्रबल था कि उन्होंने नवनिर्मित समाज को उस भयंकर परिस्थिति से बचा लिया। ऋषभ के पुत्र भरत के नाम से हिमवर्ष का नाम भारतवर्ष हुआ था। जैनसाहित्य के अतिरिक्त पुराण भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं। वैदिक साहित्य में भी ऋषभ के बारे में अनेक उल्लेख मिलते हैं। __ ऋषभ उस आदियुग के सूत्रधार हैं, जिसमें सामाजिक जीवन का शिलान्यास हुआ था और संभवतः ऋषभ के हाथों से ही हुआ था। ऋषभ उस आदियुग के सूत्रधार हैं जिसमें सामाजिक कर्तव्य का श्रीगणेश हुआ था और संभवतः ऋषभ के हाथों से ही हुआ था। ऋषभ उस आदियुग के सूत्रधार हैं जिसमें मुक्ति-साधना का आधार-स्तम्भ खड़ा किया गया था और उन्हीं के हाथों से किया गया था। इसीलिए ऋषभ किसी समाज, परम्परा और सम्प्रदाय से आबद्ध नहीं हैं किन्तु सार्वजनिक हैं। युग के आदि-प्रवर्तक के रूप में उनकी सर्वत्र प्रतिष्ठा है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन श्रमण लोग उन्हें प्रथम तीर्थंकर (धर्म-प्रवर्तक) मानते हैं और वैदिक लोग उन्हें आठवां अवतार मानते हैं। ___ आज के इतिहासकार भारतीय सीमा से परे भी उनकी प्रतिष्ठा का दर्शन करते हैं। प्रो० आर० जी० मार्श ने अलासिया (साइप्रस) से प्राप्त ई० पू० बारहवीं शती की रेशेफ मूर्ति पर गवेषणात्मक लेख लिखकर यह प्रमाणित किया है कि रेशेफ भारतीय ऋषभ का ही नाम है ।। ध्वनिशास्त्रीय दृष्टि से भी इसमें सचाई प्रतीत होती है। रेशेफ और ऋषभ के उच्चारण में जो अन्तर है, वह मात्र भौगोलिक स्थितिकृत है, वास्तविक नहीं है। भगवान् ऋषभ के अहिंसा-सिद्धान्त से समूचा विश्व लाभान्वित हुआ, यह कहने के लिए मुझे कोई आधार प्राप्त नहीं है पर उससे विश्व का बहुत बड़ा भाग लाभान्वित हुआ, यह कहना असंगत नहीं है। ऋषभ ने लम्बे समय तक सामाजिक प्रवृत्तियों का संचालन किया। फिर अन्त में राज्य का दायित्व भरत के कन्धों पर डाल मुनि बन गए। सामाजिक दायित्व सँभाला तब ऋषभ ने प्रवृत्तियों का विकास किया और जब साधना के लिए आगे बढ़े तब उस दायित्व से मुक्त हो गए। अहिंसा को पूर्णरूप से स्वीकार करने वालों के दो संघ बने-साधु और साध्वी। उसे यथाशक्ति स्वीकार करने वालों के भी दो संघ बने-श्रावक और श्राविका। इतने प्राचीन काल में अहिंसा के आचरण के लिए संघ की स्थापना का यह पहला वर्णन मिलता है। किन्तु यह प्रागैतिहासिक घटना है। इतिहास के आलोक में भगवान् पार्श्वनाथ को ही यह श्रेय मिलता है। प्राणातिपात विरमण और अहिंसा ऋषभ ने जो साधना अपनायी वह अहिंसा की थी। उन्होंने सर्व प्राणातिपात का विरमण किया। यहीं से अहिंसा का स्रोत बहा । उपदेशलब्ध धर्म का प्रवर्तन हुआ। दूसरों का प्राण नाश करना मनुष्य के हित में नहीं है इस भावना ने प्राणातिपात-विरति का सूत्रपात किया। उसका विकास होते-होते वह चतूरूप बन गई। १-२. पर-प्राण-वध जैसे पाप है, वैसे स्व-प्राण-वध भी पाप है। ३-४. पर के आत्म-गुण का विनाश करना जैसे पाप है, वैसे अपने आत्म-गुण का विनाश करना भी पाप है। 1. R.G. Marse-The historic importance of bronze statue of Reshief, discovered in Syprus (Bulletin of the Deccan College Research Institute, Poona, Vol. XIV, PP. 230-36) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन प्राणातिपात विरमण के इस विस्तृत अर्थ को संक्षेप में रखने की आवश्यकता हुई तब 'अहिंसा' शब्द प्रयोग में आया। इसका सम्बन्ध केवल प्राण-वध से न होकर असत्-प्रवृत्ति मात्र से होता है। कल्पना की दृष्टि से भी यह संगत लगता है। पहले-पहल जब दूसरों को न मारने की भावना उत्पन्न हुई, तब उसकी अभिव्यक्ति के लिए 'प्राणातिपात विरति' शब्द ही पर्याप्त था। किन्तु अनुभव जैसे आगे बढ़ा, प्राण-वध के बिना भी प्रवृत्तियों में दोष प्रतीत हुआ, तब एक ऐसे शब्द की आवश्यकता हुई, जो केवल प्राण-वध का अभिव्यंजक न होकर सदोष-प्रवृत्ति मात्र (आत्मा की विभाव परिणित मात्र) का व्यंजक हो। इसी खोज के फलस्वरूप अहिंसा शब्द प्रयोग में आया । इस कल्पना को साहित्य का आधार भी मिल जाता है। १. आचारांग सूत्र में तीन महाव्रत-अहिंसा, सत्य और बहिद्धादान का उल्लेख मिलता है। २. स्थानांग, उत्तराध्ययन आदि में चार याम-अहिंसा, सत्य, अचौर्य और वहिद्धादान का उल्लेख मिलता है। चातुर्याम का उल्लेख बौद्ध पिटकों में भी हुआ है। ३. पांच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है ।' जैन आगमों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर ने पांच महाव्रतात्मक धर्म का निरूपण किया और शेष बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का। इस त्रिविधि परम्परा का फलित यह हुआ कि धर्म का मौलिक रूप अहिंसा है। सत्य आदि उसका विस्तार है। इसीलिए आचार्यों ने लिखा है-'अवसेसा तस्स रक्खट्ठा'--शेष व्रत अहिंसा की सुरक्षा के लिए हैं। काव्य की भाषा में 'अहिंसा धान है, सत्य आदि उसकी रक्षा करने वाले बाड़े हैं ।५ 'अहिंसा' जल है और सत्य आदि उसकी रक्षा के लिए सेतु हैं।६ सार यही है कि दूसरे सभी व्रत १. आचारांग ८।१५ : जामा तिण्णि उदाहिया। २. (क) स्थानांग २६६ : (ख) उत्तराध्ययन २३।२३ : चाउज्जामो उजो धम्मो, जो इमो पंच सिक्खियो। देसिओ वद्धमाणेयं, पासेण य महामुणी ॥ ३. दीर्घनिकाय : चातुर्याम संवर संबुत्ती। ४. उत्तराध्यय २१।२२: । अहिंससच्चं च अतेणगं च, ततो य बंभं च अपरिग्गहं च । पहिवज्जिया पंच महन्वयाई, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ।। ५. हारिभद्रीय अष्टक १६।५ अहिंसाशस्यसंरक्षणे वृत्तिकल्पत्वात सत्यादिवतानाम् ६. योगशास्त्र प्रकाश २ : अहिंसा पयसः पालिभूतान्यन्यव्रतानि यत्..." Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अहिंसा के ही पहलू हैं। भगवान् अरिष्टनेमि भी इतिहास के छोर के समीपवर्ती हैं । ये कृष्ण के चचेरे भाई थे। ये अपने विवाह के निमित्त होने वाली जीव-जन्तुओं की हिंसा को अपने लिए अनिष्ट मान विवाह ठुकरा देते हैं और मुनि बन जाते हैं। केवलज्ञान पाकर फिर अहिंसा की देशना देते हैं और संघ की स्थापना करते हैं। छान्दोग्य-उपनिषद् (३।१७) के अनुसार घोरआंगिरस ऋषि कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु थे। उन्होंने कृष्ण को आत्म-यज्ञ की शिक्षा दी। उस यज्ञ की दक्षिणा है-तपश्चर्या, दान, ऋजुभाव, अहिंसा और सत्य-वचन। इनके आधार पर तथा विशेष रूप से आत्मयज्ञ, जो अहिंसा का दूसरा नाम है, के आधार पर यह कल्पना होती है कि घोरआंगिरस भगवान् अरिष्टनेमि का ही नाम होगा। घोर शब्द भी जैन मुनियों के आचार और तपस्या का प्रतिरूपक है। भगवान् अरिष्टनेमि के समय में अहिंसा धर्म का प्रचार बहुल मात्रा में हुआ। श्रीकृष्ण सूक्ष्म जीव और वनस्पति जीवों की हिंसा के विचार से चातुर्मास में राज्यसभा का आयोजन भी नहीं करते थे। __ भगवान् अरिष्टनेमि से भगवान् ऋषभ सुदूर अतीत में हुए थे। फिर भी भगवान् ऋषभ से अहिंसा की जो धारा फूटी थी, वह मध्यावधि में कभी-कभी क्षीण होकर भी सूखी नहीं थी। भगवान् पार्श्व भगवान् पार्श्व ऐतिहासिक व्यक्ति माने जाते हैं। उनका समय भगवान् महावीर के २५० वर्ष पूर्व (ई० पू० आठवीं शती) भगवान महावीर भगवान् पार्श्व को पुरुषादानीय विशेषण से विशेषित करते थे। यह उनकी लोकप्रियता का सूचक है। ऋषभ के बाद यदि किसी दूसरे अहिंसा-प्रवर्तक की व्यापक प्रतिष्ठा है तो पार्श्व की है। बंगाल और उड़ीसा की आदिवासी जातियों में भी उनका बहुत समादर रहा है। अध्यापक धर्मानन्द कौशम्बी भगवान् पार्श्वनाथ के चतुर्याम धर्म और संघ के बारे में लिखते हैं - पार्श्व का धर्म बिलकुल सीधा-सादा था। हिंसा, असत्य, स्तेय तथा परिग्रह; इन चार बातों के त्याग करने का वह उपदेश देते थे। इतने प्राचीन काल में अहिंसा को इतना सुसम्बद्ध रूप देने का यह पहला ही उदाहरण है। सिनाई पर्वत पर मोजेस को ईश्वर ने जो दस आज्ञाएँ सुनाई, उनमें "हत्या मत करो", इसका भी समावेश था। पर उन आज्ञाओं को सुनकर मोजेस और Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन उनके अनुयायी पैलेस्टाइन में घुसे और वहां खून की नदियां बहाई । न जाने कितने लोगों को कत्ल किया और न जाने कितनी युवती स्त्रियों को पकड़कर आपस में बांट लिया। इन बातों को अहिंसा कहना हो तो फिर हिंसा किसे कहा जाए ? तात्पर्य यह है कि पार्श्व के पहले पृथ्वी पर सच्ची अहिंसा से भरा हुआ धर्म या तत्त्वज्ञान था ही नहीं। पार्श्व मुनि ने एक और भी बात की। उन्होंने अहिंसा को सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह, इन तीनों नियमों के साथ जकड़ दिया। इस कारण पहले जो अहिंसा ऋषि-मुनियों के आचरण तक ही थी और जनता के व्यवहार में जिसका कोई स्थान न था, वह अब इन नियमों के सम्बन्ध में सामाजिक एवं व्यावहारिक हो गई। पार्श्व मुनि ने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने संघ बनाए। बौद्ध साहित्य से इस बात का पता लगता है कि बुद्ध के समय जो संघ विद्यमान थे, उन सब में जैन साधु और साध्वियों का संघ सबसे बड़ा था। पार्श्व के पहले ब्राह्मणों के बड़े-बड़े समूह थे, पर वे सिर्फ यज्ञ-याग का प्रचार करने के लिए ही थे। यज्ञ-याग का तिरस्कार कर उसका त्याग करके जंगलों में तपस्या करने वालों के भी संघ थे। तपस्या का एक अंग समझकर ही वे अहिंसा धर्म का पालन करते थे, पर समाज में उसका उपदेश नहीं देते थे। वे लोगों से बहुत कम मिलते-जुलते थे।' ___ भगवान् पार्श्वनाथ का संघ भगवान महावीर की संघ-स्थापना के बाद तक चला और क्रमशः वह उसी में सम्मिलित हो गया। भगवान् महावीर भगवान् महावीर का अस्तित्व काल ई० पू० पाँचवीं-छठी शती है। वे अहिंसा के महान् व्याख्याता और प्रयोक्ता थे। उनके धर्म का सर्वस्व अहिंसा था। यद्यपि उस समय के सभी श्रमण और वैदिक तंत्र पार्श्व की अहिंसा से यत्किचित् प्रभावित थे, किन्तु उसका सर्वाधिक स्वीकार और विकास महावीर ने किया था। __ भगवान् महावीर ने व्रतों को व्यापक बना हिंसा और परिग्रह के अल्पीकरण की दिशा दी, फिर भी समाज अहिंसक यानी अहिंसा-प्रधान नहीं बना। उनके संघ में वे ही व्यक्ति सम्मिलित हुए, जो मोक्षार्थी थे। इसलिए वह सामुदायिक अहिंसा का योग आत्म-साधना के स्तर पर ही विकसित हुआ, किन्तु उसका असर जीवन की सब दिशाओं में और सब पर हुआ। निवृत्ति-धर्म भी उपयुक्त मात्रा में समाजमान्य बन गया। इस तथ्य को सामने रखकर ही हम भगवान् महावीर के अहिंसा १. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० ४१ । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन धर्म का मर्म समझ सकते हैं। भगवान् महावीर का धर्म-तंत्र दो भागों में विभक्त था : १. मुनि-धर्म, २. गृहस्थ-धर्म। मुनि-धर्म (१) अहिंसा-प्राणातिपात की सर्वथा विरति । (२) सत्य-मृषावाद की सर्वथा विरति । (३) अचौर्य-अदत्तादान की सर्वथा विरति । (४) ब्रह्मचर्य-मैथुन की सर्वथा विरति । (५) अपरिग्रह की सर्वथा विरति । गृहस्थ-धर्म (१) अहिंसा-अणुव्रत -प्राणातिपात की मर्यादित विरति । (२) सत्य-अणुव्रत-मृषावाद की मर्यादित विरति । (३) अचौर्य-अणुव्रत-चोरी की मर्यादित विरति । (४) स्वदार-संतोष-अब्रह्मचर्य का नियमन । (५) इच्छा-परिमाण-संग्रह की मर्यादा। भगवान् महावीर ने गृहस्थ-धर्म को नैतिकता की भित्ति पर अवस्थित किया था। व्रतों के अतिचारों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के नैतिक निर्देश ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान् हैं। उन्होंने गृहस्थ-धर्म की पृष्ठभूमि में जो नैतिक निर्देश दिए, उनकी तालिका निम्न प्रकार है। अहिंसा के संदर्भ में नैतिक निर्देश धार्मिक गृहस्थ निम्न निर्दिष्ट आचरण न करे : (१) बन्ध-अपने आश्रित पशुओं तथा मनुष्यों को बन्धन में डालना। (२) वध-अपने आश्रित पशुओं तथा मनुष्यों को पीटना। (३) छविच्छेद-अपने आश्रित पशुओं तथा मनुष्यों के हाथ-पैर आदि अंगों को काटना। (४) अतिभार-पशुओं पर अधिक बोझ लादना, नौकरों से अतिकाम लेना। (५) भक्तपान-विच्छेद-अपने आश्रित पशुओं को समय पर भोजन-पानी न देना, आश्रित मनुष्यों को समय पर भोजन-पानी या Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आजीविका न देना । सत्य के संदर्भ में नैतिक निर्देश धार्मिक गृहस्थ निम्न निर्दिष्ट आचरण न करे : (क) कन्यालीक - वैवाहिक सम्बन्ध में झूठी बात कहना । (ख) गवालीक - पशु - विक्रय के सम्बन्ध में झूठ बोलना । (ग) भूम्यलीक - भूमि के सम्बन्ध में झूठ बोलना । (घ) स्थापन मृषा - धरोहर या गिरवी रखी हुई वस्तु के सम्बन्ध में झूठ बोलना । (च) कूटसाक्षी - झूठी साक्षी देना । अहिंसा तत्त्व दर्शन (१) सहसाभ्याख्यान- -झूठा आरोप लगाना । (२) रहस्याभ्याख्यान —- रहस्यपूर्ण बात का उद्घाटन कर आरोप लगाना । (३) स्वदार - मंत्र - भेद - अपने प्रियजनों के रहस्य का प्रकाशन करना । (४) मिथ्योपदेश - झूठी बातें समझाना | (५) कूटलेखक्रिया – झूठी लिखा-पढ़ी करना, खोटा सिक्का चलाना । अचौर्य के सम्बन्ध में नैतिक निर्देश धार्मिक 'गृहस्थ निम्न निर्दिष्ट आचरण न करे : (१) स्तेनाहृत – चोरी की वस्तु खरीदना । (२) तस्कर - प्रयोग — चोरी कराने का धंधा करना । (३) विरुद्ध राज्यातिक्रम- - आयात-निर्यात सम्बन्धी राजकीय नियमों का अतिक्रमण करना । (४) कूटतुला - कूटमान - तौल - माप में अप्रामाणिकता बरतना । (५) तत्प्रतिरूपकव्यवहार - असली वस्तु दिखाकर नकली वस्तु देना, मिला वट करना । ब्रह्मचर्य के संदर्भ में नैतिक निर्देश धार्मिक गृहस्थ निम्न निर्दिष्ट आचरण न करे : (१) इत्वरिकपरिगृहीतागमन - अल्पकाल के लिए गृहीत स्त्री के साथ सहवास करना । (२) अपरिगृहीतागमन - वैश्या या पर- स्त्री के साथ सहवास करना । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन (३) अनंगक्रीडा - अप्राकृतिक मैथुन करना । अपरिग्रह के संदर्भ में नैतिक निर्देश धार्मिक गृहस्थ निम्न निर्दिष्ट आचरण न करे : (१) भूमि की मर्यादा का अतिक्रमण करना । (२) सोने-चाँदी की मर्यादा का अतिक्रमण करना । (३) धान्य की मर्यादा का अतिक्रमण करना । शेष व्रतों के अतिचारों में भी कुछ नैतिक निर्देश प्राप्त होते हैं। ऊंची, नीची और तिरछी दिशा में जाने की मर्यादा का अतिक्रमण करना दिग्वत के अतिचार हैं । भोगवादी, विस्तारवादी व निरंकुश साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के नियंत्रण के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है । हिंस्रक प्रदान - - दूसरों को शस्त्रास्त्र देना । संयुक्ताधिकरण - बिना प्रयोजन शस्त्रास्त्रों को जोड़कर रखना — अनर्थ-दण्ड के अतिचार हैं । शेष व्रतों में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं । तीन गुणवत १. अनर्थ - दण्ड - विरमण | २. दिग्वत - मर्यादित दिशा से आगे जाकर हिंसादि करने की विरति । ३. उपभोग - परिभोग-परिमाण | १३. चार शिक्षाव्रत १. सामायिक - एक मुहूर्त्त तक सावद्य प्रवृत्ति की विरति - आत्मोपासना । २. देशावकाशिक - हिंसा आदि की अमुक समय तक विशिष्ट विरति । ३. पौषधोपवास – एक दिन-रात तक सावद्य प्रवृत्ति की विरति । ४. अतिथि संविभाग - संयमी को निर्दोष भिक्षा दान | यह आगार सामायिक धर्म है । महाव्रतों में सर्व हिंसा की विरति है, इसलिए उनमें अहिंसा का व्यापक रूप हो, इसमें विशेष बात नहीं । गृहस्थ के व्रतों में हिंसा की सर्वथा विरति नहीं है और यह हो भी नहीं सकती । फिर भी उनमें अहिंसा का जीवनव्यापी प्रयोग दिखाया गया है; खान-पान, रहन-सहन, भोग-उपभोग आदि प्रत्येक प्रवृत्ति में हिंसा को नियंत्रित करने की दिशा दी गई है । आगार सामायिक धर्म को पालने वाले गृहस्थ का जीवन अल्प - हिंसा और Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अल्प-परिग्रह वाला रह जाता है। गहस्थ-जीवन सर्वथा अहिंसा और अपरिग्रह वाला तो नहीं हो सकता। शेष विकल्प दो रहते हैं : १. महाहिंसा और महापरिग्रह वाला जीवन । अथवा २. अल्पहिंसा और अल्पपरिग्रह वाला जीवन । महा-हिंसा और महा-परिग्रहात्मक जीवन वाला व्यक्ति धर्म को नहीं पा सकता । इसलिए वैसा जीवन धर्म के लिए अयोग्य है । गृहस्थ का वही जीवन श्रेष्ठ है जिसमें हिंसा और परिग्रह का अल्पीकरण हो। इस भावना को दो प्रकार से रखा जाता है : पहला प्रकार-कम-से-कम हिंसा ही सर्वोच्च जीवन है। इस प्रसंग में काका कालेलकर की एक घटना उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा है.---"एक समय मैं फ्रेंच लेखक पाल रिशार के साथ उसका ‘स्कर्ज ऑफ क्राइस्ट' पढ़ रहा था। उसमें उसने बाइबिल के अनेक वाक्य और कुछ घटनाएँ लेकर अनेक शब्दों और अर्थ की क्रीड़ा करके अपना तत्त्वज्ञान मोहक ढंग से रखा है। वह लेखक विद्वान् तथा चतुर है, इसलिए वह हर एक बात में चमत्कृति ला सकता है । पढ़ते-पढ़ते एक ऐसा वाक्य आया कि Living is Killing. जीने का मतलब है-मारना । मैंने तुरन्त ही उसे कहा-This is half the truth because it is a mere statement of a universal fact. The fact of life is not to give you the universal law of life. You must therefore here add Killing the least is living the best.' यह तो अर्द्ध-सत्य हुआ क्योंकि एक सार्वत्रिक सिद्धान्त का यह केवल एक विधान है । जीवन के सिद्धान्त मात्र से जीवन का सार्वत्रिक धर्म निकाला नहीं जा सकता। इसलिए आपको यहाँ इतना बढ़ा देना चाहिए कि कम-से-कम मारना ही उत्तम से उत्तम जीना है । पाल महाशय ने यह सुधार तुरन्त स्वीकार कर लिया और उसका फ्रेंच करके अपनी पुस्तक में लिख लिया। -जीना यानी मारना, यह प्राकृतिक नियम है, लेकिन वह मानव-जीवन का धर्म नहीं हो सकता। जीवन-धर्म कहता है कि 'कम से कम मारना' यह उत्तम से उत्तम प्रकार से जीने के बराबर है। न मारने की ओर, सबको बचाने की ओर, सबको अभय-दान देने की ओर हृदय को उत्कटता से मोड़ना जीवन का रहस्य है।' दूसरा प्रकार - हिंसा की अधिक से अधिक विरति ही श्रेष्ठ जीवन है अथवा हिंसा की अधिक से अधिक कमी ही श्रेष्ठ जीवन है। दोनों भावनाएं समान हैं। भेद है-शब्द-रचना का। हिंसा कम-से-कम हो-इसमें हिंसा की कमी की भावना होते हुए भी शब्द-रचना हिंसा के अनुमोदन की है। अनिवार्य हिंसा को १. जैन भारती, अंक ४४, पृ० ८६६ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १५ जीवन की अशक्यता मानना वस्तुस्थिति है किन्तु अहिंसा के अनुरूप शब्द-रचना वही हो सकती है, जिसमें उसका समर्थन हो। हिंसा की जो कमी है, वह जीवन की श्रेष्ठता है। हिंसा थोड़ी मात्रा में भी जो होती है, वह जीवन की श्रेष्ठता नहीं है। तात्पर्य यह है कि हिंसा का अल्पीकरण श्रेष्ठ है, अल्प-हिंसा श्रेष्ठ नहीं। वह जीवन की आवश्यकता है किन्तु उसका धर्म नहीं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा वीर पुरुष अहिंसा के राजपथ पर चल पड़े हैं। जो धर्म मोक्ष के अनुकूल है, उसे अनुधर्म कहते हैं; वह धर्म अहिंसा है । कष्टों के सहन को भी वीतराग ने धर्म कहा है। किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए-यही ज्ञानियों के ज्ञान-वचनों का सार है। अहिंसा, समता--सब जीवों के प्रति आत्मवत्-भाव-इसे ही शाश्वत धर्म समझो।' अहिंसा की परिभाषा अहिंसा को भगवान् ने जीवों के लिए कल्याणकारी देखा है। सर्व जीवों के प्रति संयमपूर्ण जीवन-व्यवहार ही अहिंसा है ।। अहिंसा का स्वरूप पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये सब अलग-अलग जीव हैं । पृथ्वी आदि हरेक में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व के धारक अलग-अलग जीव हैं। ___ 'उपरोक्त स्थावर जीवों के उपरान्त त्रस प्राणी हैं, जिनमें चलने-फिरने का सामर्थ्य होता है। ये ही जीवों के छह वर्ग हैं। इनके सिवा दुनिया में और जीव नहीं हैं।' १. आचारांग ११११३६ : पणया वीरा महावीहिं । २. सूत्रकृतांग १।२।१।१४ : अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो । ३. वही, १११।४।१० : एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसई किंचण । अहिंसा समयं चेव, एयावन्तं वियाणिया ।। ४. दशवैकालिक ६।६ : अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो। ५. सूत्रकृतांग १११११५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन 'जगत् में कई जीव त्रस हैं और कई जीव स्थावर । एक पर्याय में होना या दूसरी पर्याय में होना कर्मों की विचित्रता है । अपनी-अपनी कमाई है. जिससे जीव त्रस या स्थावर होते हैं।' ____'एक ही जीव, जो एक जन्म में त्रस होता है, दूसरे जन्म में स्थावर हो सकता है । त्रस हों या स्थावर, सब जीवों को दु:ख अप्रिय होता है-यह समझकर मुमुक्षु सब जीवों के प्रति अहिंसा-भाव रखें।" अहिंसा की मर्यादा मनसा, वाचा और कर्मणा जो स्वयं जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या जो जीव-हिंसा का अनुमोदन करता है वह (प्रतिहिंसा को जगाता हुआ) वैर की वृद्धि करता है। ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् तीनों लोक में जो भी त्रस और स्थावर जीव हैं, उन सबके प्राणातिपात से विरत होना चाहिए। सब जीवों के प्रति वैर की शान्ति को ही निर्वाण कहा है। ___मन, वचन और काया-इनमें से किसी एक के द्वारा किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है । ऐसे जीवन का निरन्तर धारण ही अहिंसा है। अहिंसा का व्यावहारिक हेतु सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए निर्ग्रन्थ प्राणीवध का वर्जन करते हैं । सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है. सुख अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है। वध सबको अप्रिय है, जीना सबको प्रिय है। सब जीव लम्बे जीने की कामना १. सूत्रकृतांग, ११११८ २. वही १।१।१।३ : सयं तिवायए पाणे, अदुवन्नेहिं घायए। हणन्तं वाणुजाणाइ, वेरं वड्ढइ अप्पणो । ३. वही, ११११११३ : उड्ढे अहे च तिरियं, जे केइ तसथावरा। सव्वत्थ विरई कुज्जा, संति निव्वाणमाहियं । ४. दशवेकालिक ८।३ : तेसिं अच्छणजोएण, निच्चं होयव्वयं सिया। मणसा कायवक्केण, एवं हवइ संजए । ५. वही, ६।१० : सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविउं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं, णिग्गंथा वज्जयंति णं ।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन करते हैं। सभी को जीवन प्रिय लगता है।' अहिंसा का नैश्चयिक हेतु ___ अज्ञानी मनुष्य इन पृथ्वी आदि जीवों के प्रति दुर्व्यवहार करते हुए पाप-कर्म का उपार्जन करते हैं। जो व्यक्ति हरी वनस्पति का छेदन करता है, वह अपनी आत्मा को दण्ड देने वाला है । वह दूसरे प्राणियों का हनन करके परमार्थतः अपनी आत्मा का ही हनन करता है। आत्मौपम्य-दृष्टि __ सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय की वृत्ति प्राणी मात्र में तुल्य होती है। अहिंसा को भावना को समझने और बलवान् बनाने के लिए यह आत्म-तुला का सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है । इसीलिए भगवान महावीर ने बताया है—'छह जीव-निकाय को अपनी आत्मा के समान समझो।" ___ 'प्राणी-मात्र को आत्म-तुल्य समझो। 'हे पुरुष ! जिसे तू मारने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही सुख-दुःख का अनुभव करने वाला प्राणी है; जिस पर हुकूमत करने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है; जिसे दुःख देने का विचार करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है। जिसे अपने वश में करने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे-जैसा ही प्राणी है; जिसके प्राण लेने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे-जैसा ही प्राणी है।' 'सत्पुरुष इसी तरह विवेक रखता हुआ जीवन बिताता है, न किसी को मारता है, और न किसी की घात करता है।' ____ 'जो हिंसा करता है उसका फल पीछे भोगना पड़ता है । अतः किसी भी प्राणी की हिंसा करने की कामना न करो।' ___ 'जैसे मुझे कोई बेंत, हड्डी, कंकर, ठीकरी आदि से मारे, पीटे, ताड़ित करे, तर्जन करे, दुःख दे, व्याकुल करे, भयभीत करे, प्राण-हरण करे तो मुझे दुःख होता १. आचारांग १।२।६३,६४ : सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला, ____ अप्पियवहा, पियजीविणो जीविउकामा। सव्वेसि जीवियं पियं । २. सूत्रकृतांग श२।६३,६४ ३. वही, ११७६ ४. दशवकालिक १०१५ : अत्तसमे मन्निज्ज छप्पिकाये । ५. सूत्रकृतांग १।१०।३ : आय तुले पयासु.. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन है। जैसे-मृत्यु से लेकर रोम उखाड़ने तक से मुझे दुःख और भय होता है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्वों को होता है-यह सोचकर किसी भी प्राणी, भूत, जीव व सत्व को नहीं मारना चाहिए, उस पर हुकूमत नहीं करनी चाहिए। यह धर्म ध्रव और शाश्वत है।' ___आत्म-तुला के सिद्धान्त को प्रधान नहीं मानते, उन्हें समझाने के लिए भगवान् महावीर ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है - मान लीजिए कि किसी जगह कुछ प्रावादुक एकत्रित होकर मण्डलाकार बैठे हों, वहां कोई सम्यग्दृष्टि पुरुष अग्नि के अंगारों से भरी हुई एक पात्री को संडासी से पकड़कर लाए और कहे कि 'हे प्रावादुको! आप लोग अंगार से भरी हुई इस पात्री को अपने-अपने हाथों में थोड़ी देर तक रखें। आप संडासी की सहायता न लें तथा एक-दूसरे की सहायता न करें।' यह सुनकर वे प्रावादुक उस पात्री को हाथ में लेने के लिए हाथ फैलाकर भी उसे अंगारों से पूर्ण देखकर हाथ जल जाने के भय से अवश्य ही अपने हाथों को हटा लेंगे। उस समय वह सम्यग्दृष्टि उनसे पूछे कि 'आप लोग अपने हाथों को क्यों हटा रहे हैं ?' तो वे वहीं उत्तर देंगे कि हाथ जल जाने के भय से हम हाथ हटा रहे हैं। फिर सम्यग्दृष्टि उनसे पूछे कि 'हाथ जल जाने से क्या होगा?' वे उत्तर देंगे कि दुःख होगा। उस समय सम्यग्दृष्टि उनसे यह कहे कि जैसे आप दुःख से भय करते हैं, इसी तरह सभी प्राणी दुःख से डरते हैं। जैसे आपको दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है, इसी तरह दूसरे प्राणियों को भी दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है। इसलिए किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिए। अहिंसा के दो रूप ___ अहिंसा का शब्दानुसारी अर्थ-हिंसा न करना। न+-हिंसा-इन दो शब्दों से अहिंसा शब्द बना है। इसके पारिभाषिक अर्थ निषेधात्मक एवं विध्यात्मकदोनों हैं। राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राण-वध न करना या प्रवृत्ति मात्र का निरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है। सत्-प्रवृत्ति करना, स्वाध्याय, अध्यात्मसेवा, उपदेश, ज्ञान-चर्चा आदि-आदि आत्महितकारी क्रिया करना विध्यात्मक अहिंसा है। संपनी के द्वारा अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाता है, वह भी निषेधात्मक अहिंसा है यानी हिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है, विध्यात्मक अहिंसा में सत्-क्रियात्मक सक्रियता होती है। यह स्थूल दृष्टि का निर्णय है। गहराई में पहुंचने पर बात कुछ और है। निषेध में १. आचारांग ११५।१०१-१०३ २. सूत्रकृतांग २।२।४१ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अहिंसा तत्व दर्शन प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निषेध होता ही है। निषेधात्मक अहिंसा में सत्-प्रवृत्ति और सत्प्रवृत्त्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होता है। हिंसा न करने वाला यदि आन्तरिक प्रवृत्तियों को शुद्ध न करे तो वह अहिंसा नहीं होगी। इसलिए निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति की अपेक्षा रहती है, वह बाह्य हो चाहे आन्तरिक, स्थूल हो चाहे सूक्ष्म । सत्-प्रवृत्त्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होना आवश्यक है। इसके बिना कोई प्रवृत्ति सत् या अहिंसा नहीं हो सकती, यह निश्चय-दृष्टि की बात है। व्यवहार में निषेधात्मक अहिंसा को निष्क्रिय अहिंसा और विध्यात्मक अहिंसा को सक्रिय अहिंसा कहा जाता है। प्रो० तान-युन शान ने अहिंसा के दो रूपों की चर्चा करते हुए लिखा है'अहिंसा भारतीय एवं चीनी संस्कृति का सामान्यतया प्रमुख अंग है। भारत में निषेधात्मक अहिंसा की व्याख्या प्रचलित है और चीन ने विधि रूप।' गांधीजी ने भारतीय दृष्टिकोण का स्पष्टीकरण करते हुए कहा था-'इस देह में जीवन-धारण करने में कुछ न कुछ हिंसा होती है। अतः श्रेष्ठ धर्म की परिभाषा में हिंसा न करना रूप निषेधात्मक अहिंसा की व्याख्या की गई है। ___ आत्म-तुला के मर्म को समझे बिना हिंसा-वृत्ति नहीं छूटती। इसीलिए अहिंसा में मैत्री-रूप विधि और अमैत्री-त्याग रूप निषेध-दोनों समाए हुए हैं। ___ सब जीवों को अपने समान समझो और किसी को हानि मत पहुंचाओ-इन शब्दों में अहिंसा का द्वयर्थी सिद्धान्त--विधेयात्मक और निषेधात्मक सन्निहित है। विधेयात्मक में एकता का संदेश है—'सब में अपने आपको देखो।' निषेधात्मक उससे उत्पन्न होता है-'किसी को भी हानि मत पहुंचाओ।' सब में अपने आपको देखने का अर्थ है-सबको हानि पहुंचाने से बचना। यह हानि-रहितता सबमें एक की कल्पना से विकसित होती है। नकारात्मक अहिंसा स्थानांग-सूत्र में संयम की परिभाषा बताते हए लिखा है-सूख का व्यपरोपण या वियोग न करना और दुःख का संयोग न करना-संयम है।' यह निवृत्ति-रूप अहिंसा है। आचारांग-सूत्र में धर्म की परिभाषा बताते हुए लिखा है-सब प्राणियों को १. अमृतबाजार पत्रिका, पृ० १८, दिनांक ३१ अक्टूबर १९४४ । २. हिन्दुस्तान, दिनांक २८ मार्च, १९५३, पृ० ४० : भगवान् महावीर-उनका जीवन और संदेश। ३. स्थानांग ४।४। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन मत मारो, उन पर अनुशासन मत करो, उनको अधीन मत करो, दास-दासी की तरह पराधीन बनाकर मत रखो, परिताप मत दो, प्राण-वियोग मत करो। यह धर्म ध्र व, नित्य और शाश्वत है। खेदज्ञ तीर्थंकरों ने इसका उपदेश किया है। यह भी निवृत्ति रूप अहिंसा है। गणधर गौतम ने भगवान् से पूछा-भगवन् ! जीवों के सात-वेदनीय कर्म का बन्ध कैसे होता है ? भगवान ने कहा-प्राण, भूत, जीव और सत्व की अनुकम्पा करने से, दुःख न देने से, शोक उपजाने से, खेद उत्पन्न नहीं करने से, वेदना न देने से, न मारने से, परिताप न देने से जीव सात वेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं। अनुकम्पा से यानी सन्ताप आदि न देने से सुख-वेदनीय कर्म का बन्ध होता है। यही तत्त्व इसके पूर्ववर्ती पाठ में मिलता है। गौतम ने पूछा-भगवन् ! जीवों के अकर्कश वेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? भगवान ने कहा-प्राणातिपात-विरति यावत् परिग्रह की विरति से क्रोधत्याग यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के त्याग से जीव अकर्कश वेदनीय कर्म का बंध करते हैं। भगवान् महावीर ने प्रवृत्ति रूप अहिंसा का भी विधान किया है, किन्तु सब प्रवृत्ति अहिंसा नहीं होती। चारित्र में जो प्रवृत्ति है, वही अहिंसा है। अहिंसा के क्षेत्र में आत्मलक्षी प्रवृत्ति का विधान है और संसारलक्षी या पर-पदार्थ-लक्षी प्रवृत्ति का निषेध । ये दोनों क्रमशः विधि-रूप अहिंसा और निषेधरूप अहिंसा बनते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-पमिति-सत्-व्यापार, यह प्रवृत्ति-धर्म है और गुप्ति-असत्-व्यापार का नियंत्रण, यह निवृत्ति धर्म है। 'सर्व प्राणियों के साथ मैत्री रखो'५-यह भी प्रवृत्ति रूप अहिंसा का विधान करता है। वस्तु-तत्त्व को जानने वाले व्यक्ति प्राणी मात्र को आत्म-तुल्य समझकर पीड़ित नहीं करते । वे समझते हैं-जैसे कोई दुष्ट पुरुष मुझे मारता है, गाली देता है, बलात्कार से दास-दासी बना अपनी आज्ञा का पालन कराता है, तब मैं जैसा दु:ख अनुभव करता हूं, वैसे ही दूसरे प्राणी भी मारने-पीटने, गाली देने, बलात्कार से दास-दासी बना आज्ञा-पालन करने से दुःख अनुभव करते होंगे। इसलिए किसी १. आचांरांग १।४।१,२ : सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सम्वे सत्ता न हन्तव्वा, न अज्जावेयव्वा न परितव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे धुए, नियए, सासए.. २. भगवती ७६ ३. भगवती ७६ ४. उत्तयध्ययन २४।२६ ५. उत्तराध्ययन ६।२ : मेत्ति भएसु कप्पए । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन भी प्राणी को मारना, कष्ट देना, बलात् आज्ञा मनवाना उचित नहीं।' अहिंसा आत्म-संयम का मार्ग इस प्रकार आत्मार्थी आत्मा का कल्याण करने वाला. आत्मा की रक्षा करने वाला, आत्मा की शुभ प्रवृत्ति करने वाला, संयम के आचरण में पराक्रम प्रकट करने वाला, आत्मा को संसाराग्नि से बचाने वाला, आत्मा पर दया करने वाला, आत्मा का उद्धार करने वाला साधु अपनी आत्मा को सब पापों से निवृत्त करे। अहिंसा : अपनी-अपनी दष्टि में ___अहिंसा की परिभाषाएं विभिन्न विचारकों द्वारा विभिन्न भाषाओं में की गई हैं, तब भी उनका तत्त्व एक है। भगवान महावीर ने कहा है : ___ 'अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो।' -प्राणी मात्र के प्रति जो संयम है, वही (पूर्ण) अहिंसा है। सुत्तनिपात धम्मिक सुत्त में महात्मा बुद्ध ने कहा है पाणे न हाने न च घातयेय न चानुमन्या हनतं परेसं । सव्वेसु भूतेसु निधाय दंडं, ये थावरा ये च तसंति लोके ।। -बस या स्थावर जीवों को न मारे, न मरावे और न मारने वाले का अनुमोदन करे। आयुर्वेद में कहा है : _ 'विश्वस्याहं मित्रस्य चक्षुषा पश्यामि' -मैं समूचे संसार को मित्र की दृष्टि से देखू । 'तत्र अहिंसा सर्वदा सर्वभूतेष्वनभिद्रोहः' -पातंजल योग के भाष्यकार ने बताया है कि सर्व प्रकार से, सर्वकाल में, सर्व प्राणियों के साथ अभिद्रोह न करना, उसका नाम अहिंसा है। 'गीता' में अहिंसा की व्याख्या करते हुए लिखा है : समं पश्यन् हि सर्वत्र, समवस्थितमीश्वरम् । न हिंस्त्यात्मनात्मानं, ततो याति परां गतिम् ।। -ज्ञानी पुरुष ईश्वर को सर्वत्र समान रूप से व्यापक हुआ देखकर-भरा १. सूत्रकृतांग २।१११५ २. वही, २।२।४२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन हुआ देखकर हिंसा की प्रवृत्ति नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि हिंसा करना खुद अपनी ही घात करने के बराबर है और इस प्रकार हृदय के शुद्ध और पूर्णरूप से विकसित होने पर वह उत्तम गति को प्राप्त होता है, यानी उसे इस विश्व के बृहत्तम तत्त्व ब्रह्म की प्राप्ति होती है। कर्मणा मनसा वाचा, सर्वभूतेषु सर्वदा। अक्लेशजननं प्रोक्ता, अहिंसा परमर्षिभिः ।। -मन, वचन तथा कर्म से सर्वदा किसी भी प्राणी को किसी भी तरह का कष्ट नहीं पहुंचाना-इसी को महर्षियों ने अहिंसा कहा है। महात्माजी ने अहिंसा की व्याख्या करते हुए लिखा है : 'अहिंसा के माने सूक्ष्म जन्तुओं से लेकर मनुष्य तक सभी जीवों के प्रति समभाव।" पूर्ण अहिंसा सम्पूर्ण जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का सम्पूर्ण अभाव है। इसलिए वह मानवेतर प्राणियों, यहां तक कि विषधर कीड़ों और हिंसक जानवरों का भी आलिंगन करती है। अहिंसा की समस्या __ अहिंसा के पुराने और नए सभी आचार्यों ने यही बताया है कि कृत, कारित, अनुमोदित-मनसा, वाचा, कर्मणा-प्राणीमात्र को कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है। किसी भी आचार्य ने अपनी परिभाषा में सूक्ष्म जीवों की हिंसा की छूट नहीं दी है और न उनकी हिंसा को अहिंसा बताया है। इस निर्णय के अनन्तर ही जटिल समस्या यह रहती है कि ऐसी अहिंसा को पालता हुआ मानव जीवित कैसे रह सके ? इसके समाधान में विभिन्न विचारधाराएं चल पड़ी। जैनाचार्यों ने इसका उत्तर यह दिया कि पूर्ण संयम किए बिना कोई भी मानव पूर्ण अहिंसक नहीं बन सकता । पूर्ण संयमी के सामने मुख्य प्रश्न अहिंसा है, जीवन-निर्वाह का प्रश्न उसके लिए गौण होता है। उसे शरीर से मोह नहीं होता। शरीर उसे तब तक मान्य है, जब तक कि वह अहिंसा का साधन रहे, अन्यथा उसे शरीरत्याग करने में कोई भी संकोच नहीं होता। जैसाकि आचारांग में बताया है: 'इह संति-गया दविया, णावखंति जीविऊं' -संयमी पुरुष अन्य प्राणियों की हिंसा के द्वारा अपना जीवन चलाना नहीं १. मंगलप्रभात, पृ०८१। २. गांधीवाणी, पृ० ३७ । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ चाहते । अपूर्ण संयमी पूर्ण हिंसा से नहीं बच सकता । अतः उसके लिए हिंसा के दो भेद किए गए हैं : (१) अर्थ - हिंसा | (२) अनर्थ - अहिंसा | अहिसा तत्त्व दर्शन अर्थ-हिंसा यानी जीवन-निर्वाह के लिए होने वाली अनिवार्य हिंसा । गृहस्थ इसको न त्याग सके तो अनर्थ हिंसा को तो अवश्य त्यागे पर यह नहीं कि अपनी दुर्बलता से हिंसा करनी पड़े और उसे अहिंसा या धर्म समझे । मश्रूवाला ने अहिंसा के विशुद्ध और व्यवहार्य - ये दो भेद कर व्यवहार्य अहिंसा की परिभाषा करते हुए लिखा है : बुराई से रहित और भलाई के अंश से युक्त न्याय्य स्वार्थ- वृत्ति व्यवहार्य अहिंसा है। यह आदर्श या शुद्ध अहिंसा नहीं है । लौकिक दृष्टि की प्रधानता से जिस प्रकार जैन तार्किकों ने इन्द्रिय-मानस - ज्ञान, जो कि वास्तव में परोक्ष है, को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है, वैसे ही उक्त परिभाषा में लोकप्रियता की रक्षा करते हुए अर्थ - हिंसा को व्यवहार्य अहिंसा का रूप दिया मालूम होता है। क्योंकि लोक दृष्टि में सब हिंसा या सब स्वार्थ- दृष्टि बुरी नहीं मानी जाती । समाज जिसको अनैतिक मानता है, वही बुरी मानी जाती है । लोकदृष्टि में हिंसा अनैतिक और अनैतिक कार्य के रूप में बदल जाती है । सामाजिक न्याय और औचित्य की सीमा तक ही हिंसा को नैतिक रूप मिलता है । तथा अन्याय और अनौचित्य की सीमा में हिंसा अनैतिक हो जाती है । उदाहरण के रूप में - एक मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य की हत्या कर रहा है, उस समय वहां एक तीसरा व्यक्ति चला आया । उसने आक्रान्ता को समझाया । आक्रान्ता ने उसकी बात नहीं मानी, तब वह उस दुर्बल का पक्ष ले आक्रान्ता के सामने आ गया और उसे ( आक्रान्ता को ) मार डाला । सामाजिक नीति या व्यवस्था के अनुसार दुर्बल को बचाने वाला हिंसक नहीं माना जाता प्रत्युत उसका वैसा करना कर्तव्य समझा जाता है और दुर्बल की सहायता न करना अनुचित माना जाता है । धार्मिक सीमा इससे भिन्न है । आक्रान्ता को उपदेश देना धर्म को मान्य है । वह उपदेश न माने, उस स्थिति में उसे मार डालना धार्मिक मर्यादा के अनुकूल नहीं । उपदेशक का काम है — हिंसक की हिंसा छुड़ाना न कि हिंसक की हिंसा को मोल लेना - हिंसक के बदले स्वयं हिंसा करना । एक प्राणी की रक्षा के लिए दूसरे प्राणी को मारना या कष्ट पहुंचाना अहिंसा की दृष्टि से क्षम्य नहीं । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २. ५ भगवान् महावीर ने हिंसा करने के कारणों का उल्लेख करते हुए बताया है कि- 'कुछ व्यक्ति, इसने मुझे पहले मारा था, इसलिए मारते हैं, कुछ यह मुझे मार रहा है, इसलिए मारते हैं और कुछ यह मुझे मारेगा इसलिए मारते हैं, यह सब हिंसा है ।' इस प्रकार जितने भी विशुद्ध अहिंसा के विचारक हुए हैं, जिन्होंने दूसरों के द्वारा अहिंसा पालन करवाने की सीमा निरवद्य उपदेश को ही बतलाया । आत्म रक्षा रक्षा का सामान्य अर्थ है बचाना। इससे सम्बन्ध रखने वाले महत्त्वपूर्ण प्रश्न चार हैं- रक्षा किसकी ? किससे ? क्यों ? और कैसे ? प्रत्येक प्रश्न के दो-दो विकल्प बनते हैं : (१) रक्षा शरीर की या आत्मा की ? (२) रक्षा कष्ट से या हिंसा से ? (३) रक्षा जीवन को बनाए रखने के लिए या संयम को बनाए रखने के लिए ? (४) रक्षा हिंसात्मक पद्धति से या अहिंसात्मक पद्धति से ? अहिंसात्मक पद्धति द्वारा संयम को बनाए रखने के लिए, हिंसा से आत्मा को बचाने की वृत्ति का नाम है – आत्म-रक्षा । हिंसात्मक पद्धति द्वारा जीवन को बनाए रखने के लिए कष्ट से बचाव होता है, वह शरीर रक्षा है । वास्तव में शरीर रक्षा और आत्म-रक्षा- ये दोनों लाक्षणिक शब्द हैं । इनका तात्पर्यार्थ है । हिंसात्मक प्रवृत्ति द्वारा विपदा से बचने का प्रयत्न करना शरीररक्षा और हिंसा से बचने का प्रयत्न करना आत्म-रक्षा । साध्य जैसे शुद्ध हो, वैसे साधन भी शुद्ध होना चाहिए। आत्म-रक्षा के लिए साध्य और साधन दोनों अहिंसात्मक होने चाहिए। थोड़े में यूं कहा जा सकता है आत्म-रक्षा का अर्थ है - राग-द्वेषात्मक आदि असंयमय वृत्तियों से बचना | इसका साध्य है— आत्म- मुक्ति | इसके साधन हैं : १. धार्मिक उपदेश, २. मौन या उपेक्षा, ३. एकान्त - गमन । हिंसा करना उचित नहीं, इस प्रकार हिंसक को समझाना, उसकी हिंसा करने की भावना को बदलने का प्रयत्न करना, धार्मिक उपदेश है । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अहिंसा तत्त्व दर्शन धार्मिक उपदेश द्वारा प्रेरणा देने पर भी वह न सझते तो मौन हो जाना, उसकी उपेक्षा करना, यह दूसरा साधन है। धार्मिक उपदेश काम न करे और मौन न रखा जा सके, उस स्थिति में वहां से हटकर एकान्त में चले जाना, यह तीसरा है। भगवान् महावीर ने हिंसा से बचने के लिए ये तीन साधन बताए हैं। ये तीनों अहिंसात्मक हैं, इसलिए आत्म-रक्षा की मर्यादा के अनुकूल हैं। हिंसात्मक साधनों द्वारा कष्टों से बचाव किया जा सकता है, हिंसा से नहीं। हिंसक के प्रति हिंसा बरतना, बल प्रयोग करना, प्रलोभन देना-यह अहिंसा की मर्यादा में नहीं आता। अहिंसा की मर्यादा है कि अहिंसक हर स्थिति में अहिंसक ही रहे । वह किसी भी स्थिति में हिंसा की बात न सोचे । अहिंसक पद्धति से हिंसा का विरोध करना अहिंसा-धर्मी का कर्तव्य है । वह अहिंसा के लिए अपने प्राणों का त्याग कर सकता है परन्तु अहिंसा के लिए हिंसा का मार्ग नहीं अपना सकता। दोनों प्रकार की रक्षा के आठ विकल्प बनते हैं : १. जीवन को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव । २. संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव । ३. जीवन को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । ४. संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । ५. जीवन के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव । ६. संयम के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव । ७. जीवन के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । ८. संयम के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । इनमें पहले चार विकल्प शरीर-रक्षा के हैं। विकल्प एक-जीवन को बनाए रखना-यह अहिंसा का उद्देश्य नहीं है। उसका उद्देश्य है--संयम का विकास करना। संयम का विकास जीवन-सापेक्ष है। जीवन ही न रहे, तब संयम का विकास कौन करे ! अतः संयम का विकास करने के लिए जीवन को बनाए रखना आवश्यक है। इस प्रकार जीवन को बनाए रखना भी अहिंसा का उद्देश्य है-~-यह फलित होता है। यह प्रश्न हो सकता है किन्तु अहिंसा का सीधा सम्बन्ध संयम से है, इसलिए इसे कोई महत्त्व नहीं दिया जा सकता। जीवन बना रहे और संयम न हो तो वह अहिंसा नहीं होती। संयम की सुरक्षा में जीवन चला जाए तो भी वह अहिंसा है। आगे के संयम के लिए वर्तमान का असंयम संयम नहीं बनता, आगे की अहिंसा के लिए वर्तमान की हिंसा अहिंसा नहीं बनती। इसलिए जीवन को बनाए रखना-यह अहिंसा का साध्य या उद्देश्य नहीं हो सकता। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २७ साधन-मीमांसा में इतना ही होगा कि अहिंसा के साधन हिंसात्मक नहीं हो सकते। अहिंसा का स्वरूप है, असंयम से बचना, संयम करना । कष्ट संयम हो सकता है, और सुख असंयम, इसलिए कष्ट से बचाव करना और सुख प्राप्त करना यह अहिंसा का स्वरूप नहीं बन सकता। उपवास व अनशन जैसी कठोर तपस्याएँ कष्टकर अवश्य हैं, फिर भी अहिंसात्मक हैं। भोगोपभोग सुख है, फिर भी हिंसा है। अहिंसा की दृष्टि संयम की ओर होनी चाहिए। अमुक कष्ट से बचा या नहीं बचा, अहिंसा के लिए यह शर्त नहीं होती। उसकी शर्त है-असंयम से बचा या नहीं। पहले विकल्प के तीनों रूप शरीर-रक्षा की कोटि के हैं । विकल्प दो-इसमें साध्य सही है। साधन की प्रक्रिया साध्य के प्रति भ्रम उत्पन्न करती है। संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक साधन करते जाएं, वहां संयम नहीं रहता। इसलिए संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक साधनों को अपनाना मानसिक भ्रम जैसा लगता है। विकल्प तीन-जीवन को बनाए रखने का उद्देश्य मुख्य होने पर हिंसा से बचाव करने की बात गौण हो जाती है । संयम जीवन से अलग नहीं होता। संयम को बनाए रखने के साथ जीवन का अस्तित्व अपने आप आता है। जीवन को बनाए रखने के साथ संयम का अस्तित्व स्वयं नहीं आता है। इसलिए अहिंसा का रूप जीवन के अस्तित्व को प्रधानता नहीं देता। उसमें संयम की प्रधानता होती है। विकल्प चार-संयम को बनाए रखने के लिए हिंसा से बचाव करना, यह सही है किन्तु हिंसा से कैसे बचा जाए, इसका विवेक होना चाहिए। हिंसा से बचाव करने के लिए हिंसात्मक साधन अपनाए जाएँ, वहां न संयम बना रहता है और न हिंसा से बचाव होता है। इसलिए चौथा विकल्प भी आत्म-रक्षा की भावना नहीं देता। विकल्प पांच-पांचवें विकल्प में साधन-पद्धति को छोड़ शेष अहिंसा की दृष्टि के अनुकूल नहीं हैं। विकल्प छह-सात-छठे विकल्प में कष्ट से बचाव करने और सातवें में जीवन को बनाए रखने की बात मुख्य है, इसलिए ये भी अहिंसा के शुद्ध रूप का निर्माण नहीं करते। इन दो (६-७) और Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अहिंसा तत्त्व दर्शन पांचवें विकल्प को व्यवहारिक या सामाजिक अहिंसा कहा जाता है। आठवां विकल्प अहिंसा का पूर्ण शुद्ध रूप है । शस्त्र-विवेक हत्या के साधन को जैसे शस्त्र कहा जाता है, वैसे हिंसा के साधन को भी शस्त्र कहा गया है। हत्या हिंसा होती है, किन्तु हिंसा हत्या के बिना भी होती है । अविरति या असंयम, जो वर्तमान में हत्या नहीं किन्तु हत्या की निवृत्ति नहीं है, इसलिए वह हिंसा है। हत्या के उपकरणों का नाम है द्रव्य-शस्त्र और हिंसा के साधन का नाम है भाव-शस्त्र । यह व्यक्ति का वैभाविक गुण या दोष है, इसलिए यह मृत्यु का कारण नहीं, पाप-बन्ध का कारण है। द्रव्य-शस्त्र व्यक्ति से पृथक् वस्तु है। वह मूलतः हत्या का कारण बनता है। वह हत्या का कारण बनता है, इसलिए पाप-बन्ध का कारण भी होता है। शस्त्र तीन प्रकार के होते हैं : (१) स्वकाय-शस्त्र, (२) परकाय-शस्त्र, (३) उभय-शस्त्र (स्व-काय और पर-काय दोनों का संयोग) जीव के छ: निकाय हैं : (१) पृथ्वी, (२) पानी, (३) अग्नि , (४) वायु, (५) वनस्पति, (६) त्रस । पृथ्वी द्वारा पृथ्वी का प्रतिघात-यह स्वकाय-शस्त्र है। पृथ्वी-अतिरिक्त वस्तु द्वारा पृथ्वी का प्रतिघात-यह परकाय-शस्त्र है। पृथ्वी और उससे भिन्न वस्तु-दोनों द्वारा पृथ्वी का अपघात-यह उभयशस्त्र है। __ वायु के सिवा सबके लिए यही बात है। वायु का शस्त्र वायु ही है। चलनेफिरने, उठने-बैठने से वायु की हिंसा नहीं होती। चलने-फिरने में वेग होने पर तेज वायु पैदा होती है, उससे वायु की हिंसा होती है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २६ सजीव स्थूल होते हैं, इसलिए उनकी हिंसा स्पष्ट जान पड़ती है । स्थावर जीव सूक्ष्म होते हैं, इसलिए उनकी हिंसा सहजतया बुद्धिगम्य नहीं है । स्थावर जीवों की अवगाहना का एक प्रसंग देखिए गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा - भगवन् ! पृथ्वीकाय की अवगाना कितनी है ? भगवान् ने कहा—गौतम ! चक्रवर्ती राजा की दासी, जो युवा, बलवती व नीरोग है तथा कला-कौशल में निपुण है, ऐसी दासी वज्र की कठिन शिला पर वज्र के लोढे से छोटी गेंद जितने पृथ्वी के पिण्ड को एकत्रित कर पीसे, बार-बार पीसने पर भी कितने पृथ्वीकाय के जीवों को केवल सिला- लोढे का स्पर्श मात्र होता है, कितनों को स्पर्श तक नहीं होता, कुछ जीवों के संघर्ष होता है और कुछ जीवों को नहीं, कुछ एक पीड़ा का अनुभव करते हैं, कितने मरते हैं और कितने मरते तक नहीं, कितने पिसे जाते हैं और कितने नहीं । स्थावर जीवों को छूने मात्र से कष्ट होता है की मर्यादा नहीं समझी जा सकती । १. भगवती १६।३ पिसे जाते । ' शस्त्र - विवेक के बिना अहिंसा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा प्राणातिपात पाप है, चण्ड है, रौद्र है, मोह और महाभय का प्रवर्तक है।' हिंसा गांठ है, मोह है, मृत्यु है, नरक है ।' हिंसा की परिभाषा प्रमाद और काम-भोगों में जो आसक्ति होती है, वही हिंसा है। आत्मा की अशुद्ध परिणति मात्र हिंसा है, इसका समर्थन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है- 'असत्य आदि सभी विकार आत्म-परिणति को बिगाड़ने वाले हैं। इसलिए वे सभी हिंसा हैं । असत्य आदि जो दोष बतलाए हैं वे केवल 'शिष्य बोधाय' हैं । संक्षेप में राग-द्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा और उनका प्रादुर्भाव हिंसा है। रागद्वेष-रहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राण-वध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती, राग-द्वेष सहित प्रवृत्ति से प्राण-वध न होने पर भी वह होती है। जो राग-द्वेष की प्रवृत्ति करता है, वह अपनी आत्मा की घात कर ही लेता है, फिर चाहे दूसरे जीवों की घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणति होना भी हिंसा है। इसलिए जहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति है, वहां निरन्तर प्राण-वध होता है।" निश्चय दृष्टि से आत्मा ही अहिंसा है और वही हिंसा। अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है और जो प्रमत्त है, वह हिंसक है। १. प्रश्नव्याकरण ११२३ : एसो सो पाणवहो पावो, चण्डो, रुद्दो-मोहमह व्भयपवहओ। २. आचारांग १।११७८ : एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु __णरए। ३. वही ११११८६ ४. पुरुषार्थ-सिद्धय पाय-४२ ४८ ५. हरिभद्र कृत अष्टक ७, श्लोक ६ की वृत्ति आया चेव अहिंसा, आया हिंसेत्ति निच्छओ एस । जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तस्व दर्शन जीव-वध आत्मा-वध है और जीव-दया आत्मा-दया । इसलिए आत्मार्थी पुरुष सब जीवों की हिंसा को त्याग देता है।' आत्म-गुण का हनन करने वाला वस्तुतः हिंसक होता है और आत्म-गुण की रक्षा करने वाला अहिंसक । वीतराग और अवीतराग संयमी जो अप्रमत्त दशा में है, उसके द्वारा अपरिहार्य प्राण-वध हो जाए वह प्राण-वध है, किन्तु वास्तव में हिंसा नहीं। __ इन तथ्यों से साफ हो जाता है कि प्राण-वध और हिंसा सर्वथा एक नहीं हैं। इसी दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति के लिए अहिंसा शब्द व्यवहार में आया-ऐसा प्रतीत होता है। अहिंसा शब्द हिंसा का निषेध है। हिंसा सदेह-दशा में होती है और अहिंसा भी उसी में। विदेह-दशा में हिंसा और अहिंसा की कोई कल्पना ही नहीं होती। हिंसा बन्धन या सदेह-दशा का हेतु है और अहिंसा मुक्ति या विदेह-दशा का । मुक्ति होने के बाद अहिंसा आत्मा की शुद्धि रूप रह जाती है, साधना रूप नहीं। फिर उसका कोई कार्य नहीं रहता। इसलिए उसकी कोई कल्पना भी नहीं होती। मुक्ति का धर्म है-हिंसा का निषेध। इसीलिए मोक्ष-धर्म का स्वरूप नकार की भाषा में कहा गया। महात्मा गांधी ने इस पर बड़े सुन्दर ढंग से लिखा है'मानवों में जीवन-संचार किसी न किसी हिंसा से होता है। इसलिए सर्वोपरि धर्म की परिभाषा एक नकारात्मक कार्य अहिंसा से की गई है। यह शब्द संहार की संकड़ी में बंधा हुआ है। दूसरे शब्दों में यह है कि शरीर में जीवन-संचार के लिए हिंसा स्वाभाविक रूप से आवश्यक है। इसी कारण अहिंसा का पुजारी सदैव प्रार्थना करता है कि उसे शरीर के बन्धन से मुक्ति प्राप्त हो। __ सदेह जीवन तीन प्रकार का होता है-हिंसा का, हिंसा के अल्पीकरण का और अहिंसा का। हिंसा के जीवन में हिंसा-अहिंसा का विवेक ही नहीं होता। हिंसा के अल्पीकरण के जीवन में हिंसा को कम से कम करने का प्रयत्न किया जाता है । अहिंसा के जीवन में हिंसा का पूरा त्याग किया जाता है। हिंसा के प्रकार हिंसा मात्र से पाप-कर्म का बन्ध होता है, इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किन्तु हिंसा के कारण अनेक होते हैं, इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जान-बूझकर हिंसा करता है तो कोई अन १. भक्त परिज्ञा प्रकीर्णक-६३ २. महात्मा गांधी के विचार (५-१३८), सी० एफ० एण्ड्रजू । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन जान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोजनवश करता है तो कोई बिना प्रयोजन भी। 'सूत्रकृतांग' में हिंसा के पाँच समादान बतलाए हैं : १. अर्थ-दण्ड, २. अनर्थ-दण्ड, ३. हिंसा-दण्ड, ४. अकस्मात्-दण्ड, ५. दृष्टिविपर्यास-दण्ड । १. अर्थ-दण्ड जो व्यक्ति अपने लिए, अपनी जाति, परिवार, मित्र, घर, देवता, भूत और यज्ञ आदि के लिए और स्थावर प्राणियों की स्वयं घात करता है, दूसरों से करवाता है, घात करते हुए को अच्छा समझता है, वह अर्थ-दण्ड के द्वारा पाप-कर्म का बंध करता है। २. अनर्थ-दण्ड कोई व्यक्ति त्रस प्राणियों को अपने शरीर की रक्षा के लिए नहीं मारता, चमड़े के लिए, माँस आदि के लिए भी नहीं मारता, इसने मेरे किसी सम्बन्धी को मारा है, मार रहा है या मारेगा, इसलिए नहीं मारता, पुत्र-पोषण, पशु-पोषण, घर की सुरक्षा, श्रमण-ब्राह्मण की जीविका के लिए भी नहीं मारता किन्तु बिना प्रयोजन ही कुतूहल आदि के लिए वह प्राणियों को मारता है, छेदन करता है, भेदन करता है, अंगों को काट डालता है, चमड़े और नेत्रों को उखाड़ता है, उपद्रव करता है, वह अनर्थ दण्ड-निरर्थक हिंसा है। ___इसी प्रकार बिना प्रयोजन स्थावर जीवों की हिंसा करने वाला, चपलतावश वनस्पतियों को उखाड़ फेंकने वाला, नदी-तालाब आदि जलाशयों के तट पर पर्वत व वन आदि में बिना मतलब आग लगा देने वाला भी अनर्थ-दण्ड के द्वारा पापकर्म का बंध करता है। ३. हिंसा-दण्ड बहुत से व्यक्ति दूसरे प्राणियों को इस आशंका से मार डालते हैं कि 'यह जीवित रहकर मुझे मार डालेगा,' 'जैसे कंस ने देवकी-पुत्रों को उनके द्वारा १. सूत्रकृतांग २।२।१८ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन भविष्य में अपने नाश की शंका करके मार डाला था।' बहुत से अपने संबंधी के घात के क्रोध से प्राणियों का घात करते हैं, जैसे परशुराम ने अपने पिता के घात से क्रोधित होकर कार्तवीर्य का वध किया था । बहुत से व्यक्ति सिंह, सर्प आदि प्राणियों का वध इसलिए कर डालते हैं कि यह जीवित रहकर दूसरे प्राणियों का वध करेगा। इस प्रकार जो पुरुष किसी त्रस या स्थावर प्राणी की स्वयं घात करता है दूसरों से करवाता है, अथवा प्राणीघात करते हुए को अच्छा मानता है, उसको हिंसा हेतुक क्रिया से पाप-कर्म का बंध होता है।' ४. अकस्मात्-दण्ड किसी प्राणी की घात करने के अभिप्राय से चलाए हुए शस्त्र के द्वारा यदि दूसरे प्राणी का वध हो जाए तो उसे अकस्मात-दण्ड कहते हैं। क्योंकि घातक व्यक्ति का उस प्राणी की घात का आशय न होने पर भी अचानक उसकी बात हो जाती है। ऐसा देखने में भी आता है कि मृग का वध कर अपनी जीविका करने वाला व्याध मृग को लक्ष्य कर बाण चलाता है परन्तु वह बाण कभी-कभी लक्ष्य से भ्रष्ट होकर मृग को नहीं लगता किन्तु दूसरे पक्षी आदि को लग जाता है । इस प्रकार पक्षी को मारने का आशय न होने पर भी उस घातक के द्वारा पक्षी आदि का वध हो जाता है। अतः यह अकस्मात्-दण्ड कहलाता है। किसान जब अपनी खेती का परिशोधन करता है, उस समय धान्य के पौधों की हानि करने वाले तृणों को साफ करने के लिए वह उनके ऊपर शस्त्र चलाता है। परन्तु कभी-कभी उसका शस्त्र घास पर न लगकर धान्य के पौधों पर ही लग जाता है जिससे धान्य के पौधों की घात हो जाती है । किसान का आशय धान्य के पौधों का छेदन करने का नहीं होता, फिर भी उससे धान्य के पौधों का छेदन हो जाता है। इसे अकस्मात्-दण्ड कहते हैं । अतः मारने की इच्छा न होने पर भी यदि अपने द्वारा चलाए हुए शस्त्र से कोई अन्य प्राणी मर जाए तो अकस्मात्-दण्ड देने का पाप होता है। ५. दृष्टि-विपर्यास-दण्ड अन्य प्राणी के भ्रम से अन्य प्राणी को दण्ड देना दृष्टि-विपर्यास-दण्ड कहलाता है । जो पुरुष मित्र को शत्रु के भ्रम से तथा साहूकार को चोर के भ्रम से दण्ड देता १. सूत्रकृतांग २।२।१६ २. वही, २।२।२० Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन है, उसके दृष्टि-विपर्यास से होने वाली हिंसा के द्वारा पाप-कर्म का बंध होता है।' हिंसा के निमित्त संक्षेप में हिंसा के निमित्त दो हैं—राग और द्वेष । राग के दो प्रकार हैंमाया और लोभ । क्रोध और मान-ये द्वेष के प्रकार हैं। १. मित्र-दोष-निमित्तक कई व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो थोड़े अपराध में महान् दण्ड देते हैं । माता, पिता, भाई, भगिनी, स्त्री, पुत्र-वधू तथा कन्या के द्वारा थोड़ा अपराध होने पर भी उन्हें महान् दण्ड देते हैं। ठण्डक के दिनों में वे उन्हें बर्फ के समान ठण्डे जल में गिरा देते हैं तथा गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर गर्म जल डालकर कष्ट देते हैं एवं अग्नि, गर्म लोहा या गर्म तेल छिड़कर उनके शरीर को जला देते हैं । तथा बेंत, रस्सी, छड़ी आदि से मारकर उनके शरीर की चमड़ी उधेड़ देते हैं। ऐसे व्यक्ति जब घर पर रहते हैं, तब उनके परिवार वाले दुःखी रहते हैं और उनके परदेश चले जाने पर वे सुखी रहते हैं। ऐसे पुरुष इस लोक में अपना तथा दूसरों का अहित करते हैं और मरने के पश्चात् वे परलोक में अत्यन्त क्रोधी और परोक्ष में निन्दा करने वाले होते हैं। यह मित्र-दोष से होने वाली हिंसा का निमित्त है।' २. मान-निमित्तक जाति, कुल, बल, रूप, तप, शास्त्र, लाभ, ऐश्वर्य और प्रज्ञा के मद से मत्त होकर जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों को तुच्छ गिनता है तथा अपने को सबसे श्रेष्ठ मानता हुआ दूसरे का तिरस्कार करता है, उसके मान-निमित्तक हिंसा-कर्म का बन्ध होता है। ३. माया-निमित्तक कई व्यक्ति बाहर से सभ्य और सदाचारी प्रतीत होते हैं परन्तु छिपकर पाप करते हैं । वे लोगों पर अपना विश्वास जमाकर पीछे से उन्हें ठगते हैं । वे बिलकुल तुच्छ वृत्ति वाले होकर भी अपने को पर्वत के समान महान् समझते हैं। वे मायाकपट-क्रिया करने में बड़े चतुर होते हैं। वे आर्य होते हुए भी दूसरे पर अपना १. सूत्रकृतांग २।२।२१ २, वही, २।२।२६ ३. बही, २।२।२५ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन प्रभाव जमाने के लिए अनार्य भाषा का व्यवहार करते हैं । कोई-कोई वैयाकरण आदि ऐसे धूर्त होते हैं कि शास्त्रार्थं में वादी को परास्त करने के लिए तर्क- मार्ग को सामने रख देते हैं तथा अपने अज्ञान को ढकने के लिए व्यर्थ शब्दाडम्बरों से समय का दुरुपयोग करते हैं। कपट के कार्यों से अपने जीवन को निदित करने वाले बहुत से मायावी अकार्यों में रत रहते हैं । जैसे कोई मूर्ख हृदय में गड़े हुए बाण को पीड़ा से डरकर स्वयं न निकाले तथा दूसरे के द्वारा भी न निकलवाए किन्तु उसे छिपाकर व्यर्थ ही दुःखी बना रहे, इसी तरह कपटी पुरुष अपने हृदय के कपट को बाहर निकालकर नहीं फेंकता है तथा अपने अकृत्य को निंदा के भय से छिपाता है । वह अपनी आत्मा को साक्षी बनाकर अपने मायाचार की निंदा भी नहीं करता तथा वह अपने गुरु के निकट जाकर उस माया की आलोचना नहीं करता है । अपराध विदित हो जाने पर गुरुजनों के द्वारा निर्देश किए हुए प्रायश्चितों का आचरण भी वह नहीं करता है। इस प्रकार कपटाचरण के द्वारा अपनी समस्त क्रियाओं को छिपाने वाले व्यक्ति की इस लोक में अत्यन्त निंदा होती है, उसका विश्वास हट जाता है, वह किसी समय दोष न करने पर भी दोषी माना जाता है, वह मरने के पश्चात् परलोक में नीच से नीच स्थान में जाता है | वह बार-बार तिर्यंच तथा नरक योनि में जन्म लेता है । ऐसा व्यक्ति दूसरे को धोखा देकर लज्जित नहीं होता अपितु प्रसन्नता का अनुभव करता है तथा अपने को धन्य मानता है । उसकी चित्तवृत्ति सदा प्रवंचना में लीन रहती है । उसके हृदय में शुभभाव की प्रवृत्ति होती ही नहीं । उसके माया-निमित्तक हिंसा कर्म का बन्ध होता है ।" ४. लोभ-निमित्तक कई व्यक्ति इस प्रकार कहा करते हैं कि 'मैं मारने योग्य नहीं किन्तु दूसरे प्राणी मारने योग्य हैं । मैं आज्ञा देने योग्य नहीं किन्तु दूसरे प्राणी आज्ञा देने योग्य हैं। मैं दास, दासी आदि बनाने के योग्य नहीं परन्तु दूसरे प्राणी दास, दासी बनाने योग्य हैं । मैं कष्ट देने योग्य नहीं किन्तु दूसरे प्राणी कष्ट देने योग्य हैं । मैं उपद्रव के योग्य नहीं परन्तु दूसरे प्राणी उपद्रव के योग्य हैं? -इस प्रकार उपदेश देने वाले काम भोग में आसक्त रहते हैं । वे सदा विषय-भोग की खोज में लगे रहते हैं । इस प्रकार उस लोभी व्यक्ति के लोभ-निमित्तक हिंसा - कर्म का बन्ध होता है । " कई व्यक्ति खान-पान के लिए हिंसा करते हैं । वे बिना ही अपराध प्राणियों १. सूत्रकृतांग २।२।२७ २. वही, २।२।२७ ३. वही, २२ २८ ३५ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन को दण्ड देने वाले होते हैं। वे निर्दयी जीव अपने और दूसरों के भोजनार्थ शालि, मंग, गेहूं आदि अन्नों को पकाकर इन प्राणियों को बिना ही अपराध दण्ड देते हैं। कई निर्दय व्यक्ति तीतर, बटेर तथा बतख आदि पक्षियों को बिना ही अपराध मारते फिरते हैं। ___ कई व्यक्ति वन्दना, पूजा, मान प्राप्त करने लिए, जन्म-मरण से छूटने के लिए या दुःखों को रोकने के लिए नाना प्रकार से हिंसा करते हैं। त्रस जीवों की हिंसा के निमित्त कुछ व्यक्ति त्रस जीवों के शरीर के लिए उनका वध करते हैं। कई उनके चमड़े के लिए, मांस के लिए, लोही के लिए, हृदय के लिए, पींछी के लिए, पूंछ के लिए, बाल के लिए, सींग के लिए, दांत के लिए, डाढ के लिए, नख के लिए, आंख के लिए, हड्डी के लिए, अस्थि मज्जा के लिए—आदि अनेक प्रयोजनों से त्रस जीवों की हिंसा करते हैं और कुछ व्यक्ति बिना प्रयोजन ही त्रस जीवों की हिंसा करते हैं। कई रस-लोलुप व्यक्ति मधु के लिए मधुमक्खियों को मारते हैं, शारीरिक दुविधा मिटाने के लिए खटमल आदि को मारते हैं, विभूषा बढ़ाने वाले रेशमी वस्त्र बनाने के लिए कीड़ों की घात करते हैं । इस प्रकार अज्ञानी जीव अनेक कारणों से त्रस जीवों की हिंसा करते हैं।' स्थावर जीवों की हिंसा के निमित्त कृषि (खेती) आदि के लिए, बावड़ी, कुआं, सरोवर, तालाब, भित्ति, चिता, वेदिका, आराम, स्तूप, प्रकार, द्वार, गोपुर, अट्टालक, चरिक (आठ हाथ प्रमाण का मार्ग), पुल, प्रासाद, विकल्प, भवन, घर, शयन, लयन दूकान, प्रतिमा, देवालय, चित्रशाला, प्रपा, आयतन, परिव्राजक का निवास-स्थान, भूमिगृह, मण्डप, घड़ा आदि बर्तनों के लिए, विविध कारणों से प्रेरित होकर मन्दबुद्धि वाले व्यक्ति पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं। स्नान करने के लिए, पानी पाने के लिए, भोजन बनाने के लिए, वस्त्र धोने के लिए और शुचि आदि करने के लिए पानी के जीवों की हिंसा करते हैं।" १. सूत्रकृतांग २।२।३५ २. आचारांग ११११४० ३. प्रश्नव्याकरण १३ ४. वही, १६ ५. वही, १७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन 'कई व्यक्ति धान्य पकाने के लिए अन्य से पकवाने के लिए, दीपक जलाने और बुझाने के लिए अग्निकाय की हिंसा करते हैं।" 'अनाज साफ करने के लिए छाज फटककर, पंखे से हवा लेकर, बीजने से बींजकर, खुशी आदि प्रकट करने के लिए ताली बजाकर आदि-आदि कारणों से वायुकाय की हिंसा करते हैं।' _ 'घर बनाने के लिए, म्यान बनाने के लिए, खाने के लिए भोजन तैयार करने के लिए, पर्यक, बाजोट-फलक आदि बनाने के लिए, मूसल-ऊखल बनाने के लिए, तंत्री, तार, वाद्य-यंत्र, वितत, पड़हादि बनाने के लिए, अन्य वाद्य-यंत्रों के लिए, वाहन, शकट, कण्डप, भक, तोरण, पक्षियों के स्थान, देवालय, जालियों के लिए अर्धचन्द्र, वारशाक, चन्द्रशाला वेदिका, पिढी, नौका, चंगेरी, खंटी, सभा, प्रपा, डिब्बे, माला, विलेपन, वस्त्र, रथ, हल, शिविका सांग्रामिक, रथ, गाड़ी, अट्टालक, नगरद्वार, गोपुर, यंत्र, शूल, लाठी, बन्दूक, शतधनी आदि-आदि बनाने के लिए वनस्पति की हिंसा करते हैं। 'कई व्यक्ति क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति-अरति, शोक के लिए स्त्री, पुरुष, नपुंसक के लिए, जीवितव्य की कांक्षा के लिए, धर्म-निमित्त, स्ववश या परवशता से, प्रयोजन से या बिना प्रयोजन ही त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करते हैं।" 'कई व्यक्ति अर्थ (धन) के लिए, धर्म के लिए. काम-भोग के लिए अथवा अर्थ धर्म और काम-तीनों के लिए हिंसा करते हैं।" अज्ञानवश हिंसा 'अज्ञानवश की हुई हिंसा भी हिंसा होती है। बहुत सारे व्यक्ति हिंसा के स्वरूप और परिणाम को जानते हुए हिंसा करते हैं । 'जो जीवों के स्वरूप को जानने में कुशल हैं, वे ही अहिंसा के स्वरूप को जानने में कुशल हैं और जो अहिंसा का स्वरूप जानने में कुशल हैं, वे ही जीवों का स्वरूप जानने में कुशल हैं।" १. प्रश्नव्याकरण, ११८ २. वही, १९ ३. वही, १११० ४. वही, ११११ ५. वही, १११२ ६. वही, १।१३ ७. आचारांग: जे दीहलोगसत्थस्स खेयन्ने, से असत्थस्स खेयन्ने । जे असत्थस्स खेयन्ले, से दीहलोगसत्थस्स खेयन्ने । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन विषय-भोग में आसक्त मनुष्य पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और त्रस जीवों की हिंसा करते हैं। उन्हें इस हिंसा का भान तक नहीं होता। यह उनके लिए हितकर तो है ही नहीं, परन्तु सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए बाधक है। स्थावर जीवों की दशा और वेदना एकेन्द्रिय जीव अत्राण, अशरण, अनाथ और अबन्धु हैं, कर्म-शृंखला से बँधे हुए हैं । अकुशल विचार वाले मंद-बुद्धि व्यक्तियों द्वारा दुर्गम्य हैं।' जैसे कोई किसी अन्धे मनुष्य को छेदे-भेदे या मारे-पीटे तो वह उसे न देखते हुए भी दुःख का अनुभव करता है, वैसे ही पृथ्वी न देखते हुए भी अपने ऊपर होने वाले शस्त्रप्रहार के दुःख का अनुभव करती है । हिंसा-सबके लिए समान सावद्य अनुष्ठान करने वाले अन्यतीथिक मुक्त नहीं होते, वैसे ही सावध कर्मसेवी स्व तीथिक भी मुक्त नहीं होते। हिंसा, विरति का उपदेश जो आसक्ति के कारण पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं, उनको अपनी आसक्ति के सामने हिंसा का भान नहीं रहता। परन्तु पृथ्वी की हिंसा न करने वाले संयमी मनुष्यों को इसका पूरा भान रहता है। बुद्धिमान कभी पृथ्वी की हिंसा न करे, न कराए और न करने की अनुमति दे । जो मुनि अनेक प्रवृत्तियों से होने वाली पृथ्वी की हिंसा को अच्छी तरह जानता है, वही सच्चा मर्मज्ञ है। __ इसी प्रकार जल में अनेक जीव हैं। जिन प्रवचन में कहा गया है कि जल जीव ही है, इस कारण उसका उपयोग करना हिंसा है। जल का प्रयोग करते हुए दूसरे जीवों का भी नाश होता है। इसके सिवा, दूसरों के शरीर का उनकी इच्छा-विरुद्ध उपयोग करना चोरी भी तो है । अनेक मनुष्य ऐसा समझकर कि जल हमारे पीने और स्नान के लिए है, उसका उपयोग करते हैं और जल के जीवों की हिंसा करते हैं। यह उनको उचित नहीं है। जो मुनि जल के उपयोग से होने वाली हिंसा को यथावत् जानता है, वही सच्चा मर्मज्ञ है। इसलिए १. प्रश्नव्याकरण ११४ २. आचारांग १।१२७,२८ ३. सूत्रकृतांग २।२।४१ ४. आचारांग ११११२ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन बुद्धिमान् जल की हिंसा न करे ।' इसी प्रकार जो अग्निकाय के जीवों के स्वरूप को जानने में कुशल हैं, वे ही अहिंसा का स्वरूप जानने में कुशल हैं। मनुष्य विषय-भोग की आसक्ति के कारण अग्नि तथा दूसरे जीवों की हिंसा करते रहते हैं, क्योंकि आग जलाने में पथ्वीकाय के, घास-पात के, गोबर-कचरे में रहने वाले तथा आग के आस-पास उड़ने-फिरने वाले अनेक जीव जलकर मर जाते हैं । इसी प्रकार अनेक मनुष्य आसक्ति के कारण वनस्पति की हिंसा करते हैं। वनस्पति भी जन्मशील और सचित्त है । जैसे-जब कोई व्यक्ति हमें मारे-पीटे तो हम दुःखी हो जाते हैं, वैसे ही वनस्पति भी दुःखी होती है। जैसे हम आहार लेते हैं, वैसे ही वह भी । हमारे समान वह भी अनित्य और अशाश्वत है। हम घटतेबढ़ते हैं, उसी प्रकार वह भी घटती-बढ़ती है । जैसे अपने में विकार होते हैं, वैसे ही उसमें भी होते हैं । जो वनस्पति की हिंसा करते हैं, उनको हिंसा का भान नहीं होता । जो मुनि वनस्पति की हिंसा को जानता है, वही सच्चा मर्मज्ञ है ।' ____ अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूच्छिम, उद्भिज और औपपातिक-ये सब त्रस जीव हैं। इनकी हिंसा न करे, न कराए। इसी प्रकार वायुकाय के जीवों को समझना चाहिए । अनेक व्यक्ति आसक्ति के कारण विविध प्रवृत्तियों द्वारा वायु-काय की तथा उसके साथ ही अनेक जीवों की हिंसा करते हैं । क्योंकि दूसरे अनेक उड़ने वाले जीव झपट में आ जाते हैं और इस प्रकार आघात, संकोच, परिताप और विनाश को प्राप्त होते हैं। हिंसा के परिणाम का निर्णय एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि क्षुद्र प्राणी हैं। हाथी, घोड़े आदि महाकाय प्राणी हैं । किन्तु इन सबकी आत्मा समान है—असंख्य प्रदेश वाली है। इसलिए इनकी हिंसा से एक सरीखा वैर या कर्म-बन्ध होता है-ऐसा एकांत वचन नहीं बोलना चाहिए । इसी प्रकार इन प्राणियों में ज्ञान, विकास, इन्द्रिय, शरीर और पुण्य का तारतम्य है । इसीलिए इनको मारने में वैर या कर्म-बन्ध समान नहीं होताऐसा एकान्त वचन भी नहीं बोलना चाहिए। कारण यह है-कर्म-बन्ध की १. आचारांग १११।३ २. वही १।११४ ३. वही ११११५ ४. वही ११११६ ५. वही ११११७ ६. सूत्रकृतांग २१४१६४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अहिंका तत्त्व दर्शन न्यूनता और अधिकता का कारण मारे जाने वाले प्राणी की क्षुद्रता और महत्ता नहीं किन्तु मारने वाले के मन्द-भाव, तीन-भाव, अज्ञान-भाव, ज्ञान-भाव आदिआदि अनेक कारण हैं। इसलिए एकमात्र मारे जाने वाले प्राणी के हिसाब से कर्मबन्ध की न्यूनाधिकता का निर्णय नहीं किया जा सकता । हिंसा किसी भी स्थिति में हिंसा है । उससे कर्म-बन्ध होता है--यह निश्चित है। हिंसा का सूक्ष्म विचार अप्रत्याख्यानी-पापकर्मों का त्याग न करने वाली आत्मा असंयत, अविरत होती है । वह मन, वचन, शरीर और वाक्य के विचार से रहित हो, स्वप्न भी न देखती हो, अत्यन्त अव्यक्त विज्ञान वाली हो, फिर भी पाप-कर्म करती है।' प्रश्न होता है कि जिस प्राणी के मन, वचन और काय पाप-कर्म में लगे हुए नहीं हैं, जो प्राणियों की हिंसा नहीं करता और जो मन, वचन, काय और वाक्य से रहित है तथा जो स्वप्न भी नहीं देखता यानी अव्यक्त विज्ञान वाला है, वह प्राणी पाप करने वाला नहीं माना जा सकता । क्योंकि मन, वचन और काया के पापयुक्त होने पर ही मानसिक, वाचिक और कायिक पाप किए जाते हैं, परन्तु जिन प्राणियों का ज्ञान अव्यक्त है, जो पाप-कर्मों के साधन से हीन हैं, उनके द्वारा पाप-कर्म किया जाना सम्भव नहीं । उत्तर यह है कि जो जीव छह काय के जीवों की हिंसा से विरत नहीं हैं किन्तु अवसर, साधन और शक्ति आदि कारणों के अभाव से उनकी हिंसा नहीं करते, वे उन प्राणियों के अहिंसक नहीं कहे जा सकते। प्राणातिपात आदि पापों से जो निवृत्त नहीं, वह किसी भी अवस्था में हो, पाप-कर्म करता है। जो लोग यह कहते हैं कि 'प्राणियों की हिंसा न करने वाले जो प्राणी मनोविकल और अव्यक्त ज्ञान वाले हैं, उनको पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता-यह कहना ठीक नहीं है । एक वधक किसी कारण से गाथापति अथवा उसके पुत्र या राजा अथवा राजकुमार के ऊपर क्रुद्ध होकर इस खोज में रहता है कि अवसर मिलने पर मैं इनका वध करूँगा । वह अपनी इच्छा को सफल करने का अवसर नहीं पाता, तब तक दूसरे कार्य में लगा हुआ उदासीन-सा बना रहता है । उस समय वह यद्यपि घात नहीं करता तथापि उसके हृदय में उनके घात का भाव उस समय भी बना रहता है। वह सदा उनके घात के लिए तत्पर रहता है परन्तु अवसर न मिलने पर घात नहीं कर सकता । अतः घात न करने १. सूत्रकृतांग २।४ २. वही, २१४१६४ ३. वही, २।४।६४ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ४१ पर भी वैसा भाव होने से वह पुरुष सदा उनका घातक ही है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानी एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय प्राणी भी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से अनुगत होने के कारण प्राणातिपात आदि पापों से दूषित ही हैं, वे उनसे निवृत्त नहीं हैं। जैसे अवसर न मिलने पर गाथापति आदि का घात न करने वाला पूर्वोक्त पुरुष उनका अवरी नहीं किन्तु वैरी ही है, उसी तरह प्राणियों का घात न करने वाले अप्रत्याख्यानी जीव भी प्राणियों के वैरी ही हैं, अवैरी नहीं। जिन प्राणियों का मन राग-द्वेष से पूर्ण और अज्ञान से ढका हुआ है, वे ही दूसरे प्राणियों के प्रति दूषित भाव रखते हैं। क्योंकि एकमात्र विरति ही भाव को शुद्ध करने वाली है । वह (विरति) जिनमें नहीं है, वे प्राणी सभी प्राणियों के भाव से वैरी हैं । जिनके घात का अवसर उन्हें मिलता है, उनकी घात उनसे न होने पर भी वे उनके अघातक नहीं हैं। इसलिए जिस प्राणी ने पाप का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं किया, वह स्पष्ट विज्ञानहीन भले हो, फिर भी पाप कर्म करता फिर प्रश्न होता है-ऐसे तो सभी प्राणी सभी प्राणियों के शत्रु हो जाते हैं, पर यह जंचता नहीं। कारण कि हिंसा का भाव परिचित व्यक्तियों पर ही होता है, अपरिचित व्यक्तियों पर नहीं। संसार में सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अनन्त प्राणी ऐसे हैं जो देश, काल और स्वभाव से अत्यन्त दूरवर्ती हैं । वे इतने सूक्ष्म और दूर हैं कि हमारे जैसे अर्वाग्दी पुरुषों ने उन्हें न तो कभी देखा है और न सुना है। वे किसी के न तो वैरी हैं और न मित्र ही। फिर उनके प्रति किसी का हिंसामय भाव होना किस प्रकार सम्भव है ? इसलिए सभी प्राणी सभी प्राणियों के प्रति हिंसा के भाव रखते हैं, यह नहीं माना जा सकता। __उत्तर यह है-जो प्राणी जिस प्राणी की हिंसा से निवृत्त नहीं किन्तु प्रवृत्त है, उसकी चित्तवृत्ति उसके प्रति सदा हिंसात्मक ही बनी रहती है। इसलिए वह हिंसक ही है, अहिंसक नहीं। जैसे कोई ग्राम की घात करने वाला व्यक्ति जिस समय ग्राम की घात करने में प्रवृत्त होता है, उस समय जो प्राणी उस ग्राम को छोड़कर किसी दूसरे स्थान में चले गए हैं, उनकी घात उनके द्वारा नहीं होती तो भी वह घातक पुरुष उन प्राणियों का अघातक या उनके प्रति हिंसात्मक चित्तवृत्ति न रखने वाला नहीं है, क्योंकि उसकी इच्छा उन प्राणियों के भी घात की है अर्थात् वह उन्हें भी मारना ही चाहता है परन्तु वे उस समय वहां उपस्थित नहीं हैं, इसलिए वे नहीं मारे जाते । इसी तरह जो प्राणी देशकाल के दूर के प्राणियों के घात 1, सूत्रकृतांग २।४।६४ 2. वही, २।४।६४ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अहिंसा तत्त्व दर्शन का त्यागी नहीं है, वह उनका भी हिंसक ही है। उसकी चित्तवृत्ति उनके प्रति हिंसात्मक ही है। इसलिए पहले जो कहा गया है कि अप्रत्याख्यानी प्राणी समस्त प्राणियों के हिंसक हैं-यह ठीक ही है। इस विषय में दो उदाहरण और हैं । एक संज्ञी का और एक असंज्ञी का । उनका आशय यह है-एक पुरुष एकमात्र पृथ्वीकाय से अपना कार्य करना नियत कर शेष प्राणियों के आरम्भ करने का त्याग कर देता है । वह देश, काल से दूरवर्ती पृथ्वीकाय का भी हिंसक ही है, अहिंसक नहीं । पूछने पर वह यही कहता है- "मैं पृथ्वीकाय का आरम्भ करता हूं, कराता हूं और करने वाले का अनुमोदन करता हूं।" परन्तु वह यह नहीं कह सकता कि मैं श्वेत या नील पृथ्वीकाय का आरम्भ करता हूं, शेष का नहीं। क्योंकि उसके किसी भी पृथ्वी-विशेष का त्याग नहीं है, इसलिए आवश्यकता न होने से या दूरी आदि के कारण वह जिस पृथ्वी का आरम्भ नहीं करता, उसका भी अघातक नहीं कहा जा सकता एवं उस पृथ्वी के प्रति उसकी चित्तवृत्ति हिंसा-रहित नहीं कही जा सकती। इसी तरह प्राणियों के घात का प्रत्याख्यान नहीं किए हुए प्राणी को देश-काल से दूरवर्ती प्राणियों का अघातक या उनके प्रति उसकी अहिंसात्मक चित्तवृत्ति नहीं कही जा सकती। यह संज्ञी का दृष्टान्त है। जो जीव ज्ञान-रहित तथा मन से हीन हैं, वे असंज्ञी कहे जाते हैं। वे जीव सोए हुए, मतवाले तथा मूच्छित आदि के समान होते हैं । पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के प्राणी तथा विकलेन्द्रिय से लेकर सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तक के त्रस प्राणी असंज्ञी हैं। इन असंज्ञी प्राणियों में तर्क, संज्ञा,वस्तु की आलोचना करना, पहचान करना, मनन करना और शब्द का उच्चारण करना आदि नहीं होता तो भी ये प्राणी दूसरे प्राणियों के घात की योग्यता रखते हैं। यद्यपि इनमें मन, वचन और काया का विशिष्ट व्यापार नहीं होता, तथापि ये प्राणातिपात आदि अठारह पापों से युक्त हैं, इसलिए ये प्राणियों को दु:ख, शोक और पीड़ा उत्पन्न करने से विरत नहीं हैं, इसलिए इन असंज्ञी जीवों के पाप-कर्म का बन्ध होता है। इसी प्रकार जो मनुष्य प्रत्याख्यानी नहीं है, वह चाहे किसी अवस्था में हो, सबके प्रति दुष्ट आशय होने के कारण उसके पाप-कर्म का बन्ध होता ही है । जैसे पूक्ति दृष्टान्त के संज्ञी और असंज्ञी जीवों के देश काल से दूरवर्ती प्राणियों के प्रति दुष्टआशय होने से कर्मबन्ध होता है, इसी प्रकार प्रत्याख्यान-रहित प्राणी के देशकाल से दूरवर्ती प्राणियों के प्रति भी दुष्ट-आशय होने से कर्म-बन्ध होता ही है।' हिंसा की सूक्ष्म विचारणा पर क्रिया का सिद्धान्त विकसित हुआ है । कर्मबन्ध की निमित्तभूत चेष्टा को क्रिया कहते हैं । वह पाँच प्रकार की है १. सूत्रकृतांग २।४।६६ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ४३ १. कायिकी, २. आधिकरणिकी, ३. प्राद्वेषिकी, ४. पारितापनिकी, ५. प्राणातिपातिकी, कायिकी शरीर से होने वाली असंयत प्रवृत्ति को कायिकी क्रिया कहते हैं । वह दो प्रकार की होती है-अनुपरत और दुष्प्रयुक्त । असंयम में प्रवृत्ति नहीं किन्तु निवृत्त भी नहीं, उस आत्मा की शारीरिक प्रवृत्ति 'अनुपरत कायिकी' कहलाती है। 'दुष्प्रयुक्त कायिकी' शरीर की दुष्प्रवृत्ति के समय होती है । यह संयति मुनि के भी हो सकती है । अविरति की अपेक्षा मुनि हिंसक नहीं होता। सर्व-पाप-कर्म की विरति करने वाला ही मुनि होता है। उसके प्रमादवश कभी दुष्प्रवृत्ति हो जाती है, वह हिंसा है। जो सर्व-विरति नहीं होते, वे अविरति की अपेक्षा से भी हिंसक होते हैं । हिंसा में प्रवृत्ति न करते समय प्रवृत्ति की अपेक्षा अहिंसक होते हुए भी अविरति की अपेक्षा अहिंसक नहीं होते। इसी दष्टि से सर्व-विरति को पंडित और धर्मी, अपूर्ण विरति को बालपंडित और धर्माधर्मी तथा अविरति को बाल और अधर्मी कहा है। आधिकरणिकी हिंसा के साधन-यंत्र, शस्त्र-अस्त्र आदि का निर्माण करना और पहले बने हुए यंत्र आदि को प्रयोग के लिए तैयार करना क्रमशः निर्वर्तनाधिकरणी और संयोजनाधिकरणी क्रिया कहलाती है । प्राद्वेषिकी अपने आप पर या दूसरों पर अथवा दोनों पर द्वेष करना । पारितापनिकी अपने आप को कष्ट देना, दूसरों को कष्ट देना या दोनों को कष्ट देना। प्राणातिपातिकी अपनी घात करना, दूसरों की घात करना अथवा दोनों की घात करना। इस क्रिया-पंचक की अपेक्षा जीव सक्रिय और अक्रिय दोनों प्रकार के होते एक जीव दूसरे जीव की अपेक्षा कदाचित् त्रिक्रिय होता है, कदाचित् चतुष्क्रिय १. भगवती ११११४६ २. वही, १७।२ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अहिंसा तत्त्व दर्शन और कदाचित् पंचक्रिय' । तीन क्रिया प्रत्येक अविरत प्राणी में होती हैं। वह किसी को कष्ट देता है तब चार और प्राणघात करता है तब पांच क्रियाएँ होती क्रिया जैसे वर्तमान जीवन की अपेक्षा से होती है, वैसे अतीत जीवन की अपेक्षा से भी होती है। अतीत शरीर या उसका कोई भाग हिंसा में व्याप्त होता है, वह शरीर अधिकरण तो है ही। हिंसा सम्बन्धी अकुशल मन का प्रत्याख्यान नहीं होता, उसका व्यक्त शरीर या शरीर-भाग कष्ट देने में व्याप्त होता है, उससे प्राण-वियोग होता है--इस प्रकार अतीत शरीर से भी पांच क्रियाएँ होती हैं । अतीत शरीर की क्रिया द्वारा कर्म-बन्ध होता है, वह प्रवृत्ति रूप नहीं होता। किन्तु वह शरीर उस व्यक्ति के द्वारा व्युत्सृष्ट--- त्यक्त नहीं होता-उसने विरति द्वारा अतीत शरीर से अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ा, इसलिए अविरति-रूप पाप-कर्म का बंध होता है। जो व्यक्ति अतीत के शरीर और अधिकरण को तीन करण, तीन योग से त्याग देते हैं, वर्तमान शरीर के द्वारा भी इनमें से कोई क्रिया नहीं करते, वे अक्रिय होते हैं । देह-दशा में अक्रिय केवल सर्व विरति मुनि ही हो सकते हैं। एक व्यक्ति ने बाण फेंका । हरिण मरा । बाण फेंकने वाले व्यक्ति को पांच क्रियाएँ लगीं और जिन जीवों के शरीर से बाण बना, उन जीवों को भी पाँच क्रियाएँ लगीं। (१) बाण फेंकने वाला पाँच क्रिया से स्पष्ट हो—यह सही है किन्तु जिन जीवों के व्यक्त शरीर से बाण बना, वे भी पाँच क्रिया से स्पृष्ट हों-यह कैसे हो सकता है ? व्यक्त शरीर अचेतन हो जाता है। उसके द्वारा कोई दूसरा व्यक्ति हिंसा करे, तब उस शरीर के निष्पादक जीव को क्रिया क्यों लगे ? (२) और यदि लगे तो मुक्त जीव भी इस दोष से मुक्ति नहीं पा सकते। उनके त्यक्त शरीर का भी हिंसा में प्रयोग हो सकता है ।। (३) त्यक्त शरीर के दुष्प्रयोग से उनके निष्पादक जीवों के जैसे पाप-कर्म की क्रिया होती है, वैसे ही उनके शरीर धर्मोपकरण के रूप में धर्म के साधन बनें, तो उनके निष्पादक जीवों के पुण्य-कर्म की क्रिया भी होनी चाहिए। इनका समाधान इस प्रकार है१. प्रज्ञापना पद २२ २. वही, पद २२ वत्ति ३. वही, पद २२ वृत्ति ४. वही, पद २२ वृत्ति ५. भगवती ५।६।१० Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ अहिंसा तत्त्व दर्शन (१) बंध अविरति के परिणाम से होता है। अविरति का परिणाम जैसे बाण फेंकने वाले व्यक्ति के होता है, वैसे ही जिन जीवों के शरीर से बाण बना उनके भी होता है। इसलिए इनके अविरति की दृष्टि से पाप-कर्म की क्रिया होती है। (२) मुक्त जीवों के अविरति नहीं होती, इसलिए उनके त्यक्त शरीर द्वारा पाप-कर्म का बंध नहीं होता। (३) जिन जीवों के शरीर से धर्मोपकरण बनता है, उनके पुण्य कर्म का बंध नहीं होता। पाप-बंध का कारण-अविरति जैसे निरन्तर होती है, वैसे पुण्य का कारण-शुभ प्रवृत्ति निरन्तर नहीं होती। वह विवेकपूर्वक या प्रयत्नपूर्वक करने से ही होती है । तात्पर्य यह है--किसी जीव का त्यक्त शरीर किसी दूसरे जीव की हिंसा का सहायक बनता है, इतने मात्र से उसको हिंसा का दोष नहीं लगता किन्तु उसके भी पूर्व शरीर की आसक्ति त्यक्त नहीं होती, इसलिए उसे आसक्ति रूप हिंसा का दोष लगता है, प्रवृत्ति रूप नहीं। वह धर्म करने का साधन बनता है, तब उसे उसके द्वारा धर्म का फल नहीं मिलता । कारण यह है-धर्म तभी होता है जबकि आत्मा की उसमें प्रवृत्ति होती है, अन्यथा वह नहीं होता। अविरति की अपेक्षा जीव को अधिकरणी और अधिकरण भी कहा गया है। अधिकरण हिंसादि पाप कर्मों के हेतुभूत वस्तु को अधिकरण कहते हैं। उसके दो भेद हैं-आन्तरिक और बाह्य । शरीर और इन्द्रियाँ आन्तरिक अधिकरण हैं और कुल्हाड़ी आदि परिग्रहात्मक वस्तुएँबाह्य-अधिकरण। जिसके ये होते हैं, वह जीव 'अधिकरणी' कहलाता है और शरीरादि अधिकरण से कथंचिद् अभिन्न होने से 'अधिकरण' भी कहलाता है। ___सर्व-विरति वाले जीवों के शरीरादि अधिकरण नहीं होते । अविरति वाले जीवों के ही शरीरादि अधिकरण होते हैं । हिंसा का विवेक और त्याग जो अपना दुःख जानता है, वह अपने से बाहर दूसरे का दुःख जानता है और जो अपने से बाहर दूसरे का दुःख जानता है, वही अपना दुःख जानता है । १. भगवती ५१६ वृत्ति २. वही, १६१ ३. आचारांग ॥१४१४७ : जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ, जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अहिंसा तत्त्व दर्शन जो व्यक्ति जीवों की हिंसा में अपना अनिष्ट समझता है, वही उसका त्याग कर सकता है । शान्ति को प्राप्त हुए संयमी पुरुष दूसरे जीवों की हिंसा कर जीने की इच्छा नहीं करते । बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसा निश्चय करना चाहिए कि प्रमादवश पहले जो कुछ किया, वह आगे नहीं करूंगा । विविध कर्मरूपी हिंसा की प्रवृत्ति मैं नहीं करूं- - इस भावना से जो उठा है, इसी पर मनन किया है, अभय का मर्म समझा है - वही बुद्धिमान् व्यक्ति इन प्रवृत्तियों को नहीं करता । जिन प्रवचन में ऐसे ही व्यक्ति को उपरत और अनगार कहा है । जैन दर्शन का उद्देश्य है - निर्वाण - मोक्ष । निर्वाण कर्म की शान्ति से मिलता है । कर्म की शान्ति सर्व विरति से होती है । सर्व-विरति प्रत्याख्यानीय चारित्र मोह के विलय से प्राप्त होती है । प्राणीमात्र का लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह सर्व विरति बने । किन्तु प्रत्याख्यानीय मोह का उदय रहते सर्व विरति नहीं आती । यह आत्मा की अशक्यता है । इस अशक्यता की दशा में यथाशक्य विरति का विधान है । किन्तु जिनके अप्रत्याख्यानीय मोह का उदय होता है, वे अंशत: भी विरति नहीं कर सकते 1 उनके लिए सम्यग् - दृष्टि बनने की व्यवस्था है । अनन्तानुबन्धी मोह के उदय से जो सम्यग्दृष्टि भी नहीं बन सकते, उनके लिए निर्जरा-तपस्या का मार्ग खुला रहता है । निर्जरा - तप, सम्यग् - दृष्टि और विरति - ये मोक्ष के साधन हैं । निर्जरा मोक्ष का साधन है पर केवल निर्जरा से मुक्ति नहीं होती, दृष्टि भी सम्यक् होनी चाहिए । चारित्र के बिना इन दोनों से भी मुक्ति नहीं होती । तीनों - सम्यग् दृष्टि, निर्जरा और चारित्र - विरति एक साथ होते हैं, तब आत्मा कर्म - मुक्त होती है । जो मुनि कैवल्य प्राप्त नहीं करता, वह मुक्त नहीं बनता । जो सर्व-विरति नहीं बनता, वह वीतराग नहीं बनता । जो वीतराग नहीं बनता, वह कैवल्य प्राप्त नहीं करता । इसलिए सब मुनि मुक्त नहीं होते । किन्तु जो मुनि व्रत पालन करते-करते वीतराग बन केवली बन जाते हैं, वे ही मुक्त होते हैं । घर में रहते हुए बहुत सारे आरम्भ समारम्भ (हिंसा आदि कार्य ) करने पड़ते हैं, इसलिए उस दिशा में सर्व-विरति हो नहीं सकती। आरम्भ-हिंसा करता हुआ जीव मुक्त नहीं बनता । गृहस्थ जितना त्याग करता है, उसकी उतनी ही विरति होती है, शेष अविरति होती है । जो कुछ भी त्याग नहीं करता, वह अविरत होता है । इसके आधार पर तीन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन पक्ष बनते हैं (१) अधर्म पक्ष । (२) धर्म पक्ष । (३) धर्म-अधर्म पक्ष। सर्वथा अविरित होती है, वह अधर्म पक्ष है। सर्वथा विरति होती है, वह धर्म पक्ष है । कुछ विरति और कुछ अविरति होती है, वह धर्म-अधर्म पक्ष है। अधर्म पक्ष हिंसा का स्थान है, धर्म पक्ष अहिंसा का स्थान है, धर्म-अधर्म पक्ष अहिंसा और हिंसा का स्थान है । हिंसा जीवन की परवशता __ अहिंसा में मैत्री है, सद्भावना है, सौहार्द है, एकता है, सुख और शान्ति है। अहिंसा का स्वरूप है उपशम, मदुता, सरलता, सन्तोष, अनासक्ति और अद्वेष । अहिंसा हमारे मन में है, वाणी में है और कार्यों में है, यदि इनके द्वारा हम न किसी दूसरे को सताते हैं और न अपने आपको । अहिंसा हमारी स्वाभाविक क्रिया है। हिंसा हमारे स्वभाव के प्रतिकूल है । हिंसा में मनुष्य को परवशता का भान होना चाहिए। बिना खाए, बिना पीए, बिना कुछ किए शरीर चल नहीं सकता । शरीर के सामर्थ्य के बिना खाने-पीने का साधन नहीं जुटाया जा सकता। इस प्रकार की क्रमबद्ध शृंखलाओं की अनिवार्य प्रेरणाओं से मनुष्य व्यापार करता है। धन का अर्जन करता है। उसकी रक्षा करना है। उपभोग करता है। चोरलुटेरों से अपने स्वत्व को बचाता है। दण्ड-प्रहार करता है। शासन-व्यवस्था करता है और अपने विरोधियों से लोहा लेता है। यह सब हिंसा है। पूर्ण आत्म-संयम के बिना सब प्रकार की हिंसा को नहीं त्यागा जा सकता और सब प्रकार की हिंसा को त्यागने के पश्चात् ये सब काम नहीं किए जा सकते । कितनी जटिल समस्या है अहिंसा और हिंसा के बीच । हिंसा के बिना गृहस्थ जी नहीं सकता और अहिंसा के बिना वह मानवीय गुणों को नहीं पा सकता । ऐसी स्थिति में बहुधा विचार-शक्तियाँ उलझ जाती हैं और अहिंसा का मार्ग कठोर प्रतीत होने लगता है । जैन आचार्यों ने मनोवैज्ञानिक तरीकों से मानसिक विचारों का अध्ययन किया, उनकी गहरी छानबीन की और तत्पश्चात् एक तीसरे हिंसा और अहिंसा के बीच के मार्ग (मध्यय मार्ग) का निरूपण किया। यह मार्ग यथाशक्य अहिंसा के स्वीकार का है। जैन दर्शन के अनुसार उसका नाम अहिंसा-अणुव्रत है। गृहस्थ खाने के लिए भोजन पकाते हैं, पानी पीते हैं, रहने के लिए मकान बनवाते हैं, पहनने-ओढ़ने के लिए कपड़े बनवाते हैं—यह आरम्भी हिंसा है। खेती Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अहिंसा तत्त्व दर्शन करते हैं, कल-कारखाने चलाते हैं, व्यापार करते हैं-यह उद्योगी हिंसा है। राष्ट्र, जनता एवं कुटुम्ब की रक्षा करते हैं, आततायियों से लड़ते हैं, अपने आश्रितों को आपत्तियों से बचाते हैं, छल-बल आदि सम्भव उपायों का प्रयोग करते हैं-यह विरोधी हिंसा है। द्वेषवश या लोभवश दूसरों पर आक्रमण करते हैं, बिना प्रयोजन किसी को सताते हैं, दूसरों का स्वत्व छीनते हैं, अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए मनमाना प्राण-वध करते हैं, वृत्तियों को उच्छखल करते हैं-यह संकल्पी हिंसा है। इस प्रकार हिंसा के चार प्रमुख वर्ग किए गए हैं । गह-त्यागी मुनि इस चार प्रकार की हिंसा को त्यागते हैं, अन्यथा वे मुनि नहीं हो सकते । गृहस्थ पहली तीन प्रकार की हिंसा को पूर्ण रूप से नहीं त्याग सकते, तथापि यथासम्भव इनको त्यागना चाहिए । व्यापारादि करने में मनुष्य का सीधा उद्देश्य हिंसा करने का नहीं, कार्य करने का होता है, हिंसा हो जाती है। संकल्पी हिंसा का सीधा उद्देश्य हिंसा का होता है, कार्य करने का नहीं। दूसरों के सुख, शान्ति-हित और अधिकारों को कुचलने वाले कार्य भी बहुधा संकल्पी हिंसा जैसे बन जाते हैं । अतः सामूहिक न्यायनीति की व्यवस्था का उल्लंघन करना भी सबल हिंसा का साधन है । संकल्पी हिंसा तो गृहस्थ के लिए भी सर्वथा वर्जनीय है। जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होने वाली हिंसा का असर व्यक्तिनिष्ठ है, समष्टिगत नहीं। किन्तु संकल्पी हिंसा का अभिशाप समूचे राष्ट्र और समाज को भोगना पड़ता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिकता का मापदण्ड : विरति किसी भी कार्य के दो पहल होते हैं लक्ष्य और परिणाम । पहले लक्ष्य बनता है, फिर कार्य और फिर परिणाम । लक्ष्य अतीत हो जाता है, कार्य वर्तमान रहता है और परिणाम भविष्य पर निर्भर होता है। लक्ष्य, कार्य और परिणाम–तीनों एक कोटि के होते हैं, तब वह कार्य सर्वांगपूर्ण होता है। लक्ष्य या कार्य में भेद होता है, कार्य या परिणाम में भेद होता है अथवा लक्ष्य, कार्य और परिणाम तीनों में भेद होता है, तब वे एकांगी बन जाते हैं। किसी भी वस्तु का मापदण्ड निश्चित करने की दो दृष्टियां होती हैं : व्यवहार और निश्चय। व्यवहार-दृष्टि स्थूल होती है, इसलिए उसके अनुसार हेतु, कार्य और परिणाम-तीनों भिन्न हो सकते हैं । निश्चय-दृष्टि में ऐसी बात नहीं है। वह सूक्ष्म और तत्त्व-दर्शी है। इसलिए उसके अनुसार कार्य और उसका परिणामये भिन्न कोटिक नहीं हो सकते। परिणाम कार्य का अवश्यम्भावी फल है। वह कभी भी और किसी भी स्थिति में क्रिया के प्रतिकूल नहीं होता। क्रिया अच्छी और परिणाम बुरा, क्रिया बुरी और परिणाम अच्छा-यह जो दिखाई देता है, वह प्रासंगिक परिणाम के कारण होता है। क्रिया के मौलिक फल की क्रिया के साथ ऐकान्तिक और आत्यन्तिक एकरूपता होती है- अच्छी क्रिया का फल अच्छा होता है और बुरी क्रिया का बुरा । निश्चय-दृष्टि के परिणाम क्रिया की अच्छाई और बुराई के मापदण्ड बन सकते हैं-जिसका परिणाम अच्छा होता है, वह क्रिया अच्छी और जिसका परिणाम बुरा होता है, वह क्रिया बुरी। ये (निश्चय-दृष्टि के परिणाम) अधिकांशतया नियमगम्य या सैद्धान्तिक होते हैं । __अहिंसा का वास्तविक परिणाम आत्म-शुद्धि है, यह एक नियम या सिद्धान्त है । कोई व्यक्ति जान सके या नहीं किन्तु जहां अहिंसा होती है, वहां आत्म-शुद्धि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अहिंसा तत्त्व दर्शन अवश्य होती है, इसलिए वह क्रिया की व्यावहारिक कसौटी नहीं बन सकती । व्यवहार-दृष्टि के परिणाम तथा निश्चय दृष्टि के प्रासंगिक परिणाम यद्यपि स्पष्ट होते हैं, उन्हें जानने के लिए नियम-निर्धारण की आवश्यकता नहीं होती । किन्तु क्रिया के स्वरूप के साथ उनकी एकरूपता नहीं होती, इसलिए उनमें क्रिया की और कोटि का निर्धारण करने की क्षमता नहीं होती । क्रिया हेतु के अनुकूल भी हो सकती है और प्रतिकूल भी । हेतु और क्रिया की ऐकान्तिक और आत्यन्तिक एकरूपता नहीं होती । इसलिए वह भी कार्य की कसौटी नहीं बना सकता । काण्ट ने नैतिकता का मापदण्ड निश्चित करते समय निश्चय और व्यवहारदृष्टि का उपयोग करते हुए लिखा है— प्रत्येक भला हेतु भला ही आन्तरिक परिणाम उत्पन्न करता है । उसका बाह्य परिणाम भला या बुरा हो सकता है । " नैतिकता के मापदण्ड के बारे में पश्चिमी दार्शनिकों के दो मत हैंहेतुवाद और परिणामवाद । हेतुवाद के अनुसार काम की भलाई या बुराई को देखने के लिए हमको उसके परिणाम को न देखकर उसके हेतु को देखना चाहिए । हेतु की शुद्धता पर कार्य की पवित्रता निर्भर करती है । जिस कार्य का हेतु पवित्र है, उसका फल चाहे जो कुछ हो, वह पवित्र ही कार्य है । २ ܘ काट के इस हेतु का प्रतिपक्ष बेन्थम और जान स्टुअर्ट मिल का परिणामवाद है। उसके अनुसार सभी कार्यों के हेतु एक से ही होते हैं । अतएव हेतु की दृष्टि से न किसी काम को भला और बुरा कहा जा सकता है । चोर चोरी अपने सुख के लिए करता है, इसी प्रकार दानी पुरुष भी दान सुख प्राप्ति के निमित्त करता है । अतएव यदि हेतु पर विचार किया जाए तो न चोर का काम बुरा है और न दानी का भला । दोनों के काम एक ही हेतु से होने के कारण एक से ही हैं । परिणामवादी नैतिक आचरण की कसौटी परिणाम को मानते हैं । सुखवाद इसी का आभारी है । बेन्थम के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति सुख का इच्छुक है । वह उसे भला समझता है अतएव भलाई का काम वह है, जिसके द्वारा अधिक सुख मिले और बुरा काम वह है जिसके परिणामस्वरूप अधिक कष्ट मिले । सम्भवतः ऐसा कोई भी काम न होगा, जिससे कुछ सुख और दुःख दोनों ही उत्पन्न न हों। पर हमें अपेक्षाकृत सुख और दुःख को देखना है । जिस काम में सुख अधिक मिलता है और दुःख कम, वही अच्छा है । यही बात जान स्टुअर्ट मिल कहते हैं - 'प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है अतएव १. नीतिशास्त्र, पृ० १६५ २. वही, पृ० १६६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ५१ सुख चाहने योग्य वस्तु है। इसलिए सुख की प्राप्ति करना नैतिक आचरण का आदर्श होना चाहिए।' ___ आचार्य भिक्षु के विचारानुसार हेतु और कार्य में सार्वदिक और सार्वत्रिक एकरूपता नहीं होती। कार्य का परिणाम जो अनन्तर या निश्चय-दष्टिपरक होता है, वह स्पष्ट जान नहीं पड़ता। और प्रासंगिक परिणाम जान पड़ते हैं, वे कार्य के साथ निश्चित सम्बन्ध नहीं रखते-व्याप्त नहीं होते । इसलिए हेतु और परिणाम, ये दोनों उसकी कसौटी नहीं बनते । __कार्य की कसौटी उसके स्वरूप का विवेक ही है । कार्य जैसे सहेतुक होता है, वैसे निर्हेतुक भी होता है। हेतु यदि कार्य की कोटि का निर्णायक हो तो सहज भाव से होने वाले कार्य की कोटि का निर्णायक फिर कौन होगा ? इसलिए कार्य के स्वरूप का विवेक ही उसकी कोटि का निर्णायक हो सकता है। कार्य अमुक कोटि का है-अध्यात्मिक, नैतिक, राजनैतिक, सामाजिक या असामाजिक है-- ऐसा निर्णय होने पर उसकी अच्छाई, बुराई, उपयोगिता, अनुपयोगिता का निर्णय सापेक्ष होता है । सभी दृष्टियों से या अपेक्षाओं से कोई भी कार्य अच्छा या बुरा नहीं होता। किसी भी कार्य को अच्छा या बुरा कहने के पीछे एक विशेष दृष्टि या अपेक्षा होती है । चोर अपने सुख के लिए चोरी करता है । उस द्वारा कल्पित सुख की दृष्टि से चोरी बुरी नहीं है, चोरी बुरी है आदर्श की दृष्टि से । सुख की चाह प्राणी की मनोवृत्ति है । वह आदर्श का मानदण्ड नहीं है। 'केवल वस्तुस्थिति के आधार पर आदर्श का निश्चय नहीं किया जा सकता। जहां पर आदर्श का निश्चय होता है, वहाँ पर मनुष्य को वस्तुस्थिति के स्तर से ऊंचा उठना पड़ता है। अतएव केवल मनोविज्ञान के आधार पर मनुष्य के नैतिक आचरण का मापदण्ड निश्चित करना अनुचित है। कर्तव्यशास्त्र में प्रधान बात यह नहीं है कि मनुष्य क्या करना चाहता है, वरन् प्रधान बात यह है कि उसे क्या करना चाहिए । मनुष्य में सुख की चाह अवश्य है परन्तु उसमें इस चाह को नियंत्रित करने की योग्यता भी है । वह अपने विवेक के द्वारा सुख की चाह को नियंत्रित कर सकता है।" __ जिस कार्य का हेतु पवित्र होता है, वह कार्य पवित्र ही है-यह एकांगी हेतुवाद भी निर्दोष नहीं है । हेतु की पवित्रता मात्र से कार्य पवित्र नहीं बनता। कार्य हेतु की पवित्रता के अनुरूप ही हो, तभी पवित्र बनता है। जैसा हेतु वैसा ही कार्य-यह हेतु और कार्य की जो अनुरूपता है, वही कार्य की कसौटी है। उदाहरणस्वरूप-अहिंसा का आचरण आध्यात्मिक कार्य है। उसका हेतु है -आत्म १. नीतिशास्त्र, पृ० २४, २५ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अहिंसा तत्त्व दर्शन शोधन । अध्यात्म की दृष्टि से अहिंसा का आचरण इसलिए अच्छा है कि वह आत्म-शोधन के अनुरूप है । आत्म-शोधन और अहिंसा की एकात्मकता है। आत्मशोधन के लिए जो कुछ करे, वह धर्म नहीं किन्तु आत्म-शोधन अनात्म-भाव की विरति से होता है। इसलिए आत्म-शोधन की दृष्टि से विरति धर्म है, अविरति अधर्म है। हेतु और क्रिया का सामंजस्य हो (दोनों की एकरूपता हो), वहां यह रूप बन सकता है: हेतु अच्छा-कार्य अच्छा। हेतु बुरा-कार्य बुरा। परिणाम अच्छा--कार्य अच्छा। परिणाम बुरा-कार्य बुरा। जिस कार्य का हेतु अपवित्र होता है वह कार्य अपवित्र ही है, यह एकांगिता भी उचित नहीं। जैसे हेतु के पवित्र होने मात्र से कार्य पवित्र नहीं होता, वैसे ही हेतु के अपवित्र होने मात्र से कार्य अपवित्र नहीं होता। पवित्रता और अपवित्रता अपने-अपने स्वरूप में निहित होती है। हेतु इतना बलवान् हो कि वह कार्य के स्वरूप को ही बदल डाले अथवा कार्य इतना बलवान् हो कि वह हेतु के स्वरूप को ही बदल डाले, वहां वे पवित्र हों या अपवित्र, उनकी एकरूपता होती ही है। उसी का नाम है—हेतु और क्रिया का सामंजस्य, जिसके रूप ऊपर बताए जा चुके हैं। किन्तु जहां दोनों एक-दूसरे को आत्मसात् नहीं कर पाते, वहां वे एकांगी अवश्य होते हैं । पर उनका स्वरूप परस्परावलम्बी नहीं होता। जैसे कोई व्यक्ति, अमुक हिंसक को समझाकर अहिंसक बनाऊं या अमुक अहिंसक हिंसा में जा रहा है, उसे फिर से अहिंसा में स्थिर करूं-इस पवित्र उद्देश्य को लिए चला । किन्तु चला असावधानी से, मार्ग में कीड़ों को कुचलते हुए चला। उसके जाने का उद्देश्य पवित्र है किन्तु जाना इसलिए पवित्र नहीं रहा कि उसका (जाने का) स्वरूप स्वयं हिंसात्मक हो गया। यदि वह सावधानीपूर्वक जाता, जीवों को नहीं मारता तो उसका जाना भी पवित्र होता । किन्तु जाने में हिंसा हुई, इसलिए वह वैसा नहीं हुआ। दूसरा मुख्य कार्य है-हिंसक को अहिंसक बनाना या अहिंसक को फिर से अहिंसा में स्थिर करना। हिंसक अहिंसक बनेगा या नहीं और अहिंसक फिर से अहिंसा में स्थिर होगा या नहीं, यह तो उसी के विवेक पर निर्भर है। किन्तु जो समझाने चला, वह उन्हें समझाने के अपने प्रयत्नों को अहिंसक नहीं रख सका। उन्होंने उसकी बात नहीं मानी, वह क्रोध के मारे आग-बबूला हो गया, बकवास करने लगा । उद्देश्य पवित्र था, किन्तु कार्य पवित्र नहीं हुआ। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ५३ ऐसे प्रसंगों में जहां हेतु और कार्य के स्वरूप एक-दूसरे पर अवलम्बित नहीं होते (उनका सामंजस्य नहीं होता), वहां हेतु और क्रिया में असामंजस्य की स्थिति में, उनका स्वरूप-विवेक ही उनकी कसौटी बनता है। स्वरूपात्मक कसौटी की दष्टि से हेतु और कार्य के रूप इस प्रकार होंगे : १. हेतु अच्छा-कार्य बुरा । २. हेतु बुरा-कार्य अच्छा । पहले रूप का निदर्शन ऊपर की पंक्तियों में आ चुका है। दूसरे रूप का निदर्शन इस प्रकार है : (१) एक व्यक्ति मार से बचने के लिए सच बोला। सच बोलने का हेतु सही नहीं है किन्तु वह असत्य नहीं बोला, यह गलत नहीं है। (२) रोटी नहीं मिली, अनिच्छा से भूख सही, यह अकाम-तपस्या है। इसका भावात्मक हेतु नहीं, इसलिए वह वस्तुवृत्त्या अहेतुक है। किन्तु अभावात्मक (रोटी के अभाव को ही) हेतु माना जाए तो उस स्थिति में यह निष्कर्ष आता है कि रोटी का अभाव पवित्र नहीं। पवित्र है-भूख सहन, जो कि तपस्या है। श्रीमज्जयाचार्य के शब्दों में-अकाम तपस्या में आत्म-शोधन की दृष्टि से भूख सहने की इच्छा नहीं है। यह बुराई है। किन्तु जो भूख सही जाती है, वह बुराई नहीं । पौद्गलिक सुख के लिए तपस्या की। यहाँ हेतु की दृष्टि से कार्य अच्छा नहीं है। फिर भी तपस्या का स्वरूप निर्दोष है, इसलिए स्वरूप की दृष्टि से वह बुरा भी नहीं। हेतु और क्रिया की समंजस स्थिति जैसा परिणाम लाती है, वैसा परिणाम उनकी असमंजसता में नहीं आता। आत्म-शोधन के लिए होने वाली तपस्या में पवित्रता का जो सर्वांगीण-उत्कर्ष होता है, वह अनिच्छा या पौद्गलिक इच्छा से होने वाली तपस्या में कभी नहीं होता। फिर भी एकांगिता में जितना होना चाहिए, उतना परिणाम अवश्य होता है । एक व्यक्ति का उद्देश्य है --बड़प्पन । उसकी पूर्ति के लिए वह तपस्वी बनता है। पहले में क्रिया उद्देश्य के अनुरूप नहीं है । दूसरे में उद्देश्य क्रिया के अनुरूप नहीं है। प्रतिरूप क्रिया उद्देश्य को पूरा नहीं होने देती और प्रतिरूप उद्देश्य क्रिया को पूरा नहीं बनने देता। इसकी असमंजसता न मिटने तक पूर्णता आती ही नहीं, इसलिए यह स्थिति वांछनीय नहीं है, फिर भी यह मानना पड़ता है कि स्वरूप की दृष्टि से दोनों एक नहीं हैं। परिणाम से धर्म-अधर्म का निर्णय नहीं होता। उसे आचार्य भिक्षु ने तीन Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अहिंसा तत्त्व दर्शन उदाहरणों द्वारा समझाते हुए कहा १. एक सेठ की दूकान में साधु ठहरे हुए थे। करीब रात के बारह बजे थे। गहरा सन्नाटा था । नि:स्तब्ध वातावरण में चारों ओर मूक शान्ति थी। चोर आए । सेठ की दूकान में घुसे । ताला तोड़ा। धन की थैलियाँ ले मुड़ने लगे। इतने में उनकी निःस्तब्धता भंग करने वाली आवाज़ आयी-'भाई ! तुम कौन हो ?' उनको कुछ कहने का, करने का मौका ही नहीं मिला कि तीन साधु सामने आ खड़े हो गए। चोरों ने देखा कि साधु हैं, उनका भय मिट गया और उत्तर में बोले'महाराज ! हम हैं...' उन्हें यह विश्वास था कि साधुओं के द्वारा हमारा अनिष्ट होने का नहीं, इसलिए उन्होंने और स्पष्ट शब्दों में कहा—'महाराज ! हम चोर हैं...'साधुओं ने कहा-'इतना बुरा कार्य करते हो, यह ठीक नहीं।' साधु बैठ गए और चोर भी। अब दोनों का संवाद चला । साधुओं ने चोरी की बुराई बताई और चोरों ने अपनी परिस्थिति । समय बहुत बीत चला। दिन होने चला। आखिर चोरों पर उपदेश असर कर गया। उनके हृदय में परिवर्तन आया। उन्होंने चोरी को आत्म-पतन का कारण मान उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया। चोरी न करने का नियम' भी कर लिया । वे अब चोर नहीं रहे, इसलिए उन्हें भय भी नहीं रहा। कुछ उजाला हुआ, लोग इधर-उधर घूमने लगे। वह सेठ भी घूमता-घूमता अपनी दूकान के पास से निकला। टूटे ताले और खुले किवाड़ देख वह अवाक्-सा हो गया। तुरन्त ऊपर आया और देखा कि दूकान की एक ओर चोर बैठे हैं, साधुओं से बात कर रहे हैं और उनके पास धन की थैलियाँ पड़ी हैं । सेठ को कुछ आशा बंधी। कुछ कहने जैसा हुआ, इतने में चोर बोले'सेठजी ! यह आपका धन सुरक्षित है, चिन्ता न करें। यदि आज ये साधु यहाँ न होते तो आप भी करीब-करीब साधु-जैसे बन जाते। यह मुनि के उपदेश का प्रभाव है कि हम लोग सदा के लिए इस बुराई से बच गए और इसके साथ-साथ आपका यह धन भी बच गया।' सेठ बड़ा प्रसन्न हुआ। अपना धन सम्भाल मुनि को धन्यवाद देता हुआ अपने घर चला गया। यह पहला चोर का दृष्टान्त है । इसमें दो बातें हुईं—एक तो साधुओं का उपदेश सुन चोरों ने चोरी छोड़ी, इसमें चोरों की आत्मा चोरी के पाप से बची और दूसरी, उसके साथ सेठजी का धन भी बचा । अब सोचना यह है कि इसमें आध्यात्मिक धर्म कौन-सा है ? चोरों की आत्मा चोरी के पाप से बची, वह या सेठजी का धन बचा, वह ? २. कसाई बकरों को आगे किए जा रहा था। मार्ग में साधु मिले। उनमें Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिसा तत्त्व दर्शन से प्रमुख साधु ने कसाई को सम्बोधित करते हुए कहा-'भाई ! इन बकरों को भी मौत से प्यार नहीं, यह तम जानते हो। इनको भी कष्ट होता है, पीड़ा होती है, तुम्हें मालूम है। खैर ! इसे जाने दो। इनको मारने से तुम्हारी आत्मा मलिन होगी। उसका परिणाम दूसरा कौन भोगेगा?' मुनि का उपदेश सुन कसाई का हृदय बदल गया। उसने उसी समय बकरों को मारने का त्याग कर दिया और आजीवन निरपराध त्रस जीवों की हिंसा का भी प्रत्याख्यान किया । कसाई अहिंसक- स्थूल-हिंसा-त्यागी बन गया। ___ यह दूसरा कसाई का दृष्टान्त है। इसमें भी साधु के उपदेश से दो बातें हुईंएक तो कसाई हिंसा से बचा और दूसरी, उसके साथ-साथ बकरे मौत से बचे। अब सोचना यह है कि इनमें आध्यात्मिक धर्म कौन-सा है ? कसाई हिंसा से बचा, वह या बकरे बचे, वह ? चोर चोरी के पाप से बचे और कसाई हिंसा से। यह उनकी आत्मशुद्धि हुई, इसलिए यह निःसन्देह आध्यात्मिक धर्म है। चोरी और हिंसा के त्याग से उन्हें धर्म हुआ, किन्तु इन दोनों के प्रसंग में जो दो कार्य और हुए-धन और बकरे बचे, उनमें आत्मशोधन का कोई प्रसंग नहीं। इसलिए उनके कारण धर्म कैसे हो सकता है ? यदि कोई उन्हें भी आध्यात्मिक धर्म माने तो उसे तीसरे दृष्टान्त पर ध्यान देना होगा। ३. अर्द्धरात्रि का समय था । बाजार के बीच एक दूकान में तीन साधु स्वाध्याय कर रहे थे। संयोगवश तीन व्यक्ति उस समय उधर से निकले । साधुओं ने उन्हें देखा और पूछा-'भाई ! तुम कौन हो? इस घोरबेला में कहां जा रहे हो ?' यह प्रश्न उनके लिए एक भय था। वे मन ही मन सकुचाए और उन्होंने देखने का यत्न किया कि प्रश्नकर्ता कौन है ? देखा, तब पता चला कि हमें इसका उत्तर एक साधु को देना है- सच कहें या झूठ ? आखिर सोचा–साधु सत्यमूर्ति हैं। इनके सामने झूठ बोलना ठीक नहीं । कहते संकोच होता है, न कहें यह भी ठीक नहीं क्योंकि इससे उनकी अवज्ञा होती है। यह सोच वे बोले-'महाराज ! क्या कहें ? आदत की लाचारी है, हम पापी जीव हैं, वेश्या के पास जा रहे हैं।' साधु बोले- 'तुम कुलीन दीखते हो, सच बोलते हो, फिर भी ऐसा अनार्य कर्म करते हो, तुम्हें यह शोभा नहीं देता। विषय-सेवन से तुम्हारी वासना नहीं मिटेगी । घी की आहुति से आग बुझती नहीं ।' साधु का उपदेश हृदय तक पहुंचा और ऐसा पहुंचा कि उन्होंने तत्काल उस जघन्य वृत्ति का प्रत्याख्यान कर डाला। वह वेश्या बहुत देर तक उनकी बाट देखती रही, आखिर वे आए ही नहीं, तब उनकी खोज में चल पड़ी और घूमती Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन फिरती वहीं जा पहुंची । अपने साथ चलने का आग्रह किया किन्तु उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। वह व्याकुल हो रही थी, उसने कहा-'आप चलें, नहीं तो मैं कुएं में गिरकर आत्महत्या कर लूंगी।' उन्होंने कहा-'हम जिस नीच कर्म को छोड़ चुके, उसे फिर नहीं अपनाएंगे।' उसने तीनों की बात सुनीअनसुनी कर कुएं में गिर आत्महत्या कर ली। यह तीसरा व्यभिचारी का दृष्टान्त है । इसमें भी दो बातें हुई–एक तो साधु के उपदेश से व्यभिचारियों का दुराचार छूटा और दूसरी, उनके कारण वह वेश्या कुएं में गिर मर गई । अब कुछ ऊपर की ओर चलें। यदि चोरी-त्याग के प्रसंग में बचने वाले धन से चोरों को, हिंसा-त्याग के प्रसंग में बचने वाले बकरों से कसाई को धर्म हुआ माना जाए तो व्यभिचार-त्याग के प्रसंग में वेश्या के मरने के कारण इन तीनों व्यक्तियों को अधर्म हुआ, यह भी मानना होगा। यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण है कि धर्म-अधर्म आत्मा की मुख्य प्रवृत्तियों पर निर्भर है, प्रासंगिक प्रवृत्तियां धर्म-अधर्म का कारण नहीं बनती। __ तीनों के परिणाम क्रमश:- (१) धन की रक्षा, (२)बकरों की रक्षा और (३) वेश्या की मृत्यु है । परिणाम से कार्य का मूल्य आंका जाए तो एक ही कोटि का कार्य दो जगह अच्छा होगा और तीसरी जगह बुरा, किन्तु ऐसा होने पर भी किसी कार्य का मूल्यांकन स्थिर नहीं हो सकता । चोरी का त्याग, जीवहिंसा का त्याग और व्याभिचार का त्याग, जो मुनि के उपदेशों से हृदय-परिवर्तन होने पर आत्म-शुद्धि के लिए किए गए, उनका स्वरूप विरति या संयम है। और वे आत्म-शुद्धि के विरोधी नहीं हैं तथा उनका अनन्तर परिणाम आत्म-शुद्धि है । ____ आचार्य भिक्षु ने इस स्वरूप-विवेकात्मक कसौटी से धर्म-अधर्म को कसा और उनके लक्षण बांधे। उनकी परिभाषा के अनुसार अहिंसा ही धर्म है। उनका लक्ष्य है--आत्म-शुद्धि-साधकता । सुख-साधकता धर्म का लक्षण नहीं है । कई प्राचीन तत्त्ववेत्ता सर्व-भूत-सुख को ही मनुष्य का श्रेष्ठ ध्येय मानते थे। उस पक्ष का सार यह है कि लोक-हितकारक और लोक-सुखकारक जो कर्म है, वह धर्म है, लोकदुःखकारक अधर्म । कुमारिल भट्ट ने इस पक्ष को अमान्य बतलाया। कारण साफ है--श्रुति, स्मृति और परम्परा के बहुत सारे विधि-निषेध इस कसौटी पर ठीक नहीं उतर सकते। आचार्य भिश्रु ने बताया-आध्यात्मिक भूमिका का सुख है-- निर्जरा--आत्म-शुद्धि। धर्म उसका साधन है । वह पौद्गलिक सुख का साधन हो तो अधर्म जैसा कोई कार्य रहता ही नहीं। डॉ. लक्ष्मणशास्त्री ने प्रो० दफ्तरी के मत की मीमांसा करते हुए लिखा है-'दफ्तरीजी धर्म का मुख्य लक्षण सुख-साधकता बतलाते हैं, परन्तु यह धर्म का लक्षण नहीं हो सकता। क्योंकि बहुत सारे Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ अहिंसा तत्त्व दर्शन सामाजिक कर्तव्य ऐसे होते हैं कि उनसे व्यक्ति को दुःख और संकट ही मिलता है। फिर भी उन्हें पूरा करना पड़ता है। इस पर कोई यह कहेगा कि किसी भी व्यक्ति की कर्म-प्रवृत्ति सुखार्थ अथवा दुःख-निवारणार्थ होती है। पर-हितार्थ निरन्तर रत रहने वाले साधु और सर्वथा स्वार्थी कृपण मनुष्य-इन दोनों की प्रवृत्ति सुखार्थ ही होती है। फांसी पर जाने वाले देश-भक्त को भी एक प्रकार का सुख प्राप्त होता है। इसका उत्तर यह है कि तोफिर सुख-साधकता धर्म्य और अधर्म्य ठहराने की कसौटी नहीं हो सकती। कारण एक ही क्रिया कितने ही व्यक्तियों के लिए सुख-साधन और कितने ही व्यक्तियों के लिए दुःख-साधन हो जाती है। यज्ञ के पुरोहित को दान करना, यह क्रिया वेदों पर श्रद्धा रखने वाले यजमान को सुख, सन्तोष देती है और वही क्रिया वेदों पर श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य में विषाद और असंतोष उत्पन्न कर देती है, क्योंकि विशिष्ट कर्तव्यों का मूल्य विशिष्ट सामाजिक स्थिति में ही उत्पन्न होता है। सनातन धर्म की परम्परा पर विश्वास रखने वाले चमार को अस्पृश्यता के व गुलामगिरी के नियम पालने में अत्यन्त सुख-सन्तोष मिलता है और उस पर श्रद्धा न रखने वाले चमार को दुःख और पाप जान पड़ता है। इस तरह सुख-साधकता धर्म का लक्षण नहीं बन सकता।" जहां विरति नहीं, वहां दया दान या कुछ भी हो, वह आत्म-शुद्धि-साधक धर्म नहीं है। थोड़े में उनके विवेकवाद का यही सार है। विवेकवाद के आचार्यों ने इस सिद्धान्त को लगभग ऐसे ही माना है। काण्ट के अनुसार-'दया अथवा मोह से प्ररित होकर स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति के विरुद्ध काम करना मानसिक बीमारी का लक्षण है। ___ 'जो व्यक्ति जितनी दूर तक राग-द्वेष के वश में आता है, वह उतनी ही दूर तक नैतिक आचरण करने में असमर्थ रहता।" जिन संवेगों और आवेगों को लोग भला समझते हैं, उन्हें स्टोइक लोग बुरा समझते थे। किसी भी परिस्थिति में दया के आवेश में आना बुरा है। मनुष्य दया के आवेश में आकर भी अपने विवेक को भूल जाता है और न्याय न करके समाज का अहित कर देता है। दया के स्थान पर स्टोइक लोग प्रशान्त मन रहने और सद्भावना लाने का आदेश करते हैं। सब प्राणियों में आत्मीयता स्थापित करनी १. हिन्दू धर्म की समीक्षा, पृ० ६६ २. नीतिशास्त्र, पृ० १६६ ३. वही, पृ० १६८ ४. विवेकवाद का एक विशेष मत 'स्टोइकवाद' है। ईसा से ३०० वर्ष पहले साइप्रस द्वीप के निवासी 'जनों' ने इसका प्रवर्तन किया। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन चाहिए। आत्मीयता उपादेय है, दया नहीं।" आचार्य भिक्षु का विवेकवाद आध्यात्मिक विवेकवाद है। उन्होंने कहा'दया-मात्र, दान-मात्र आध्यात्मिक हैं-ऐसी मान्यता उचित नहीं । वही दया और दान आध्यत्मिक है जो अहिंसात्मक है, राग-द्वेष-रहित है। शेष दया-दान अन्आध्यात्मिक है।' उनके आध्यात्मिक विवेकवाद के फलित ये हैं : १. विरति धर्म है। २. अविरति अधर्म है। ३. सुख-साधकता धर्म का लक्षण नहीं है । ४. संसार और मोक्ष का मार्ग भिन्न-भिन्न है। ५. परिणाम से धर्म-अधर्म का निर्णय नहीं होता। ६. क्रिया का फल वर्तमान में होता है, पहले-पीछे नहीं। ७. व्रत-वृद्धि के लिए अविरति-पोषण धर्म नहीं । ८. परिग्रह का आदान-प्रदान धर्म नहीं। ६. हिंसा में और हिंसा से धर्म नहीं होता। (क) एक की रक्षा के लिए दूसरे को मारना धर्म नहीं। (ख) बड़ों के लिए छोटों को मारना धर्म नहीं। (ग) देव, गुरु और धर्म के लिए हिंसा करना धर्म नहीं। १०. धन से धर्म नहीं होता। ११. बलात्कार से धर्म नहीं होता। १२. हिंसा किए बिना धर्म नहीं-ऐसा मानना मिथ्या है। १३. एक ही कार्य में अल्प-पाप, बहु-निर्जरा होती है-ऐसा मानना मिथ्या है। १४. मिश्र-धर्म--- एक ही प्रवृत्ति में धर्म-अधर्म दोनों की प्ररूपणा मिथ्या १५. व्रताव्रती का आहार व्रत और अव्रत दोनों का पोषक नहीं। १६. गृहस्थ दान का पात्र-अधिकारी नहीं। १७. गृहस्थ का खान-पान अव्रत में है। १८. तपस्या धर्म है, पारणा धर्म नहीं। १. नीतिशास्त्र, पृ १४८ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ५६ वृत्ति, व्यक्ति और वस्तु का सम्बन्ध १. कर्म अपना किया हुआ होता है, परकृत या उभयकृत नहीं होता। कर्म का नाश भी अपना किया हुआ होता है, परकृत या उभयकृत नहीं होता। २. कर्म के दो रूप हैं---एक पुण्य, दूसरा पाप और कर्म-विलय का रूप है--निर्जरा, जो धर्म है। पवित्र काय-चेष्टा, वाणी और अन्तःकरण से पुण्य बंधता है और अपवित्र काय-चेष्टा, वाणी और अन्तःकरण से पाप । पुण्य-बन्ध का कारण उक्त तीन कारणों के अतिरिक्त और कोई नहीं है । पाप-बन्ध में उक्त कारणों के सिवा चार और कारण हैं : (१) मिथ्या-दर्शन, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, ३. पुण्य-पाप की कारण-सामग्री विवाद-स्थल नहीं है। विवाद का विषय है-पवित्र-अपवित्र की चर्चा । पवित्र-अपवित्र की मान्यता ऐकान्तिक नहीं हो सकती। वह सापेक्ष है । एक दृष्टि से जो वृत्ति पवित्र होती है, वह दूसरी दृष्टि से अपवित्र। इसलिए एक ही दष्टि से किसी भी वृत्ति को पवित्र या अपवित्र नहीं कहा जा सकता। विवाह का संकल्प गृहस्थाश्रम की दृष्टि से पवित्र है किन्तु ब्रह्मचर्याश्रम की दृष्टि से वह पवित्र नहीं है। विवाह को अपवित्र कहना गृहस्थाश्रम के बंधे हुए संस्कारों में उभार लाता है और उसे समग्र-दृष्टि से पवित्र कहना ब्रह्मचर्य की निष्ठा को तोड़ने जैसा है। इसलिए एकान्तवादी विचार का समाधान उनकी अपनी-अपनी मर्यादा में ढंढ़ना चाहिए। विवाह अपनी मर्यादा में अपने आश्रम की दृष्टि से पवित्र हैइतना ही बस है। यह इससे आगे बढ़ा कि संघर्ष हुआ। मर्यादा-भेद या भूमिकाभेद को समझे बिना संघर्ष टलने का कोई रास्ता ही नहीं दीखता। ४. वृत्ति का पहला रूप ज्ञान है । वह न पवित्र होता है और न अपवित्र । वह ज्ञानावरण का विलय-भाव है। उससे कर्म का बन्ध या विलय कुछ भी नहीं होता। वही ज्ञान संस्कारों से भावित होकर वृत्ति या भावना बनता है, तब उसके पवित्र और अपवित्र-ये दो रूप बन जाते हैं। इसलिए भावना या अन्तःकरण को पवित्र या अपवित्र कहने या मानने के पहले उसके पवित्र और अपवित्र होने के हेतु को ढूंढ़ निकालना चाहिए। हेतु की छानबीन में अगर हमने एकान्त-दृष्टि का आश्रय लिया तो निर्णय सही नहीं आएगा। विचार के विषय की मर्यादा को सापेक्ष दृष्टि से ध्यान में रखकर ही उसे ढूंढ़ना चाहिए। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ५. दूसरा व्यक्ति और वस्तु किसी तीसरे की वृत्ति को अपवित्र या पवित्र नहीं बनाते, केवल निमित्त बन सकते हैं । अपवित्रता और पवित्रता अपने ही अर्जित संस्कारों के परिणाम हैं और उन्हीं से कर्म-बन्धन होता है । यह सब सोलह आना सही है । किन्तु किसी व्यक्ति या वस्तु के साथ हमारी क्रिया या भावना का धागा जुड़ता है, वह किस रूप में और किस संस्कार से भावित होकर जुड़ता है, यह विचारार्ह है। कार्य का मूल्यांकन इसी पर होगा । ६. ( क ) पवित्र भावना से पुत्र का मांस खाने वाला निर्दोष है— एक ऐसा अभिमत हैं । (ख) दुःख - मोचन के लिए छटपटाते को करुणार्द्र होकर मार डालने की भावना भी पवित्र मानी जाती रही है । (ग) अनासक्त भाव से केवल प्रजा की उत्पत्ति के लिए अब्रह्मचर्य - सेवन भी बहुतों द्वारा पवित्र माना जाता है । (घ) आततायी को मारने में कोई दोष नहीं - यह मान्यता भी नई नहीं है। इस प्रकार पवित्रता की विविध कल्पनाएं हैं। अपवित्रता के पीछे भी ऐसा ही कल्पनाओं का जाल गुंथा हुआ है । अगर हम वृत्ति को ही एकमात्र स्थान दें, उनके वर्तन के आधारभूत वस्तु और व्यक्ति को भुला बैठें - यह घोर ऐकान्तिकता होगी । ७. रोटी एक वस्तु है । वह परिग्रह नहीं है और न वह किसी का भलाबुरा करने वाली है किन्तु व्यक्ति की वृत्ति से जुड़कर वह भी परिग्रह बन जाती है । स्थूल दृष्टि से यही कहा जाएगा कि रोटी जीवन निर्वाह की अनिवार्य अपेक्षा है | वह परिग्रह क्यों ? उस पर भला क्या ममत्व होगा ? किन्तु सूक्ष्म विचार की बात कुछ और ही होगी । रोटी खाने के स्थूल संस्कार जीवन निर्वाह के भले हों, पर संस्कारों की शृंखला इतने में पूर्ण नहीं होती । रोटी रखने और खाने की पृष्ठभूमि में अविरति और असंयम के अनेक सूक्ष्म संस्कार छिपे हुए होते हैं । वे वृत्तियों को वस्तु ग्रहण के लिए उत्तेजित किए रहते हैं । इसी अविरति की स्थिति में खानपान और अविरतिमय आदान-प्रदान ममत्व के सूक्ष्म-संस्कारों के पोषक ही रहते हैं, निवर्तक नहीं । सर्वविरति विधिपूर्वक भोजन कर सात-आठ कर्मों की निर्जरा करता है । अविरति का भोजन कर्म-बन्ध का हेतु है । ८. एक परिग्रही का परिग्रह दूसरे परिग्रही के पास जाता है । जिसके पास परिग्रह है, उसका परिग्रह, जिसके पास नहीं है, उसके पास जाता है या जिसके पास अधिक परिग्रह है, वह कम वाले के पास जाता है । इससे सामाजिक आवश्यकता की आंशिक पूर्ति अवश्य हो जाती है, दाता की वृत्ति अपरिग्रह की Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ६१ नहीं होती । परिग्रह का स्थानान्तरण अपरिग्रह नहीं होता । परिग्रह रखना जैसे धर्म नहीं, वैसे ही परिग्रह रखाना और रखने को अच्छा जानना भी धर्म नहीं है । जैन-धर्म अविरति और विरति को तीन करण, तीन योग से मानता है । परिग्रह से अपना संयम है । परिग्रह करने की वृत्ति का त्याग है, वह धर्म है अथवा परिग्रही को अपनी वस्तु देकर ( दान - काल के पश्चात् ) परिग्रह की क्रिया से मुक्त होने की जो वृत्ति है, वह धर्म है । ६. संयमी को ज्यों-त्यों देना ही धर्म है - यह मान्यता भ्रमकारी है । उसे शुद्ध आहार ऐषणापूर्वक शुद्धवृत्ति से दिया जाए, वही धर्म है, शेष नहीं । जैन आगमों की दृष्टि से धर्म-दान का स्वरूप यह होगा : व्यक्ति - संयमी वस्तु - शुद्ध वृत्ति – शुद्ध व्यक्ति - संयमी परिणाम वस्तु - अशुद्ध-आधा कर्म वृत्ति - अशुद्ध — नागश्री जैसी -धर्म - } परिणाम-अधर्म वस्तु अशुद्ध होगी, वहां वृत्ति शुद्ध नहीं हो सकती । तात्पर्य कि अशुद्ध वस्तु देने की वृत्ति शुद्ध नहीं होती । साधु विद्यार्थी है । उसे पोषक खाद्य नहीं मिल रहा है । साधु के पढ़ने में खलल न हो, यह सोचकर कोई व्यक्ति पोषक भोजन बना उसे देता है और वह उस वृत्ति को पवित्र मानता है । विद्या को ही प्राधान्य देने वालों की दृष्टि से वह अपवित्र नहीं भी है । किन्तु अहिंसा की दृष्टि से सोचने वाले उसे मोह कहेंगे । आधाकर्म आहार साधु के लिए अग्राह्य है, इसलिए वैसा आहार देने का संकल्प पवित्र होगा या मोह - यह समझना कठिन नहीं है । अगर वृत्ति के साथ जुड़ी हुई वस्तु का कोई महत्त्व नहीं होता तो मुनि प्रासुक और ऐषणीय आहार ले, अप्रासु अनेषणीय न ले - ऐसी व्यवस्था भगवान महावीर क्यों करते ? संयमी अशुद्ध और अनेषणीय आहार लेता है तो उसका लेना धर्म नहीं होता । गृहस्थ संयमी को अशुद्ध और अनेषणीय आहार देता है तो उसका देना भी धर्म नहीं होता । नागश्री ने धर्मघोष मुनि को अकल्प्य आहार दिया और हिंसापूर्ण वृत्ति से दिया, इसलिए वह दान कर्म नहीं हुआ । रेवती ने भगवान् महावीर की रोग-दशा से द्रवित होकर कुष्माण्ड पाक बना डाला । स्थूल दृष्टि से इसमें उसकी कोई दुर्भाना नहीं जान पड़ती। भगवान् उसकी स्थूलवृत्ति के पीछे रहे हुए मोह को जानते थे, इसलिए उन्होंने वह नहीं लिया । भावना के शुद्ध या अशुद्ध होने का निर्णय Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन स्थूल वृत्ति के आधार पर नहीं किया जा सकता। उसके लिए सूक्ष्म संस्कारों की तह में पहुंचना होता है। १०. मोक्ष की साधना के लिए पहाड़ से गिरकर मरने वाले की भावना क्या खराब है ? उसका वैसा ही विश्वास है। और इस कोटि के बहुत सारे अकाम मरण हैं। बहुत सारे आदमी मोक्ष मिल जाए-इस भावना से अज्ञान-कष्ट सहते हैं। आखिर सूक्ष्म संस्कारों को पकड़े बिना स्थूल विचार के आधार पर शुद्ध या अशुद्ध भावना की कोई परिभाषा ही नहीं बनती। ११. जैन आगमों के अनुसार कहा जा सकता है-अविरतिजनित संस्कार और उन संस्कारों द्वारा उत्पन्न होने वाली भावना या वृत्ति आत्म-मुक्ति की दृष्टि से शुद्ध नहीं हो सकती। १२. सर्वविरति सुप्त (प्रमाद-दशापन्न) होते हैं, तभी उनके शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-ये पांच जागृत होते हैं, यानी कर्म-बन्ध के कारण बनते हैं। वे जागृत होते हैं, तब उनके ये पांचों सोए हुए रहते हैं, यानी कर्मबन्ध के कारण नहीं बनते। असंयती मनुष्य के सुप्त और जागृत-दोनों दशाओं में शब्दादि पांचों जागृत रहते हैं-कर्म-बन्ध के कारण बने रहते हैं। यह अविरति और विरति की भेद-रेखा है। इसे समझ लेने पर तेरापंथ का समूचा दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है । १३. आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है आस्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमार्हती दृष्टिः, सर्वमन्यत् प्रपंचनम् ।। वैसे ही आचार्य भिक्षु की भावना को इन शब्दों में रखा जा सकता है : अविरतिर्भवहेतु: स्यात्, विरतिर्मोक्षकारणम् । इतीयमार्हती दृष्टि, सर्वमन्यत् प्रपंचनम् ।। असंयमी व्यक्ति के जीवन-निर्वाह से असंयम के सूक्ष्म संस्कार जड़े हए होते हैं, इसलिए वह धर्म नहीं माना जाना चाहिए। धर्म नहीं, वहां पुण्य नहीं बंधता। योग की प्रवृत्ति धर्ममय होती है, उसी काल में योगजनित कर्म पुण्य रूप बंधता है, शेष काल में नहीं । इसलिए असंयमी-जीवन बनाए रखने की वृत्ति (स्थूल वृत्ति) भले ही करुणा की हो, धर्म या पुण्य का निमित्त नहीं बनती। १४. वस्तु और व्यक्ति के साथ जिस रूप में हमारी वृत्ति जुड़ती है, उसी रूप में उसके पीछे हमारे सूक्ष्म संस्कार सक्रिय रहते हैं। इसलिए प्रत्येक क्रिया के मूल्यांकन में वस्तु और वृत्ति के सम्बन्ध को भुलाया नहीं जा सकता। जो बात वस्तु के लिए है, वही व्यक्ति के लिए होगी। वस्तु जैसे धर्म-अधर्म नहीं होती, वैसे Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन व्यक्ति भी दूसरे के लिए धर्म-अधर्म नहीं होता। वस्तु के साथ जैसे धर्म-अधर्म के रूप में वृत्ति जुड़ती है, वैसे ही व्यक्ति के साथ भी वह धर्म-अधर्म के रूप में जुड़ती है। वृत्ति सामने रहे व्यक्ति के अनुसार नहीं बनती, वह निजी संस्कारों के अनुसार बनती है । जिस व्यक्ति के प्रति मनुष्य के जैसे संस्कार होते हैं, उसके प्रति वैसे ही संस्कार, वैसी ही वृत्ति बन जाती है। अपना साथी और भिखमंगा-दोनों एक ही बीमारी के शिकार हैं। साथी को देखकर समवेदना की वृत्ति बनेगी और भिखमंगे को देखकर करुणा की। साथी के प्रति समानता के संस्कार बंधे हुए होते हैं और भिखमंगे के प्रति दीनता के । वृत्ति के साथ-साथ व्यक्ति का महत्त्व नहीं होता तो अपने साथी और परिवार के प्रति होने वाली समवेदना धर्म या पुण्य नहीं मानी जाती और हीन-दीन के प्रति होने वाली करुणा धर्म या पुण्य मानी जाती है, यह भेद क्यों? वृत्ति या व्यक्ति से कोई लगाव न हो तो एक मां अपने बेटे को रोटी खिलाए, वह धर्म-पुण्य नहीं और भिखमंगे को रोटी दे, वह धर्म-पुण्य-इस भेद का क्या कारण है ? अगर कहा जाए, बेटे के प्रति ममता की वृत्ति है और भिखमंगे के प्रति करुणा की। ममता पाप है, करुणा धर्म, तो कहना होगा-बेटा भी भूखा है और भिखमंगा भी। स्थिति समान है, दोनों भूखे हैं। फिर क्या कारण है कि एक के प्रति करुणा नहीं और दूसरे के प्रति है ? समाधान यही आता है कि बेटे का रोटी में अधिकार है, भिखमंगे का उसमें अधिकार नहीं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अधिकार-वंचित व्यक्ति दीन होता है, दीन के प्रति करुणा की वृत्ति बनती है और धर्म-पुण्य कमाने की साधना है। यह सारी कल्पना धार्मिक तो क्या, सामाजिक भी नहीं लगती। सामाजिक भाई के प्रति होने वाली हीनता के संस्कार और उनसे उत्पन्न होने वाली करुणा क्या असामाजिक तत्त्व नहीं है? समाज की दुर्व्यवस्था में ये संस्कार बने और आगे चलकर धर्म-कर्म के साथ जुड़ गए। आज हीन-दीन के प्रति करुणा लाकर धर्म-पुण्य कमाने की भावना चल रही है। तत्त्व इतना ही है कि व्यक्ति के साथ जुड़ने पर हमारी वृत्ति का स्वरूप वैसा ही बनता है, जैसाकि वह व्यक्ति है। वृत्ति त जुड़े हुए व्यक्ति को छोड़कर कोरी वृत्ति का मूल्य नहीं आंका जा सकता। अगर ऐसा होता तो चेतन-अचेतन पशु-पक्षी सभी को पवित्र वृत्ति से नमस्कार करने में धर्म होता। विनयवाद का ऐसा अभिप्राय हो भी सकता है किन्तु व्यक्ति के गुणावगुण पर नमस्कार की अर्हता मानने वालों द्वारा ऐसा नहीं माना जाता। इसलिए वस्तु, व्यक्ति और वृत्ति के समन्वित रूप को छोड़कर किसी एक को ही शुद्ध-अशुद्ध के निर्णय का मानदण्ड नहीं बनना चाहिए। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ संयम और असंयम की भेदरेखा क्रिया की प्रतिक्रिया होती है । व्यवहार में हम प्रवृत्ति और उसके परिणाम को अत्यन्त भिन्न मानते हैं पर निश्चय दृष्टि में बात ऐसी नहीं है । दोनों साथसाथ चलते हैं । कर्म या प्रवृत्ति से आत्मा के बंध होता है । अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ और शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्म बंधता ही है किन्तु स्थूल रूप में अशुभ प्रवृत्ति न करने पर भी ' अशुभ प्रवृत्ति का त्याग नहीं, उस दशा में भी अशुभ कर्म बंधता है । हिंसा करने वाला प्रवृत्ति रूप हिंसक कहलाता है। हिंसा की प्रवृत्ति न करने वाला किन्तु हिंसा का अत्यागी अविरति रूप हिंसक कहलाता है ।' आचारांग की वृत्ति में सूक्ष्म जीवों की हिंसा की चर्चा करते हुए बताया है— सूक्ष्म जीवों का वध नहीं किया जाता, वे मारे नहीं मरते, फिर भी तब तक उनके प्रति हिंसक भाव बना रहता है, जब तक उनके वध की निवृत्ति नहीं होती - हिंसा का संकल्प नहीं टूटता । अहिंसा तत्त्व दर्शन प्रवृत्ति रूप में हिंसा निरन्तर नहीं होती । जब कोई हिंसा करता है, तभी होती है | अविरति रूप में हिंसा निरन्तर होती है— तब तक होती है, जब तक हिंसा का त्याग नहीं होता, हिंसा का संकल्प, भाव या वृत्ति आत्मा से घुल नहीं जाती । यह तत्त्व आचार्य भिक्षु की वाणी में ऐसे है हिंसा री इवरत निरन्तर हुवै, हिंसा रा जोग निरन्तर नांहि । हिंसा रा जोग तो हिंसा करै जदि, विचार देखो मन मांहि || साधु और गृहस्थ में बड़ा अन्तर यह होता है कि साधु के सर्वथा हिंसा की विरति होती है और गृहस्थ के सर्वथा विरति नहीं होती । साधु से प्रमादवश कहीं हिंसा हो जाए तो वह योग रूप - प्रवृत्ति रूप हिंसा होगी, अविरति रूप नहीं । गृहस्थ की हिंसा प्रवृत्ति रूप होने के साथ-साथ अविरति रूप भी होती है । मी सावद्य या अशुभ योग की प्रवृत्ति न करे तो उसके कोई हिंसा नहीं होती । वह सर्वथा अहिंसक रहता है। गृहस्थ शुभ योग की प्रवृत्ति करते हुए भी पूरा अहिंसक नहीं बनता और इसलिए नहीं बनता कि उसके अशुभ प्रवृत्ति की अनुमोदना रूप अविरति निरन्तर सत्ता में रहती है। इसका फलित यह होता है कि जो सर्वथा अविरति का त्यागी है, वह संयमी है; जिसने अविरति का कुछ त्याग किया है और कुछ अविरति शेष है, वह संयमासंयमी है। जिसके अविरति बिलकुल नहीं मिटी, वह असंयमी है । संयमी खाता है वह संयम है, लेता है वह संयम है, देता है वह संयम है । १. भगवती १०१; सूत्रकृतांग २२ २६ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ६५ असंयमी का खाना, लेना और देना–तीनों असंयम हैं। तात्पर्य यह है कि विरति से पहले शरीर-पोषण की प्रवृत्तियां अहिंसक नहीं होती। असंयम का पोषण हिंसा का पोषण है। यह मोक्ष-मार्ग नहीं हो सकता। मोक्षमार्ग संयम है। संयमी छह काय या जीवनिकाय मात्र के प्रति संयम रखता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा है-अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमोसर्व भूतों के प्रति जो संयम है, वह अहिंसा है। संयमी छह काय के प्रति संयत रहता है। या जो छह काय के प्रति संयत रहे, वही अहिंसक है। असंयम पोषण का अर्थ है-छह काय की हिंसा को प्रोत्साहन देना। यह वृत्ति छह काय के प्रति मैत्री, अहिंसा या दया कैसे हो सकती है ? अहिंसा और हिंसा के निर्णायक कोण प्राणी मात्र का जीवन सक्रिय होता है। किया अच्छी हो चाहे बुरी, उसका प्रवाह रुकता नहीं। उसकी अच्छाई या बुराई का मानदण्ड भी एक नहीं हैं। जनसाधारण की और धार्मिको की परिभाषा में मौलिक भेद रहता है, कारण कि जनसाधारण का दृष्टिकोण लौकिक होता है और धार्मिको का दृष्टिकोण आध्यात्मिक । लोक-दृष्टि से किसी भी क्रिया को नितान्त अच्छी या बुरी कहना एकमात्र दुःसाहस है । जन-साधारण की रुचि एवं अरुचि पर नियंत्रण करना शक्ति से परे है। 'विभिन्नरुचयो लोका:'----यह सिद्धान्त तथ्यहीन नहीं है। लोक मत में परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव का आवेग होता है। उसके अनुसार रुचि-अरुचि में भी परिवर्तन आ जाता है। सामान्य स्थिति में प्रत्येक मनुष्य की रक्षा करना धर्म माना जाता है । युद्धकाल में शत्रुओं की हत्या करना परम धर्म माना जाता है। लोक-रुचि में आपत्ति-काल, स्वार्थ, ममत्व, अज्ञान, आवेश, मोह-ऐसे और भी अनगिनत कारण अहिंसा के स्वरूप-विकृति के हेतु बनते हैं । आपत्ति-काल में हिंसा अहिंसा बन जाती है। मोह होता है और उसे दया का रूप दिया जाता है। अज्ञानवश बहुत सारे लोग हिंसा और अहिंसा का स्वरूप भी नहीं समझ पाते। ___ आध्यात्मिक दृष्टिकोण के सामने रुचि एवं अरुचि का प्रश्न नहीं उठता, उसमें वस्तु-स्थिति का अन्वेषण करना होता है। जब अच्छाई और बुराई का मानदण्ड रुचि-अरुचि नहीं रहता तब हमें उसके लिए एक दूसरा मानदण्ड तैयार करना पड़ता है। फिर उसके द्वारा हरेक काम की अच्छाई और बुराई को मापते हैं। वह मापदण्ड है संयम और असंयम । दूसरे शब्दों में कहें तो त्याग और भोग । इसके अनुसार हम संयममय क्रिया को अच्छी कहेंगे और असंयममय क्रिया को बुरी। दार्शनिक पंडितों के शब्दों में अच्छी क्रिया को असत्-प्रवृत्ति-निरोध और सत्प्रवृत्ति तथा बुरी क्रिया को असत्-प्रवृत्ति कहना होगा। असत्-प्रवृत्ति का नाम हिंसा है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अहिसा तत्त्व दर्शन असत-प्रवृत्ति के द्वारा प्राण-वध किया जाता है या हो जाता है, वह भी हिंसा है। ऊपर की कुछ पंक्तियों में हिंसा का स्वरूप बताया गया है । अहिंसा हिंसा का प्रतिपक्ष है । जो असत्-प्रवृत्ति का निरोध है, सत्-प्रवृत्ति है, वह अहिंसा है। वस्तुओं का स्वरूप देखने के लिए जैन अचार्यों ने निश्चय और व्यवहार, इन दो दृष्टियों का उपयोग किया है। व्यवहार-दृष्टि वस्तु का बाहरी स्वरूप देखती है और निश्चय-दृष्टि उसका आन्तरिक स्वरूप । व्यवहार दृष्टि में लौकिक व्यवहार की प्रमुखता होती है और निश्चय-दृष्टि में वस्तु-स्थिति की। व्यवहार-दृष्टि के अनुसार प्राण-वध हिंसा और प्राण-वध नहीं होता वह अहिंसा है। निश्चयदृष्टि के अनुसार असत्-प्रवृत्ति यानी राग-द्वेष-प्रमादात्मक प्रवृत्ति हिंसा है और सत्-प्रवृत्ति अहिंसा है। इन (दृष्टियों) के आधार पर हिंसा-अहिंसा की चतुर्भगी बनती है। जैसे १. द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा। २. द्रव्य-हिंसा और भाव-अहिंसा । ३. द्रव्य-अहिंसा और भाव-हिंसा। ४. द्रव्य-अहिंसा और भाव-अहिंसा। राग-द्वेष-वश होने वाला प्राण-वध द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा है। जैसेएक शिकारी हिरण को मारता है, यह द्रव्य यानी व्यवहार में भी हिंसा है, क्योंकि वह हिरण के प्राण लूटता है और भाव यानी वास्तव में हिंसा है, क्योंकि शिकार करने में उसकी प्रवृत्ति असत् होती है। राग-द्वेष के बिना होने वाला प्राण-वध द्रव्य-हिंसा और भाव-अहिंसा है। जैसे--एक संयमी पुरुष सावधानीपूर्वक चलताफिरता है तथा आवश्यक दैहिक क्रियाएं करता है, उसके द्वारा अशक्य परिहार कोटि का प्राण-वध हो जाता है, वह व्यवहार में हिंसा है क्योंकि वह प्राणी की मृत्यु का निमित्त बनता है और वास्तव में अहिंसा है, हिंसा नहीं है, क्योंकि वहां उसकी प्रवृत्ति राग-द्वेषात्मक नहीं होती। राग-द्वेषयुक्त विचार से अप्राणी पर घात या प्रहार किया जाता है, वह द्रव्य-अहिंसा और भाव-हिंसा है । जैसे-कोई व्यक्ति धुंधले प्रकाश में रस्सी को सांप समझकर उस पर प्रहार करता है, वह व्यवहार में अहिंसा है, क्योंकि उस क्रिया में प्राण-वध नहीं होता और निश्चय में हिंसा है, कारण कि वहां मारने की प्रवृत्ति द्वेषात्मक है। जहां न राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति होती है और न प्राण-वध होता है, वह सर्व संवर रूप अवस्था द्रव्य-अहिंसा और भाव-अहिंसा है। यह अवस्था दैहिक और मानस क्रिया से निवृत्त तथा समाधि प्राप्त योगियों की होती है। भाव-अहिंसा की पूर्णता संयम जीवन में प्राप्त १. जैन सिद्धान्त दीपिका ७४१५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ६७ हो जाती है किन्तु द्रव्य-अहिंसा की अवस्था दैहिक चंचलता छूटे बिना, दूसरे शब्दों में समाधि अवस्था पाए बिना नहीं आती । प्राणातिपात (प्राण - वध ) आत्मा अमर है । उसकी मृत्यु नहीं होती । यह सर्व साधारण में प्रसिद्ध है पर तत्व दृष्टि से यह चिन्तनीय है । आत्मा एकान्त - नित्य नहीं परिणामिनित्य है अर्थात् उत्पाद - व्यय सहित नित्य है । केवल आत्मा ही क्या विश्व के समस्त पदार्थों का यही स्वरूप है । कोई भी पदार्थ अपने रूप का त्याग न करने के कारण नित्य है और नाना प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होते रहने के कारण अनित्य है । द्रव्य रूप में सब पदार्थ नित्य हैं और पर्याय रूप में अनित्य । नित्य का फलितार्थ है- अपने रूप को न त्यागना । अनित्य का फलितार्थ है - क्रमशः एकएक अवस्था को छोड़ते रहना और दूसरी- दूसरी अवस्था को पाते रहना । आत्मा अपने स्वरूप को नहीं छोड़तीं; अतः नित्य है, अमर है और एक शरीर को छोड़ दूसरे शरीर में जाती है – इसलिए अनित्य है— उसकी मृत्यु होती हैं। आत्मा की प्राण-शक्तियों का शरीर के साथ सम्बन्ध होता है, उसका नाम जन्म है और उनका शरीर से वियोग होने का नाम मृत्यु है । जन्म और मृत्यु - ये दोनों आत्मा की अवस्थाएं हैं । मृत्यु से आत्मा का अत्यन्त नाश नहीं होता । केवल उसकी अवस्था का परिवर्तन होता है 'जीव जीवे अनादि काल रो, मरे तिरी हो पर्याय पलटी जाण ।' इसलिए प्राणों का वियोग होने से आत्मा की मृत्यु कहते में हमें कोई भी संकोच नहीं होना चाहिए। प्राण-शक्तियां दस हैं : १- ५. पाँच इन्द्रिय-प्राण ६. मन-प्राण ७. वचन प्राण ८. काय प्राण ६. श्वासोच्छ्वास - प्राण १०. आयुष्य प्राण 'निष्काम कर्म और अहिंसा अहिंसा के सम्बन्ध में निष्काम कर्म एक व्यामोहक वस्तु बन रहा है । कुछ व्यक्तियों का विचार है कि फल प्राप्ति की आशा रखे बिना हम जो कोई काम Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन करते हैं, वह अहिंसा ही है । पर सच तो यह है कि चाहे कार्य निष्काम-फल-प्राप्ति की इच्छा-रहित हो, चाहे सकाम-फल-प्राप्ति की इच्छा-सहित, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष में हिंसा छिपी हुई रहती है, वह काम हिंसात्मक ही है। यह क्या यक्ति की बात है कि मनुष्य अपनी सुविधा के लिए जो कोई भी हिंसायुक्त कार्य करता है, वह तो हिंसात्मक मान लिया जाता है और वही काम वही मनुष्य यदि दूसरों की सुविधा के लिए करता है, वह अहिंसात्मक हो जाता है। हिंसात्मक काम हिंसात्मक ही रहेगा, चाहे वह अपने लिए किया जाय या दूसरों के लिए। यह भी नहीं कहा जा सकता कि व्यक्तिगत कार्यों में स्वार्थ रहता है और समष्टि में स्वार्थ नहीं रहता। खैर, दो क्षण के लिए स्वार्थ न भी माने अर्थात् लौकिक दृष्टि से परमार्थ मान लें तो भी इसका हल नहीं निकलता। क्योंकि हिंसा का सम्बन्ध केवल स्वार्थ से ही तो नहीं, राग, द्वेष, मोह, व्यामोह आदि अनेक भावनाओं से उसका सम्बन्ध रहता है । जैसे व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर अपने राष्ट्र की स्थिति को अनुकूल बनाने के लिए कोई यह उचित समझे कि जितने बच्चे जन्मते हैं, उनमें से आधे मरवा दिए जाएं। राष्ट्र के सुधार की ऐसी भावना से वह ऐसा करने में सफल भी हो जाता है। राष्ट्रीय दृष्टिकोण से उक्त कार्य न तो राग से किया जाता है और न द्वेष से एवं न व्यक्तिगत स्वार्थ से । वह केवल राष्ट्र को सुदृढ़ एवं सुव्यवस्थित करने के लिए ही किया जाता है, इसलिए यह सब निष्काम सेवा की परिधि में आ जाता है। इस प्रकार और भी अनेक कार्य हैं जो समष्टि की सुविधाओं के लिए किए जाते हैं और उन्हें निष्कामता की सीमा में घुसेड़कर अहिंसात्मक बताया जाता है परन्तु जिन कार्यों में प्रत्यक्ष रूप से हिंसा के कारण विद्यमान हैं, वे काम न तो निष्कामता की कोटि में समाविष्ट किए जा सकते हैं और न अहिंसा की कोटि में। ___ जैन सिद्धान्तों में भी निष्कामता का विधान है पर वह धार्मिक क्रिया के सम्बन्ध में । धार्मिक क्रिया का जितना उपदेश है, उसके साथ-साथ यह बताया गया है कि 'धर्म केवल आत्म-शुद्धि के लिए करो। ऐहिक या पारलौकिक सुखों के लिए नहीं।' धार्मिक क्रिया के साथ पौद्गलिक सुखों की इच्छा करना 'निदान' नाम का दोष है । इस सम्बन्ध में यह एक खास ध्यान देने की बात है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष में राग, द्वेष, स्वार्थ आदि भावनाओं से मिश्रित जितने भी काम हैं, उनको अधिक आसक्ति या कम आसक्ति से किए जाने से उससे होने वाले बन्धन में अन्तर अवश्य आ जाता है, पर वे बन्धन से मुक्त करने वाले नहीं हो सकते। जैसे-एक हिंसात्मक काम को दो व्यक्ति करते हैं। एक उसे अधिक आसक्ति से करता है और दूसरा उसे कम आसवित से। अधिक आसक्ति से करने वाले के कर्म का बन्धन दढ़ होता है और कम आसक्ति से करने वाले के शिथिल । पर यह नहीं हो सकता कि कम आसक्ति से हम जो कुछ भी करते हैं, उसमें कर्म का बन्ध होता ही नहीं। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ६६ I सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर यह निर्णय होता है कि जो काम हम करते हैं, वह यदि पूर्वोक्त भावनाओं से मिश्रित है तो उसमें आसक्ति रहेगी ही - चाहे अधिक मात्रा में, चाहे कम मात्रा में, चाहे व्यक्त रूप में, चाहे अव्यक्त रूप में । अधिक आसक्ति वाला अहंभावना से लिप्त रहता है और वह उससे मुड़ना भी नहीं चाहता । किन्तु कम आसक्ति वाला यह समझता है कि मैं जो कुछ भौतिक सुखवर्धक काम करता हूं, वह मुझे करना पड़ता है क्योंकि मैं अभी तक बन्धन से छुटकारा नहीं पा सका हूं । इसका तत्त्व यही है कि जो कार्य असंयम को पुष्ट करने वाला अर्थात् भोगी - जीवन का सहायक है, वह चाहे कैसी भी भावना से क्यों न किया जाए, उसमें हिंसा तो रहेगी ही । भोगी - जीवन का अर्थ सिर्फ अब्रह्मचारी जीवन ही नहीं है । जो मनुष्य अपने शरीर को सुख देने के लिए या उसे टिकाए रखने के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा करता है, उसका जीवन भोगी - जीवन कहलाता है | यह निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि निष्कामता का सम्बन्ध अहिंसात्मक कार्यों से ही है । हिंसात्मक कार्यों में निष्कामता का प्रयोग नहीं हो सकता । निष्कामता अहिंसा की उपासना करने का साधन है | अहिंसा का अनुशीलन किसी प्रकार के भौतिक सुखों के फल की आशा रखे बिना ही करना चाहिए । यही निष्कामता का सच्चा प्रयोग है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखवादी दृष्टिकोण __वर्तमान दृष्टिकोण मुख्यतया प्रत्यक्षपरक है। आज के अधिकांश आस्तिक और नास्तिक, आत्मवादी या अनात्मवादी के दृष्टिकोण में कोई भेद नहीं लगता। दोनों दृष्टियां सिर्फ वर्तमान को सुखी बनाने तक सीमित हैं, इसलिए सब व्यावहारिक दर्शन चाहते हैं। आध्यात्मिक दर्शन उन्हें अव्यावहारिक जैसा लगता है। वे प्रत्येक वस्तु को समाज की उपयोगिता की दृष्टि से आंकते हैं। उनकी दृष्टि का एकमात्र केन्द्र समाज की वर्तमान सुख-सुविधा है। वह जिससे बढ़े, वह दर्शन अच्छा और जिससे वह न बढ़े, वह दर्शन किस काम का है ? यह दृष्टिकोण रहते उन्हें अध्यात्म-दर्शन की परिभाषाएं अटपटी लगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आत्मवादी दृष्टिकोण (१) त्राण : लोकवाणी या व्यवहार की भाषा में जहां माता-पिता और सगेसम्बन्धी त्राण माने जाते हैं, वहां अध्यात्म-वाणी उन्हें त्राण नहीं मानने की सीख देती है। देखिए नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं, ताणाए वा सरणाए वा ।' -पारिवारिक तुझे त्राण नहीं दे सकते । तू भी उन्हें त्राण नहीं दे सकता। वित्तं पसवो य नाइओ, ते बाले सरणं ति मन्नाइ। एते मम तेसु वि अहं, नो ताणं सरणं न विज्जइ ॥२ --अज्ञानी व्यक्ति धन, पशु और ज्ञाति को शरण मानता है किन्तु वे त्राण १. आचारांग श२।७७ २. सूत्रकृतांग १२।३।१६ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन नहीं होते। एगस्स गती य आगती, विदु मंता सरणं ण मन्नइ ।' -प्राणी अकेला आता है और जाता है, इसलिए विद्वान् किसी को शरण नहीं मानता। (२) दुःख-मुक्ति : लोकवाणी में दुःख-मुक्ति का उपाय है-परिग्रह । अध्यात्मवाणी में उसका उपाय आत्म-निग्रह ही है : ___अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । -आत्मा का निग्रह कर, इस प्रकार दुःख से मुक्ति मिलेगी। (३) व्यक्ति-प्रधान स्थिति : लोकवाणी में समाज-प्रधान स्थिति है, वहां अध्यात्मवाणी व्यक्ति को ही प्रधान बतलाती है : जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं ।' -सुख-दुःख अपना-अपना होता है। अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाय इति, अन्नेण कडं अन्नो न पडिसंवेदेति ॥ पत्तेयं जायति, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं उववज्जइ, पत्तेयं झंझा, पत्तेयं सन्ना, पत्तेयं पन्ना, एवं विन्नू वेदणा ।' -दूसरे का दुःख दूसरा नहीं समझता। दूसरे के किए हुए कर्म का दूसरे को संवेदन नहीं होता। व्यक्ति अकेला जन्मता है, अकेला मरता है, च्यवन और उत्पत्ति भी अकेले की होती है । कलह, संज्ञा, प्रज्ञा, विज्ञान और वेदना-ये सभी प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग होते हैं । (४) मातृ-पितृ-स्नेह : लोकवाणी माता-पिता के प्रति स्नेह उत्पन्न करती है। अध्यात्मवाणी उस स्नेह को बन्धन बताती है या उसे वास्तविक सम्बन्ध नहीं बताती : मायाहिं पियाहिं लुप्पइ । का ते कान्ता कस्ते पुत्रः। १. सूत्रकृतांग ११२।३।१७ २. आचारांग ११३।६४ ३. वही श२।२२ ४. सूत्रकृतांग २११ ५. वही, २१११११३ ६. मोहमुद्गर ८ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अहिंसा तत्त्व दर्शन -माता-पिता के स्नेह में बंधा व्यक्ति मूढ़ बन जाता है। कौन तेरी स्त्री है और कौन तेरा पुत्र? अध्यात्मवादी दृष्टिकोण __ अध्यात्मवादी इस 'अति' को श्रेयस्कर नहीं मानता। यह सही है कि समाज की आवश्यकताओं को भुलाया नहीं जा सकता किन्तु उन्हीं को सब कुछ मानकर चले, वह कैसा आत्मवादी ! समाज की अपनी मर्यादा है. धर्म और अध्यात्म की अपनी। दोनों को एक ही मानकर चले, वह भूल है। समाज में विवाह की मर्यादा है किन्तु अध्यात्मवाद ब्रह्मचर्य से हटकर विवाह करने को कब अच्छा मानेगा? उसकी ब्रह्मचर्य ही प्रतिष्ठा है। समाज-व्यवस्था में यथावकाश हिंसा भी क्षम्य है, असत्य भी प्रयुज्य है, चोरी भी व्यवहार्य है, धन-संग्रह भी स्वीकार्य है । अध्यात्मवाद कभी, कहीं और किसी भी स्थिति में हिंसा को क्षम्य नहीं मानता। असत्य, चोरी और धन-संग्रह के लिए भी ऐसा ही समझिए। समाज के पास न्याय या दण्ड की व्यवस्था है और अध्यात्मभाव के पास है, अहिंसा और उपदेश या हृदय-परिवर्तन। न्यायाधीश अपराधी को मौत की सजा देता है, यह समाज का न्याय है। अध्यात्मवाद कहता है-यह हिंसा है। दण्ड-विधान के अनुसार वह उचित है तब हिंसा क्यों ? ऐसा प्रश्न आता है किन्तु किसी एक को दण्ड देने का किसी दूसरे को अधिकार है-यह तत्त्व अध्यात्मवाद स्वीकार ही नहीं करता । पाप करने वाला ही यदि हृदय से चाहे तो पाप का प्रायश्चित कर सकता है, दूसरा पाप का दण्ड देने वाला कौन ? समाज पाप को नहीं धो सकता, प्रायश्चित नहीं करा सकता। वह पापी को कष्ट दे सकता है, बुरे को बुराई का स्वाद चखा सकता है, इसमें कोई विवाद नहीं। न्याय और दण्ड-विधान समाज के धारक या पोषक तत्त्व हैं। अध्यात्मवाद इन्हें क्यों माने, वह अपना प्राण लूटने वाले को भी मित्र मानने की बात जो कहता है। न्याय और दण्ड-विधान समाज की देश, काल, स्थिति के अनुकूल इच्छापोषित विचारधारा है। अहिंसा सार्वभौम है। इसलिए दोनों एक हों भी कैसे? विकट परिस्थितियों में समाज हिंसा को क्षम्य मानता है। धर्म की भाषा में वह अनिवार्य हिंसा है। किन्तु विकट परिस्थिति में हुई हिंसा अहिंसा होती है, यह कभी नहीं हो सकता । इस विषय पर महात्मा गांधी के विचार मननीय हैं । वे एक प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं : 'उचित यह है कि सत्य के बलिदान पर किसी का हित साधने का मेरा कर्तव्य नहीं, सत्य का पालन ही सर्व का अत्यन्त हित है, ऐसा निश्चय कर उसका आग्रह रख पालन करें । वैसा करने वाले मनुष्य को ऐसी विकट Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ७३ परिस्थिति उत्पन्न हो तब क्या करना, यह उसे अपने आप सूझ पड़ेगा । वास्तविक विकट प्रसंग में कोई मनुष्य इस तरह असत्य का व्यवहार करता है । समाज तो उसे उदारता से क्षमा दे देता है । धर्म का सूक्ष्म जानकार भी उसकी विकट परिस्थिति का विचार कर इसके प्रति क्षमा-बुद्धि से देखेगा, परन्तु उसने धर्म का आचरण किया अथवा ऐसे प्रसंग पर झूठ बोलना धर्म है - ऐसा नहीं कहेगा । धर्म तो ऐसा ही कहता है कि प्राण देकर भी सत्य रखना चाहिए, सत्य की अपेक्षा दूसरे किसी को प्रथम स्थान नहीं दिया जा सकता । व्यक्ति या समाज को अपनी आवश्यकताएं पूरी करनी पड़ती हैं - यह मानना स्वाभाविक है, किन्तु आवश्यकता पूर्ति को मोक्ष-धर्म या अहिंसा मानकर बरता जाए - यह दोहरा पाप है । युग प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव ने समाज और राज्य की व्यवस्था की । लोगों को उनका तत्त्व समझाया । उनके निर्वाह और प्रेयस् के लिए असि, मषि और कृषि की शिक्षा दी । क्या उन्होंने इसे मोक्ष - साधना मानकर किया ? नहीं। फिर प्रश्न होगा - कर्म - बन्धन जानते हुए उन्होंने ऐसा क्यों किया ? प्रजा के हित के लिए किया । प्रजा के नेता थे, इसलिए अपना कर्त्तव्य या दायित्व समझते हुए किया | आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है'-- एतच्च सर्वं सावद्यमपि लोकानुकम्पया | स्वामी प्रवर्तयामास, जानन् कर्तव्यमात्मनः ॥ यह व्यवस्था - प्रवर्तन सावद्य - सपाप है, फिर भी भगवान् ऋषभदेव ने अपना कर्तव्य जानकर इसका प्रवर्तन किया । यह कोई नई बात नहीं है । निम्न पंक्तियों में यही प्रश्न महात्मा गांधी के सामने आया । उन्होंने वही समाधान किया, जो कि एक अहिंसा के मर्म को समझने वाला कर सकता है । प्रश्न : यदि अहिंसा ही धर्म है और हिंसा धर्म नहीं तो खाना-पीना किसलिए ? मर ही क्यों नहीं जाना चाहिए ? उत्तर : यदि किसी के चित्त में अहिंसा इतनी एकरस हो जाए तो देह रखने के प्रति उदासीनता आए और वह उसे छोड़ देना चाहिए, यह अशक्य नहीं । पर ऐसा सामान्य तौर पर मन से होता नहीं । कारण कि जहां तक जीवन में कुछ करने की, प्राप्त करने की और जानने की आज्ञा और इच्छा रहती है, तब तक देह को १. अहिंसा - विवेचन, गुजराती से अनूदित २. त्रिशष्टि शलाका पुरुषचरित १।२।६७१ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अहिंसा तत्त्व दर्शन टिकाए रखने की इच्छा भी काम करती है। अर्थात् धार्मिक पुरुष भी हिंसा और अहिंसा के बीच मर्यादा बांधकर ही सन्तोष मानता है, पूर्णरूप से अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। ___ अध्यात्म-दर्शन जिन कार्यों को हिंसामय बताता है, उन्हीं को समाज अपनी परिधि में निर्दोष मानकर उन्हें करता है। इस सामाजिक आरोपवाद को महात्मा गांधी ने बड़े सुन्दर ढंग से समझाया है कि 'निरामिष आहारी वनस्पति खाने में हिंसा है' यह जानता हआ भी निर्दोषता का आरोपण कर मन को फुसलाता है। अनिवार्य हिंसा का कटु सत्य रूप रखते हुए वे लिखते हैं--"यह बात सच है कि खेती में सूक्ष्म जीवों की अपार हिंसा है । कार्य मात्र, प्रवृत्ति मात्र, उद्योग मात्र सदोष है।" - खेती इत्यादि आवश्यक कर्म शरीर-व्यापार की तरह अनिवार्य हिंसा है। उसका हिंसापन चला नहीं जाता है। असंयमी दान, मोह-दया, सांसारिक उपकार आदि-आदि सभी लौकिक विधियों को इसी दृष्टि से तोलना होगा। समाज के लिए जो अनिवार्य है, वे होंगे जरूर किन्तु वे अनिवार्य होने मात्र से अहिंसा धर्म नहीं बन सकते। आचार्य भिक्षु ने समाज की अनिवार्य स्थितियों को समझते हुए सिर्फ यही बताया कि 'सामाजिक आवश्यकता या अनिवार्यता को संसार का मार्ग समझो और दया--अहिंसा को मोक्ष का मार्ग ।' हमें समाज और अध्यात्म के तत्त्वों और दृष्टि-बिन्दुओं को भिन्न-भिन्न मानते हुए चलना चाहिए । मार्ग साफ रहेगा। दोनों को एक मानकर चलें तो उलझन आएगी और अनात्मवाद बढ़ेगा। इसलिए बढ़ेगा कि अध्यात्मवाद संसार का विरोधी है और समाजवाद संसार का पोषक । समाजवाद यह पसन्द नहीं करेगा कि अध्यात्मवाद उसकी व्यवस्था में बाधा डाले । इसलिए वह उसे तोड़कर अकेला रहना चाहेगा । उचित यह है कि दोनों अपनी-अपनी मर्यादा में रहें, समाज के लिए दोनों का उपयोग है। संसार में रहने और सुख से जीने के लिए समाज का उपयोग है, शान्ति और समता की प्रतिष्ठा के लिए अध्यात्मवाद चाहिए। जिस प्रकार पं० नेहरू कहते थे-साम्यवाद और जनतंत्र दोनों एक साथ रह सकते हैं, वैसे ही हमें कहना चाहिए-अध्यात्मवाद और समाजवाद दोनों एक साथ रह सकते हैं। रूप दोनों के दो होंगे, भाषा दोनों की दो होंगी और भाव दो होंगे, फिर भी १. अहिंसा-विवेचन, गुजराती से अनूदित । २. व्यापक धर्म-भावना, पृ० ३०८ ३. अहिंसा-प्रभावना, पृ० ३५,३६ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ७५ विरोध नहीं होगा। समाजवाद अध्यात्मवाद की बहुत सारी मर्यादाओं को अव्यवहार्य मानता है। अध्यात्मवाद समाजवाद की मर्यादाओं को हिंसाविद्ध देखता है । यह उनका अपना-अपना दृष्टिकोण है। अध्यात्मवाद समाजवाद को मिटाने की सोच नहीं सकता क्योंकि उसके पास दण्ड-विधान नहीं है। बल-प्रयोग को वह हिंसा और हिंसा को सर्वथा वर्जनीय मानकर चलता है। समाजवाद के पास विधि और दण्ड-विधान है, इसलिए वह कभी-कभी आगे बढ़ता है-अध्यात्मवाद को अनुपयोगी समझकर उसे मिटाने के मार्ग पर चलने का दम भरता है। यह अनुचित है और हिंसा शक्ति का दुष्परिणाम है । होना यह चाहिए कि दोनों के अनुयायी दोनों के दृष्टिकोण, भाषा और निरूपण को उनकी अपनी-अपनी मर्यादा समझकर भ्रम में न फंसें । यदि हम इस दृष्टि को लिए चलेंगे तो समाज हमारे धर्म को आवश्यक या अनुपयोगी कहता है, वह हमें झुंझलाएगा नहीं और हम समाज की प्रवृत्तियों को हिंसा, अधर्म या पाप कहते हैं, इससे समाज के पोषकों को भी रोष नहीं होगा। ___ आचार्य भिक्षु ने अध्यात्म की भूमिका से अध्यात्म की भाषा में कहा है'मोह-दया पाप है, असंयमी-दान पाप है ।' तत्त्वत: यह सही है। अध्यात्मवाद मोह की परिणति को दया कब मानता है ? असंयमी को भिक्षा के योग्य कब मानता है ? जन साधारण ने तत्त्व नहीं पकड़ा, शब्द की आलोचनाएं बढ़ चलीं। मूल्यांकन के सापेक्ष दृष्टिकोण __ एक वस्तु के अनेक रूप होते हैं। अनेक को अनेक से देखें, दृष्टि सही होगी। एक से अनेक को देखें, सही तत्त्व हाथ आएगा। मानदण्ड भी सबके लिए एक नहीं होता। कोई भी वस्तु एक दृष्टि से अच्छी या बुरी, आवश्यक या अनावश्यक, उपयोगी या अनुपयोगी नहीं होती। ये सब सापेक्ष होते हैं। मोक्ष के लिए व्यापार का कोई उपयोग नहीं किन्तु समाज के लिए वह अनुपयोगी है, यह हम कैसे कहें। मोक्ष-धर्म के लिए धन अनावश्यक है किन्तु समाज के लिए आवश्यक नहीं, यह कौन मान सकता है ? प्रवृत्ति के दो रूप होते हैं-अहिंसक प्रवृत्ति और हिंसक प्रवृत्ति । अध्यात्म-दर्शन की भाषा में अहिंसा-प्रवृत्ति को शुभ योग और हिंसाप्रवत्ति को अशुभ योग कहा जाता है। शुभ योग के समय आत्मा पुण्य-कर्म से और अशुभ योग के समय आत्मा पाप-कर्म से बंधती है। इसलिए उपचार से शुभ योग को पुण्य और अशुभ योग को पाप कहा जाता है। समाज-दर्शन में शुभ या अशुभ योग और पुण्य-पाप जैसी कोई व्यवस्था नहीं है और इसलिए नहीं है कि समाज-दर्शन का मानदण्ड अहिंसा-हिंसा की दृष्टि से Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अहिंसा तत्त्व दर्शन वस्तु को नहीं मापता। वह वस्तु का मान उपयोगी-अनुपयोगी की दृष्टि से करता है। जो वस्तु समाज के लिए उपयोगी है, वह अच्छी और जो उपयोगी नहीं, वह बुरी । समाज-दर्शन की भाषा में समाज के लिए उपयोगी प्रवृत्ति को शुभ योग या पुण्य-कार्य और अनुपयोगी प्रवृत्ति को अशुभ योग या पाप-कार्य कहा जाएगा। अब आप सोचिए-दोनों का मानदण्ड एक नहीं है, तब दोनों की भाषा एक कैसे होगी? स्याद्वाद का रहस्य है-वस्तु को विभिन्न दृष्टि-बिन्दुओं से परखना । एक ही वस्तु द्रव्य की दृष्टि से नित्य और पर्याय की दृष्टि से अनित्य होती है। इस दशा में दृष्टि-भेद से उसे नित्य-अनित्य दोनों कहना क्या कोई गूढ़ रचना या शब्दजाल है ? समाज के लिए उपयोगी किन्तु राग, द्वेष, मोह, हिंसामय प्रवृत्ति को समाज की दृष्टि से शुभ योग यानी अच्छी प्रवृत्ति और अध्यात्म की दृष्टि से अशुभ योग कहा जाए, उसमें आपत्ति जैसी क्या बात है? कुछ समझ में नहीं आता, कमसे-कम स्याद्वादी के लिए तो यह उलझन नहीं होनी चाहिए। स्याद्वाद का प्रयोग सीमित नहीं है। वह सिर्फ वस्तु को नित्य-अनित्य बताने के लिए ही नहीं समाज में बलवान् के लिए दुर्बल को मारना निर्दोष माना जाता है। चौंकिए मत, सही बात है। चूहों को मनुष्य मारता है, बन्दरों को मारता है और उन सब को मारता है, जो मनुष्य के स्वार्थ में बाधक बनकर जीते हैं। मानो जीने का अधिकार केवल मनुष्य को ही है। समाज के प्रवर्तक मनुष्य के विरोधी तत्त्वों को मारने की अनुमति देते हैं, किन्तु वह मोक्ष का मार्ग नहीं है। 'सबल के लिए निर्बल को मारने को मोक्ष-धर्म बताते हैं, वे कुगुरु हैं, कुबुद्धि से चलने वाले हैं'-आचार्य भिक्षु ने यह तत्त्व बताया। समाज में स्वार्थ-हिंसा भी चलती है। अपने छोटे-मोटे स्वार्थ के लिए मनुष्य छोटे-मोटे जीवों को मारता है। समाज-दर्शन इसे बुरा नहीं मानता। किन्तु यह मोक्ष-धर्म नहीं है । परार्थ हिंसा भी चलती है। एक आदमी दूसरे आदमी के लिए भी जीवों को मारता है । गरीबों को मारकर बड़ों को पोषण देने की प्रवृत्ति जो है, उसे धर्म बताना दोषपूर्ण है। बलात्कार अहिंसा नहीं है। हम हिंसक को जबरदस्ती अहिंसक नहीं बना सकते। हिंसक की आत्मा अहिंसा को स्वीकार नहीं करती, तब तक किसी देवता की भी ताकत नहीं कि उसे अहिंसक बना दे । उपाध्याय विनय विजयजी के शब्दों में-भगवान् महावीर जमालि को, जो उनका दामाद था और मिथ्यात्व के प्रचार में जुट गया १. अनुकम्पा की चौपाई, दोहा ७।१ २. व्रताव्रत की चौपाई, ७।४ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ७७ था, नहीं रोक सके तो दूसरा कौन किसे रोक सकता है ? कौन किसे बलपूर्वक पाप से बचा सकता है ? अतुल बलशाली अरिहन्तों ने क्या बल-प्रयोग करके धर्म करवाया ? नहीं। किन्तु शुद्ध धर्मोपदेश दिया जिसे समझ-धारकर लोग संसारसमुद्र का पार पाते हैं। आचार्य भिक्षु ने कहा-'तीर्थकर घर में थे, तब उनमें तीन ज्ञान थे, राज्य-अधिकार भी था, फिर उन्होंने अहिंसा-पालन की बलात् आज्ञा नहीं बरताई । बलात् हिंसा छुड़ाने में यदि धर्म होता तो चक्रवर्ती बलपूर्वक छहखण्ड में अहिंसा की घोषणा करा देते। किन्तु ऐसा न होता है और न उन्होंने किया भी। लोभ, लालच देना या परिग्रही बनाना भी अहिंसा नहीं है। देव, गुरु और धर्म-ये तीनों अपरिग्रही हैं। परिग्रह के द्वारा इन्हें मोल लेना चाहे, वह विपरीत दिशा है। परिग्रही स्वयं बने या दूसरे को परिग्रही बनाए और किसी भी भावना से बनाए, वह मोक्ष मार्ग नहीं है।' शौनकोपदेश और पद्पुराण के अनुसार-'जिस व्यक्ति की धर्म के लिए धन की इच्छा हो, उसका इच्छा-रहित होना अच्छा है। कीचड़ को धोने की अपेक्षा दूर से उसको न छूना ही अच्छा है।' ठीक यही तत्त्व इष्टोपदेश में पूज्यपाद ने बताया है। समाज की दृष्टि में बल-प्रयोग का भी, परिग्रह का भी अपनी-अपनी जगह स्थान है, इसलिए हमें वस्तु-तत्त्व को परखने में पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। हिंसा-अहिंसा की परीक्षा करनी हो, वहां हमें अध्यात्म का मानदण्ड लेकर उसी की भाषा में बोलना चाहिए और जहां उपयोगी-अनुपयोगी की परख करनी हो, वहां समाज का मानदण्ड और उसी की भाषा का व्यवहार करना चाहिए। आचार्य भिक्षु ने इसी को सम्यग् दृष्टि कहा है । १. शान्तसुधारस, १९।३-४ २. अनुकम्पा चौपई ७।४४१४६ ३. वही ७।६४ ४. वही १११५२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का राजपथ : एक और अखण्ड अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है । वह एक और अखण्ड है। किन्तु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना नाश होता है, उतना ही उसका विकास । इस मोह-विलय के तारतम्य पर उसके दो रूप निश्चित किए गए हैं १. अहिंसा-महाव्रत, २. अहिंसा-अणुव्रत । इनमें स्वरूप भेद नहीं; मात्रा (परिमाण) का भेद है। मुनि की अहिंसा पूर्ण है, इस दशा में श्रावक की अहिंसा अपूर्ण । मुनि की तरह श्रावक सब प्रकार की हिंसा से मुक्त नहीं रह सकता। मुनि की अपेक्षा श्रावक की अहिंसा का परिमाण बहुत कम है। उदाहरण के रूप में मुनि की अहिंसा बीस बिस्वा(पोर) और श्रावक की सवा बिस्वा है। इसका कारण यह है कि श्रावक त्रस जीवों की हिंसा छोड़ सकता है, बादर-स्थावर जीवों की हिंसा को नहीं । इससे उसकी अहिंसा का परिमाण आधा रह जाता है-दस बिस्वा रह जाता है। इसमें भी श्रावक त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करता है, आरम्भजा हिंसा का नहीं। अतः इसका परिमाण उससे भी आधा अर्थात् पाँच बिस्वा रह जाता है। इरादेपूर्वक हिंसा भी उन्हीं त्रस जीवों की त्यागी जाती है, जो निरपराध हैं । सापराध त्रस जीवों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकता, इससे वह अहिंसा अढाई बिस्वा रह जाती है । निरपराध त्रस जीवों की भी निरपेक्ष हिंसा को श्रावक त्यागता है, सापेक्ष हिंसा तो उससे हो जाती है। इस प्रकार श्रावक (धर्मोपासक या व्रती गृहस्थ) की अहिंसा का परिमाण सवा बिस्वा रह जाता है । एक प्राचीन गाथा में इसे संक्षेप में कहा है जीवा सुहमा थूला, संकप्पा आरम्भा भवे दुविहा । सावराहा निरवराहा, सविक्खा चेव निरविक्खा ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ७६ १. सूक्ष्मजीव-हिंसा। ५. सापराध-हिंसा। २. स्थूलजीव-हिंसा। ६. निरपराध हिंसा। ३. संकल्प-हिंसा। ७. सापेक्ष-हिंसा। ४. आरम्भ-हिंसा। ८. निरपेक्ष-हिंसा। हिंसा के ये आठ प्रकार हैं । श्रावक इनमें से चार प्रकार की (२, ३, ६, ८,) हिंसा का त्याग करता है। अतः श्रावक की अहिंसा अपूर्ण है। स्थावर-जीव-हिंसा स्थावर जीव दो प्रकार के होते हैं : (१) सूक्ष्म, (२) बादर। सूक्ष्म स्थावर इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे किसी के योग से नहीं मरते। अतएव उनकी हिंसा का त्याग श्रावक को अवश्य कर देना चाहिए। श्रावक बादर स्थावर जीवों की सार्थ (अर्थ सहित) हिंसा का त्याग नहीं कर सकता। गृह-वास में इस प्रकार की सूक्ष्म हिंसा का प्रतिषेध अवश्य है। शरीर, कुटुम्ब आदि के निर्वाहार्थ श्रावक को यह करनी पड़ती है, तथापि इनकी निरर्थक हिंसा का त्याग अवश्य करना चाहिए। निरथिकां न कुर्वीत, जीवेषु स्थावरेष्वपि । हिंसामहिंसाधर्मज्ञः, कांक्षन्मोक्षमुपासकः ।। अर्थात् मोक्षाभिलाषी अहिंसा-मर्मज्ञ श्रावक को स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं करनी चाहिए। अहिंसा का धर्म सावधानी में है, विभ्रान्ति में नहीं। जीवन की अविभक्ति और विभक्ति जीवन संकुल भी है और असंकुल भी। जीवन अखण्ड या अविभाज्य है-स्याद्वाद की भाषा में यह नहीं कहा जा सकता। उसका प्रवाह एक हो सकता है, किन्तु प्रवाह का बिन्दु एक ही नहीं होता। मैंने थोड़े समय पहले एक विबन्ध में लिखा था-"जीवन एकरस और धारावाही है। उसके टुकड़े नहीं किए जा सकते-यह सच है किन्तु स्थूल-सूक्ष्मसत्य की दृष्टि से जीवन चैतन्य के धागे से पिरोई हई भिन्न-भिन्न मोतियों की माला है। उसकी प्रत्येक और प्रत्येक प्रकार की प्रवृत्ति उसे खण्ड-खण्ड कर डालती है । देश और काल उसे जुड़ा नहीं रहने देते। स्थितियां उसकी अनुस्यूति को सहन नहीं करतीं। भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का क्षेत्र भले एक हो, उनका स्वरूप Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० अहिंसा तत्त्व दर्शन एक नहीं हो सकता। एक व्यक्ति रोता भी है और हंसता भी है । रोने वाला और हंसने वाला व्यक्ति एक हो सकता है (वह भी स्थूल दृष्टि से) किन्तु रोना और हंसना एक नहीं हो सकता।" ____जीवन संकुल है—यह सच है किन्तु जीवन की प्रवृत्तियां जो भिन्न-भिन्न देशकाल में होती हैं और भिन्न-भिन्न स्वरूप वाली हैं, वे संकुल नहीं होतीं। यह उससे कम सच नहीं है। इसलिए दोनों के समन्वय की भाषा में ऐसे कहना चाहिए कि भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के संगम की दृष्टि से जीवन संकुल है और उनके भिन्नभिन्न स्वरूपों की दृष्टि से वह संकुल नहीं है। जीवन की सीमाएं कृत्रिम नहीं होतीं। उसको बांटने वाली रेखाएं उसी के द्वारा खींची जाती हैं। उनमें से कुछ एक जो गम्य बनती हैं, वे शब्दों में बंध जाती हैं। उनके लौकिक और आध्यात्मिक जो भेद होते हैं, उनके पीछे दो दार्शनिक विचार हैं : (१) संसार, (२) मुक्त । ___ संसार का साधन (संसार की ओर ले जाने वाली प्रवृत्ति) लौकिक होती है और मुक्ति का साधन (मोक्ष की ओर ले जाने वाली प्रवृत्ति) आध्यात्मिक । संसार और मुक्ति की कल्पनाएं जिन्हें मान्य हैं, उन्हें संसार और मुक्ति के साधन भी मान्य होने चाहिए। संसार और मुक्ति का स्वरूप एक नहीं है, इसलिए लौकिक और आध्यात्मिक प्रवृत्ति का स्वरूप भी एक नहीं होना चाहिए । व्यक्ति की दृष्टि से लौकिक जीवन की समाप्ति और बाद आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ होता है-ऐसा नहीं जान पड़ता। किन्तु प्रवत्ति के स्वरूप की दृष्टि से ऐसा होता भी है । लौकिक जीवन की प्रवृत्ति समाप्त होने पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति शुरू होती है और आध्यात्मिक प्रवृत्ति समाप्त होने पर लौकिक प्रवृत्ति । दोनों के आदि-अन्त अपने आप में समाए हुए हैं। दोनों का मिश्रण कहीं भी नहीं होता। साध्यों में मिश्रण नहीं होता वे व्यावृत होते हैं, तब साधनों की व्यावृति कैसे नहीं होगी? हमें वस्त की कोटि का निर्णय उसके स्वरूप-विवेक द्वारा करना होगा, उसके लिए व्यक्ति को तोड़ना आवश्यक नहीं होता । सामाजिक-दृष्टि और मोक्ष दृष्टि समाज की भूमिका में अहिंसा का विकास सामाजिक उपयोगिता के स्तर पर हुआ। अध्यात्म की भूमिका में उसका विकास हुआ समाज-निरपेक्ष भूमिका पर, आत्म-विकास की भित्ति पर । उसका लक्ष्य था देह-मुक्ति । इसलिए वह प्राणी मात्र को न मानने की मर्यादा से भी आगे बढ़ी। सूक्ष्म विचारणा में अविरति और क्रिया के सिद्धान्त तक पहुंच गई। हिंसा की विरति नहीं करने वाला हिंसा नहीं Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ८१ करने पर भी हिंसक है।' अविरति प्राणी को अतीत शरीर की अपेक्षा से भी हिंसा की क्रिया लगती है। पूर्ण विरति किए बिना प्रत्येक प्राणी का शरीर निरन्तर छह काय का अधिकरण--शस्त्र रहता है। यह ऐकान्तिक निवृत्ति का मार्ग है। समाज का आधार देह-दशा है। मोक्ष का स्वरूप है विदेह । देह का धर्म है प्रवृत्ति । निवृत्ति देह से विदेह की ओर जाने का मार्ग है। सामाजिक दृष्टि में प्रवृत्ति की शुद्धि के लिए निवृत्ति भी मान्य है किन्तु है एक सीमा तक। मोक्ष-साधना का ध्येय है आत्यन्तिक निवृत्ति, शरीर से भी निवृत्ति । इसमें भी एक सीमा तक प्रवृत्ति मान्य है, किन्तु वही जो संयममय हो । अहिंसा सम्बन्धी सामाजिक दृष्टिकोण इस बिन्दु पर इससे भिन्न पड़ जाता है। आत्मिक-दृष्टि में निवृत्ति का प्रभुत्व है, समाज-दृष्टि में प्रवृत्ति का। हिंसा और परिग्रह के बिना काम नहीं चलता किन्तु धर्म की मर्यादा को समझने वाले उनका अल्पीकरण करते हैं। इसलिए श्रावक को 'अल्पसावध कर्मार्य' कहा गया है। असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प-इन छहों कर्मों को करने वाले अविरत होते हैं, इसलिए उन्हें हिंसा-कर्मकारी कहा गया है। यही कारण है कि सर्व-विरति मुनि इनका उपदेश नहीं करते। हिंसात्मक कर्तव्य का उपदेश करने वाले मुनियों को कार्य की दृष्टि से गृहस्थों के समान कहा ____ केवल समाज या प्रवृत्ति धर्म को ही मानने वालों को यह दृष्टि ग्राह्य न भी हो सके किन्तु मोक्ष की साधना, जो देह-निवृत्ति का लक्ष्य लिए चलती है, में ऐसी मान्यता सहजतया फलित होती है। मोक्ष को साध्य मानने वाले व्यक्ति भी गहस्थ-दशा में हिंसा, परिग्रह, अब्रह्मचर्य-सेवन आदि कर्म करते हैं। यह प्रवत्ति और निवृत्ति का क्षेत्र-भेद है। निवृत्तिधर्म को समझ लेना एक बात है और उसके अनुसार आचरण करना दूसरी बात है। ज्ञानावरण और श्रद्धा-मोह का विलय होता है, तत्त्व सही रूप में समझ में आ जाता है । आचरण की बात अब भी शेष रहती है। आचरण सम्बन्धी मोह का विलय हुए बिना समझी हुई बात भी क्रियात्मक नहीं बनती। जिनके सर्व-विरति योग्य मोह-विलय नहीं होता, वे निवृत्ति-धर्म को मोक्ष का मार्ग समझते हुए भी उसे अपना नहीं सकते। तात्पर्य कि उसका अंगीकार मोह-विलय की मात्रा के अनु १. भगवती १६६१ २. प्रज्ञापना पद २२ ३. तत्त्वार्थ भाष्य (ऊमास्वाति) ४. तत्त्वार्थ राजवार्तिक (अकलंक) ५. सूत्रकृतांग १।१।४।१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन सार ही होता है । भगवान् ऋषभनाथ या कोई भी व्यक्ति हो, भोग्य कर्म सबको भोगने पड़ते हैं । उस समय प्रवृत्ति का द्वार खुला रहता है । मोह प्रबल होता है तब अविरति प्रवृत्ति में आसक्ति अधिक होती है, वह कम होता है तब कम । प्रवृत्ति मोक्ष की साधक न हो तो ज्ञानी जन उसे क्यों करें - यह प्रश्न उक्त पंक्तियों से स्वयं स्पष्ट हो जाता है । ज्ञानी होना एक बात है और विरत होना दूसरी बात । ज्ञान और अविरति में विरोध नहीं है, उनमें स्वरूप - भेद है - वे दो हैं । विरोध है अविरति और विरति में । एक विषय की विरति और अविरति — ये दोनों एक साथ नहीं हो सकतीं । एक विषय की विरति और एक विषय की अविरतिये एक साथ होती हैं । इसीलिए गृहस्थ श्रावक 'विरताविरति' या 'धर्माधर्मी' होता है । गृहस्थ की संयममय या विरतिपूर्ण क्रियाएं ही मोक्ष की साधक हैं, शेष नहीं । आरम्भ या हिंसा करता हुआ व्यक्ति मुक्त नहीं होता । मुमुक्ष को आखिर मुनि - धर्म स्वीकार करना ही पड़ता है ।' गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी जो सुव्रती होते हैं, वे स्वर्ग पाते हैं । कई भिक्षुओं से गृहस्थ संयम - प्रधान होते हैं । मुनि-धर्म को पालन करने वाले भिक्षु सब गृहस्थों से संयम - प्रधान होते हैं ।" मोक्ष - साधना के क्षेत्र में गृहस्थाश्रम की अपेक्षा मुनि-धर्म का कितना महत्त्व है, वह इन्द्र और नमि राजर्षि की चर्चा से स्पष्ट है । ८२ इन्द्र मुनि से कहता है- 'आप अभी दान दें, श्रमणों और ब्राह्मणों को भोजन कराएं, यज्ञ करें, फिर दीक्षा लेना ।' उत्तर में मुनि कहते हैं— 'जो व्यक्ति प्रतिमास लाखों गाएं दान में देता है, उसकी अपेक्षा कुछ भी न देने वाले का संयमाचरण श्रेष्ठ है ।' इन्द्र ने फिर कहा—'आप घोरआश्रम (गृहस्थ - जीवन ) को छोड़कर दूसरे आश्रम (मुनि जीवन) में जा रहे हैं, यह ठीक नहीं । आप इसी आश्रम में रहकर धर्म को पुष्ट करने वाली क्रिया करें ।' राजर्षि ने कहा – 'गृहस्थ आश्रम में रहने वाला व्यक्ति तीस-तीस दिन तक की तपस्या करे और पारणे में कुश के अग्रभाग पर टिके उतना खाए, फिर भी वह १. ( क ) सूत्रकृतांग २।२।३-६ (ख) भगवती १७ - २ २. भगवती ३ | ३ ३. उत्तराध्ययन ५।२४ : एवं सिक्खा समाविन्ने, गिहिवासे वि सुव्वए । मुच्चई छविपव्वाओ, गच्छे जक्खस्स लोगयं ॥ ४. वही ५।२० : संति एगेहि भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा । गारत्थे हि य सव्वेहि साहवो संजमुत्तरा ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन मुनि-धर्म की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकता।' इस प्रकार समझा जा सकता है-समाज और मोक्ष की दृष्टि और साधना सर्वथा एक नहीं है। समाज दृष्टि में गृहस्थाश्रम का पूरा महत्त्व है । धर्म का महत्त्व वहीं तक है, जहां तक वह गृहस्थ-धर्म की बुराइयों को मिटाए। मोक्ष-दृष्टि में मुनि जीवन का सर्वोच्च स्थान है। गृहस्थ-जीवन का महत्त्व उसके व्रतों तक ही सीमित है। जो व्यक्ति इन दोनों के एकीकरण की बात सोचते हैं, वे इस तथ्य को भुला देते हैं कि स्वरूप-भेद में एकता नहीं हो सकती। ये दोनों समानान्तर रेखाएं हैं, जो साथ-साथ चलती हैं पर आपस में मिलती नहीं । सामाजिक भूमिका और अहिंसा जैन-दर्शन के अनुसार गृहस्थ के विचारों का केन्द्र मुनि की तरह केवल धार्मिक क्षेत्र ही नहीं है, राजनैतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी उसकी गति अबाध होती है। उसकी मर्यादा का उचित ध्यान रखे बिना उसके गृहस्थ सम्बन्धी औचित्य का निर्वाह नहीं हो सकता। अतः गृहस्थ के कार्यक्षेत्र हिंसात्मक और अहिंसात्मक दोनों हैं। वर्तमान के राजनैतिक वातावरण में अहिंसा को पल्लवित करने की चेष्टा की जा रही है। यह कोई नई बात नहीं । अहिंसा का प्रयोग प्रत्येक क्षेत्र में किया जा सकता है। उसका क्षेत्र कोई पृथक-पृथक् निर्वाचित नहीं, सर्वथा स्वतंत्र है। सत्प्रवृत्ति और निवृत्ति में उसका एकाधिकार आधिपत्य है । जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में भी अहिंसा प्रयोज्य है, खाने-पीने में भी अहिंसा का विचार रखना लाभप्रद है पर हिंसा और अहिंसा का विवेक यथावत् होना चाहिए अन्यथा दोनों का मिश्रण लाभ के बदले हानिकारक हो जाता है । भगवान् महावीर का श्रावक महाराज चेटक वैशाली गणतंत्र का प्रधान था। वह अहिंसा-वती था। निरपराध जीवों के प्रति उसकी भावना में दया का प्रवाह था। यह तो श्रावकत्व का सूचक है ही, किन्तु सापराध प्राणी भी उसके सफल बाण से एक दिन में एक से अधिक मृत्यु का आलिंगन नहीं कर पाते थे । युद्ध में भी उसे प्रतिदिन एक बाण से अधिक प्रहार करने का त्याग था। इतना मनोबल सर्वसाधारण में हो सकता है, यह सम्भव नहीं। व्रत-विधान सर्व-साधारण को अहिंसा की ओर प्रेरित करने के लिए है । अतः इसका विधान सार्वजनिकता के दृष्टिकोण से सर्वथा समुचित है। इसमें अहिंसा का परिमाण यह बताया गया है कि श्रावक निरपराध त्रस प्राणी (न केवल मनुष्य) को मारने की बुद्धि से नहीं मारता। यह १. उत्तराध्ययन ६।३८,४०,४२,४४ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ अहिंसा तत्त्व दर्शन अहिंसा का मध्यम-मार्ग है। गृहस्थ के लिए उपयोगी है। इसमें न तो गृहस्थ के औचित्य-संरक्षण में भी बाधा आती है और न व्यर्थ हिंसा करने की वृत्ति भी बढ़ती है । यदि हिंसा का बिलकुल त्याग न करे तो मनुष्य राक्षस बन जाता है और यदि वह हिंसा को सर्वथा त्याग दे तो गृहस्थपन नहीं चल सकता। इस स्थिति में यह मध्यम-मार्ग श्रावक के लिए अधिक श्रेयस्कर है। इसका अर्थ यह नहीं कि गृहस्थ इस हद के उपरान्त हिंसा का त्याग कर ही नहीं सकता। यदि किसी गृहस्थ में अधिक साहस हो, अधिक मनोबल हो तो वह सपराध और निरपराध दोनों की हिंसा का त्याग कर सकता है। पर सर्वसाधारण में कहां इतना मनोबल, कहां इतना धैर्य और साहस कि वह अपराधी को भी क्षमा कर सके? हिंसक बल के सामने अपने भौतिक अधिकारों की रक्षा कर सके ? नीति-भ्रष्ट लोगों से अपने स्वत्व को बचा सके ? अहिंसा का प्रयोग प्रधानतः आत्मा की शुद्धि के लिए है। राज्य आदि कार्यों में हिंसा से जितना बचाव हो सके, उतना बचाव करे, यह राजनीति में अहिंसा का प्रयोग है। किन्तु जो बल आदि का व्यवहार होता है, वह हिंसा ही है। सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्ति का पृथक्करण क्यों ? अमुक कार्य समाज या संसार का है और अमुक कार्य धर्म या मोक्ष का है, ऐसा विभाग क्यों ? समाज और धर्म सर्वथा अलग नहीं हो सकते। इसलिए इन्हें अलग-अलग बांटने से बड़ी उलझन पैदा होती है-एक विचारधारा ऐसी भी है। इस उलझन को मिटाने का एकमात्र उपाय नास्तिकवाद है। अनात्मवादी जीवन की वर्तमान कठिनाइयों से सबसे अधिक बच सकता है। उसे वर्तमान की उपयोगिता से आगे सोचने की जरूरत नहीं होती। आत्मवादी वर्तमान उपयोगिता को ही जीवन का साध्य नहीं मानता, इसलिए वह आत्म-शुद्धि को जीवन का चरमसाध्य मानकर चलता है । उसका साधन है-अहिंसा। ___ जीवन हिंसा के बिना चलता नहीं, गृहस्थ को आवश्यक सुविधाएं जो जुटानी पड़ती हैं । इसलिए वह अनावश्यक हिंसा से बचकर चलता है। यही समाज अहिंसा या आध्यात्मिकता की नींव पर सृष्ट समाज कहलाता है। अहिंसक समाज का यह अर्थ नहीं कि वह कुछ भी हिंसा नहीं करता किन्तु वह हिंसा को यथाशक्य छोड़ने का ध्येय रखकर चलता है। उसमें जितना वीतराग-भाव या माध्यस्थ्य है, वह अहिंसा है और जितना राग-द्वेष, मोह, अज्ञान है, वह हिंसा है। सामाजिक प्राणी अहिंसा का ध्येय रखते हुए भी दैहिक अनिवार्यता और राग-द्वेष की पराधीनता के कारण हिंसा से छुटकारा नहीं पाता, इसलिए वह अहिंसा और हिंसा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन के संगम में चलता है । वह हिंसा न छोड़ सके, यह उसकी दुर्बलता है । उसे अहिंसा क्यों माना जाए ? प्रत्येक कार्य की परख होनी चाहिए । संसार को संसार और मोक्ष को मोक्ष समझना चाहिए। सांसारिक कार्य में अनासक्ति रहने मात्र से वह मोक्ष का नहीं बन जाता। हां, अनासक्ति के रहते बन्धन तीव्र नहीं होता, फिर भी सूक्ष्म राग के रहते सूक्ष्म बन्धन अवश्य होगा । बन्धन और मोक्ष का मार्ग एक हो नहीं सकता । इस दशा में उन्हें एक मानने की भूल हमें नहीं करनी चाहिए । समाज और मोक्ष की अलग-अलग धारणाएं रहते हुए समाज का यथेष्ट विकास नहीं हो सकता- - ऐसा मानना भ्रमपूर्ण है । कारण यह है - सामाजिक प्राणी हिंसा और अहिंसा का विवेक रख सकता है किन्तु हिंसा को सर्वथा छोड़ नहीं सकता; समाज की प्रतिष्ठा, मर्यादा और विकास की उपेक्षा नहीं कर सकता । इतिहास के पन्ने उलटिए । अहिंसा पर विश्वास रखने वाले मौर्य और गुप्त सम्राटों का काल भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है । ८५ सामाजिक व्यक्ति समाज-विमुख नहीं हो सकता दया दान विषयक विचार क्रांति दया दान के अति-रंजित रूप का परिणाम है। सामाजिक प्राणी राग की परिणति से मुक्ति नहीं पा सकता, यह ठीक है किन्तु उसे धर्म या मोक्ष का मार्ग समझ बैठे, यह भूल है । ऐसी भूल हुई, इसीलिए आचार्य भिक्षु को उस पर कठोर प्रहार करना पड़ा । वे समाज की मर्यादा को समझते थे । समाज में रहने वाला व्यक्ति समाज से विमुख बनकर रहे, यह उन्होंने नहीं बताया । उन्होंने बताया - 'समाज की आवश्यकताओं को, आपसी सहयोग, न्याय-वितरण, समान अधिकार, पौद्गलिक सुख-सम्पादन की विधियों को मोक्ष - मार्ग समझना भूल है ।' वे समाज-विरोधी संस्कार डालने नहीं चले, समाज का अभ्युदय निश्रेयस् के नाम पर साधा जा रहा था । उसे मिटाने चले थे । उसमें वे सफल हुए । आज का युग उनकी देन को बड़ी महत्त्वपूर्ण मानता है । सामाजिक दायित्व निभाने वाले नरक में जाते हैं - यह उनका प्रतिपाद्य नहीं था । उनका प्रतिपाद्य सिर्फ इतना ही था कि यह सब मोक्ष की साधना नहीं है । सम्यग् - दृष्टि व्यक्ति सामाजिक दायित्व को निभाता हुआ भी नरकगामी नहीं होता । नन्दन मणियारा ने पुष्करणी बनवाई, इसलिए वह मेढक बना - यह कैसे कहा जा सकता है ? छह खण्ड का राज्य करने वाले सार्वभौम चक्रवर्ती और रणचण्डी की खप्पर भरने वाला राजा और सैनिक उसी जन्म में संयमी बन मोक्ष जाते हैं । इस दशा में कुआं या पोखरणी बनाने मात्र से कोई नरक जाता है - यह कौन मर्मज्ञ कहेगा ? नन्दन मेढक इसलिए बना कि वह आरम्भ करता गया, उसमें मूच्छित Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन रहा और आत्म-धर्म से मुंह मोड़ बैठा । आत्म-धर्म के सिवा अगर कोई दूसरी वस्तु सद्गति का कारण होती तो नन्दन की ऐसी स्थिति नहीं बनती। बहुत सारे व्यक्ति लौकिक व्यवहार को ही धर्म-पुण्य मानकर आत्म-धर्म से परे खिसक जाते हैं, यह बड़ी भूल होती है। लौकिक व्यवहार गृहस्थ के लिए अनिवार्य है । आरम्भ करना गृहस्थ की कमजोरी है, किन्तु उसे धर्म समझना मोह की प्रबलता है। गृहस्थ को अनर्थ-हिंसा से अवश्य बचाना चाहिए। व्यक्तिगत स्वार्थ या सामाजिक स्वार्थ के लिए होने वाली हिंसा, जिसे भगवान् महावीर ने अनर्थ-हिंसा कहा है, से व्यक्ति विवेकपूर्वक बचे—यह तथ्य है । भव-वैराग्य होगा तो वह हिंसा को छोड़ता चला जाएगा। आखिर साधु या संन्यासी भी बन जाएगा । वास्तव में सही विरक्ति होनी चाहिए। वैयक्तिक स्वार्थ का भरपूर पोषण करने वाले सामाजिक स्वार्थ से बचने के लिए दम्भ भरें-वह सही नहीं लगता। 'गाय से दूध लूंगा, किन्तु उसे घास नहीं डालूंगा'- ऐसी अविवेकपूर्ण प्रवृत्ति अहिंसा नहीं किन्तु अहिंसा के साथ मखौल है। आचार्य भिक्ष और जयाचार्य ने यकिंचित् कटु सत्य कहा है। वह भी लौकिक व्यवहार को तोड़ने के लिए नहीं किन्तु वस्तुस्थिति को यथार्थ रूप में समझाने के लिए, दृष्टि को सम्यक् बनाने के लिए वैसा कहना पड़ा। लोगों ने प्रत्येक आवश्यक कर्तव्य पर धर्म की छाप लगा दी। उन्होंने मान लिया कि पानी पिलाना धर्म है, रोटी खिलाना धर्म है, पैसा देना धर्म है। धर्म भी व्यवहार का नहीं मोक्ष का। क्या धर्म बाहर से टपक पड़ता है ? धर्म का रूप विकृत बना दिया गया। कष्ट कौन सहे? त्याग-तपस्या कौन करे? ब्राह्मणों को भोजन करा दिया, जैनों ने दया पला दी-श्रावकों को जिमा दिया, धारणा-पारणा करा दिया। वे धर्म करेंगे उसका हिस्सा, उसकी प्रेरणा या अनुमोदना उन्हें मिल जाएगी। ऐसी भ्रान्त धारणाएं चल पड़ीं। धर्म की मौलिक साधना-सत्य, सन्तोष, मैत्री, अपरिग्रहदब गई और बाहरी आवरण उभर आया। ऐसी स्थिति में कटु सत्य भी उपयोगी होता है । वह समाज-विरोधी संस्कारों को नहीं डालता किन्तु धर्म के नाम पर पलने वाले विकारी संस्कारों और आडम्बरों को उखाड़ फेंकता है। आचार्य भिक्षु के सिद्धान्त को पढ़ते समय उनके पारिपाश्विक वातावरण को ध्यान में रखना जरूरी है। उसको छोड़कर हम उनका दृष्टि-बिन्दु समझने में पूर्ण सफल नहीं हो सकते। सामाजिक कर्तव्य का आधार सामाजिकता आचार्य भिक्षु लौकिक व्यवहार को तोड़ने का आग्रह नहीं रखते थे। उन्हें वस्तुस्थिति को यथार्थ समझने का आग्रह था। एक जमाना ऐसा रहा जबकि सामाजिक दायित्व को निभाने के लिए समाज के नियमों को धर्म-पुण्य कहा गया? आज Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ८७ का मनुष्य कर्तव्य के नाम पर आगे बढ़ गया है। वह समाज के दायित्व को सामाजिक कर्तव्य के रूप में अधिक कौशल के साथ निभाता है । अथवा ऐसे समझिए कि आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण एक नया प्रयोग है । उनके अनुयायी सामाजिक आवश्यकताओं को धर्म-पुण्य न मानते हुए भी कर्तव्य की दृष्टि से उन्हें पूरा करते हैं। सांसारिक स्थितियां आत्मा को मुक्ति देने वाली नहीं हैं। फिर भी बन्धन में फंसे हुए व्यक्ति अपनी मर्यादा नहीं तोड़ सकते। इसलिए वे कर्तव्य-प्रेरित होकर उन्हें किया करते हैं । वर्तमान युग सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति धर्म-पुण्य के नाम पर नहीं किन्तु सामाजिक न्याय और अधिकार के स्तर पर करना सिखाता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो हीनता और उच्चता की भावना बनी, उसमें दान द्वारा पुण्य कमाने की धारणा प्रमुख है। भगवान् महावीर ने इसके विरुद्ध क्रान्ति की। सूत्रकृतांग और आचारांग पढ़ जाइए, तथ्य सामने आ जाएंगे। आचार्य भिक्षु ने उसी तथ्य का पुनः प्रकाशन किया। लोग उसका मर्म समझ नहीं सके। उनके संस्कार वैयक्तिक जीवनवादी व्यवस्था के थे। इसलिए वे विचार सहजतया समझ में न आएं-इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं। सामाजिक साथियों को हीन-दीन रखकर उनके प्रति दया और परोपकार का व्यवहार करना-ये सब तथ्य वैयक्तिक जीवनवादी व्यवस्था के थे। इस युग में जहां समानाधिकार का स्वर सफल हो रहा है, उनका निर्वाह करने की आवश्यकता नहीं रही। समाजवादी जीवन-व्यवस्था में सबके साथ समानता की अनुभूति की जाती है। यह आमूल परिवर्तन है। एक हीन-दीन रहे और दूसरा उस पर दया कर धर्म-पुण्य कमाए-इसका कोई महत्त्व नहीं रहा। आज उसे महत्त्व दिया जाता है, जिसमें कोई हीन-दीन रहे ही नहीं। __ सामाजिक व्यक्तियों की हीनता से उत्पन्न करुणा सचमुच समाज की दुर्व्यवस्था को चुनौती होती है। उसे धार्मिक रूप देने वाले प्रकारान्तर से दुर्व्यवस्था को प्रश्रय देते हैं। किसी युग में यह भावुकता उपयोगी रही होगी, किन्तु अधिकारजागरण के इस युग में तो इसका कोई उपयोग नहीं दीख पड़ता । युग की परिवर्तित चेतना को समझने के लिए प्रोफेसर नगेन्द्रनाथ के विचार देखिए-'एक समय था जब सामाजिक कल्याण और परोपकार की भावना से प्रेरित होकर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अन्धों को सहायता और सुख पहुंचाने के लिए उन्हें कुछ सिखाना-पढ़ाना शुरू किया था। समाज का बोझ हल्का करने के लिए उन्होंने अंधों के लिए विद्यालय और आश्रम भी खोले। लोक-चेतना के विकास और व्यापक जन-जागृति के कारण आज हर अन्धे बच्चे का शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार माना जाने लगा है। अधिकांश सभ्य देशों में आज अन्धों की शिक्षा अनिवार्य है और सरकार तथा जनता शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्हें उपयुक्त कार्य और सामाजिक अवसर देने की भरपूर चेष्टा कर रही है।' Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अहिंसा तत्त्व दर्शन ___'अधिकांश अन्धों को दयालु, धर्मालु व्यक्तियों के दान पर ही निर्भर करना पड़ता था, इस दृष्टि से समाज में उनका स्थान बड़े सम्मान का था; ऐसा नहीं कहा जा सकता। हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुसलमान आदि सभी धर्मों में दान की बड़ी महिमा वणित हुई है और इसीलिए सुगमता से भिक्षा-वृत्ति ही अन्धों का एक प्रमुख पेशा बन गया।" जब तक सामाजिक समानता का भाव विकसित नहीं हुआ था तब तक दानपुण्य के आधार पर असहाय व्यक्तियों को कुछ दिया जाता था। आज के प्रबुद्ध युग में वह धारण विलुप्त हो चुकी है। अब वे भिक्षा या कृपा के नहीं किन्तु सामाजिक संभाग के अधिकारी माने जाते हैं। इसलिए उनके प्रति दया का भाव नहीं, कर्तव्य का भाव जुड़ गया है। एक दर्शन सामाजिक दया-दान को आत्म-धर्म मानता है, उससे उसे पुष्टि मिलती है। और दूसरा दर्शन उसे आत्म-धर्म नहीं मानता, उससे क्या दया-दान के अस्तित्व को खतरा नहीं है ? यह प्रश्न होता है। इसके उत्तर में मैं इतना ही कहूंगा कि सहयोग एक सामाजिक आवश्यकता है और मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । सहयोग भावना की पुष्टि के लिए यह भावना पर्याप्त है। आत्म-धर्म के प्रति कोई आस्थावान हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता, किन्तु सामाजिक प्राणी समाज का अंग होने के नाते समाज-धर्म के प्रति सहज भाव से आकृष्ट हो सकता है। समाज-व्यवस्था के विकृत रूप में चलने वाले दया-दान का समर्थन कर धर्म बहुत उद्दीपन नहीं पा सकता। अपने सामाजिक भाइयों को दीन-हीन मानने पर ही दया और उन्हें भिखारी मानने पर ही दान-धर्म का अस्तित्व टिका हुआ है, वह धर्म-प्रभावना के बदलने में धर्म-ग्लानि की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। इसलिए इस प्रश्न पर गतिशील और सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण से अनुप्रेक्षा करनी चाहिए। १. नया समाज, पृ० १८२, १८३, सितम्बर, १६५३ . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तक और निवर्तक धर्म ___ जो लोग मानते हैं-धर्म समाज के अभ्युदय के लिए चला और है, उनके लिए अहिंसा मर्यादित धर्म है। मर्यादा का मापदण्ड है-समाज की आवश्यकता । धर्म का प्रवर्तन आत्म-शुद्धि के लिए हुआ, ऐसे विचार वालों के लिए अहिंसा अमर्यादित धर्म है। वे अहिंसा को उपयोगिता या आवश्यकता के बाटों से नहीं तोलते । वे उसे संयम की तुला से तोलते हैं। सचमुच ही अहिंसा समाज के अभ्युदय के लिए ही प्रवृत्त हुई होती तो उसकी मर्यादाएं इतनी सूक्ष्म नहीं बनतीं, समाज-निरपेक्ष बनकर भी वह विकसित नहीं होती। अहिंसा-धर्म समाज के अभ्युदय के लिए ही है तो उसे धर्म की भूमिका पर क्यों रखा जाए ? समाज के लिए वह अधिक उपयोगी तभी बन सकता है, जबकि उसका मूल्यांकन समाज की दृष्टि से किया जाए। अहिंसा का विचार समाज की भूमिका से ऊपर शरीर को एक बाजू रखकर केवल आत्म-स्वरूप की भित्ति पर हुआ है, उससे स्पष्ट जान पड़ता है कि उसका लक्ष्य आत्म-शुद्धि या देह-मुक्ति ही है। अहिंसा-धर्म की भित्ति स्वर्ग के प्रलोभन और नरक के डर की कल्पना ही है तो उसे तोड़ फेंक देना चाहिए । वैज्ञानिक युग के व्यक्ति की दृष्टि में अर्थवाद की अपेक्षा यथार्थता का मूल्य अधिक हो जाता है। अहिंसा-धर्म आत्म-शोधन के लिए है अर्थात् देह-मुक्ति के लिए है तो उसे अपनी ही दिशा में चलना चाहिए। सामाजिक धर्म नितान्त ऐहिक और पौने सोलह आने भौतिक होता है । उसमें स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य आदि पारलौकिक स्थितियों का विचार नहीं होता। नैतिकता का विचार होता है, वह भी सामाजिक स्तर पर । अनात्मवादी कितने ओछे स्तर पर धर्म का विचार करते हैं, उसका एक नमूना देखिए–'आदमी को अपने ऊपर विश्वास करना सीखना चाहिए । धर्म-ग्रंथों के पाठ उसे कड़कड़ाती सर्दी से न बचा सकेंगे । घर, अग्नि और वस्त्र ही उसकी रक्षा कर सकेंगे। अकाल से बचने के Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन लिए लाखों धर्मोपदेश की अपेक्षा एक हल अधिक उपयोगी है । संसार के आरम्भ में से जितनी प्रार्थनाएं की गई हैं, वे सब उतने रोगों को दूर न कर सकेंगी जितने रोग किसी एक सामान्य पेटेण्ट दवा से दूर हो सकते हैं।" जहां पौद्गलिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए धर्म की कल्पना हो, वहां वह व्यर्थ है। यह सच है-रोटी, कपड़ा आदि सुख-सुविधाएं प्राप्त करने में धर्म सहायक नही बनता। धर्म के बारे में दूसरी कल्पना प्रवर्तक-धर्म की है। वह पारलौकिक भी है और आध्यात्मिक भी। किन्तु वह मोक्ष को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार धर्म का ऐहिक फल है अभ्युदय और पारलौकिक फल है स्वर्ग-प्राप्ति । तीसरी परम्परा निवर्तक-धर्म की है। इसका साध्य है मोक्ष। इसके अनुसार धर्म सिर्फ आत्म-शुद्धि के लिए ही किया जाना चाहिए। ऐहिक और पारलौकिक सुख-सम्पदाओं, वैभव और स्वर्ग के लिए धर्म नहीं करना चाहिए। इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा-'आप मिले हुए भोगों को छोड़ कर आगामी भोगों के लिए तप तप रहे हैं, यह आश्चर्य की बात है।' राजर्षि बोले- 'काम-भोग शल्य हैं, विष हैं। उनकी कामना करने वाले दुर्गति में जाते हैं । मैं आत्म-शुद्धि के लिए तप रहा हूं, पारलौकि भोगों के लिए नहीं। निवर्तक धर्म पूर्णतया आध्यात्मिक है। पौद्गलिक सुख-सुविधाओं की दृष्टि से वह न इहलौकिक है और न पारलौकिक । आत्म-शुद्धि की दृष्टि से वह इहलौकिक भी है और पारलौकिक भी । प्रवर्तक और निवर्तक धर्म का आधार प्रवर्तक और निवर्तक धर्म का आधार कर्मवाद है । कर्मवाद की दो शाखाएं रही हैं : १. त्रिवर्गवादी, २. पुरुषार्थ-चतुष्ट्यवादी । धर्म, अर्थ और काम ---इन तीन पुरुषार्थों को स्वीकार करने वाली शाखा में मोक्ष का स्थान नहीं है। इसी का नाम प्रवर्तक धर्म है। इसका चरमसाध्य स्वर्ग है । इसके अनुसार धर्म, शुभकार्य या पुण्य का फल स्वर्ग है। अधर्म, अशुभ कर्म या १. स्वतंत्र विचार : कर्नल इंगरसोल, पृ० ४१ (अनुवादक : भदन्त आनन्द. कौसल्यायन)। २. दशवकालिक-६४ ३. उत्तराध्ययन ६।५१,५३ ४. वही, १११५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन पाप का फल नरक है। इन्हीं के द्वारा जन्म मरण की परम्परा चलती है । उसका कभी भी निरोध नहीं हो सकता। इस परम्परा में धर्म या पुण्य हेय नहीं है । इसमें धर्म का आधार शिष्ट समाजसम्मत आचार है । इसके धार्मिक विधान स्वर्गलक्षी हैं । दूसरी परम्परा निवर्तक धर्म की है । इसका साध्य मोक्ष है । इसमें धर्म और पुण्य एक नहीं है । धर्म आत्मा की शुद्ध परिणति है और पुण्य कर्म-वन्धन है । पुण्य बन्धन है इसलिए हेय है ।" पुण्य का फल स्वर्ग आदि शुभ-भोग है किन्तु वह मोक्ष का बाधक है । यह मोक्षार्थी के लिए वांछनीय नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द के ।' शब्दों में- 'पुण्य संसार - भ्रमण का हेतु है । जो इसकी इच्छा करते हैं, वे परमार्थ को नहीं समझते, मोक्ष मार्ग को नहीं जानते । " फल की दृष्टि से पुण्य और पाप में अन्तर है । पुण्य का फल शुभ-भोग है, पाप का अशुभ- भोग | किन्तु मोक्ष के साधन ये दोनों नहीं हैं, इसलिए पुण्य के फल भी तत्त्व - दृष्ट्या दुःख ही हैं । * चक्रवर्ती- पद की प्राप्ति आदि-आदि पुण्य के फल निश्चय दृष्टि से दुःख ही हैं ।" इसीलिए आचार्य योगीन्दु कहते हैं - 'हमारे पुण्य का बन्ध न हो, क्योंकि पुण्य से धन मिलता है, धन से मद होता है, मद से मति मोह और मति मोह से पाप ।" यह क्रम उन्हीं के होता है, जो पुण्य की इच्छा से धर्माचरण करते हैं । जो आत्म-शुद्धि के लिए धर्माचरण करते हैं, उनके अवांछित पुण्य का बंध हो जाता है । किन्तु वह व्यक्ति दिग्मूढ़ नहीं बनाता, फिर भी वह साधन जन्म-मृत्यु की परम्परा का ही है, मोक्ष का नहीं । जीव संसार भ्रमण करता है, उसका कारण शुभ-अशुभ कर्म ही है । मोक्ष शुभ-अशुभ कर्म नष्ट होने से ही होता है । कर्म से कर्म का नाश नहीं होता, कर्म का नाश अकर्म से होता है ।" मोक्ष तब हो जब नए कर्म, पुण्य और पाप, दोनों न लगे । प्रवर्तक-धर्म के अनुसार धर्म और पुण्य दोनों एक हैं । निवर्तक-धर्म में ये दोनों दो हो जाते हैं । पुण्य का अर्थ है, शुभ कर्म का बन्धन और धर्म का अर्थ है बन्धन -मुक्ति का साधन । ये दोनों परस्पर विरोधी हैं । बन्धन के साधन से मुक्ति १. उत्तराध्ययन, २१।२४ २. शान्त सुधारस ७७ ३. समयसार १६१ ४. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा २००४ ५. वही, गाथा २००५ ६. परमात्मप्रकाश २।६० ७. सूत्रकृतांग १ -१२-१५ : न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला । अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा ॥ १ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अहिंसा तत्त्व दर्शन नहीं हो सकती और मुक्ति के साधन से बन्धन नहीं हो सकता। धर्म की शुभ वृत्त्यात्मक स्थिति में होने वाला बन्धन पुण्य का होता है। इस साहचर्य के उपचार से कहा जाता है कि धर्म से पुण्य होता है किन्तु वास्तव में धर्म मुक्ति का ही हेतु है, उससे बन्धन नहीं होता । पुण्य बन्धन है, इसलिए हेय है। नव पदार्थों में जीव और अजीव ज्ञेय, पुण्य, पाप, बन्ध और आस्रव हेय तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष-तीन उपादेय हैं। निश्चय दृष्टि में पुण्य और पाप दोनों हेय हैं, फिर भी मोह से प्रभावित व्यक्ति पुण्य को उपादेय मानते हैं और पाप को हेय । परम्परा से पुण्य मोक्ष का कारण बन सकता है, फिर भी वह न स्वयं उपादेय है और न उससे कुछ उपादेय कार्य सधता है। पाप भी मोक्ष के परम्पर कारण बन सकते हैं। इसीलिए योगीन्दु कहते हैं-'जिन कष्टों के कारण जीव में मुक्ति की भावना पैदा हो, वे कष्ट उन सुखों की अपेक्षा अच्छे हैं, जो जीव को विषय में फेंसाते हैं।' आत्म-दर्शन की जिज्ञासा को पुण्य और पाप दोनों पूर्ण नहीं कर सकते। इस परमार्थ-दृष्टि से वे दोनों समान हैं। और क्या पुण्य की इच्छा करने से पाप का बन्ध होता है ! पुण्य की इच्छा करने वाला वास्तव में काम-भोग की इच्छा करता है। इसलिए पुण्य की इच्छा रखते हुए धर्माचरण करने का निषेध किया है। प्रवर्तक और निवर्तक धर्म : स्वरूप और फलित ___ राग-परिणति हिंसा है, द्वेष-परिणति हिंसा है, वीतराग-परिणति अहिंसा। हिंसा अधर्म है, अहिंसा धर्म । राग-द्वेष असंयम है, वीतराग भाव संयम। असंयम अधर्म है, संयम धर्म। धर्म प्रवृत्ति-रूप भी होता है और निवृत्ति-रूप भी। केवल प्रवत्ति ही हिंसा नहीं, निवृत्ति भी हिंसा होती है। केवल निवृत्ति ही अहिंसा नहीं, प्रवृत्ति भी अहिंसा होती है । आत्यन्तिक निवृत्ति शरीरमुक्त और कर्म-मुक्त दशा में होती है, इससे पूर्व प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों सापेक्ष होती हैं। एक कार्य में प्रवृत्ति होती है, दूसरे से निवृत्ति हो जाती है। राग-द्वेष में प्रवृत्ति होती है, वीतराग-भाव की निवृत्ति हो जाती है । वीतराग-भाव में प्रवृत्ति होती है, राग-द्वेष की निवृत्ति हो जाती है। राग-द्वेष की प्रवृत्ति और वीतराग-भाव की निवृत्तिदोनों अधर्म हैं, असंयम हैं। वीतराग-भाव की प्रवृत्ति और राग-द्वेष की निवृत्ति, ये दोनों धर्म हैं, संयम हैं। आत्मलक्षी प्रवृत्ति विधायक अहिंसा है। संसारलक्षी या पर-पदार्थलक्षी प्रवृत्ति की विरति निषेधात्मक अहिंसा है। धर्म का आधार आत्मा और कर्म है। १. उत्तराध्ययन २४।२६ : एयाओ पंच समिइयो, चरणस्स पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन आत्मा चैतन्य स्वरूप है और कर्म अचेतन-पौदगलिक है। इन दोनों का संयोग बन्धन है और वियोग मुक्ति। बन्धन के कारण हैं-राग और द्वेष । निवृत्त-आत्मा कर्मों को नहीं बांधती । प्रवृत्त आत्मा के वे बंधते हैं। आत्मा की प्रवृत्ति राग-द्वेषप्रेरित होती है, तब अशुभ कर्म बंधते हैं। उसकी प्रवृत्ति राग-द्वेष-अप्रेरित होती है, तब निर्जरा होती है और शुभ कर्मों का बन्ध होता है। ज्यों-ज्यों संवर (निवृत्ति) बढ़ता है, त्यों-त्यों कर्म-बन्ध शिथिल हो जाता है। वह (संवर) जब समग्र हो जाता है, तब कर्म-बन्ध सर्वथा रुक जाता है, पहले के कर्म-बन्धन टूट जाते हैं और आत्मा मुक्त बन जाती है। प्रवर्तक-धर्म में स्वर्ग का जो महत्त्व है, वह निवर्तक-धर्म में नहीं। उसमें मुक्ति का महत्त्व है । स्वर्ग भी संसार-भ्रमण का अंग है। उसे पा लेने पर भी जन्म-मृत्यु की परम्परा समाप्त नहीं होती। उसकी समाप्ति असंयमी जीवन और प्राणधारणात्मक जीवन के प्रति मोह-त्याग करने से होती है। संक्षेप में निवर्तक-धर्म का स्वरूप और लक्ष्य इस प्रकार है : १. आत्म-स्वभाव में परिणति धर्म। २. आत्म-स्वभाव में परिणत होने का साधन धर्म । ३. वही साधन धर्म है जो साधकतम हो, अनन्तर हो। ४. धर्म का लक्ष्य-मुक्ति (विदेह-दशा)। ५. आत्मा और देह का संयोग-प्रवृत्ति । ६. शरीरोन्मखी या असंयमोन्मुखी प्रवृत्ति-बंध हेतु । ७. आत्मोन्मुखी या संयमोन्मुखी प्रवृत्ति-मोक्ष-हेतु। ८. आत्मा और देह का वियोग-निवृत्ति । प्रवर्तक धर्म की तुलना में निवर्तक धर्म का फलित रूप अध्यात्मवाद है। उसके फलाफल की एकमात्र कसौटी अहिंसा और हिंसा का विचार है। प्रवर्तक-धर्म का फलित रूप हैमानवतावाद। उसकी फलाफल निर्णायक दृष्टि अहिंसा और हिंसा की अपेक्षा मानव-सेवा पर अधिक निर्भर है। निवर्तक-धर्म प्राणीमात्र समभावी है, इसलिए वह सब स्थितियों में मानव को १. शुभ-प्रवृत्ति मोह कर्म का क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव होता है, इसलिए प्रधानतया इससे कर्मों की निर्जरा (विलय) होती है। और गौण रूप में इसके सहचारी नाम कर्म के उदय से पुण्य का बन्ध होता है। २. सूत्रकृतांग १।१५।२२-२४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन सर्वोपरि महत्त्व नहीं देता। प्रवर्तक-धर्म में मानव के सामने और सब गौण होते है। दोनों का उद्गम एक नहीं है। इनमें स्वरूप, लक्ष्य और साधना का मौलिक भेद है। धर्म का तुलनात्मक अध्ययन भगवान् महावीर ने तीन प्रकार के व्यवसाय बतलाए हैं(१) लौकिक, (२) वैदिक, (३) सामयिक । लौकिक व्यवसाय के तीन भेद हैं-धर्म, अर्थ और काम । यहां धर्म शब्द का अर्थ है-समाज-कर्तव्य । अर्थ और काम जैसे लौकिक होते हैं, वैसे यह धर्म भी लौकिक है। मोक्ष-धर्म के तीन भेद-ज्ञान, दर्शन और चारित्र-सामयिक व्यवसाय के अन्तर्गत किए हैं। समाज-कर्तब्य के लिए 'लौकिक धर्म' शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में भी हुआ है। मनुस्मृति में जाति-धर्म, वैश्य-धर्म, कुल-धर्म, देशधर्म, राज्य-धर्म आदि अनेक प्रकार के धर्म बताए हैं। प्रमाण मीमांसा में आप्त यानी विश्वासी पुरुष के दो भेद हैं-लौकिक और लोकोत्तर । पौराणिक साहित्य में भक्ति तीन प्रकार की बताई है-लौकिक, वैदिक और आध्यात्मिक । आध्यात्मिक भक्ति को ही 'पराभक्ति' माना है । लौकिक गाय के घी, दूध और दही, रत्न, दीप, कुश, जल, चन्दन, माला, विविध धातुओं तथा पदार्थों से कलित, अगर की सुगन्ध से युक्त एवं घी और गुग्गुल से बने हुए धूप, आभूषण, स्वर्ण और रत्न आदि से निर्मित हार, नृत्य, वाद्य और संगीत, सब प्रकार के जंगली फल-फूलों का उपहार तथा भक्ष्य, भोज्यादि नैवेद्य अर्पण करके मनुष्य ब्रह्माजी को उद्दिष्ट कर जो पूजा करता है, वह लौकिक भक्ति मानी गई है। वैदिक ऋग् आदि वेद-मंत्रों का जप, संहिताओं का अध्यापन आदि कार्य ब्रह्माजी के उद्देश्य से किए जाते हैं, वह वैदिक भक्ति है। १. स्थानांग ३।३।१८४ २. वही, ३।३ : लोगिए ववसाए तिविहे पन्नते, तंजहा–अत्थे, धम्मे, कामे। ३. वही, ३।३ : सामयिए ववसाए तिविहे पन्नते, तंजहा-णाणे, दंसणे, चरित्ते। ४. मनुस्मृति ८४१ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ६५ आध्यात्मिक इसके दो भेद हैं-सांख्यज और योगज । सांख्यज-संख्यापूर्वक प्रकृति और पुरुष के तत्त्व को ठीक-ठीक जानना । योगज-प्राणायामपूर्वक ध्यान, इन्द्रियों का संयम और मन को समस्त इन्द्रियों के विषयों से हटाकर ब्रह्म-स्वरूप का चिन्तन करना। यही ब्रह्माजी के प्रति 'पराभक्ति' मानी गई है। स्थानांग में दस प्रकार के धर्म बताए हैं: १. ग्राम-धर्म-गांव का आचार या व्यवस्था अथवा विषय-भोग की अभिलाषा। २. नगर-धर्म-नगर की व्यवस्था। ३. राष्ट्र-धर्म-राष्ट्र की व्यवस्था । ४. पाखण्ड-धर्म-श्रमणों का आचार। ५. कुल-धर्म-कुल की व्यवस्था । ६. गण-धर्म-गण की व्यवस्था । ७. संघ-धर्म-संघ की व्यवस्था । ८. श्रुत-धर्म । ६. चारित्र-धर्म। १०. अस्तिकाय-धर्म। इनमें आत्म-संशोधक धर्म के सिवा गांव, नगर, राष्ट्र आदि के आचार, व्यवस्था आदि को धर्म कहा गया है। यशस्तिलकचम्पू में सोमदेवसरि धर्म के दो भेद मानते हैं -लौकिक और लोकोत्तर । इन्द्रनंदी-संहिता में भी धर्म के लौकिक और लोकोत्तर-ये दो भेद माने हैं। बाह्य-शुद्धि के लिए लौकिक और आभ्यन्तर-शुद्धि के लिए लोकोत्तर धर्म बताया है। दशवकालिक नियुक्ति में गम्य-धर्म, पशु-धर्म, पुरवर-धर्म, ग्राम-धर्म, गोष्ठी-धर्म, गण, राज्य आदि के धर्म को लौकिक धर्म कहा __चार पुरुषार्थ में धर्म और मोक्ष अलग-अलग है। वे धर्म के दो रूप लोक-धर्म और मोक्ष-धर्म की ओर संकेत जताते हैं। लोकमान्य तिलक ने गीता-रहस्य (पृ० ६४-६६) में इसका सुन्दर विवेचन किया है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है: --'राजधर्म, देशधर्म, प्रजाधर्म, कुलधर्म, जातिधर्म, मित्रधर्म इत्यादि १. पद्मपुराणांक (सृष्टि-खण्ड), पुष्कर तीर्थ की महिमा, पृ० ७८ २. स्थानांग १०७६० Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन सांसारिक बन्धनों को भी धर्म कहते हैं।' -~-'पारलौकिक धर्म को मोक्ष-धर्म अथवा सिर्फ और व्यावहारिक धर्म अथवा केवल नीति को केवलधर्म कहा करते हैं। महाभारत में धर्म शब्द अनेक स्थानों पर आया है और जिस स्थान में कहा गया है कि किसी को कोई काम करना धर्म-संगत है, उस स्थान में धर्म से कर्तव्य-शास्त्र अथवा तत्कालीन समाजव्यवस्था शास्त्र का ही अर्थ पाया जाता है तथा जिस स्थान में पारलौकिक कल्याण के मार्ग बतलाने का प्रसंग आया है, उस स्थान पर अर्थात शान्तिपर्व के उत्तरार्द्ध में मोक्षधर्म इस विशिष्ट शब्द की योजना की गई है।' ___ 'जैन धर्म और वर्ण-व्यवस्था' (पृ० ११) में पंडित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने लिखा है -'धर्म शब्द मुख्यतया दो अर्थों में व्यवहृत होता है-एक व्यक्ति के जीवन-संशोधन के अर्थ में, जिसे हम आत्म-धर्म कहते हैं और दूसरा समाज-कर्तव्य के अर्थ में । मनुस्मृतिकार ने इन दोनों अर्थों में धर्म शब्द का उल्लेख किया है। वे समाज-कर्तव्य को वर्ण-धर्म और दूसरे को सामान्य धर्म कहते हैं।' किस्तूरसावजी जैन ने धर्म के दो रूप बताते हुए लिखा है-'कर्तव्य का ही दूसरा नाम धर्म है। धर्म दो प्रकार का है-एक को मोक्ष-धर्म या निश्चय-धर्म कहते हैं और दूसरे को व्यवहार-धर्म या श्रावक-धर्म कह सकते हैं। पहले धर्म का आदर्श विशिष्ट ध्येय या स्वाभाविक पद की प्राप्ति है । दूसरे का आदर्श यह है कि हमें संसार में क्या करना चाहिए व हम क्या कर सकते हैं। समाज में हमारा स्थान क्या है व हमें अपने उत्तरदायित्व को किस तरह निभाना चाहिए।' डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने धर्म शब्द के अनेक अर्थ-प्रयोग बताते हुए लिखा है-'इस तरह के रीति-रिवाज, जो सामाजिक या राजकीय कानून की हैसियत रखते हैं, बहुत तरह के हो सकते हैं, जिन्हें देश-धर्म, कुल-धर्म कहा गया है। पेशेवर लोगों के संगठन को उस समय श्रेणी और युग भी कहते थे और उनके व्यवहार श्रेणी-धर्म या युग-धर्म कहलाते थे। मनु और याज्ञवलक्य के धर्म-शास्त्रों में एवं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा को हिदायत दी गई है कि वह इस तरह के अलग-अलग धर्मों या रिवाज में आने वाले अमल दस्तूरों को मान्यता दे । धर्म शब्द का यह अर्थ लगभग कानून जैसा है।' आचार्य नागसेन ने धर्म-ध्यान की व्याख्या में धर्म शब्द के अनेक अर्थ किए हैं : १. आत्मा का निर्मोह परिणाम । २. वस्तु-स्वरूप। ३. वस्तु-याथात्म्य। १. भगवान् महावीर और उनका संदेश, अनेकान्त वर्ष ८, अंक ६७ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ४. क्षमा आदि उत्तम गुण । डा० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार भारतवर्ष में एक ओर धर्म शब्द का अर्थ होता है— 'कठोर संयम के धारी महात्माओं के अनुभव और दूसरी ओर उन आध्यात्मिक सिद्धान्तों के अनुयायी समाज का पथ-प्रदर्शन करने वाले व्यावहारिक नियम । अर्थात् धर्म के दो रूप हैं - एक सैद्धान्तिक या आध्यात्मिक और दूसरा व्यावहारिक या सामाजिक ।" सांख्य दर्शन में भी ऐसी व्यवस्था मान्य हुई है । बौद्ध प्रवचन में धर्म शब्द बौद्ध-दर्शन में धर्म शब्द इन तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है : १. स्व - लक्षण धारण । २. कुगति - गमन - विधारण । ३. पांचगतिक संसार-गमन - विधारण । पहले में सास्रव और अनास्रव सभी कार्य धर्म कहलाते हैं । इसकी वस्तुस्वभाव धर्म के साथ तुलना होती है । ६७ दूसरे में 'दश कुशल' को धर्म कहा गया है । तीसरे में धर्म का अर्थ है – निर्वाण | अश्वघोष ने धर्म की द्विविधता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है 'उत्तिष्ठ भोः क्षत्रिय ! मृत्युभीत ! वरस्व धर्मं त्यज मोक्षधर्मम् ।' यहां बुद्ध को मोक्ष-धर्म को छोड़ क्षात्र धर्म को स्वीकार करने की प्रेरणा दी जा रही है । गीता में जाति-धर्म, कुल-धर्म आदि प्रयोग मिलते हैं । अर्जुन ने धर्म का प्रयोग रीति-रिवाज के अर्थ में किया है।' कृष्ण ने धर्म का प्रयोग कर्तव्य के अर्थ में किया है । मनुस्मृति में दण्ड को धर्म कहा गया है : दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वाः, दण्ड एवाभिरक्षति । दण्डः सुप्तेषु जागति, दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥ महर्षि पाणिनि ने धर्म के दो अर्थ प्रस्तुत किए हैं— नीति-धर्म और विधि धर्म | १. परमात्म प्रकाश की प्रस्तावना, पृ० १०० २. सांख्यदर्शन ५।२५, सांख्यकारिका २३, माठर वृत्ति । ३. गीता १।४३ ४. वही, २।३२,३३ ५. मनुस्मृति ७।१८ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन 'धर्म चरति धार्मिकः'- यहां धर्म शब्द का प्रयोग नीति-धर्म के अर्थ में है। शुल्कशाला पर चुंगी लगती थी, उसे धर्म्य कहा जाता था-'शुल्कशालाया धयं शौल्कशालिकम्'—यहां धर्म शब्द का प्रयोग विधि-धर्म के अर्थ में है। स्थानांग में दस प्रकार के श्रमण-धर्म का उल्लेख मिलता है। वे आत्म-धर्म के विभिन्न रूप हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं१. क्षमा ६. सत्य २. मुक्ति ७. संयम-त्याग ३. आर्जव ८. ब्रह्मचर्य ४. मार्दव ६. आकिंचन्य ५. लाघव १०. शौच मनुस्मृति में भी दस प्रकार के धर्म उल्लिखित हैं१. धृति ६. इन्द्रिय-निग्रह २. क्षमा ७. धी ३. दम ८. विद्या ४. अस्तेय ६. सत्य ५. शौच १०. अक्रोध संक्षेप में आत्म-धर्म के दो प्रकार हैं-श्रुत और चारित्र। श्रत और चारित्र ऐकान्तिक और आत्यन्तिक सुख के निश्चित उपाय हैं, इसलिए निरुपचरित धर्म हैं । सामाजिक सुख के अर्थ में धर्म शब्द उपचरित है। आत्म-धर्म और लोक-धर्म संयम और तपस्या, ये दोनों आत्म-धर्म हैं। अथवा ऐसे कहना चाहिए कि मुनिधर्म आत्म-धर्म है। मुनि आत्म-धर्म के लिए प्रवजित होता है। गृहस्थ का आत्मधर्म मुनि-धर्म का ही अंग है। वह उससे पृथक् नहीं है। अणुव्रत महाव्रत की ही स्थूल आराधना है। आत्म-धर्म मोक्ष की साधना है और लोक-धर्म व्यवहार का मार्ग। मोक्ष की साधना में विश्वास नहीं करते, उनके लिए आत्म-धर्म और लोक-धर्म-ऐसे दो विभाग आवश्यक नहीं होते। किन्तु जो आत्मवादी हैं, संसार से मोक्ष की ओर प्रगति करना, बन्धन से मुक्ति की ओर जाना जिनका लक्ष्य है, वे संसार और मोक्ष की साधना का विवेक किए बिना चल ही नहीं सकते। मुनि केवल आत्म-धर्म की १. स्थानांग १०७१३ २. मनुस्मृति ६।६२ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन साधना लिए चलते हैं । गृहस्थ समाज की श्रृंखला से बंधा हुआ होता है, इसलिए वह केवल आत्म-धर्म का पालन करने वाला ही नहीं होता, वह लोक-धर्म की मर्यादाओं को भी निभाता है। कुमार ऋषभ के विवाह का प्रसंग देखिए । आचार्य जिनसेन लिखते हैं' : पश्यन् पाणिगृहीत्यौ ते, नाभिराजः सनाभिभिः । समं समतुषत् प्रायः, लोकधर्मप्रियो जनः ।। 'महाराज नाभिराज अपने परिवार के लोगों के साथ दोनों पुत्र बंधुओं को देखकर भारी सन्तुष्ट हुए, सो ठीक ही है । क्योंकि संसारी जनों को विवाह आदि लोक-धर्म ही प्रिय होता है ।' कुमार ऋषभ से विवाह करने के लिए प्रार्थना करते समय कहा जाता हैप्रजासन्तत्यविच्छेदे, तनुते धर्मसंततिः । मनुष्व मानवं धर्मं, ततो देवेममच्युतः ॥ 'प्रजा की संतति का उच्छेद नहीं होने पर धर्म की संतति बढ़ती रहेगी, इसलिए हे देव ! मनुष्यों के इस अविनाशिक विवाह रूपी धर्म को अवश्य ही स्वीकार कीजिए ।' देवेमं गृहिणां धर्मं विद्धि दारपरिग्रहम् । 7 सन्तानरक्षणे यत्नः, कार्यो हि गृहमेधिनाम् ॥ १५६४ 'हे देव ! आप इस विवाह - कार्य को गृहस्थों का एक धर्म समझिए। क्योंकि गृहस्थों को संतान की रक्षा में प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिए।" इस प्रसंग में आए हुए लोक-धर्म, मानव-धर्म और गृहि धर्म - तीनों शब्द ध्यान देने योग्य हैं । बहुधा कहा जाता है— आत्म-धर्म और लोक-धर्म, ऐसे दो भेद तेरापंथ के आचार्यों ने - विशेषतः आचार्य श्री तुलसी ने किए हैं। उन्हें आचार्य जिनसेन (जो विक्रम की सातवीं सदी में हो चुके हैं) के शब्दों पर ध्यान देना चाहिए। कोई भी जैनाचार्य विवाह को धर्म नहीं मानते । लोक दृष्टि से वह बुरा कार्य भी नहीं है, इसलिए उसे लोक-धर्म कहा गया है । आचार्य हेमचन्द्र इसे व्यवहार- पथ कहते हैं I * तथापि नाथ ! लोकानां, व्यवहारपथोऽपि हि । त्वयैव, मोक्षवर्त्मेव, सम्यक् प्रकटयिष्यते ॥ १. महापुराण १५७ २. वही १५।६३ ३. वही १५।६४ ४. त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित १।२।७६३, ७६४ EE Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अहिंसा तत्त्व दर्शन तल्लोकव्यवहाराय, पाणिग्रह-महोत्सवम् । विधीयमान भवतेच्छामि नाथ ! प्रसीद मे ॥ श्रीमद राजचन्द्र ने आत्म-हित की और शरीर-हित की बड़े मार्मिक शब्दों में विश्लेषणा की है। महात्माजी ने उनसे पूछा कि “सर्प काटने आए तो उस समय हमें स्थिर रहकर उसे काटने देना उचित है या मार डालना ?" श्रीमद् राजचन्द्र ने उत्तर दिया-'इस प्रश्न का मैं उत्तर दूं कि सर्प को काटने दो तो बड़ी समस्या आकर उपस्थित होती है। तथापि तुमने जब यह समझा है कि 'शरीर अनित्य है' यो फिर इस असार शरीर की रक्षार्थ उसे मारना क्यों उचित हो सकता है, जिसकी कि शरीर में प्रीति है, मोह-बुद्धि है ?' ___ 'जो आत्महित के इच्छुक हैं, उन्हें तो यही उचित है कि वे शरीर से मोह न कर उसे सर्प के अधीन कर दें। अब तुम यह पूछोगे कि जिसे आत्महित न करना हो, उसे क्या करना चाहिए? तो उसके लिए यही उत्तर है कि उसे नरकादि कुगतियों में परिभ्रमण करना चाहिए। उसे यह उपदेश कैसे दिया जा सकता है कि वह सर्प को मार डाले। अनार्य वृत्ति के द्वारा सर्प के मारने का उपदेश किया जाता है, पर हमें तो यही इच्छा करनी चाहिए कि ऐसी वृत्ति स्वप्न में भी न हो।' अध्यात्म-धर्म और लोक-धर्म का पृथक्करण आचार्य भिक्ष ने जो दष्टिकोण दिया उसमें समस्याओं का बौद्धिक समाधान सन्निहित है। इसलिए वे सही अर्थ में धर्मक्रान्ति के महान् सूत्रधार थे। समाजधारणा के और आत्म-साधना के धर्म को एक मानने के कारण जो जटिल स्थितियां पैदा होती हैं, उनका सही समाधान इनका पृथक्करण ही है। आज का बुद्धिवादी वर्ग इस विभाजन को बड़ी सरलता से मान्य करता है। पं० लक्ष्मण शास्त्री तकतीयं ने श्री हृ० कृ० मोहिनी के इस पृथकतावादी सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए लिखा है-"इस बंटवारे को हम भी पसन्द करते हैं। धर्म अर्थात् समाज-धारण के नियम अथवा सामाजिक जीवन के कानून-कायदे। ये कायदे समाज-संस्था के प्राण होते हैं। ये ही कायदे जैमिनी का कहा हुआ चोदना-लक्षण धर्म है। इसलिए पूर्व-मीमांसा समाज-धारणाशास्त्र है। आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग और मोक्ष का विचार करता है। उत्तर-मीमांसा अध्यात्मशास्त्र है। अध्यात्म वैयक्तिक होता है और धर्म सामाजिक । यज्ञ-संस्कार, वर्णाश्रम धर्म समाज-धारक धर्म है। समाज-धारणाशास्त्र और अध्यात्म-शास्त्र-उन दोनों की पूरी फारखती हो जानी चाहिए।"१ महात्मा गांधी भी राष्ट्र की नीति या व्यवस्था को धर्म का चोगा नहीं पहनाते १. हिन्दू धर्म समीक्षा, पृ०७० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १०१ थे। उन्होंने 'हरिजन' में लिखे एक लेख में बताया है-"यदि मैं तानाशाह होता तो धर्म और राष्ट्र को अलग-अलग कर देता। मैं शपथ के साथ कह सकता हूं कि धर्म के लिए मरने को तैयार हूं, परन्तु यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। इसका राष्ट्र से कोई सम्बन्ध नहीं है।" एक प्रचारक मित्र (पादरी) के प्रश्न के उत्तर में यह विचार महात्मा गांधी द्वारा प्रकट किया गया। उक्त मित्र पादरी ने प्रश्न किया था कि क्या स्वतंत्र भारत में पूर्ण धार्मिक स्तंत्रता होगी? और क्या धर्म-राष्ट्र आपके स्वास्थ्य, यातायात, विदेश सम्बन्धी मुद्रा आदि अनेक बातों की देखभाल करेगा और क्या मेरे या आपके धर्म की देखभाल नहीं करेगा? धर्म शब्द के प्रयोगों की जटिलता के कारण ही मोक्ष-धर्म का लक्षण लोकधर्म से भिन्न करना पड़ा। थोड़े में वह है-आत्मा का वीतराग-भाव या भावविशुद्धि। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भिक्षु कौन थे? आज से लगभग पन्द्रह वर्ष पहले मैंने 'अहिंसा' नामक एक पुस्तक लिखी थी। उसमें तेरापंथ के अहिंसा विषयक दृष्टि-बिन्दु का थोड़े में विवेचन है। वह पुस्तक जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा चाड़वास द्वारा प्रकाशित हुई । पूनमचन्दजी सिंधी ने महात्मा गांधी के निजी सचिव प्यारेलालजी को तेरापंथ साहित्य की कई पुस्तकें दीं। उनमें एक वह भी थी। महात्माजी ने उनमें से कितनी पुस्तकें पढ़ीं, यह पता नहीं। दो पुस्तकें पढ़ीं, यह निश्चित है। उनमें एक है आचार्यश्री तुलसी की 'अशान्त विश्व को शान्ति का संदेश' और दूसरी है 'अहिंसा'। इन्हें केवल पढ़ा ही नहीं, पढ़ने के साथ-साथ वे अपने विचार अंकित भी करते गए ! 'अहिंसा' (पृ० १६) में महात्माजी ने लिखा-'आचार्य भिक्षु कौन थे ?' इस जिज्ञासा का सम्बन्ध स्थूल शरीरधारी भिक्षु से नहीं किन्तु अहिंसा के सूक्ष्मान्वेषी आचार्य भिक्षु से था। आचार्य भिक्षु अहिंसा के अद्वितीय भाष्यकार हुए हैं। अहिंसा के विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने जिस कुशाग्रता के साथ अनुसंधान किया, वह अहिंसा जगत् के लिए गौरव की बात है। उनके सफल मन्थन से निकले रत्न आज भी छिपे पड़े हैं और यही कारण है, कई व्यक्ति मूल तक पहुंचे बिना उसकी बाहरी झांकी से ही संदिग्ध हुए हैं। उन्हें समझना चाहिए कि समुद्र का रूप यही नहीं है, जो ऊपर से दीख रहा है। वह रत्नाकर है, ऊपर से भले ही शैवाल का पुंज दीखे। __ हमारे असंख्य क्षेत्रों में असंख्य आचार्य हुए हैं। उनकी हमें असंख्य देन हैं। उनसे असंख्य दृष्टियाँ हमें मिली हैं। जिस समय जिन आचार्यों को जो त्रुटियां लगीं, उन्हीं पर उन्होंने प्रमुख प्रहार किया। इसका अर्थ यही नहीं होता कि दूसरी दृष्टियां एकान्ततः सही नहीं हैं। हम उनके दृष्टि-बिन्दुओं की उपज, उसके साधन और आकार-प्रकारों को समझे बिना उनकी मौलिकता तक नहीं पहुंच सकते। यही कारण है कि हम एक-दूसरे के अपवाद-प्रतिवाद में लग जाते हैं। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन स्याद्वादी अथवा समन्वयवादी के लिए यह उलझन नहीं होनी चाहिए। मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम द्रष्टा की मीमांसन-भूमिका को समझ लें तो कम-से-कम उनके प्रति अन्याय करने से बच सकते हैं। __ आचार्य भिक्षु की अहिंसा के गर्भ में भगवान् महावीर के सिद्धान्तों का बल था। वे धर्म और दया-दान के नाम पर पोषित दुष्प्रवृत्तियों के कटु परिणामों को अनुभव कर सूक्ष्म चिन्तन में लगे, लगे रहे, समूचा जीवन उसी साधना में लगाया। अहिंसा, धर्म, दया और दान पर बड़े-बड़े मौलिक ग्रन्थ लिखे। उन्होंने देखा कि धर्म के असली स्वरूप को न समझ उसके बाहरी रंग-रूप पर मर मिटने वाले श्रद्धालुओं को तीखे बाणों के बिना जगाने का दूसरा कोई मार्ग नहीं है। उन्होंने 'अनुकम्पा' शीर्षक ग्रन्थ लिखा । उसके द्वारा ऐसे तीखे बाण छोड़े कि दया-दान का स्थितिपालक वर्ग हिल उठा। उनका क्रान्तिकारी सुधारक रूप विद्रोह का झण्डा लिए हुए था। वह तूफान के रूप में सामने आया। उन्होंने कहा-दया धर्म है, दान धर्म है, सेवा धर्म है, परन्तु ये अमर्यादित धर्म नहीं हैं। इनकी मर्यादा को समझो, अन्तर परख करो। धर्म-अधर्म दृष्टि-सापेक्ष है । एक सामाजिक व्यक्ति के लिए जो धर्म होता है, वह आत्म-साधक मुमुक्षु के लिए धर्म नहीं भी होता। समाज-संस्था और राज्य-संस्था की समूची कार्य-प्रणाली धर्म से अनुमोदित हो ही नहीं सकती। इसीलिए समाज-धर्म आत्म-धर्म से भिन्न है। समाज-धर्म का उद्देश्य जहां सामाजिक सुख-सुविधा है, वहां आत्म-धर्म का उद्देश्य है-शरीरमुक्ति । समाज-धर्म और आत्म-धर्म का एकीकरण करने में तम्बाकू और घी के सम्मिश्रण की-सी भूल है। समाज की भूमिका को विशुद्ध रखने के लिए उस पर आत्म-धर्म का नियन्त्रण आवश्यक है, किन्तु वह आत्म-धर्म ही है, यह गलत दृष्टिकोण है। सामाजिक सहयोग के स्थान पर अपने सामाजिक भाइयों को भिखारी और दया के पात्र बनाना सामाजिक अपराध भी है। आचार्य भिक्ष का यह क्रान्ति-घोष सहा नहीं गया, लोगों को नया ही नहीं, अटपटा लगा। विरोध की बाढ़ आयी, फिर भी वे अपने पथ से हटे नहीं। उन्हें मृत्यु का भय नहीं था, पूजा-प्रतिष्ठा की कामना नहीं थी। जो सही लगा उसे अपनाया। यही उनके विषय में जयाचार्य की 'मरण धार शुद्ध मग गह्यो' वाली उक्ति चरितार्थ होती है। सिंह-पुरुष आचार्य भिक्षु (जीवन-झांको) ___ अहिंसा आत्मा को पखारती है। सचाई उसका तेज बढ़ाती है। जहां ये नहीं, वहां व्यक्तित्व ही नहीं, धर्म तो दूर की बात। जन-कल्याण बाद में, पहले होना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १०७ चाहिए-आत्म-कल्याण-अपना शोधन। आत्म-शोधक ही दूसरों को उबार सकता है। ___ आचार्य भिश्रु एक-एक धर्म को परखते हुए चलते चले । वर्षों की परख और साधना के बाद वे तेरांपथ के अधिनायक के रूप में धर्म-क्षेत्र में चमके। आघातप्रत्याघात के भँवर में रुके बिना अव्याहत गति से बढ़े चले। वे वैद्य बने। साधु-समुदाय की नाड़ी पहचानी। अनाचार की धुरी तोड़ने उनका दिल क्रान्ति से उद्वेलित हो उठा। वे विद्रोह के स्वर में बोले । युग की तहों में छिपी बुराई बाहर आ पड़ी। मन बांधने की वृत्ति से वे सदा खिसियाए रहे। शिष्यों की जागीरदारी प्रथा को तोड़ने के लिए आग उगली। धन और घर बांध बैठने वाले साधुओं पर तीखे बाण फेंके। आपस में झगड़ने वाले साधुओं की ठगी वृत्ति की जड़ काटते रहे । खान-पान के लालची और ऐशो-आराम में फंसे साधुओं की कमजोरियों पर उनकी लोह लेखनी ने निराले ढंग का प्रहार किया । उनकी दो रचनाएं-(१) साधां रै आचार री चौपई' और (२) 'श्रद्धा री चौपई' पढ़ जाइए। उनकी क्रान्ति की चिनगारियां आचार-शैथिल्य को धुआं करती नजर आएंगी। आप सहमेंगे-कटु पदावली पर, कटु शब्दों पर और चुभने वाली गाथाओं पर। ___ ये रचनाएं आचार्य हरिभद्र के युग की और उनकी क्रान्त-कृति 'संबोध-प्रकरण' की स्मृति सहसा ला देती हैं। चैत्यवासियों की आचार ढिलाई पर उन्होंने जो रुख लिया, उससे हजार गुना रूखा रुख आचार्य भिक्षु ने अपनाया । आचार्य भिक्षु जितने क्रान्तदर्शी थे, उतने ही नहीं, उससे और अधिक शान्तदर्शी थे । उनकी वीतराग की-सी क्षमा पत्थर-दिल को पिघलाने वाली थी। बुराई के साथ वे जीवन-भर जूझते रहे। पर व्यक्ति का प्रेम उन्होंने कभी नहीं खोया । प्रतिद्वन्द्वियों के साथ भी उनका स्नेह-भरा व्यवहार था। उन्होंने अपने अनशनकाल में विचार-भेद रखने वालों से क्षमा मांगी । जान या अनजान में हुए-कटु व्यवहार की आलोचना की। तब विरोधी कहलाने वालों की आंखें भी डबडबा आयीं। उनके हृदय में प्राणी मात्र के प्रति समता का भाव था। बड़ों के लिए छोटों की हिंसा को धर्म मानने के लिए वे कभी तैयार नहीं हुए। उनके मस्तिष्क में दान और दया की मर्यादा का पूरा विवेचन था। लोग उनके सिद्धान्तों की तोड़-मरोड़ करते रहे, चूहे-बिल्ली जैसी भ्रामिक आपत्तियां उठाई, धर्म-संकट के प्रश्नों द्वारा जनता को उत्तेजित किया, फिर भी वे अपने विश्वास पर अटल रहे। शान्त-भाव से जनता को तथ्य बताते रहे। उनका अहिंसा, दान और दया सम्बन्धी दृष्टिकोण लोक-धारणा से भिन्न था। उन्होंने बताया-अध्यात्म-दया वह है, जिसमें राग-द्वेष, मोह आदि न हों। वही Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अहिंसा तत्त्व दर्शन दान आत्म-कल्याण का हेतु है, जो संयम का आलम्बन बने । धर्म का स्वरूप आत्मसंयम और आत्म-संतुष्टि है। भौतिक संतुष्टि और भौतिक संरक्षण अध्यात्म-धर्म नहीं है। एक ओर वे आचार-शिथिल साधु-सन्तों की सामन्तशाही को चुनौती दे रहे थे, दूसरी ओर ऐसे विचार दे रहे थे, जो लोक-मानस के अनुकूल नहीं थे। इसलिए उन्हें संघर्षों की बाढ़ को चीरकर चलना पड़ा। उनमें शान्ति और क्रान्ति का अपूर्व संगम था, इसलिए वे कुछ सहते और कुछ कहते चलते रहे । वे कुशल योद्धा थे, अपने आपसे लड़ना जानते थे। उनकी कठोर तपस्या और कठोर चर्या ने एक प्रकाश की किरण फेंकी, वातावरण बदल गया । अब उनके विचार भी लोक-मानस को खींचने लगे। वे साधक थे। साधना के लिए चले। सम्प्रदाय चलाने और मत बांधने की लालसा उन्हें छु तक नहीं पायी । वे तब स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्यश्री रुघनाथजी से अलग हुए, सम्प्रदाय चलाने के लिए नहीं किन्तु भगवान् महावीर की वाणी के अनुसार चलने के लिए। महापुरुष चले वह मार्ग बन जाए, यह एक बात है और मार्ग चलाने के लिए चले, यह दूसरी बात । ऐसा ही हुआ। वे चले और मार्ग बन गया। वे चले किसलिए? यह उन्हीं के शब्दों में पढ़िए : “आहार पाणी जाच कर सर्व साधु उजाड़ में परहा जावता। रूंखड़ा री छायां आहार पाणी मेल नै आतापना लेता, आथण रा पाछा गांव में आवता। इण रीत कष्ट भोगवता। कर्म काटता। म्हे या न जाणता मारो मारग जमसी ने युं दीक्षा लेसी, युं श्रावक श्राविका हुसी।म्हे तो विचारता, आत्मा रा कारज सारस्यां, मर पुरा देस्यां । इम धार विचार नै तपस्या करता।" उनके साधन अपने-आप जुटे, उन्होंने जुटाए नहीं। उनका मार्ग तेरापंथ कहलाया। वे 'भीखणजी' इस नाम से ही पहचाने जाते रहे । जोधपुर में एक सेवक कवि ने आपके गण को तेरापंथ की संज्ञा दी। उसने तेरह की संख्या को लेकर वह नाम पुकारा । नाम चल पड़ा। आचार्य भिक्षु मेवाड़ में थे । उन्हें इसका पता चला । वे संख्या में कोई तत्त्व नहीं देखते थे। उन्होंने कहा-'प्रभो ! तेरा पंथ है। मैं इसका एक पथिक हूं।' इस प्रकार आचार्य भिक्षु के संघ का नामकरण हो गया। पहले के भीखणजी अब 'तेरापंथ भीखण' कहलाने लगे। शिष्य-समुदाय बढ़ने लगा। साधु बने, साध्वियाँ बनीं, श्रावक-श्राविकाएं भी बने । वे अपनी गति से चलते चले। कठोर अनुशासन और मजबूत संगठन के लिए वे अपने ढंग के अकेले ही व्यक्ति थे । उनकी दिव्य-दृष्टि और शुद्धनीति से संघ की आत्मा बलवान् बन गई । सोलह वर्ष की अनुभव-परीक्षा के बाद उन्होंने भारमलजी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १०६ को अपना उत्तराधिकारी चुना । तब संघ का एक विधान भी लिखा । साधुओं का दिल लिया और बदले में ये नियम दिए । जैसे १. तेरापंथ गण एक आचार्य के नेतृत्व में रहे। २. शिष्य सब एक आचार्य के हों। ३. दीक्षा आचार्य के नाम से दी जाए। ४. विहार, चातुर्मास, धर्म-प्रचार आदि सब आचार्य के आदेशानुसार किए जाएं। ५. भावी आचार्य का निर्वाचन पूर्वाचार्य करें। ६. पुस्तकें संघपति के निश्राय में रहें, आदि-आदि। उनके सम-सामयिक साधुओं ने भी ऐसा ही चाहा और इस नियमावली को सहर्ष अंगीकार किया। साधु-संघ को आचार-कुशल रखने के लिए, शिष्य-लोलुपता को अपनी मौत मरने देने के लिए ऐसा विधान जरूरी था। विधान की पृष्ठभूमि में उन्होंने अनुशासन का वातावरण बनाया। वे कवि बनकर साधुओं के दिल तक पहुंचे और शासक बन दिमाग पर घूमे। उनकी शिक्षाएं और शासनाएं अमिट बन गई। उन्होंने जो कहा था--साधुओ ! साध्विओ ! १. नियम हृदय को साक्षी बनाकर पालो । २. संकोच ला कोई संघ में मत रहो। ३. स्वेच्छाचारित मत रखो। ४. नियमानुवर्ती बनो। ५. जो कुछ मन में आए, वह आचार्य को कह दो। ६. आचार्य कहे वह मानो, समझकर या श्रद्धा से । ७. आचार्य के कार्य-कलाप में हस्तक्षेप मत करो। ८. आपस में हेत रखो। ६. आचार से सम्बन्ध रखो, व्यक्ति से नहीं। १०. किसी में दोष देखो तो तत्काल उसे जता दो, गुरु को जता दो, दूसरों को मत कहो। ११. बड़ों का सम्मान करो। १२. छोटों के साथ मृदु व्यवहार करो। १३. दैनिक कार्यों को बांट लो--बारी से करो। १४. अपनी पांती का खाओ, पीओ, पहनो; पांती की जगह में बैठो, सोओ; पांती में सन्तोष मानो। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अहिंसा तत्त्व दर्शन १५. रोगी साधु-साध्वी की अग्लान और निःस्वार्थ भाव से सेवा करो। १६. गण, गणी के सम्बन्ध को पुष्ट करो । गण के हित को अपना हित और अहित को अपना अहित समझो। १७. गण के किसी भी अंग की उतरती मत करो। १८. दलबन्दी मत करो। १६. यह गण सबका है, इसे अपना समझो और अपना-अपना दायित्व निभाओ। १०. गुरु की दृष्टि को देलकर चलो, आदि-आदि। आचार्य भिक्षु स्थितिपालक नहीं, सुधारक थे। उन्होंने परिवर्तन किए और ऐसे किए, जिनके लिए इतिहास के पृष्ठ खाली पड़े थे। भगवान् महावीर की शासन-व्यवस्था में सात पद थे। परम्परा से वे चले आ रहे थे। वे तब आत्मसाधना के पोषक थे किन्तु आज उनकी पोषकता समाप्त हो चली थी। वे साधनापथ को कंटीला बना रहे थे। आचार्य भिक्षु ने सारी चेतना आचार्य को सौंप दी। सात ही पदों का कार्य आचार्य में केन्द्रित कर दिया। ____ अपना-अपना चेला बनाने की जो प्रथा थी, उसकी जड़ ही काट दी। जिसतिस को मूड चेला बनाने वालों की उन्होंने पूरी खबर ली। 'चेला करण री चलगत ऊंधी,' 'विकलां नै मूंड किया भेला'-उनके ये प्रसिद्ध पद्य आग्नेय-अस्त्र से कम नहीं हैं। वे मतवाद और बाड़ाबन्दी के घोर विरोधी थे। मतवाद चलाने के लिए जो चलते हैं, चेला परम्परा बढ़ाते हैं, वे साधना से परे हैं--इस विचार को वे आत्मा-विश्वास के साथ प्रचारित करते रहे। आचार्य भिक्ष ने बाहर से संघ को बांधा और अन्तर में नीतिनिष्ठ बना उसे मुक्ति दी। एक व्यक्ति ने उनसे पूछा-'प्रभो! आपका यह संध कब तक चलेगा?' वे बोले-'जब तक साधुसंघ की नीति विशुद्ध रहेगी और आचार कुशल रहेगा, तव तक संघ को आंच भी आने वाली नहीं है।' वे शुद्ध विचार की आधारशिला शुद्ध आचार को मानते थे। आचार शुद्ध बने बिना विचार शुद्ध बन नहीं सकते। ये ही कारण हैं, उन्होंने आचार-शुद्धि पर अधिक बल दिया । उन्होंने विधान लिखा, उसका उद्देश्य बताया है-चारित्र शुद्ध पले और 'न्याय मार्ग चले', इसलिए मैंने यह उपाय किया है। वे आदि से अंत तक कहो साधु किसका सगा, तड़के तोड़े नेह । आचारी स्यूं हिल मिल, अणाचारी नै छेह ।। इसी विचार के पोषक रहे। उन्होंने अपने जीवन-काल में १०५ शिष्य किए। ३७ शिष्य अलग हो गए या कर दिए गए, फिर भी वे शिथिल मार्ग पर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन चलने को राजी नहीं थे। वे अभय थे। लोकषणा उन्हें कभी विचलित नहीं कर सकी। सत्य की साधना में उनका जीवन बीता। उन्हें कटु सत्य भी सुधा-धूंट की तरह पीना पड़ा किन्तु वे असत्य के लिए सत्य की बलि करने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने मोह-अनुकम्पा को धर्म नहीं माना। भगवान महावीर ने गोशालक पर मोहानुकम्पा की। इसे वे धर्म कैसे मान सकते थे? यह बड़ी समस्या थी। भगवान् भगवद्-दशा में वीनराग और सब दोषों से परे होते हैं। साधनाकाल में उनमें भी राग-द्वेष की परिणति हो सकती है किन्तु साधारण लोग अति-भक्तिवश ऐसा नहीं सुन सकते। आचार्य भिक्षु भगवान् महावीर के अत्यन्त श्रद्धालु थे। फिर भी वे चले तत्त्व-विश्लेषण करने, इसलिए उन्हें कटु सत्य की कड़वी चूंट पीनी पड़ी। उन्होंने लिखा: 'छ लेश्या हुंती जद वीर मैं, हुंता आळू ही कर्म । छद्मस्थ चूका तिण समय, कोई मूरख थापै धर्म ॥' इस पद्य को उनके शिष्य भारमलजी स्वामी ने देखा। वे आचार्य भिक्षु से कहने लगे-'गुरुदेव ! यह पद्य बहुत कटु है।' आपने कहा-'असत्य तो नहीं है ?' वे बोले- 'है तो सत्य ।' आप बोले- 'सत्य है तब रहने दो।' लोगों में विरोध होना था सो हुआ ही। इसको लेकर आचार्य भिक्षु को बहुत कुछ सहना पड़ा। अनेक लोगों ने आचार्य भिक्षु को 'दया के विरोधी', 'दान के विरोधी' और 'भगवान् महावीर को चूका बताने वाले' के रूप में पहचाना। ___यह उनकी सही पहचान नहीं है। उनकी पहचान के लिए हमें कुछ गहराई में जाना होगा। उनका दृष्टिकोण समझना होगा। वे अहिंसा के बहुत बड़े भाष्यकार हुए हैं। उन्होंने दृष्टि दी है, उसे हम धर्म-संकट के प्रश्न खड़े कर टाल नहीं सकते । उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा-तत्त्व-दर्शन का मनन करें। तभी हम उनके कृतज्ञ बन सकेंगे। आचार्य भिक्षु का अध्यात्मवादी दृष्टिकोण तेरापंथ का इतिहास दान-दया के संघर्ष का इतिहास है। आचार्य भिक्षु से लेकर आज तक -दो शताब्दियों में यह विषय बहुत चर्चा गया है। इसका अध्यात्मवाद एक गूढ़ा पहेली बना हुआ है। मूल तत्त्व तक पहुंचने वाले बिरले होते हैं । सिद्धान्त के बाहरी कलेवर में उलझने वाले सहसा नहीं सुलझते। आचार्य भिक्षु ने बताया-बलात् हिंसा छुड़ाना धर्म नहीं। लोभ या लालच डालकर हिंसा छुड़ाना धर्म नहीं। जीने की और मरने की इच्छा करना धर्म नहीं। असंयम का पोषण धर्म नहीं। पौद्गलिक शान्ति धर्म नहीं। वासना की पूर्ति धर्म Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अहिंसा तत्त्व दर्शन नहीं। शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति धर्म नहीं। राग या आसक्ति धर्म नहीं। क्रोध या द्वेष धर्म नहीं। मोह या अज्ञान धर्म नहीं। बड़ों के लिए छोटों को कुचल डालना धर्म नहीं! राज्य धर्म नहीं। समाज धर्म नहीं : व्यक्ति धर्म नहीं। जीना धर्म नहीं । मरना धर्म नहीं। पाना धर्म नहीं । खोना धर्म नहीं। एक शब्द में प्रेयस् धर्म नहीं। और बताया श्रेयस् धर्म है । त्याग धर्म है। तपस्या धर्म है । ज्ञान बढ़ेआत्मा जगमगा उठे, यह धर्म है। दर्शन बढ़े, श्रद्धा बढ़े, यह धर्म है। एक शब्द में अहिंसा धर्म है। अहिंसा ही दान है, अहिंसा ही दया है। सूक्ष्म हिंसा का भाव भी दया नहीं है, दान नहीं है। कोई प्राणी नहीं मरता, कोई अन्याय नहीं होता, न समाज जिसे बुरा मानता है और न राज्य, फिर भी यदि यह राग या मोह की परिणति है तो अध्यात्म-दर्शन के अनुसार वह हिंसा है, अधर्म है, बन्धन है, अशुभ कर्म है, पाप है, संसार है, मोह है, आसक्ति है, लोक-विधि है, लोक-धर्म है, सामाजिक कर्तव्य है, लौकिक रीति-रिवाज है। किन्तु मोक्ष का मार्ग नहीं है, साधना का मार्ग नहीं है, मोक्ष-धर्म या आध्यात्मिक-धर्म नहीं है। आचार्य भिक्षु ने बताया कि समाज की आवश्यकताओं को धर्म की ओट ले पूरा करना दोहरी भूल है। यह रूढ़िवादी परम्परा पर तलवार बनकर चली । यह क्रान्ति का शंख स्थितिपालकों को चुनौती देते हुए बजा। आचार्य भिक्षु को विद्रोही घोषित किया गया। वे दान-दया के उत्थापक और भगवान महावीर की वाणी के निन्हव कहलाकर भी भगवद्-वाणी की सच्ची उपासना करने लगे। वे क्रान्ति में खेले और क्रान्ति से जूझे। उनकी सत्य-निष्ठा, कठोरचर्या, अतर्य तितिक्षा और अदम्य उत्साह ने वातावरण को बदल डाला । आज भी वे प्रश्न नहीं मिटे, विरोध नहीं मिटा, फिर भी आचार्य भिक्षु की साधना और उनके शिष्यपरम्परा के जागरण का प्रभाव समझिए-हमारा अतीत का क्रान्तिकाल आज शान्तिकाल बनकर चल रहा है। हमें अपने सिद्धान्त की सचाई और स्थिरता में अडिग विश्वास है। हमें लगता है-युग हमारे साथ चल रहा है। आज से दो शताब्दी पहले आचार्य भिक्षु ने धर्म को जो व्यक्तिवादी रूप दिया था, वह रूप आज के समाज-तंत्र को भी मान्य हो रहा है। सामाजिक आवश्यकताओं को सामाजकि दृष्टि से सुलझाने का प्रयत्न ही आज तक के समाज-विकास का सबसे अन्तिम और सबसे स्वस्थ परिणाम है। व्यक्ति की पूंजीवादी मनोवृत्ति और अहं को पोषण देने वाली दान-परम्परा के लिए आज की समाज-व्यवस्था में स्थान नहीं है। दीनभाव को जन्म देने वाली प्रवृत्ति में अब धर्म या पुण्य कहलाने की क्षमता नहीं रही है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन शब्द-रचना में मत उलझिए यह मत भूलिए, क्रान्ति की भाषा में ओज होता है और शान्ति की भाषा में समन्वय । समय-समय पर भाषा बदलती है । प्रयोजन लिए भाषा बदलती है । प्रयोग का विकास होते-होते भाषा बदलती है । तत्त्व न बदले, तो भाषा बदले और फिर बदले, उसमें दोष क्या ? कुछ भी नहीं । भगवान् पार्श्वनाथ जिसे वहिदान - विरमण कहते, उसे भगवान् महावीर ने अब्रह्म-विरमण और परिग्रहविरमण कहा । भाषा जरूर बदली किन्तु भाव नहीं बदला। वे स्त्री - त्याग और परिग्रह - त्याग को एक महाव्रत मानकर चले । भगवान् महावीर ने उन्हें दो महाव्रत बना डाला और दोनों के लिए दो नए शब्द दिए । 'धर्म' शब्द का इतिहास देखिए । जो एक दो अर्थ में व्यवहृत होता था, वह आज पचासों अर्थ लिए चल रहा है और वाद-विवाद का केन्द्र बन रहा है । भगवान् महावीर की वाणी में गति तत्त्व धर्म है तो मोक्ष साधना भी धर्म है । वे गांव, नगर की व्यवस्था को धर्म कहते हैं तो इन्द्रिय-विकारों को रोकने को भी धर्म कहते हैं । उन्होंने साधु के साथ धर्म जोड़ा तो पाप के साथ भी उसे छोड़ा नहीं । ११३ इस पर चलिए -क्या शब्द एक है, इसलिए सबका तत्त्व एक होगा ? दूसरी ओर दृष्टि डालिए – क्या शब्द अनेक होने पर तत्त्व एक नहीं हो सकता ? सही समझिए - अपनी- अपनी मर्यादा में दोनों बातें बनती हैं। एक शब्द अनेकता में आ अनेक अर्थ बनाता है और अनेक शब्द एकता में आ एक तत्त्व की व्याख्या देते हैं । कई लोग शब्द - रचना में उलझ जाते हैं । वस्तुवृत्या यह उलझन शब्द प्रयोग का इतिहास और निक्षेप का तत्त्व न समझने का परिणाम है। मूल तत्त्व की सुरक्षा होनी चाहिए । आत्मा और शरीर को स्वस्थ रखते हुए परिस्थिति के अनुसार वेषभूषा बदलने का अधिकार है । यह सबको रहता है और रहेगा । विवेकशील उत्तर-पद्धति भगवान् महावीर ने आचारांग में बताया है— उपदेश करते समय साधु को देखना चाहिए, सुनने वाले किस धर्म के अनुयायी हैं ? उनके विचार कैसे हैं ? क्षेत्र, काल, भाव की समुचित मीमांसा कर फिर धर्मोपदेश देना चाहिए । कारण साफ है । साधु का उपदेश लाभ के लिए होना चाहिए, लाभ वही आत्मकल्याण | साधु वैसा उपदेश करे जो लोग सुनना ही न चाहें, तब लाभ कैसे बढ़े ? द्रव्य, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अहिंसा तत्त्व दर्शन इसलिए जैसे-जैसे पचा सके, वैसे-वैसे तत्त्व देना चाहिए। मूल बात है कि तत्त्व को अन्यथा कहना ही नहीं चाहिए। यथार्थ रूप में उतना कहना चाहिए, जितना कहना अवसर के प्रतिकूल न हो, अलाभ न बढ़े। सम्राट अकबर ने हीरविजय सूरीश्वर से पूछा- 'क्या आप सूरज और गंगा को नहीं मानते?' तब उन्होंने कहा-'हम मानते हैं, वैसा शायद दूसरे नहीं मानते। देखिए–सहज बात है, अपने प्यारे का वियोग होने पर लोग रोटी-पानी तक भूल जाते हैं। सूरज के वियोग में हम पानी तक नहीं पीते। क्या ऐसा प्यार कोई दूसरा करता है ? हम गंगा के पानी को गन्दा नहीं करते। उसमें अपना मल बहाने वाले उसे अधिक मानते हैं या हम ?' पीपाड़ में एक चारण भक्त था। उसका नाम था गेबीराम। वह लोगों को लपसी खिलाया करता था। कुछ लोगों ने उसे भडकाया- 'तुम जो लपसी खिलाते हो, उसमें भीखणजी पाप कहते हैं।' वह तुरन्त आचार्य भिक्षु के पास आकर बोला-'भीखण बाबा ! मैं भक्तों को लपसी खिलाता हूं, उसमें क्या होता है ?' आचार्य भिक्षु ने कहा- 'लपसी में क्या डालते हो?' उसने कहा-'गुड़।' तब आचार्य भिक्षु ने कहा-'जितना गुड़ डाला जाता है, उतना ही मीठा होता है।' 'बहुत ठीक, बहुत ठीक'—यह कहकर वह चलता बना। एक दूसरी घटना लीजिए-शोभाचन्द नामक एक व्यक्ति आचार्य भिक्षु के पास आकर कहने लगा-'आप भगवान् को उत्थापते (अस्वीकार करते) हैं ?' आचार्य भिक्षु बोले-'हमने भगवान् की वाणी पर घर छोड़ा है, भला हम उन्हें कैसे उत्था ?' उसने कहा-'आप देवालय को उत्थापते हैं ?' आचार्य भिक्षु बोले- 'देवालयों का हजारों मन पत्थर होता है । हम तो सेर, दो सेर भी नहीं उठाते !' __उसने आगे फिर कहा-'आपने प्रतिमा उत्थाप दी। प्रतिमा को पत्थर कहते तब आचार्य भिक्षु ने कहा-'हम प्रतिमा को क्यों उत्था ? हमें असत्य बोलने का त्याग है। सोने की प्रतिमा को सोने की कहते हैं, चांदी की प्रतिमा को चांदी की कहते हैं, सर्वधातु की प्रतिमा को सर्वधातु की कहते हैं, पाषाण की प्रतिमा को पाषाण की कहते हैं।' ऐसा सुन उसका आवेग शान्त हो गया। यह उत्तर-पद्धति निरंकुश नहीं है। 'क्षेत्र, काल को समझकर चलाना चाहिए'--इस भगवद्-वाणी के सहारे ऐसी पद्धति चलती है । गुरु मन्त्र-द्रष्टा होते हैं । वे जानते हैं-किसे, कब, किस रूप में, कितना तत्त्व Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ११५ देना चाहिए। साधारण व्यक्ति के लिए रहस्य रहस्य ही रहता है। भगवान् महावीर से पूछा गया-क्या देवों को संयमी कहना चाहिए? भगवान् बोले-नहीं, वे संयमी नहीं हैं। -क्या उन्हें संयमासंयमी कहना चाहिए ? - नहीं, उनके नाम मात्र का भी संयम नहीं होता। ----क्या उन्हें असंयमी कहना चाहिए? —नहीं, असंयमी शब्द रूखा है-कठोर है। - तो भगवन् ! क्या कहना चाहिए? तब भगवान् बोले-नो-संयमी-संयमी नहीं है, ऐसा कहना चाहिए। यह एक शिक्षा है, जो हमें भाषा का उपयोग सिखाती है। वह सोलह आना सही है-तत्त्व यथार्थ रूप में रखना चाहिए। उसे छिपाना कायरता है। यह भी एक महान् सत्य है कि तत्त्व रखने में जितनी निर्भीकता होनी चाहिए उससे कहीं अधिक विवेक होना चाहिए । इसीलिए आचार्य भिक्षु ने कहा है ___ 'साची ने साची कहणी निसंक स्यूं, ते पिण अवसर जोय ।' तत्त्व-निरूपण का अर्थ यह है कि लोग समझें। तत्त्व-निरूपण करने वाला इससे पहले ही उन्हें उभार दे, यह विवेक नहीं होता। गुरु-तत्त्व-चर्चा में कुशल वैद्य बनकर चलते हैं। कुशल वैद्य वह होता है, जो रोगी की मनःस्थिति पर नियंत्रण पा ले । पहले दिन ही रोग को उभारकर वह रोगी का हित साध नहीं सकता। जैसा सह सके, वैसा करते-करते वह भी मिटा देता है और रोगी को भी डिगने नहीं देता। जिज्ञासु या श्रोता को शब्द-प्रयोग से चौंकाने वाला तत्त्व आचार्य दे नहीं सकता। अपवाद की दशा में मत सोचिए। विषम स्थिति में वैद्य को भी पहली बार कड़वी बूंट पिलानी पड़ती है। किन्तु सब जगह कड़वी घुट पिलाने की बात सही नहीं होती। एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से कहा- 'सूत्र में साधु ने जीव राखणां कह्या ।' तब स्वामीजी बोले-'ए तो ठीक है-छै ज्यूं रा ज्यूं राखणा, किणहीनै दुःख देणो नहीं। आचार्य भिक्षु की रचना और उत्तर-शैली के मर्मज्ञ यह नहीं कह सकते कि वे एक ही भाषा को टानकर चले ।। उन्होंने एक ही तत्त्व को अनेक रूपों में रखा। प्रश्नकर्ता की मनःस्थिति, योग्यता और जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उसी के अनुसार वे चले। उदाहरण के रूप में देखिए-'किण पूछ्यो-भीखणजी ! कोई बकरा मरता नै बचाया तिण ने कांई थयो ? तब स्वामी जी ने उत्तर दिया-ज्ञान सूं समझाय ने हिंसा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अहिंसा तत्त्व दर्शन छोड़ायां तो धर्म छ।' ___आचार्य भिक्षु ने स्थान-स्थान पर संसार रो मार्ग, लोक रो मार्ग, संसार रो उपकार, संसार रो काम, लौकिक दया, लोक रो छांदो, मुक्ति धर्म नहीं, मोक्षधर्म नहीं आदि-आदि शब्दों का व्यवहार किया। आज हम लौकिक कर्तव्य, लौक्कि उपकार, लौकिक दया, लौकिक धर्म, लौकिक पुण्य, लौकिक दान, आदि-आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनका आधार आचार्य भिक्षु के उपर्युक्त शब्द प्रयोग हैं । दया और दान लौकिक हो सकते हैं, उपकार और कर्तव्य लौकिक हो सकते हैं, देव और गुरु लौकिक हो सकते हैं तब धर्म और पुण्य लौकिक क्यों नहीं हो सकते? शब्द-रचना की प्रक्रिया शब्द का मूल अर्थ पाने के लिए जैन आगम हमें निरपेक्ष-विधि देते हैं। हम प्रयुज्यमान शब्द के दारा किस अर्थ को बताना चाहते हैं, इस व्यावहारिक धर्म को स्पष्ट करना निरपेक्ष का ही काम है। लोक-धर्म शब्द की योजना जो हमें आगम सूत्र और उनके उत्तरवर्ती साहित्य में मिलती है, का आधार निक्षेप-पद्धति ही है। लौकिक-पुण्य शब्द की रचना का आधार भी वही है। लौकिक-धर्म और लौकिकपुण्य शब्द मन-कल्पित या भ्रम में डालने वाले नहीं हैं। एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से पूछा-जो साधु व्रत नहीं पालते, साधु का वेश पहने हुए हैं, उन्हें आप साधु क्यों कहते हैं ? आचार्य भिक्षु ने उत्तर देते हुए कहा- जो साधुपन नहीं निभाता किन्तु साधु का नाम धराता है वह द्रव्य निक्षेप की दृष्टि से साधु ही कहलाएगा।' धर्म शब्द के निक्षेप करते चलिए-(१) नाम-धर्म, (२) स्थापना-धर्म, (३) द्रव्य-धर्म, भाव-धर्म। द्रव्य-धर्म के दो भेद होते हैं—ज्ञात-शरीर-धर्म और भव्य-शरीर-धर्म । नो आगमतः द्रव्य-धर्म तद्व्यतिरिक्त कहलाता है। इस (नोआगमतः-तद्व्यतिरिक्त-द्रव्य-धर्म) के तीन भेद होते हैं -(क) लौकिक धर्म, (ख) कुप्रवाचनिक धर्म और (ग) लोकोत्तर धर्म। भाव-धर्म के दो भेद होते हैंआगमत: भाव-धर्म और नो-आगमत:-भाव-धर्म । नो-आगमतः-भाव-धर्म के तीन भेद होते हैं -लौकिक धर्म, कुप्रवाचनिक धर्म और लोकोत्तर धर्म । इस शब्द-रचना के लिए अनुयोग द्वार का निक्षेप प्रकरण द्रष्टव्य है । सूत्रकृतांग की नियुक्ति और वृत्ति में धर्म शब्द के निक्षेप इस प्रकार हैं___ 'धर्म के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये चार निक्षेप होते हैं ।२ नाम, १. भिक्षु-दृष्टांत १८ २. सूत्रकृतांग नियुक्ति ६६-१०१ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन स्थापना को छोड़ दें। द्रव्य-धर्म के तीन भेद हैं-ज्ञ-शहीर, भव्य शरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्-व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त, और मिश्र जीवच्छरीर का जो लक्षण है उपयोग, वह सचित्त द्रव्य-धर्म है। अचित्त का जो स्वभाव है, वह अचित्त द्रव्य-धर्म है। मिश्र द्रव्य-दूध-पानी का जो स्वभाव है, वह मिश्र द्रव्य-धर्म है। गृहस्थों का जो कुल, नगर, ग्राम आदि का धर्म है अथवा गृहस्थों का गृहस्थों को दान-धर्म है, वह द्रव्य-धर्म है। भाव-धर्म के दो भेद होते हैं-(१) लौकिक, (२) लोकोत्तर । लौकिक के दो भेद हैं-(१) गृहस्थ-धर्म, (२) पाखण्ड-धर्म। लोकोत्तर धर्म के तीन भेद हैंज्ञान, दर्शन, चारित्र। यह धर्म ही परमार्थ दृष्टि से धर्म है। यही भाव-समाधि और भाव-मार्ग है। धर्म के दो भेद हैं-श्रुत और चारित्र अथवा इसके क्षमा आदि दस भेद हैं। भाव-समाधि का रूप भी ऐसा ही है। वास्तव में ज्ञान, दर्शन, चरित्रात्मक मुक्ति-मार्ग ही भाव-धर्म है।' पुण्य शब्द पर भी निक्षेप करते-करते हमें लौकिक पुण्य, कुप्रावचनिक पुण्य और लोकोत्तर पुण्य ऐसी रचना करनी होगी। धर्म और पुण्य का ही क्या, जितने भी सार्थक शब्द हैं, उन सबके लिए यह प्रक्रिया है। इसके आधार पर लौकिक आवश्यक, लौकिक सामायिक; लौकिक मंगल, लौकिक विनय, लौकिक सेवा, लौकिक उपकार, लौकिक दान, लौकिक दया आदि शब्द-भण्डार की सृष्टि होती है और ये सब विशेषण-शब्द अपना अभिप्रेत अर्थ बताने की पूरी क्षमता रखते हैं। विश्लेषण का मार्ग स्याद्वादी के लिए-सत्यमार्गी के लिए यह आवश्यक है कि वह स्याद्वाद के सहारे वस्तु-स्थिति का विश्लेषण करे। यह कूटनीति या उलझन का मार्ग नहीं होता किन्तु यह दृष्टि को उदार बनाने वाला मार्ग है। परिव्राजक शुकदेव ने मुनि थावच्चा-पुत्र को पूछा-कुलथा भक्ष्य है या अभक्ष्य ? मुनि ने कहा-भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी। कुथला के दो अर्थ होते हैं-एक अनाज और दूसरा स्त्री। स्त्री कुलथा अभक्ष्य है। अनाज कुलथा सचित्त और अचित्त दो प्रकार का होता है। सचित्त कुलथा अभक्ष्य है । अचित्त कुलथा भी दो प्रकार होता है-पाचित और अपाचित। अपाचित अभक्ष्य है। पाचित दो प्रकार होता है- अनेषणीय और एषणीय अनेषणीय अभक्ष्य है। एषणीय दो प्रकार का होता है-अलब्ध और लब्ध । लब्ध भक्ष्य है।' १. ज्ञाता ५ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अहिंसा तत्त्व दर्शन लोग सोचेंगे--यह कैसा उत्तर ! थोड़े से प्रश्न पर कितने विकल्प किए हैं। प्रश्नकर्ता सब स्थितियों को विश्लेषणपूर्वक समझ सके, इसलिए ऐसा उत्तर देना स्याद्वाद की विधि है। ऐसा उत्तर प्रश्नकर्ता को जाल में फांसने के लिए नहीं, किन्तु दुविधा से परे रखने के लिए होता है। इस पर भी उत्तरदाता के दृष्टिक ण को कोई ठीक नहीं पकड़ सके, उसका क्या इलाज हो ? रामगढ़ की बात है। आचार्यश्री तुलसी के पास बहुत सारे पंडित एकत्र होकर आए । उनका प्रश्न अपना नहीं था। उसके पीछे भ्रान्त प्रचार था। उन्होंने आचार्यप्रवर से पूछा-जीव बचाने में क्या होता है ? धर्म या अधर्म ? आचार्यवर ने उनकी भ्रान्ति को एकबारगी समेटते हुए कहा-कथंचित् धर्म और कथंचित् अधर्म । जो संयमी हैं, अहिंसक हैं, उन्हें बचाने में धर्म है और जो हिंसक हैं, असंयमी हैं, उन्हें बचाने में अधर्म । तात्पर्य यह कि संयम की रक्षा धर्म है असंयम की रक्षा धर्म नहीं है। __ आचार्य भिक्षु ने विरोधी प्रश्नों को सुलझाते हुए रहस्यवाद का बड़ा भारी उपयोग किया है। वे जहां अध्यात्म के दृष्टिकोण से देखते हैं और अध्यात्म की भाषा में बोलते हैं, वहां हिंसायुक्त असंयममय उपकारों को अधर्म, पाप, अशुभकर्म कहते हैं और जहां समाज के दृष्टिकोण से देखते हैं, वहां उन्हीं को संसार का उपकार आदि-आदि कहते हैं। आचार्यश्री तुलसी सामाजिक कर्तव्यों को लौकिक धर्म कहते हैं, वहां कई व्यक्तियों को बड़ी कूटनीति लगती है और वे सिद्धान्त को छिपाने का आरोप लगाते नहीं सकुचाते। किन्तु आचार्यश्री की उत्तर-पद्धति का आधार पाने के लिए आचार्य भिक्षु के कुछ पद्यों का मनन करिए। फिर विरोध नहीं दीखेगा। देखिए आचार्य भिक्षु ने लिखा है : "जीवां नै जीवां बचावियां हुवै संसार तणो उपगार। यहां प्राण-रक्षा को संसार का उपकार कहा गया है। आगे चलिए बचावण वालो ने उपजावण वालो, ए तो दोनूं संसार तणा उपगारी। एहवा उपगार करै आहमा साहमा, तिण में केवली रो धर्म नहीं छै लिगारी ॥२ मरते जीव को बचाने वाला और जीव को पैदा करने वाला पिता, दोनों संसार के उपकारी हैं। ये पारस्परिक उपकार हैं। इनमें केवली का धर्म नहीं है। यहां 'केवली का धर्म नहीं है'-यह पद ध्यान देने योग्य है । १. अनुकम्पा चौपई १२१८ २. वही, १११४२ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ११६ संसार तणा उपगार कियां मैं, जिण धर्म रो अंश नहीं छै लिगार।' ___ यहां जिन-धर्म नहीं, ऐसा कहा है किन्तु एकान्त-पाप नहीं कहा। इस प्रकार आचार्य भिक्षु ने अनेक शब्द व्यवहार में लिए है, जो पहले बताए जा चुके हैं। १. अनुकम्पा चौपई ११।३६ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा के फलितार्थ १. अहिंसा का अर्थ प्राणों का विच्छेद न करना, इतना ही नहीं उसका अर्थ है-मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों को शुद्ध रखना।। २. जीव नहीं मरे, बच गए-यह व्यावहारिक अहिंसा है, अहिंसा का प्रासंगिक परिणाम है । हिंसा के दोष से हिंसक की आत्मा बची—यह वास्तविक अहिंसा है। ३. हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध हिंसक और अहिंसक से होता है, मारे जाने वाले और न मारे जाने वाले प्राणी से नहीं। ४. निवृत्ति अहिंसा है। ___५. प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है, उनमें जो राग-द्वेष-रहित होती है, वह अहिंसा और राग-द्वेष-सहित होती है, वह हिंसा है। दूसरे सजीव या निर्जीव पदार्थ केवल अहिंसा के निमित्तमात्र बनते हैं। इसके आधार पर ही हिंसा के द्रव्य-भावरूप भेद किए हैं। द्रव्य-हिंसा का अर्थ है-केवल प्राणों का वियोग होना । भावहिंसा का अर्थ है-आत्मा के अशुभ परिणाम यानी राग-द्वेष-प्रमादात्मक प्रवृत्ति । ___ क्योंकि हिंसा की परिभाषा में प्राण-वियोजन का स्थान व्यावहारिक और राग-द्वेष-युक्त भावना का स्थान नैश्चयिक है । हिंसक वही कहा जा सकता है, जो रागादि दोष सहित प्रवत्ति से प्राणों का विच्छेद करता है। कष्ट पहुंचाता है या निर्जीव पदार्थों पर भी अपनी प्रमादात्मक प्रवृत्ति करता है । जहां प्राणियों की घात होती है, वहां-राग-द्वेष-रहित भावना कैसे हो सकती है ? इस प्रश्न का निर्णय हमें यों कर लेना चाहिए कि उन संयमी पुरुषों की न तो जीव-हिंसा की भावना ही है और न वे इस प्रकार की क्रिया ही करते हैं तथापि देहधारी होने के कारण उनके द्वारा जो हिंसा हो जाती है, वहां उनकी भावना का राग-द्वेष से कोई सम्बन्ध नहीं है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १२१ प्रश्न – उक्त निर्णय से नई और जटिल समस्या पैदा होती है, वह यह है कि इस सिद्धान्त से प्रत्येक मनुष्य भी हिंसा करता हुआ अपने को अहिंसक कहने का साहस कर सकेगा । क्योंकि उसके पास 'मेरी भावना शुद्ध है - यह एक अमोघ साधन आ जाता है | उत्तर -- उक्त निर्णय प्राणी मात्र के लिए चरितार्थ नहीं, यह केवल संयमी पुरुषों पर ही लागू होता है । वे अहिंसा के उपासक हैं, उनका एकमात्र ध्येय अहिंसा है । वे हिंसा से सर्वथा परांङ्मुख रहते हैं । इनसे भिन्न जो असंयमी पुरुष हैं, उनके लिए उपर्युक्त निर्णय ठीक नहीं। क्योंकि न उनके मन, वचन एवं शरीर संयत है और न हिंसक प्रवृत्तियों से सर्वदा विमुख रहने का उन्होंने निश्चय ही किया है । वे हिंसा में जुटे हुए हैं अतएव उनके द्वारा जो प्राणी-वध होता है या किया जाता है, वह हिंसा ही है, अहिंसा नहीं । प्रश्न- संयमी पुरुषों के लिए जो विधान किया जाता है, क्या उससे उनमें शिथिलता की सम्भावना नहीं ? उत्तर - नहीं । क्योंकि संयमी पुरुष भी असावधानी से जो करते हैं, वह सब हिंसा है । इस दृष्टि से वे और अधिक सावधान रहते हैं। अहिंसक होने पर भी हम कहीं हिंसक न बन जाएं-- इसका उन्हें हर समय विचार रहता है । सहज ही एक प्रश्न हो सकता है कि संयमी जन भी सब वीताराग नहीं होते तो फिर उनकी भावना राग-रहित कैसे मानी जा सकेगी ? इसका उत्तर है -सतो पि कषायान् निगृह्णाति सो पि तत्तुल्यः -- कषाय सहित होते हुए भी वे संयमी जन कषाय का निग्रह कर संयत प्रवृत्तियों से अहिंसक बन सकते हैं । ६. अहिंसा का सम्बन्ध जीवित रहने से नहीं, उसका सम्बन्ध तो दुष्प्रवृत्ति की निवृत्ति से है । निवृत्ति एकान्त रूप से अहिंसा है - यह तो निर्विवाद विषय है पर राग, द्वेष, मोह, प्रमाद आदि दोषों से रहित प्रवृत्ति भी अहिंसात्मक है । जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में एक वर्णन है शिष्य - प्रभो ! कृपा करके आप बताएं कि हम कैसे चलें, कैसे खड़े हों, किस तरह बैठें, किस प्रकार लेटें, कैसे खाएं और किस तरह बोलें, जिनसे पाप कर्म का बन्ध न हो ? " गुरु - आयुष्मन् ! यत्नापूर्वक चलने से, यत्नापूर्वक खड़े होने से, यत्नापूर्वक बैठने से यत्नपूर्वक लेटने से, यत्नापूर्वक भोजन करने से और यत्नापूर्वक बोलने से पाप-बन्ध नहीं होता । १. दशवैकालिक ४।७ २ वही, ४८ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अहिंसा तत्त्व दर्शन सारांश यह है कि सत्पुरुषों का खाना, पीना, चलना, उठना, बैठना, आदि जीवन-क्रियाएं, जो अहिंसा-पालन की दृष्टि से सजगतया की जाती हैं, वे सब अहिंसात्मक ही हैं। ७. अहिंसा त्याग में है, भोग में नहीं। अहिंसा आत्मा का गुण है। अहिंसा से हमारा कल्याण इसलिए होता है कि वह हमें हिंसा के पाप से बचाती है और हमारा कल्याण वही है कि हम अपनी असत् प्रवृत्ति के द्वारा किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचाएं और न मारें। हम नहीं मारते हैं, वह अहिंसा है किन्तु हमारी अहिंसात्मक प्रवृत्ति के द्वारा जो जीवित रहते हैं, वह अहिंसा नहीं। चोर चोरी नहीं करता, वह उसका गुण है किन्तु चोर के चोरी न करने से जो धन सुरक्षित रहता है, वह उसका गुण नहीं है। एक व्यक्ति अपनी आशाओं को सीमित करता है अथवा उपवास करता है, उसे उपवास करने का लाभ होता है परन्तु उसके उपवास करने से जो खाद्य पदार्थ बचे रहते हैं, उनसे उसकी कोई आत्मशुद्धि नहीं होती। अहिंसा की मर्यादा : आत्म-रक्षा रक्षा का सामान्य अर्थ है बचाना । इससे सम्बन्ध रखने वाले महत्त्वपूर्ण प्रश्न चार हैं-रक्षा किसकी ? किससे? क्यों? और कैसे ? प्रत्येक प्रश्न के दो विकल्प बनते हैं : १. रक्षा शरीर की या आत्मा की ? २. रक्षा कष्ट से या हिंसा से? ३. रक्षा जीवन को बनाए रखने के लिए या संयम को बनाए रखने के लिए। ४. रक्षा हिंसात्मक पद्धति से या अहिंसात्मक पद्धति से ? अहिंसात्मक पद्धति द्वारा संयम को बनाए रखने के लिए, हिंसा से आत्मा को बचाने की वृत्ति का नाम है-आत्म-रक्षा। हिंसात्मक पद्धति द्वारा जीवन को बनाए रखने के लिए कष्ट से बचाव होता है, वह शरीर-रक्षा है। वास्तव में शरीर-रक्षा और आत्म-रक्षा- ये दोनों लाक्षणिक शब्द हैं। इनका तात्पर्यार्थ है-हिंसात्मक प्रवृत्ति द्वारा विपदा से बचने का प्रयत्न करना शरीर-. रक्षा और हिंसा से बचने का प्रयत्न करना आत्म-रक्षा। साध्य जैसे शुद्ध हो, वैसे साधन शुद्ध होने चाहिए । आत्म-रक्षा के लिए साध्य और साधन दोनों अहिंसात्मक होने चाहिए। थोड़े में यूं कहा जा सकता है Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १२३ आत्मा-रक्षा का अर्थ है—आत्म-मुक्ति । इसके साधन हैं : १. धार्मिक उपदेश। २. मौन या उपेक्षा। ३. एकान्त-गमन ।' १. 'हिंसा करना उचित नहीं'--इस प्रकार हिंसक को समझाना, उसकी हिंसा करने की भावना को बदलने का प्रयत्न करना-धार्मिक उपदेश है। २. धार्मिक उपदेश द्वारा प्रेरणा देने पर भी वह न समझे तो मौन हो जाना, उसकी उपेक्षा करना—यह दूसरा साधन है। ३. धार्मिक उपदेश काम न करे और मौन न रखा जा सके, उस स्थिति में वहां से हटकर एकान्त में चले जाना—यह तीसरा साधन है। भगवान् महावीर ने हिंसा से बचने के लिए ये तीन साधन बताए हैं। ये तीनों अहिंसात्मक हैं, इसलिए आत्म-रक्षा की मर्यादा के अनुकूल हैं। हिंसात्मक साधनों द्वारा कष्टों से बचाव किया जा सकता है, हिंसा से नहीं। हिंसक के प्रति हिंसा बरतना, बल-प्रयोग करना, प्रलोभन देना-यह अहिंसा की मर्यादा में नहीं आता। अहिंसा की मर्यादा वह है कि अहिंसक हर स्थिति में अहिंसक ही रहे । वह किसी भी स्थिति में हिंसा की बात न सोचे । अहिंसक पद्धति से हिंसा का विरोध करना अहिंसा-धर्मी का कर्तव्य है । वह अहिंसा के लिए अपने प्राणों तक का त्याग कर सकता है परन्तु अहिंसा के लिए हिंसा का मार्ग नहीं अपना सकता। दोनों प्रकार की रक्षा के आठ विकल्प बनते हैं : १. जीवन को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव । २. संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव । ३. जीवन को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव। ४. संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । ५. जीवन के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव। ६. संयम के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव । ७. जीवन के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । ८. संयम के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । इनमें पहले चार विकल्प शरीर-रक्षा के हैं। १. स्थानांग ३।३।७२ :- वृत्ति Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अहिंसा तत्त्व दर्शन अहिंसा का उद्देश्य __ जीवन को बनाए रखना, यह अहिंसा का उद्देश्य नहीं है। उसका उद्देश्य है-- संयम का विकास करना। संयम का विकास जीवन-सापेक्ष है। जीवन ही न रहे, तब संयम का विकास कौन करे? अतः संयम का विकास करने के लिए जीवन को बनाए रखना आवश्यक है । इस प्रकार जीवन को बनाए रखना भी अहिंसा का उद्देश्य है-यह फलित होता है। यह प्रश्न हो सकता है किन्तु अहिंसा का सीधा सम्बन्ध संयम से है, इसलिए इसे कोई महत्त्व नहीं दिया जा सकता। जीवन बना रहे और संयम न हो तो वह अहिंसा नहीं होती। संयम की सुरक्षा में जीवन चला जाए तो भी वह अहिंसा है। आगे के संयम के लिए वर्तमान का असंयम संयम नहीं बनता, आगे की अहिंसा के लिए वर्तमान की हिंसा अहिंसा नहीं बनती। इसलिए जीवन को बनाए रखना, यह अहिंसा का साध्य या उद्देश्य नहीं हो सकता। साधन-मीमांसा में इतना ही बस होगा कि अहिंसा के साधन हिंसात्मक नहीं हो सकते। स्वरूप-मीमांसा-अहिंसा का स्वरूप है असंयम से बचना, संयम करना । कष्ट संयम हो सकता है और सुख असंयम, इसलिए कष्ट से बचाव करना और सुख प्राप्त करना यह अहिंसा का स्वरूप नहीं बन सकता। उपवास व अनशन जैसी कठोर तपस्याएं कष्टकर अवश्य हैं, फिर भी अहिंसात्मक हैं। भोगोपभोग सुख है, फिर भी हिंसा है। अहिंसा की दृष्टि संयम की ओर होनी चाहिए । अमुक कष्ट से बचा या नहीं बचा, अहिंसा के लिए यह शर्त नहीं होती। उसकी शर्त हैअसंयम से बचा या नहीं। पहले विकल्प के तीनों रूप शरीर-रक्षा की कोटि के हैं। __ इसमें साध्य सही है। साधना की प्रक्रिया साध्य के प्रति भ्रम उत्पन्न करती है। संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक साधन बरते जाएं, वहां संयम नहीं रहता। इसलिए संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक साधनों को अपनाना मानसिक भ्रम जैसा लगता है। जीवन को बनाए रखने का उद्देश्य मुख्य होने पर हिंसा से बचाव करने की बात गौण हो जाती है। संयम जीवन से अलग नहीं होता। संयम को बनाए रखने के साथ जीवन का अस्तित्व अपने-आप आता है। इसलिए अहिंसा का रूप जीवन के अस्तित्व को प्रधानता नहीं देता । उसमें संयम की प्रधानता होती है। संयम को बनाए रखने के लिए हिंसा से बचाव करना, यह सही है किन्तु हिंसा से कैसे बचा जाए, इसका विवेक होना चाहिए। हिंसा से बचाव करने के Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १२५ लिए हिंसात्मक साधन अपनाए जाएं वहां न संयम बना रहता और न हिंसा से बचाव होता है । इसलिए चौथा विकल्प भी आत्म-रक्षा की भावना नहीं देता। पांचवें विकल्प में साधन-पद्धति को छोड़ शेष अहिंसा की दृष्टि के अनुकूल नहीं हैं। छठे विकल्प में कष्ट से बचाव करने और सातवें में जीवन को बनाए रखने की बात मुख्य होती है, इसलिए ये भी अहिंसा के शुद्ध रूप का निर्माण नहीं करते। इन दो (छठे और सातवें) और पांचवें विकल्प को व्यावहारिक या सामाजिक अहिंसा कहा जाता है। आठवां विकल्प अहिंसा का पूर्ण शुद्ध रूप है । राग और द्वष असंजती जीव को जीवणों वंछे ते राग, मरणों वंछे ते द्वेष, तिरणो वंछे ते श्री वीतराग देव नो धर्म-भिक्षु स्वामी ने इस त्रिपदी में राग-द्वेष के स्वरूप का निरूपण एवं मध्यस्थ-भावना से धर्म का सम्बन्ध दिखाया है। असंयम-हिंसा की अविरति और परिणति असंयम है । संयम-हिंसा की विरति और आत्मरूप में परिणति संयम है। जो हिंसा की विरति भी न करे और उसकी परिणति भी न छोड़े, वह असंयमी है । स्थूल दृष्टि से हिंसक वह होता है जो किसी को मारे, और तब होता है जब मारे, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि में एक व्यक्ति किसी जीव को अमुक समय नहीं मारता, फिर भी उससे मारने की विरति नहीं की, वह हिंसक है।' जो अहिंसक है, हिंसा की अविरति की दृष्टि से या प्रवृत्ति की दृष्टि से, वही असंयमी है। उसका जीवन या शरीर टिका रहे-ऐसी भावना राग है । वह मिट जाए-ऐसी भावना द्वेष है। वह संयमी बने - यह भावना वीतराग का मार्ग हैसमता है। राग-द्वेष जन्म-मृत्यु के कारण हैं, वीतराग-भाव शरीर-मुक्ति का। शरीरमुक्ति की साधना में शरीर टिका रहे या छूट जाए, यह उसकी शर्त नहीं होती। उसकी शर्त होती है-शरीर रहे तो संयम का साधन बनकर रहे और जाए तो संयम की साधना करते-करते जाए। इसीलिए कहा गया है-'असंयमी जीवन और मौत की इच्छा करो।२ - - १. स्थानांग १ : सत्थमग्गी विसलोणं, सिणेहोखारमविलं । दुप्पउत्तोमणोवाया, काउभावोय अविरइ। २. सूत्रकृतांग ११३।४।१५ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन जो शरीर एकमात्र संयम का साधन बन जाए, जिसका निर्वाह संयम के लिए और संयम की मर्यादा के अनुकूल हो, वैसा शरीर बना रहे । इसमें जीने की इच्छा नहीं किन्तु यह संयम के साधन को बनाए रखने की भावना है। जो शरीर असंयम का साधन रहते हुए उचित आंशिक संयम का साधन बन जाए, उसका निर्वाह केवल संयम के लिए और संयम की मर्यादा के अनुकूल नहीं होता, इसलिए वैसा शरीर बना रहे-यह भावना संयम-मार्ग की नहीं हो सकती। वह न रहे-यह भी नहीं हो सकती। कारण कि मरने से क्या होगा? संयम न जीने से आता है और न मरने से। वह मोह का त्याग करने से आता है, इसलिए भगवान महावीर ने कहा है-'समूचे संसार को समता की दृष्टि से देखने वाला न किसी का प्रिय करे और न किसी का अप्रिय।१ ___ कोई व्यक्ति जीवित रहे, तब संयम साध सके। वह जीता न रहे तो संयम कौन साधे ? इस पर से जीने की साधना भी संयम की मर्यादा के अन्तर्गत होनी चाहिए - ऐसा आभास होता है किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। जीने की वही साधना संयममय हो सकती है, जो संयम के लिए और संयम की मर्यादा के अनुकूल हो। ____ संयम के व्यवहित या दूरवर्ती साधन के संयममय होने का नियम नहीं बनता। जैन आचार्यों ने सन्निकर्ष (इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग) को इसलिए प्रमाण नहीं माना कि वह पदार्थ-निर्णय का व्यवहित साधन है। साधकतम साधन का ही साध्य के अनुरूप होने का नियम हो सकता है, सामान्य साधन का नहीं। वास्तव में साधन वही होता है, जो साधकतम हो यानी अनन्तर--साध्य और उसके बीच में कोई अन्तर न हो। परस्पर साधनों की शृंखला इतनी लम्बी होती है कि उसका कहीं अन्त भी नहीं आता। उदाहरण के रूप में-संयम के लिए शरीर, शरीर के लिए खान-पान, खान-पान के लिए व्यापार, व्यापार के लिए पूंजी, पूंजी के लिए संग्रह-वृत्ति, संग्रह-वृत्ति के लिए आत्मा का विकार--इस प्रकार क्रम आगे बढ़ता जाता है । समस्या आती है- इनमें से किसे संयम का साधन माना जाए ? आत्म-विकार को या संग्रह-वृत्ति को? पूंजी को या व्यापार को ? खान-पान को या शरीर को? इनमें से एक भी संयम का स्वयंभूत साधन नहीं है। साधन के लिए निम्नांकित अपेक्षाएं होती हैं : १. जिसकी प्रवृत्ति के बिना जो न बन सके और २. जिसकी प्रवृत्ति होने पर जो अवश्य बने। १. सूत्रकृतांग १११०७ २. प्रमाणनयतत्वालोक ११४ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १२७ ___ शरीर के बिना संयम की साधना नहीं की जा सकती, इसलिए पहला अंश मिलता है किन्तु शरीर की प्रवृत्ति होने पर संयम हो-यह दूसरा अंश नहीं मिलता, इसलिए शरीर निरन्तर संयम का साधन नहीं रहता। शरीर-प्रवर्तक आत्मा है । उसके राग-द्वेष-रहित अध्यवसाय से जब शरीर प्रवृत्त होता है, तभी वह संयम का साधन बनता है। जो शरीर संयम का नैरन्तरिक साधन नहीं बना, उसके खान-पान आदि इस दृष्टि से संयममय माने जाएं कि वह आगे जाकर संयमी बनेगा, यह तर्क-संगत नहीं बनता। इसलिए संयम का अनन्तर साधन मोह कर्म का विलय ही है। उसके सहचरित जो संयम की प्रवृत्ति होती है, वह समता है और जो मोह के उदय से सहचरित होती है, वह प्रिय हो तो राग और अप्रिय हो तो द्वेष। जीवन और मृत्यु संसार-परिक्रमा के दो अनिवार्य अंग हैं। ये दोनों कर्मबन्धन के परिणाम हैं। इनमें अच्छाई या बुराई कुछ भी नहीं है। ये अपने-आप में राग-द्वेष भी नहीं हैं, किन्तु ये प्राणियों की अन्तर-वृत्तियों के प्रतीक हैं। जीवन प्रियता का और मृत्यु अप्रियता का प्रतीक है। कहीं जीवन के लिए द्वेष और मृत्यु के लिए राग भी बन सकता है। किन्तु जीने की इच्छा राग और मृत्यु की इच्छा द्वेष-ये लाक्षणिक हैं। इनका तात्पर्य है-प्रियता की इच्छा राग और अप्रियता की इच्छा द्वेष और प्रिय-अप्रिय-निरपेक्ष संयम की भावना-वीतराग भाव है। ___ असंयमी जीवन की इच्छा करने से मुख्यतया तीन कारण हो सकते हैंस्वार्थ, मोह और अज्ञान। यों तो असंयमी जीवन की वह मनुष्य इच्छा करता है, जिसका असंयत पुरुषों के द्वारा कौटुम्बिक, सामाणिक एवं राष्ट्रीय स्वार्थ सिद्ध होता हो, या उसे वह मनुष्य चाहता है, जिसका असंयत व्यक्तियों के साथ प्रेमबन्धन हो या जो व्यक्ति तत्त्व की गम्भीरता तक नहीं पहुंचता। केवल भौतिक सुखों को सुख मानता है, वह असंयमी जीवन को चाहता है। जैसे स्वार्थ और मोह स्पष्टतया राग हैं, वैसे ही यह अज्ञान भी मोह का निविड़ रूप है, अतः यह भी राग है। जीवित रहना ही धर्म है-यह भ्रान्त धारणा मोहवशवर्ती मनुष्य के ही होती है। असंयत जीवों की मरने की इच्छा करने का कारण उद्वेग या विरोधी भावना है। वह तो द्वेष है ही। संयमी जीवन मृत्यु की इच्छा करना मध्यस्थ भावना हैअहिंसा का अनुमोदन है। उक्त विवेचन से यह फलित हुआ कि असंयमी जीवन और मृत्यु हिंसायुक्त होने के कारण साधना की दृष्टि से अभिलषणीत नहीं। संयमी-जीवन और मृत्यु अहिंसामय होने के कारण वांछनीय हैं। संयमी-जीवन की इच्छा केवल इसीलिए की जानी चाहिए कि संयम की आराधना हो और संयमी-मृत्यु की वांछा भी इसी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अहिंसा तस्व दर्शन ध्येय से होनी चाहिए कि संयम की आराधना करते हुए प्राणान्त हो । संयमीजीवन में कोई मोह नहीं, केवल संयम की आराधना की भावना है ! संयमी-मृत्यु में कोई उद्वेग नहीं, केवल असंयत अवस्था में न मरने का लक्ष्य है अत: वे भावनाएं राग-द्वेष रहित हैं। इस प्रसंग में आचार्य भिक्षु रचित कई गाथाओं का अध्ययन उपयुक्त है: 'जीने और मरने की इच्छा में धर्म का अंश भी नहीं। जो मनुष्य मोहअनुकम्पा करता है, उसके कर्म का वंश बढ़ता है यानी वह कर्म-बन्धन की परम्परा से मुक्त नहीं हो सकता।' ___ 'मोह-अनुकम्पा में राग-द्वेष रहता है। उससे पांच इन्द्रियों के शब्द, रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श, प्रमुख भोगों की वृत्ति होती है। अतः वह (मोह-अनुकम्पा) अहिंसा नहीं। इस तत्त्व को अन्तर्-दृष्टि से देखो।' 'अपने असंयम, जीवन की वांछा करना भी पाप है तो दूसरों के असंयम-जीवन की वांछा करने से कौन सन्ताप को मोल ले ? अज्ञानी जीव मरना और जीना वांछते हैं और सुज्ञानी जीव समभाव रखते हैं।' 'एक व्यक्ति ने अपने को मृत्यु से बचा लिया, किसी दूसरे ने उसको सहयोग दिया और किसी तीसरे व्यक्ति ने उसे अच्छा समझा-इन तीनों में मोक्ष कौन जाएगा?' __'क्योंकि इन तीनों में से किसी के भी अविरति नहीं घटी और विरति के बिना मोक्ष की साधना नहीं हो सकती। इसका फलितार्थ यह है कि मोक्ष की साधना विरति (आशा-बांछा का त्याग करना) है। जीवित रहना न तो विरति है और न कोई अहिंसात्मक प्रवृत्ति ही। अतएव वहां धर्म या अहिंसा नहीं है । करना, करवाना और अनुमोदन करना, ये तीनों ऐक कोटि के हैं। जबकि अविरति युक्त जीवितव्य अहिंसा नहीं, तब उसे जीवित रहने में सहयोग देना और उसका अनुमोदन करना अहिंसात्मक कैसे हो सकता है ?' 'जो जीने की वांछा करता है, वह संसार में पर्यटन करेगा और जो श्रेष्ठ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का पालन करता है और जो दूसरों से उनका पालन करवाता है, वह परम पद यानी मोक्ष को प्राप्त करता है।' 'सब जीव जीना चहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । सब जीवों को सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय; इसलिए किसी को न मरना चाहिए और न कष्ट देना चाहिएयह उपदेश हिंसा-निवृत्ति के लिए है।' 'न मरना और न कष्ट देना'---यह अपनी आत्मा का संयम है। 'सब जीव जीना चाहते हैं'-यह जीवों की स्वाभाविक मनोवृत्ति का निरूपण है।' सब जीव Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १२६ जीना चाहते हैं ।' इसलिए जीना धर्म है - यह नहीं होता । सब जीव भोग चाहते हैं, इसलिए किसी का भोग मत लूटो, यह उसका नैसर्गिक मूल्य है । भोग लूटना असंयम है, इसलिए भोग को मत लूटो - यह उसका धार्मिक मूल्य है । इसी प्रकार जीवन लूटना असंयम है, इसलिए जीवन मत लूटो - यह उसका धार्मिक मूल्य है । किसी का सुख न लूटना और दुःख न देना - यह संयम है । हंसा या संयम का मूल आत्मिक अहित का बचाव या आत्म-शुद्धि है । किसी की हत्या से निवृत्त होने का अर्थ उसके जीवन की इच्छा नहीं किन्तु हत्या से होने वाले पाप से बचने की भावना है । जीवन संयममय तभी सम्भव है, जब हमें यह भान हो कि दूसरे जीवों की घात करने से अपनी आत्मा की घात होती है । पूर्वोक्त विवेचन से यह मान लिया जाए कि राग से जो काम किया जाता है, वह अहिंसात्मक नहीं तो भी वह नियम परिचित व्यक्तियों पर ही लागू हो सकता है, सब जगह नहीं । जो अपरिचित व्यक्ति है, उसे न तो हम जानते हैं और न वह हमें जानता है । उस अपरिचित असहाय के हम भौतिक पदार्थों द्वारा सहायक बनें इसमें राग कैसे रह सकता है ? इसका उत्तर द्वेष पर दृष्टिपात करते ही हो जाता है । किसी एक अपरिचित विद्वान् की विद्वता पर असहिष्णुता आ जाती है, किसी एक अज्ञात व्यक्ति के सौन्दर्य को देखकर जलन पैदा हो जाती है । क्या वह द्वेष नहीं ? यदि है तो अपरिचित से द्वेष कैसे हो सका, जबकि राग नहीं हो सकता ? वास्तव में राग-द्वेष का परिचित एवं अपरिचित से सम्बन्ध नहीं है । किन्तु उनका जब तक आत्मा में अस्तित्व रहता है, तब तक वे अपने-अपने कारणों के द्वारा प्रकट होते हैं । साहित्य के ग्रन्थों का अध्ययन करने वाले भली-भांति जानते हैं कि अवीत पुरुषों के सामने जिस प्रकार की सामग्री आती है, उसके अनुकूल भाव बनकर वैसा ही रस बन जाता है । शृंगार को उद्दीपन करने वाली सामग्री से शृंगार रस, करुणोद्दीपक सामग्री से करुण - इस प्रकार यथोचित सामग्री से हास्य, बीभत्स आदि सब रस बनते हैं । इसी प्रकार राग-द्वेषोद्दीपक सामग्री से राग-द्वेष का प्रादु होता है । प्रायः दुःखियारी दशा को देखकर स्नेह और अनुचित व्यवहार को देखकर द्वेष पैदा हो जाता है। राग अनादिकालीन बन्धन है, उसका अमित प्राणियों से सम्बन्ध है । भौतिक जीवन को पोषण करने की भावना उस बन्धन का ही फल है । प्रत्यक्ष में हमें राग न भी मालूम देता हो पर अप्रत्यक्ष में वह सक्रिय रहता है और वही बाह्य क्रिया का जनक है । एक कवि ने स्नेह की परिभाषा करते हुए कहा है दर्शने स्पर्शने वापि, भाषणे श्रवणे पि वा । यद् द्रवत्यन्तरंगं स स्नेह इति कथ्यते ॥ 'देखने से, छूने से, बातचीत करने से, सुनने से जो हृदय द्रवित हो जाता Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अहिंसा तत्त्व दर्शन है, उसे स्नेह कहते हैं ।' दर्शन और स्पर्शन स्नेह-उत्पत्ति के निमित्त बनते हैं-यह इससे स्पष्ट हो जाता है । प्रेम सम्बन्ध और आपसी सहयोग सामाजिक जीवन के आधार बिन्दु हैं । उन्हें तोड़ने का कोई प्रश्न ही नहीं होता। विवेचनीय वस्तु है, उनकी कोटि का निर्णय। वही इस त्रिपदी में किया गया है। तत्त्व : दो रूप प्रत्येक वस्तु के दो रूप होते हैं-अन्तरंग और बहिरंग, व्यावहारिक और पारमार्थिक या लौकिक और लोकोत्तर । वैदिक साहित्य में इन्हें अपर और पर तथा जैन-साहित्य में द्रव्य और भाव भी कहा जाता है । मुण्डक उपनिषद्(१/१५) में दो प्रकार की विद्याएं बताई हैं-अपरा और परा । आवश्यक सूत्र (२ लोगस्स वृत्ति) में समाधि के दो रूप बताए हैं-द्रव्य-समाधि और भाव-समाधि । आचार्य भिक्षु ने 'द्रव्य-लाभ' और 'भाव-लाभ', 'द्रव्य-दया' और 'भाव-दया', 'द्रव्य-साता' और 'भाव-साता' इनके दो-दो रूप बताए हैं। आचार्य भिक्षु दया-दान के विरोधी नहीं थे। वे लौकिक-धर्म को मुक्ति का धर्म मानने के लिए कभी तैयार नहीं थे, यह उनकी रचनाओं से स्पष्ट प्रतीत होता है। 'जो व्यक्ति लौकिक कार्यों को मुक्ति-धर्म मानते हैं, उनके लिए सूत्र (शास्त्र) शस्त्र की भांति परिणत हो रहे हैं। वे हिंसा का समर्थन कर कम बांध रहे हैं।' उनकी इस वाणी में 'मुगती रो धर्मों' जो है, वही मतभेद या विरोध का केन्द्र-बिन्दु है। लौकिक कार्यों को लोक-धर्म माना जाता तो उन्हें विरोध क्यों होता? लोक-विधि के लिए लौकिक कर्तव्य, व्यवहार, सहयोग आवश्यक जो होता है, उसका-विरोध करने वे क्यों चलते ? उनके समूचे विचार का थोड़े में सार यह है कि लोक-धर्म को मोक्ष-धर्म मत समझो। जो वस्तुएं मोक्ष के लिए हैं, उन्हें मोक्ष के लिए समझो और जो संसार के लिए हैं, उन्हें संसार के लिए । संसार और मोक्ष का मार्ग एक नहीं है । संसार का मार्ग हिंसा का मार्ग है, मोक्ष का मार्ग अहिंसा का। इसीलिए उन्होंने लिखा है : 'संसार नै मुक्ति रा मार्ग न्यारा, ते कठे खावै मेलो।' संसार-मार्ग और मोक्ष-मार्ग की द्विविधा बतलाते हुए आचार्य भिक्षु ने लिखा है-'एक साहूकार के दो स्त्रियां थीं। एक ने रोने का त्याग किया, वह धर्म का विवेक रखती थी। दूसरी धर्म का मर्म नहीं पहचानती थी। पति चल बसा। एक नहीं रोती; दूसरी रोती है। लोग आए। दूसरी की सराहना करने लगे- 'यह धन्य है, पतिव्रता है।' पहली, जो नहीं रोती, की निन्दा होने लगी-'यह पापिनी चाहती थी कि पति मर जाए। इसके आंसू क्यों आएं ?' Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन इस स्थिति में संयमी किसे सराहे ? जो नहीं रोयी उसे सराहेगा, यह प्रत्यक्ष है । संसार का मार्ग भिन्न है और मोक्ष का मार्ग भिन्न । अनुकम्पा : दो रूप अनुकम्पा हृदय का द्रवीभाव या कम्पन है । वह अपने-आप में बन्धन या मुक्ति कुछ भी नहीं है | मोहात्मक कम्पन बन्धन का और निर्मोहात्मक कम्पन मुक्ति का हेतु बनता है । पहला लौकिक है और दूसरा आध्यात्मिक । अनुकम्पा आध्यात्मिक ही होती है - ऐसा नियम नहीं । पौद्गलिक सुखपरक मानसिक एकाग्रता या ध्यान लौकिक होता है और आत्मपरक ध्यान आध्यात्मिक । ठीक यही बात अनुकम्पा के लिए है । भगवान् महावीर की वाणी में देखिए अभयकुमार की अनुकम्पा कर उसके मित्र देव ने अकाल- वर्षा की । यह अनुकम्पा आत्मपरक नहीं है । दूसरा प्रसंग मेरुप्रभ हाथी का है। उसने खरगोश की अनुकम्पा के लिए अपना पैर नीचे नहीं रखा, कष्ट सहा, संयम किया, यह दया आत्मपरक है, मोहरहित है । १३१ आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है : 'न मोहजन्यां करुणामपीश ! समाधिस्थाय युगाश्रितोसि ।' 'भगवन् ! आपने मोहजन्य करुणा को कोई स्थान नहीं दिया ।' श्रीमद्जयाचार्य ने लिखा है- 'अनुकम्पा सावद्य निरवद्य नुं न्याय कहै छै - मोह राग थकी हियो कंपायमान हुवे ते सावद्य अनुकम्पा अनै वैराग थी हियो कंपायमान हुवै ते निरवद्य अनुकम्पा ।' श्रीमद् रायचन्द्र लिखते हैं : 'हे काम ! हे मान ! हे संघ उदय ! हे वचनवर्गणा ! हे मोह ! हे मोहदया ! हे शिथिलता ! - तमेशा माटे अन्तराय करो छो ? परम अनुग्रह करी ने हवे अनुकूल थाव अनुकूल थाव' ।' १. भिक्षु दृष्टांत १३० २. ज्ञाता १ ३. ज्ञाता १।२७ ४. अयोगव्यवच्छेदिका १८ ५. चर्चा रत्नमाला बोल २१२ ६. तत्त्वज्ञान, पृ० १२६ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अहिंसा तत्त्व दर्शन अनुकम्पा शब्द को लेकर कोई आग्रह नहीं होना चाहिए। वह प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार की हो सकती है । लौकिक दृष्टि से जो प्रशस्त है, वह आत्मदृष्टि से अप्रशस्त और आत्म-दृष्टि से जो प्रशस्त है, वह लौकिक दृष्टि से अप्रशस्त हो सकती है। कृतपुण्य पिछले जन्म में गरीब मां का लड़का था। उसने किसी त्योहार के दिन सबको दूध-पाक खाते देखा। वह मां के पास आकर बोला-मां ? मैं भी दूध खाऊंगा। नन्हे बच्चे की दीन वाणी ने उसे रुला दिया। पड़ोसियों ने यह देखा। उनके दिल में अनुकम्पा आयी। उन्होंने दूध, चावल आदि दिए । यह अनुकम्पा दान व्यवहार-दृष्टि से प्रशस्त है। बन्दरों के यूथपति ने मुनि की अनुकम्पा यानी भक्ति की। यह संयम की दृष्टि से प्रशस्त अनुकम्पा है। इसी प्रकार मेतार्य ने क्रौंच पक्षी की अनुकम्पा की। वे जानते थे-स्वर्ण यव इस पक्षी ने खाए हैं। सोनार ने उनसे पूछा किन्तु वे कुछ नहीं बोले। उनका हेतु था-प्राणी-दया। उन्होंने सोचा-सही स्थिति बतलाने का अर्थ होगा-क्रौंच की मृत्यु । मैं उसका हेतु न बनूं । इस अनुकम्पापूर्ण भावना से वे नहीं बोले, संयम में स्थिर रहे, अपने प्राण न्योछावर कर दिए। यह है आत्म-दृष्टि से प्रशस्त अनुकम्पा या आत्म-विसर्जन।' परिभाषा की दृष्टि से रागात्मक या करुणात्मक अनुकम्पा लोक-दृष्टि से प्रशस्त है। अरागात्मक या अहिंसात्मक अनुकम्पा आत्म-दृष्टि से प्रशस्त है। शब्द की अनेकार्थकता के कारण बड़ी उलझनें पैदा होती हैं। भगवान् महावीर कहते हैं-राग और द्वेष---ये दो कर्म बीज हैं" -- ये दोनों बन्धन हैं। राग से किए हए कर्मों का फल-विपाक पाप होता है। दूसरी ओर उन्हीं की वाणी में 'धर्मानुराग' जैसा प्रयोग मिलता है और वह मुक्ति का हेतु माना गया है। राग शब्द के इस दो अर्थ वाले प्रयोग से हमें जानने को मिला कि असंयम बढ़ाने वाला राग ही कर्म का बीज, बन्धन और पाप फलकारक है । संयम के प्रति होने वाली अनुरक्ति केवल शब्दमात्र से राग है, वास्तव में नहीं, इसलिए वह कर्म-बीज, बन्धन व पाप फलकारक नहीं है। इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए पूर्वांचार्यों ने राग-द्वेष के दोदो भेद कर डाले : १. प्रशस्त राग १. प्रशस्त द्वेष २. अप्रशस्त राग २. अप्रशस्त द्वेष १. आवश्यक वृत्ति, मलयगिरि ८६६-८७० २. उत्तराध्ययन ३२१७ ३. आवश्यक श्रमणसूत्र ४ ४. औपपातिक ६।१३३ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १३३ ___अरिहन्त -जिन, सिद्ध, साधु और धर्म के प्रति होने वाला राग प्रशस्त है। दृष्टि-राग, विषय-राग और स्नेह-राग यह त्रिविध राग अप्रशस्त है।' यही बात द्वेष की है। अज्ञान और असंयम के प्रति जो द्वेष होता है, वह प्रशस्त है और मोहोदय के कारण होने वाला द्वेष अप्रशस्त'। इस प्रकार हमें समझना होगा कि किसी भी शब्द को एक ही अर्थ में बांधा नहीं जा सकता। इसलिए शब्द को लेकर खींचतान नहीं होनी चाहिए। अनुकम्पा मात्र मोक्ष का साधन है, यह भी एकान्त है । अनुकम्पा मोक्ष का साधन है ही नहीं-यह भी एकान्त है । हम सत्य को अनेकान्त दृष्टि से पा सकेंगे। उसके अनुसार जो अनुकम्पा राग-भावना रहित है, वह मोक्ष की ओर ले चलती है, इसलिए वह उसका साधन है और रागात्मक अनुकम्पा प्राणी को मोक्ष की ओर नहीं ले जाती, इसलिए वह उसका साधन नहीं है। सार इतना ही है। इससे आगे जो कुछ है, वह सब प्रपंच है। अहिंसा और दया __ अहिंसा और दया दोनों एक तत्त्व है। दया में हिंसा या हिंसा में दया कभी नहीं हो सकती। यदि हम इनको पृथक् करना चाहें तो निवृत्त्यात्मक अहिंसा को अहिंसा एवं सत्प्रवृत्त्यात्मक अहिंसा को दया कह सकते हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र में अहिंसा के साठ पर्यायवाची नाम बतलाए हैं। उनमें ग्यारहवां नाम 'दया है । टीकाकार मलयगिरि ने उसका अर्थ-दया देह रक्षा'-'देहधारी जीवों की रक्षा करना किया है । यह उचित भी है क्योंकि अहिंसा (प्राणातिपात-विरमण) में जीवरक्षा अपने-आप होती है। मुनि सब जीवों के रक्षक होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि दुनिया में जो जीव मर रहे हैं या मारे जा रहे हैं, उनको वे येन-केनप्रकारेण बचाते हैं। इसका सही अर्थ यही है कि अपनी असत्-प्रवृत्ति से प्राणीमात्र को न कष्ट देते हैं और न मारते हैं। अहिंसा या दया की पूर्णता अपनी असत्-प्रवृत्ति का संयम करने से ही होती है या हो सकती है। कल्पना कीजिए कि दो व्यक्ति पशु-वध करने की तैयारी में हैं, इतने में संयोगवश वहां मुनि चले गए। मुनि ने उनके आत्म-कल्याण की भावना से उन्हें प्रतिबोध दिया। उनमें से एक ने हिंसा छोड़ दी और दूसरे ने मुनि का उपदेश नहीं माना। एक व्यक्ति ने हिंसा छोड़ी उससे मुनि की दया पूर्ण नहीं बनी और दूसरे ने हिंसा नहीं छोड़ी, उससे उनकी दया अपूर्ण नहीं बनी। यदि ऐसे अपूर्ण बन जाए तब फिर कोई भी व्यक्ति पूर्ण दयालु बन ही नहीं सकता। पूर्ण दयालु हुए बिना आत्मा पूर्ण शुद्ध नहीं हो सकती, इसलिए १. आवश्यक वृत्ति मलयगिरि ६१८ २. पंचास्तिकाय १४४ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अहिंसा तत्त्व दर्शन यह मानना पड़ता है कि दया की पूर्णता और अपूर्णता अपनी प्रवृत्तियों पर ही निर्भर है और इससे यह भी फलित होता है कि जीव-रक्षा या दया का सम्बन्ध अपनी सत्प्रवृत्ति से ही है। जो व्यक्ति अपनी बुरी प्रवृत्तियों का संयम करता है, प्राणी मात्र को अभय-दान देता है, वही जीव-रक्षक है और वही दयालु है। सन्त तुलसीदास ने भी आत्म-दया की बड़े सीधे-सादे शब्दों में व्याख्या की है तथा नहीं मारने को दया बताकर अहिंसा और दया की एकता बताई है: 'तुलसी दया न पार की. दया आपकी होय । तू किण ने मारे नहीं, तो तनै न मारै कोय ॥' आचार्य भिक्षु ने दया का अर्थ बतलाते हुए यही लिखा है : 'जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हिंसा मत जाण । ___ मारण वाला ने हिंसा कही, नहीं मारे ते दया गुण खान ॥' शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार ये दो हैं । जैसे-हिंसा न करना-अहिंसा और रक्षा करना-दया। तात्पर्यार्थ में दोनों एक हैं । अहिंसा निषेध-प्रधान है जैसेहिंसा मत करो-असत्-प्रवृत्ति का आचरणमत करो। दया विधि मुख है, जैसेपालन करो, रक्षा करो। हिंसा नहीं होगी, वहां जीव-रक्षा अपने आप हो जाएगी और जीव-रक्षा में हिंसा वर्जनी ही होगी। वही पहली बात है कि दयाशून्य अहिंसा और अहिंसाशून्य दया कभी नहीं हो सकती। महात्मा गांधी ने भी अहिंसा और दया का सम्बन्ध बतलाते हुए कहा है : । 'जहां दया नहीं, वहां अहिंसा नहीं।' अत: यों कह सकते हैं कि जिसमें जितनी दया है उतनी ही अहिंसा है।' अहिंसा और दया के उद्गम-स्रोत हिंसा का क्षेत्र व्यापक है। असत्य आदि उसके अभिन्न पहलू हैं। असत्य बोलना हिंसा है, चोरी हिंसा है, मैथुन हिंसा है, परिग्रह हिंसा है। इन सबमें अहिंसा भी नहीं, दया भी नहीं। सामाजिक व्यवहार का सर्वोपरि धर्म करुणा है, अहिंसा नहीं। अतएव वहां अहिंसा और दया की परिभाषा सर्वथा एक नहीं रहती। उस क्षेत्र में उनका सम्बन्ध इस प्रकार बनता है : अहिंसा में दया का नियम और दया में अहिंसा का विकल्प है। दया के बिना अहिंसा हो ही नहीं सकती, इसलिए अहिंसा में दया के होने का नियम है। सामाजिक क्षेत्र में दया के लिए हिंसा, असत्य, परिग्रह आदि भी प्रयुज्य माने जाते हैं, इसलिए दया में अहिंसा का विकल्प है। जहां दया के लिए हिंसा का आचरण १. गांधी-वाणी, पृ० १७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १३५ निर्दोष माना जाए, वहां ये दो हो ही जाती हैं। मोक्ष-साधना का सर्वोपरि धर्म अहिंसा है। इसलिए यहां जो अहिंसा है, वही दया है। हिंसा किसी भी स्थिति में दया नहीं हो सकती। इसलिए अहिंसा को 'सर्वभूतक्षेमकरी' कहा गया है।' मुनि सब जीवों की दया के निमित्त अपने लिए बना भोजन नहीं लेते। भगवान् महावीर ने सब जीवों की रक्षा रूप दया के लिए प्रवचन किया। भगवान् अहिंसा-प्रधान थे। उनकी दया अहिंसा से विमुक्त नहीं हो सकती। हिंसा को दया मानना या दया के लिए होने वाली हिंसा को अहिंसा मानना उन्हें अभीष्ट नहीं था। इसलिए उन्होंने मोक्ष-धर्म को निषेध की भाषा में ही रखा। उनकी वाणी के कुछ प्रसंग और संवाद पढ़िए : भगवन् ! जीव अल्पायु-योग्य कर्म कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात के द्वारा। भगवन् ! जीव दीर्घायु-योग्य कर्म कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात-विरमण के द्वारा। भगवन् ! जीव अशुभ दीर्घायु-योग्य कर्म कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात के द्वारा। भगवन् ! जीव शुभ-दीर्घायु-योग्य कर्म कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात-विरमण के द्वारा। संयम का अर्थ है-सुख का वियोग और दुःख का संयोग न करना। सर्व जीवों के प्रति जो संयम है, वही अहिंसा है। अहिंसा का आधार संयम है, करुणा नहीं। जर्मन् विद्वान् अलबर्ट स्वीजर ने अहिंसा के आधार की मीमांसा करते हुए लिखा है- यदि अहिंसा के उपदेश का आधार सचमुच ही करुणा होती तो यह समझना कठिन हो जाता कि उसमें न मारने, कष्ट न देने की ही सीमाएं कैसे बंध सकी और दूसरों को सहायता प्रदान करने की प्रेरणा से वह कैसे विलग रह सकी है ? यह दलील कि संन्यास की भावना मार्ग में बाधक बनती है, सत्य का मिथ्या आभास मात्र होगा। थोड़ी से थोड़ी करुणा भी इस संकुचित सीमा के प्रति विद्रोह कर देती है परन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ। १. प्रश्नव्याकरण, दूसरा संवर द्वार : अहिंसा तस-थावर-सव्वभूय-खेमंकरी । २. सूत्रकृतांग, टीका २।६।४० ३. प्रश्नव्याकरण, पहला संवर द्वार : सव्व जगजीवरक्खणदयठ्याए पावयणं भगवया सुकहियं । ४. भगवती ५६ ५. स्थानांग ।।४।३६ :सोक्खाओअववरोवेत्ता भवइ-दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवइ।' ६. दशवैकालिक ६९ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अतः अहिंसा का उपदेश करुणा की भावना से उत्पन्न न होकर संसार से पवित्र रहने की भावना पर आधारित है। यह मूलतः कार्य के आचरण से नहीं, अधिकतर पूर्ण बनने के आचरण से सम्बन्धित है। यदि प्राचीनकाल का धार्मिक भारतीय जीवित प्राणियों के साथ सम्पर्क में अकार्य के सिद्धान्त का दृढ़तापूर्वक अनुसरण करता था तो वह अपने लाभ के लिए, न कि दूसरे जीवों के प्रति करुणा के भाव से । उसके लिए हिंसा एक ऐसा कार्य था जो वर्ण्य था। ____ यह सच है कि अहिंसा के उपदेश में सभी जीवों के समान स्वभाव को मान लिया गया है परन्तु इसका आविर्भाव करुणा से नहीं हुआ है। भारतीय संन्यास में अकर्म का साधारण सिद्धान्त ही इसका कारण है। आचारांग सूत्र में (ईसा पूर्व ४-३) अहिंसा का उपदेश इस प्रकार दिया गया है : भूत, भावी और वर्तमान के अर्हत् यही कहते हैं-किसी भी जीवित प्राणी को, किसी भी जन्तु को, किसी भी वस्तु को, जिसमें आत्मा है, किसी भी प्राणी को मारे नहीं, अनुचित व्यवहार न करे, अपमानित न करे, कष्ट न दे और सताए नहीं। धर्म का यही पवित्र, नित्य और मान्य उपदेश है कि जिसे जगत् के ज्ञाता सिद्ध पुरुषों ने घोषित किया है। कई प्रकार से तो ऐसा भी होता है कि इस अहिंसा के प्रति बाध्यतापूर्ण अनुसरण की अपेक्षा इसे तोड़ देने में अधिक करुणा-भाव की पूर्ति होती है। जब एक जीवित प्राणी के दुःखों को कम नहीं किया जा सके तो दयापूर्वक उसे मारकर उसके जीवन का अन्त कर देना अलग खड़े रहने से कहीं अधिक नीतिपूर्ण है। जिस पालतू जानवर को हम नहीं खिला सकते, उसे भूख के कष्टादायक मरण की अपेक्षा हिंसा द्वारा कष्ट-रहित शीघ्र अन्त कर देना अधिक करुणापूर्ण है। हम बार-बार अपने को ऐसी स्थिति में पाते हैं, जहां यह जरूरी होता है कि हम एक जीवन को बचाने के लिए दूसरे जीवन का नाश या हनन करें। अहिंसा स्वतंत्र न होकर करुणा की भावना की अनुयायी होनी चाहिए। इस प्रकार उसे वास्तविकता के व्यावहारिक विवेचन के क्षेत्र में पदार्पण करना चाहिए। नैतिकता के प्रति शुद्ध भक्ति उसके अन्तर्गत वर्तमान मुसीबतों का सामना करने की तत्परता से प्रकट होती है। परन्त पुन: कहना पड़ता है कि भारतीय विचारधारा-हिंसा न करना और किसी को क्षति न पहुंचना-ऐसा ही कहती रही है। तभी वह शताब्दितां गुजर जाने पर भी उस उच्च नैतिक विचार की अच्छी तरह रक्षा कर सकी, जो इसके साथ सम्मिलित है।' १. इंडियन थाट्स एण्ड इट्स डेवलपमेंट, पृ० ७६-८४ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १३७ __ अलबर्ट स्वीजर ने अहिंसा को संयममूलक बताकर करुणा से उसे अलग किया है। इस विचार का 'सूत्रकृतांग' में मार्मिक समर्थन मिलता है। भगवान् महावीर ने अपने समय की 'सातं सातेण विज्जइ"--सुख देने से सुख मिलता है-इस विचारधारा का खण्डन किया और बताया कि ऐसे विचार मोक्ष के साधन नहीं बनते। ___ जीवन में करुणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसमें कोई सन्देह नहीं किन्तु भूमिका बदलने पर उसका स्वरूप बदल जाता है । जननायक ऋषभनाथ जब राज्य-संचाजन की भूमिका पर थे, तब उन्होंने समाजहित के लिए विविध व्यवस्थाएं कीं। इसका जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में उल्लेख आता है। वहां टीकाकार ने एक प्रश्न खड़ा किया है-भगवान् ऋषभनाथ निरवद्य-निष्पाप रुचि वाले थे, फिर भी उन्होंने सावद्य-सपाप वृत्तियों को पैदा करने वाली कला आदि का उपदेश क्यों किया? इसका उत्तर है-ये कार्य उन्होंने करुणा-प्रधान वृत्ति से किए। जब व्यक्ति में किसी एक रस का प्राधान्य होता है, तब वह दूसरे रस की अपेक्षा नहीं रख पाता।' दूसरा कारण बताया है-दायित्व से पैदा होने वाली कर्तव्य-बुद्धि । इसकी श्रेष्ठता के दो प्रमाण हैं—(१) परार्थता और (२) बहुगुण और अल्प-दोष। वही कार्य श्रेष्ठ कार्य कहलाता है, जो दूसरों के लिए किया जाए और जिस कार्य में लाभ अधिक हो और अलाभ कम । ___ऋषभनाथ पहले राजा थे, इसलिए सभी प्रकार की व्यवस्थाएं करना उनका कर्तव्य था। भूमिका बदली । वे राज्य छोड़ मुनि बने । आत्म-साधना की। केवली बने तब जाना और देखा कि यह मोक्ष-मार्ग है, वही मुझे और दूसरों के लिए हित, सुख, निश्रेयस्, सर्वदुःखामोचक और परम-सुख का प्रापक होगा। फिर उन्होंने महाव्रत-धर्म का निरूपण किया। यहां मोक्ष-मार्ग में भी करुणा है, दूसरों के हित की बात है। अपनी अनुकम्पा की तरह दूसरों की अनुकम्पा भी मान्य है। किन्तु इसमें उसका (करुणा का) स्वरूप बदल जाता है। वह सुख-सुविधापरक न होकर व्रत-परक हो जाती है। भगवान् महावीर दुःख के आत्यन्तिक विच्छेद की साधना में लगे हुए थे। महात्मा बुद्ध करुणा-प्रधान थे। इनकी साधना और दृष्टि का भेद पन्यास मुनि श्री कल्याणविजय के शब्दों में देखिए–'महावीर का खास लक्ष्य स्वयं अहिंसक बनकर दूसरों को अहिंसक बनाने का था, तब बुद्ध की विचार-सरणि दुःखितों के दुःखोद्धार की तरफ झुकी हुई थी। ऊपर-ऊपर से दोनों का लक्ष्य एक-सा प्रतीत १. सूत्रक़तांग ३।४।६,७ २. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, २ वक्षस्कार, वृत्ति Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अहिंसा तत्त्व दर्शन होता था परन्तु वास्तव में दोनों के मार्ग में गहरा अन्तर था। महावीर दृश्यादृश्य दुःख की जड़ को उखाड़ डालना मुख्य कर्तव्य समझते थे और बुद्ध दृश्य दुःखों को दूर करना । पहले निदान को दूर कर सदा के लिए रोग से छुट्टी पाने का मार्ग बताने वाले वैद्य थे, तब दूसरे उदीर्ण रोग की शान्ति करने वाले डाक्टर। ____ करुणा और करुणापूर्ण कार्य समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक होते हैं, इसमें कोई दो मत नहीं, किन्तु मतभेद वहां होता है, जहां उनकी अहिंसात्मकता सिद्ध की जाती है, उन्हें मोक्ष-मार्ग की साधना कहा जाता है। अहिंसा के लिए हिंसा निम्न प्रकार से की जाती है और ऐसे कार्यों को निर्दोष, अल्प-हिंसा और बहुअहिंसा के कार्य समझकर उन्हें धर्म माना जाता है। जैसे१. बड़े जीव को बचाने के लिए छोटे जीवों का वध किया जाए, उसमें अल्प दोष और बहुत लाभ है, थोड़ी हिंसा और बहुत अहिंसा है। बड़े जीवों की रक्षा में मनुष्य को प्राथमिकता मिलनी चासिए । २. देवता और पूज्य अतिथि के लिए हिंसा करने में दोष नहीं। ३. अनिवार्य हिंसा तथा धर्म की रक्षा के लिए हिंसा हो, वह निर्दोष है। ४. दु:ख मिटा सकने की असमर्थता में दु:खी को मार डालना। ५. बहुत जीवों की रक्षा के लिए थोड़े जीवों को मार डालना। ६. पाप से बचाने के लिए पापी को मार डालना। ७. कष्ट से सुख मिलता है, इसलिए मारे जाने वाले प्राणी सुखी होंगे इस दृष्टि से जीवों को मारना। ८. सबल के आक्रमण से निर्बल का रक्षण करने के लिए बल-प्रयोग करना, प्रलोभन आदि देना। उक्त कार्यों में अहिंसा का स्वीकार मानसिक भ्रम है। ये कार्य करुणापूर्ण या रक्षात्मक भले हों, अहिंसात्मक नहीं होते। जैन-विचारधारा इनके अहिंसात्मक होने का समर्थन नहीं करती। महात्मा गांधी इस युग के महान् अहिंसाधर्मियों में से एक हुए हैं। उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में अहिंसा के अनेक प्रयोग किए। वे राष्ट्रीय दायित्व को सम्हाले हुए थे, इसलिए सेवा और करुणापूर्ण कार्यों का पथ प्रदर्शन भी किया किन्तु फिर भी वे हिंसा और अहिंसा के विवेक में बड़े जागरूक रहे-ऐसा जान पड़ता है। उक्त प्रश्नों के विचार में जैन-दृष्टि के साथ-साथ महात्मा गांधी के विचार भी अधिक उपयोगी होंगे। उक्त प्रश्नों की क्रमिक मीमांसा१. एक बड़ें जीव की रक्षा के लिए अनेक छोटे-मूक जीवों का वध करना १. जैन विकास, वर्ष ७, अंक ६-७, 'भगवान महावीर और बुद्ध' Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १३६. दया नहीं है, किन्तुष्ट हिंसा है। इसे दया समझना मिथ्या ज्ञान है । एक समृद्ध व्यक्ति के लिए गरीबों का गला घोटना न्याय नहीं हो सकता । बड़े जीवों के लिए छोटे जीवों को मार डालने में दोष थोड़ा है और लाभ अधिक है — ऐसे सिद्धान्त अहिंसा के सनातन सिद्धान्त के प्रतिकूल हैं । बड़ों की सुख-सुविधा के लिए छोटे या क्षुद्र जीवों की हिंसा को क्षम्य मानने वाले प्रजा की सुख-सुविधा के लिए किए जाने वाले यज्ञों को धर्म या पुण्य नहीं मानते । प्रत्युत उनका विरोध करते हैं । इसका क्या आधार हो सकता है ? हजारों-लाखों मनुष्यों की सुख-शान्ति के लिए दस-बीस पशुओं की बलि का विरोध करते समय क्या वे अपने उक्त सिद्धान्त की अवहेलना नहीं करते ? भगवान् महावीर तथा महात्मा बुद्ध ने यज्ञ - बलि का विरोध किया, उनके अनुयायी आज भी करते आ रहे हैं । इसका आधार सर्व भूत-समता है, बड़ों के लिए छोटे जीवों का संहार नहीं । मनुष्यों की रक्षा के लिए क्षुद्र जीव-जन्तुओं की हिंसा को धर्मपुण्य मानने वाले यज्ञ-हिंसा का विरोध करें, यह न्याय नहीं हो सकता। जैनों को सोचना चाहिए कि बड़ों के लिए क्षुद्र जीवों की हिंसा में वे अल्प- पाप और बहुत धर्म मानकर किस दिशा की ओर चले जा रहे हैं । I महात्मा गांधी ने इस विचार की काल्पनिकता बताते हुए लिखा है - 'माणस ने मारी ने मांकड़ ने उगारवो ए धर्म होय, एवो प्रसंग पण आंववो शक्य होय छे । हूं तो एक बन्ने जात ना प्रसंग मां थी उवरी जावा नो मार्ग कहूं हूं । ते दया धर्म छे ।" 'बन्दर को मार भगाने में मैं शुद्ध हिंसा ही देखता हूं। यह भी स्पष्ट है उन्हें अगर मारना पड़े तो अधिक हिंसा होगी। यह हिंसा तीनों काल में हिंसा ही गिनी जाएगी।” २. 'देवताओं के लिए भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। कई व्यक्ति कहते हैं कि धर्म के कर्त्ता देवता ही हैं अत: उन्हें मांसादि की बलि देने में दोष नहीं, यह कथन अविवेकपूर्ण है । इसी प्रकार पूज्य और अतिथि के लिए हिंसा करने में दोष नहीं है - यह कहना भूल है । १. नवयुग, अंक १७, पृ० १५६१, ता० २४ नवम्बर, १९२१ २. अपराधी जन्तु और गांधीजी, जैनभारती, मई, १९४८ ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४०५ : धर्मोहि देवताभ्यः प्रभवति, ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् । इति दुर्विवेककलितां घषणां न प्राप्य देहिनो हिंसा ॥ ४. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय ८०, ८१ : पूज्यनिमित्तं घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति । इति संप्रधार्य कार्यं नाऽतिथये सत्त्वसंज्ञपनम् ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अहिंसा तत्त्व दर्शन ३. नहीं छोड़ी जा सकने वाली हिंसा अनिवार्य भले कहलाए पर वह अहिंसा नहीं हो सकती। महात्मा गांधी ने इसे बहुत स्पष्ट शब्दों में समझाया है--'यह बात सच है कि खेती में सक्ष्म जीवों की अपार हिंसा है। कार्य मात्र, प्रवृत्ति मात्र, उद्योग मात्र सदोष है। खेती इत्यादि आवश्यक कर्म शरीर-व्यापार की तरह अनिवार्य हिंसा है। उसका हिंसापन चला नहीं जाता है और मनुष्य ज्ञान, भक्ति आदि के द्वारा अन्त में इन अनिवार्य दोषों से मोक्ष प्राप्त करके इस हिंसा से भी मुक्त हो जाता है। धर्म के लिए जो हिंसा करता है, वह मन्द-बुद्धि है ।२ भगवान् का धर्म सूक्ष्म है, इसलिए 'धर्म के लिए हिंसा करने में दोष नहीं'---यों धर्म-मूढ़ बनकर जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए । धर्म का स्वरूप ही अहिंसा है। उसके लिए हिंसा की कल्पना ही कैसे हो सकती है ? इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने इस पर आश्चर्यभरे शब्दों में लिखा है-'अहो! हिंसापि धर्माय, जगते मंदबुद्धिभि।४ । __महात्मा गांधी के शब्दों में हिंसा से मत-रक्षा हो सकती है, धर्म-रक्षा नहीं। वे लिखते हैं : 'धर्म एक व्यक्तिगत संग्रह छे । तेने माणस पोतेज राखी सके छे ने पोतेज खुए छ। समुदाय मांज बचावी सकाय ते धर्म नहीं, मत छ।५। ४. दुःख मिटाने के लिए दुःखी को मार डालने की बात भी अहिंसा की कोटि में नहीं आती। दु:ख-मोचन-सम्प्रदाय का मन्तव्य था-'जिसको दुःख से छूटने की आशा नहीं, वैसे दु:खी या रोगी जीव को मार डालना चाहिए।' महात्मा गांधी की बछड़े को मार डालने वाली घटना भी लगभग वैसी ही है। जैन-विचार इससे सहमत नहीं। कई जैन करुणा को परम धर्म मानने लगे हैं, उनकी बात मैं नहीं कह सकता। उनको उक्त कार्य में आपत्ति हो ही नहीं सकती। मारने वाला केवल अनुकम्पा की बुद्धि से मारता है, किसी अन्य भावना से नहीं। अनुकम्पा मात्र को वे निरवद्य मानते हैं, तब उन्हें आपत्ति क्यों हो? किन्तु भगवान् महावीर की अहिंसा-प्रधान विचारधारा को मान्य करने वाले इसे निर्दोष नहीं मानते। उनके मतानुसार दुःखी को मार डालने में करुणा की पूर्ति होगी किन्तु अहिंसा नहीं हो सकती । हमें दूसरों के जीवन-हरण का अधिकार नहीं है। अनुकम्पा और उसके १. अहिंसा, प्रथम भाग, प० ३५-३६ २. प्रश्नव्याकरण १, आ० : धम्महेउं तसे पाणे थाबरे च हिंसति मंदबुद्धी । ३. पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय ७६ : सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थहिंसने न दोषोऽस्ति । __ इति धर्ममुग्धहृदयर्न जातुभूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ।। ४. योगशास्त्र २।४० : ५. नवजीवन पुस्तक १५, पृ० १३८२, ता० २५६।२१ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १४१ साधत - ये दोनों अहिंसात्मक हों, तब ही आत्म शुद्धि के साधन बन सकते हैं, अन्यथा नहीं । कष्ट-दशा में भी जो शान्त रहता है, वह अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाता है, इसलिए कष्ट-दशा से डरने की कोई बात नहीं है । उसका सामना करने का उचित मार्ग सीख लेना चाहिए और दूसरों को भी सिखा देना चाहिए । पशुओं को यह नहीं सिखाया जा सकता, यह सच है किन्तु हिंसा और अहिंसा के साधन समझने वालों और नहीं समझने वालों के लिए अलग-अलग नहीं होते । ५. थोड़े से हिंसक जीवों को मार डालने से बहुत सारे जीवों की रक्षा होती है - ऐसा मानकर उन्हें नहीं मार डालना चाहिए ।' अहिंसा के राज्य में किसी के लिए किसी को, किसी भी दशा में मारने की बात आती ही नहीं । जो सहज करने की भूमिका में न हो उन्हें मारना पड़े, यह दूसरी बात है किन्तु इस मनुष्य-स्वभाव की दुर्बलता को धर्म का रूप नहीं मिलना चाहिए । इस विषय में महात्मा गांधी से सम्बन्धित प्रसंग मननीय है : 'एक बार महात्मा गांधी से प्रश्न किया गया कि कोई मनुष्य या मनुष्यों का समुदाय लोगों के बड़े भाग को कष्ट पहुंचा रहा है। दूसरी तरह से उसका निवारण न होता हो, तब उसका नाश करें तो यह अनिवार्य समझकर अहिंसा में खपेगा या नहीं ?" महात्मा जी ने उत्तर दिया- 'अहिंसा की जो मैंने व्याख्या की है, उसमें ऊपर के तरीके पर मनुष्य-वध का समावेश ही नहीं हो सकता । किसान जो अनिवार्य नाश करता है, उसे मैंने कभी अहिंसा में गिनाया ही नहीं है । यह वध अनिवार्य होकर क्षम्य भले ही गिना जाए किन्तु अहिंसा तो निश्चय ही नहीं है ।” 'धर्म का मूल दया है, दया का मूल अहिंसा है और अहिंसा का मूल जीवनसमता है, इसलिए जो सभी जीवों को अपने समान प्रिय समझता है, श्रेय समझता है, वही धर्मात्मा है । आक्रान्ता को मारने की बात भी अहिंसा में नहीं समाती । समाजशास्त्र हिंसात्मक दण्ड- विधि को अपनाना आवश्यक माना है । आक्रान्ता के प्रति आक्रमण करने का विधान किया है । धर्मशास्त्र में इसके लिए कोई स्थान नहीं । उसका दण्ड - विधान अहिंसात्मक है, इसलिए समाज के सब विधि-विधानों का धर्म से अनु १. पुरुषार्थ - सिद्ध्युपाय ८३ : रक्षा भवति बहुनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्वा कर्त्तव्यं, न हिंसनं हिंस्रसत्वानाम् ॥ २. अहिंसा, पृ० ५० ३. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अहिंसा तत्त्व दर्शन मोदन नहीं हो सकता। गुरुदास बनर्जी ने इस बात को बड़े मार्मिक शब्दों में समझाया है: 'जान से मार डालने के लिए उद्यत आततायी को आत्म-रक्षा के लिए मार डालना प्रायः सभी देशों की सब समय की दण्ड-विधि द्वारा अनुमोदित है । मनु भगवान् ने भी कहा है-'नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन'-आततायी को मार डालने में मारने वाले को कुछ भी दोष नहीं होता। भारत की वर्तमान दण्ड-नीति भी यही बात कहती है। लेकिन यह स्मरण रखना होगा कि दण्ड-विधि का मूल उद्देश्य समाज की रक्षा करना है, नीति-शिक्षा देना नहीं है। अतएव दण्ड-विधि की बात सब जगह सुनीति के द्वारा नहीं भी अनुमोदित हो सकती है।'१ ६. बहुत जीवों को मारने वाले ये जीव जीते रहे तो बहुत पाप करेंगे-ऐसी अनुकम्पा करके भी हिंसक जीवों को नहीं मारना चाहिए। पाप से बचाने की भावना निरवद्य है। इसके साधन भी निरवद्य होने चाहिए। मारने से पापी मिट सकता है, पाप नहीं मिटता। पाप मिटने का उपाय पापी के हृदय की शुद्धि है। ७. सुख की प्राप्ति कष्ट से होती है। मारे हुए सुखी जीव आगे सुखी होंगेइस भावना से सुखी जीवों को नहीं मारना चाहिए।' कोई भी जीव दूसरे के प्रयत्न से अगले जीवन में सुखी या दुःखी नहीं बनता, वह अपने प्रयत्न से ही वैसा बनता है। इसलिए दूसरे जीव को सुखी बनाने के लिए मारना नितान्त मानसिक भ्रम है। ८. हिंसा की आग बलवान् और निर्बल दोनों के हृदय में हो सकती है। बलवान् से निर्बल को बचाने का अर्थ शक्ति के दुरुपयोग का प्रतिकार हो सकता है, हिंसा का प्रतिकार नहीं। हिंसा का प्रतिकार बलवान् और निर्बल दोनों को हिंसा-भावना छूटे, उसमें रहा हुआ है। __इसीलिए आचार्य भिक्षु ने कहा है-'ललचाकर या डरा-धमकाकर किसी को अहिंसक नहीं बनाया जा सकता। इसका मार्ग समझाना-बुझाना ही है । जबरदस्ती से हिंसक की हिंसा नहीं छुड़वाई जा सकती।' १. ज्ञान और कर्म, पृ० २१२ २. पुरुषार्थ-सिद्ध युपाय: ८४ बहुसत्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपापम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंसाः ।। ३. वही, ८६ : कृच्छ्रण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति तर्ककण्डलानः सुखिनां घाताय नादेयः ।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १४३ महात्मा गांधी ने भी अहिंसा के मार्ग में बल-प्रयोग को निषिद्ध माना है । तब क्या गाय को बचाने के लिए मुसलमानों से लड़ंगा और उनकी हत्या करूंगा ? ऐसा करके तो मैं मुसलमान और गाय दोनों का ही दुश्मन बनूंगा । मेरा कोई भाई गोहत्या पर उतारू हो जाए, तब मुझे क्या करना चाहिए ? मैं उसे मार डालूं या उसके पैर पकड़कर उससे ऐसा न करने की प्रार्थना करू ? अगर आप कहें कि मुझे पिछला तरीका अख्तियार करना चाहिए तो फिर तो अपने मुसलमान भाई के साथ भी मुझे इसी तरह पेश आना चाहिए ।" यह तो कहीं नहीं लिखा है कि अहिंसावादी किसी आदमी को मार डाले। उसका रास्ता तो सीधा है - एक को बचाने के लिए वह दूसरे की हत्या नहीं कर सकता । उसका पुरुषार्थं और कर्त्तव्य तो सिर्फ विनम्रता के साथ समझाने-बुझाने में है । एक ही कार्य में अल्प-हिंसा और बहु-अहिंसा का सिद्धान्त जनतन्त्र की भावना देता है, विशुद्ध अहिंसा की भावना नहीं देता । अहिंसा के राज्य में थोड़ों के लए बहुतों की हिंसा जैसे सदोष है, वैसे ही बहुतों के लिए थोड़ों की हिंसा भी सदोष है । उसमें निर्दोष है— हिंसा से बचना तथा जीवन की अशक्यता, सामाजिक दायित्व और सम्बन्धों को निभाने के लिए हिंसा करनी पड़े, उसे अहिंसा न समझना । हिंसा दैहिक जीवन की प्रवृत्ति है । उसके नियमन से अहिंसा प्रकट होती है । देह-मोह छूटे बिना हिंसा न छूटे, यह दूसरी बात है किन्तु उसे अहिंसा मान बैठना दोहरी भूल है । इसके फलस्वरूप हिंसा को छोड़ने की वृत्ति पैदा नहीं होती । अहिंसा की आराधना पूरी न हो सके, फिर भी उसके स्वरूप ग्रहण की धारा पूरी होनी चाहिए । गृहस्थ अपने को अहिंसक मानते हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे पूरी हिंसा को त्याग चुके हैं। उनकी गति अहिंसा की दिशा में होती है, वे हिंसा से यथासम्भव दूर हटना चाहते हैं; इसलिए वे अहिंसक हैं । इस प्रसंग पर महात्मा गांधी के विचार देखिए - 'आज हम ऐसी बहुत-सी बातें करते हैं, जिन्हें हम हिंसा नहीं मानते हैं, लेकिन शायद उन्हें हमारे बाद की पीढ़ियां हिंसा के रूप में समझें । जैसे हम दूध पीते हैं या अनाज पकाकर खाते हैं, उसमें जीव-हिंसा तो है ही । यह बिलकुल संभव है कि आने वाली पीढ़ी इस हिंसा को त्याज्य समझकर दूध पीना ओर अनाज पकाना बन्द कर दे । आज यह हिंसा करते हुए भी हमें यह दावा करने में संकोच नहीं होता कि हम अहिंसा-धर्म का पालन करते हैं।" १. हिन्द स्वराज्य, पृ० ७८ २. वही, पृ० ५६ ३. महादेव भाई की डायरी, पृ० २६ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अल्प जीवन के व्यवहार सात्विक होते हैं, हैं, तव महा-हिंसा और महा - परिग्रह प - हिंसा और अल्प-परिग्रह वाले होते तुलना में व्यवहार दृष्टि के अनुसार उन्हें अहिंसक मान लिया जाता है । यह अल्प - हिंसा में अहिंसा का आरोपण है, शुद्ध अहिंसा नहीं है । महात्मा गांधी के अनुसार यह मन फुसलाने जैसा है । वे लिखते हैं " जैसा कि निरामिष आहारी वनस्पति खाने में हिंसा है—यह जानता हुआ भी निर्दोषता का आरोपण कर मन को फुसलाता है ।" १४४ I अहिंसा के व्यापक रूप में गृहस्थ के हिंसामय कर्तव्यों की सीमा होती है, अनावश्यक और प्रमाद - विहित कार्य छूटते हैं । मुनि का मार्ग और भी संकड़ा बन जाता है । वे स्वयं कोई भी हिंसामय कार्य नहीं कर सकते, इससे आगे – हिंसामय कार्य का पथ-दर्शन भी नहीं कर सकते । महात्मा गांधी राजनीतिक दायित्व से मुक्त नहीं थे, फिर भी उनकी दृष्टि में हिंसा का समर्थन न करने और यथासम्भव हिंसा से बचने की वृत्ति सुरक्षित है । 'हिंसा के मार्ग में किसी का भी नेतृत्व करने में मैं असमर्थ हूं । यह तो हरएक क्षण में किसान अनुभव करता है कि खेती के लिए छोटे-छोटे जीवों का नाश करना अनिवार्य है । इसके आगे आकर इस वस्तु को ले जाना मेरी शक्ति के बाहर की बात है। हिंसा करने से जिस अंश तक बचना संभव हो, उस अंश तक बचना सबका धर्म है।" की 'जीवो जीवस्य जीवनम्' – जीव जीव का जीवन है, पाणिपाणिकिलेसंति' - प्राणी प्राणी को मारता है अथवा 'मच्छगलागल'- - एक बड़ी मछली छोटी मछलियों को खा जाती है, वैसे बड़े जीव छोटे जीवों को भख लेते हैं – ये तथ्योक्तियां हैं। मनुष्य को खाना पड़ता है, पीना पड़ता है । इसमें शाक, सब्जी, धान, पानी, अग्नि, हवा के जीवों का वध होता है । इनके योग से द्वीन्द्रिय आदि बड़े जीवों की भी हिंसा होती है । यह उनकी आवश्यकता है, मजबूरी है, ऐसा किए बिना जीवन निर्वाह नहीं हो सकता । किन्तु मनुष्य में एक कमजोरी छिपी हुई होती है । वह हर जगह सच्चाई की ओर बढ़ने में रुकावट डालती है । इसीलिए एक सिद्धान्त बना लिया गया कि जो वस्तुएं मनुष्य के जीवन- निर्वाह के लिए नितान्त आवश्यक हैं, उनमें हिसा कैसी ? यह सिद्धान्त व्यापक बन गया किन्तु वस्तुस्थिति कुछ और है । दुनिया स्वार्थी है ऐसा किए बिना उससे रहा नहीं जाता, यह दूसरी बात है पर सच्चाई और कमजोरी एक नहीं, दो चीजें हैं । १. व्यापक धर्म - भावना, पृ० ३०८ २. अहिंसा, पृ० ५७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अहिंसा और दया की एकात्मकता अहिंसा और दया दोनों एक हैं। शब्द की उत्पत्ति की दृष्टि से दोनों में भेद जान पड़ता है । अर्थ की दृष्टि से पाप से बचने या बचाने की जो वृत्ति है, वही अहिंसा है और वही दया है । यह दया के आध्यात्मिक स्तर की बात है । उसका लौकिक स्तर अहिंसा से अलग होता है । उसकी दृष्टि में सुख-सुविधा और जीवन स्थायित्व का मूल्य होता है । अहिंसा-दृष्टि का उद्देश्य होता है - संयम - विकास | लौकिक करुणा की वृत्ति होती है— जीवन मरे यानी मरनेवाला मौत से बच जाय । अहिंसा की दृष्टि है - मरने वाला पाप से बचे - उसकी हिंसा छूटे । मारने वाला हिंसा के पाप से बच जाए, ऐसी करुणा या दया होती है, वह अहिंसा ही है । मरने वाला मौत से बच जाए - ऐसी दया या करुणा का अहिंसा से सम्बन्ध नहीं होता । अहिंसा के स्थान में दया का प्रयोग होता है, वह हिंसा से बचने - बचाने के अर्थ में ही होता है। उत्तराध्ययन में लिखा है ' - प्राणी दया के लिए मुनि आहार न ले- तात्पर्य कि सूक्ष्म जीव जमीन पर छा जाए, ऐसी स्थिति में मुनि उन जीवों की रक्षा के लिए यानी हिंसा से बचने के लिए भिक्षा के लिए न जाए । सूत्रकृतांग में बताया है. 'सब जीवों की दया के निमित्त मुनि अपने लिए बनाया हुआ भोजन न ले ।' यहां दया का प्रयोग हिंसा से बचाव करने के अर्थ में हुआ है । इसलिए यह दया अहिंसा ही है । जो हिंसा नहीं करता, वह सभी जीवों की दया करता है । 'प्रासुक और निर्दोष आहार का सेवन करता हुआ मुनि धर्म का अतिक्रमण नहीं करता - -धर्म का अतिक्रमण नहीं करता हुआ त्रस तथा स्थावर जीवों की अनुकम्पा करता है । आत्म-दया और लौकिक दया 'दान - दया दोनूं मारग मोख रा' - दान और दया दोनों मोक्ष के मार्ग हैं । किन्तु इन्हें समझना होगा। बिना समझे मार्ग कैसे मिलेगा । वे कहते हैं १४५ दया- दया सब कोइ कहै, ते दया धर्म छै ठीक । दया ओलख नै पालसी, त्यां रे मुक्ति नजीक ॥४ मोक्ष के लिए जो दया है, वह अभय-दान है । जो प्राणी मात्र को मनसा, १. उत्तराध्ययन २६।३५ ३. भगवती १18 ५. वही, ६।२, दोहा २. सूत्रकृतांग वृत्ति ३।६।४० ४. अनुकम्पा चौपई ८ । १ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन वाचा, कर्मणा स्वयं नहीं मारता है, नहीं मरवाता है और मारने वाले को भला नहीं समझता-यह अभयदान है।' मोक्ष के लिए जो दया है, वह संयम है-हिंसा त्याग है। मनसा, वाचा, कर्मणा जीव मात्र की हिंसा न करना, न करवाना और न अनुमोदन करना- तीर्थंकरों की वाणी में आत्म-दया का यही स्वरूप है। इसी से संसार-समुद्र का पार आता है। एक लौकिक दया भी है। उसके अनेक रूप हैं। वह संसार का उपकार है। उसे मुक्ति का मार्ग कहना एक प्रकार का व्यामोह है।६ ___ अहिंसा महाव्रत है, दया उसमें समाई हुई है। अहिंसा से अलग दया नहीं है। असंयम हिंसा है । हिंसा है, वह दया नहीं है। इसीलिए असंयम से सम्बन्ध रखने वाला जीवन, मृत्यु, पोषण, तृप्ति, पूर्ति, सहयोग आदि-आदि सब आत्म-दया नहीं है और इसलिए नहीं है कि इनमें हिंसा का स्थूल या सूक्ष्म सम्बन्ध रहता है, राग, द्वेष और मोह की पुट रहती है। __ संयममय जीवन, मृत्यु, पोषण, सहयोग आदि-आदि सब आत्म-दया है । इससे आत्म-शुद्धि होती है। मोह नहीं बढ़ता। आचार्य भिक्षु ने मोक्ष-दया, मोक्ष-दान, मोक्ष-उपकार तथा संसार-दया, संसार-दान और संसार-उपकार को परखने की एक ऐसी कसौटी रखी है, जिसमें खोट नहीं चलती। जैसे-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-ये चार मोक्ष के मार्ग हैं-आत्म-गुण हैं । इनकी साक्षात् वृद्धि करने वाले दया, दान और उपकार मोक्ष के साधक हैं और जिनसे ये न बढ़े, वैसे दया, दान और उपकार संसार के साधक हैं।' ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के बिना और कोई मुक्ति का उपाय नहीं है।" इनके सिवा बाकी के जितने उपकार हैं वे सब संसार के मार्ग हैं । १२ __अज्ञानी को कोई ज्ञानी बनाए, मिथ्या-दृष्टि को सम्यग्-दृष्टि, असंयमी को संयमी और अतपस्वी को तपस्वी-यह मोक्ष-धर्म या मोक्ष-उपकार है। उमास्वाति के मोक्ष-शास्त्र का पहला सूत्र है—'सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्गः'—यही तत्त्व बता रहा है और यही तत्त्व उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् महावीर ने बताया है १. अनुकम्पा चौपाई ६।१, दोहा ३. वही, ६।३, दोहा ५. वही, ८.५ ७. वही, २।८, दोहा ६. वही, ६६५, दोहा ११. अनुकम्पा १११७-२२, दोहा २. वही, ६।५, दोहा ४. वही, ८।४, दोहा ६. वही, ८१५ ८. वही, ६।३७-३६ १०. अनुकम्पा ढाल ११ १२. वही, १२१८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १४७ नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा । एस मग्गोत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं ।। -ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप—यह मार्ग है । क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद वर्णी ने इस पर बड़ा मार्मिक प्रकाश डाला है । वे अमृतचन्द्र सूरि के एक श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखते हैं 'अप्रादुर्भावः खल रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। -पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय । निश्चय ही जहां पर रागादिक परिणामों की उत्पत्ति नहीं होती, वहीं अहिंसा की उत्पत्ति है और जहां रागादिक परिणामों की उत्पत्ति होती है, वहीं पर हिंसा होती है, ऐसा जिनागम का संक्षेप में कथन जानना। यहां पर रागादिक से तात्पर्य आत्मा की परिणति-विशेष से है । पर पदार्थ में प्रीति-रूप परिणाम का होना राग तथा अप्रीति-रूप परिणाम का होना द्वेष और तत्त्व के अप्रीति रूप परिणाम का होना मोह अर्थात् राग, द्वेष, मोह-ये तीनों आत्मा के विकार भाव हैं। ये जहां पर होते हैं, वहा आत्मा कलि (पाप) का संचय करता है, दुःखी होता है, नाना प्रकार पापादि कार्यों में प्रवृत्ति करता है। कभी मन्द-राग हुआ, तब परोपकारादि कार्यों में व्यग्र रहता है, तीव्र राग-द्वेष हुआ, तब विषयों में प्रवृत्ति करता है या हिंसादि पापों में मग्न हो जाता है। कहीं भी इसे शान्ति नहीं मिलती। जहां आत्मा में राग-द्वेष नहीं होते, वहीं अहिंसा का पूर्ण उदय हो जाता है। अहिंसा ही मोक्ष मार्ग है-परमार्थ से देखा जाए तो जो आत्मा पूर्ण अहिंसक हो जाती है, उसके अभिप्राय में न तो पर के उपकार के भाव रहते हैं और न अनुपकार के भाव रहते हैं अतः न उनके द्वारा किसी के हित की चेष्टा होती है और न अहित की चेष्टा होती है।" १. अनेकान्त, वर्ष ६, किरण ६, जून, १९४८ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेय और श्रेय का विवेक अधिकांशतया विरोध शब्दों में रहता है, तत्त्व में नहीं। मोह को, मोह-अन्वित दया को प्रायः सभी आस्तिक दर्शन बन्धन मानते हैं। सांख्य सूत्र में असाधन के अनुचिन्तन को बन्धन माना गया है।' ___ यज्ञ याग आदि श्रौत कार्यों को भी बन्धन माना है। जैसे—कर्म करने से जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ता रहता है । बुद्धिहीन आदमी ही इन कर्मों की प्रशंसा करते हैं। इससे उन्हें बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है। इसका विस्तृत रूप है-महाभारत शान्तिपर्व में शुकदेव ने कर्म और ज्ञान का स्वरूप पूछते हुए व्यासजी से प्रश्न किया है-'पिताजी ! वेद में ज्ञानवान् के लिए कर्मों का त्याग और कर्मनिष्ठ के लिए कर्मों का करना, ये दो विधान हैं। किन्तु कर्म और ज्ञान-ये दोनों एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं अतएव मैं जानना चाहता हूं कि कर्म करने से मनुष्य को क्या फल मिलता है और ज्ञान के प्रभाव से कौन-सी गति मिलती है ?'- व्यासजी ने उक्त प्रश्न का जवाब देते हुए कहा-'वेद में प्रवृत्ति और निवृत्ति दो प्रकार के कर्म बतलाए गए हैं । कर्म के प्रभाव से जीव संसार के बन्धन में बंधा रहता है। इसीलिए पारदर्शी संन्यासी लोग कर्म नहीं करते। कर्म करने से जीव फिर जन्म लेता है, किन्तु ज्ञान के प्रभाव से जीव नित्य अव्यक्त, अव्यय परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । मूढ़ लोग कर्म की प्रशंसा करते हैं, इसी से उन्हें बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है। जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कर लेता है और जो कर्म को भली-भांति समझ लेता है, वह जैसे नदी के किनारे वाला मनुष्य कुओं का आदर नहीं करता, वैसे ही कर्म की प्रशंसा नहीं करता।' १. सांख्य सूत्र : असाधनानुचिन्तनं बन्धाय भरतवत् । २. मुण्डक उपनिषद् ११२।७; महाभारत शान्तिपर्व, अध्याय २४१।१।१० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १४६ ___ इसी प्रकार मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है वैदिक मन्त्रों में जिन याज्ञिक कर्मों का विधान है, वे निःसंदेह त्रेता युग में ही बहुधा फलदायक होते हैं । उन्हें करने से पुण्यलोक की प्राप्ति होती है। इससे मोक्ष की सिद्धि नही होती। क्योंकि ये यज्ञ-रूपी नौकाएं; जिनमें अठारह प्रकार के कर्म जुड़े हुए हैं, संसार-सागर से पार करने के लिए असमर्थ हैं। जो नासमझ लोग इन याज्ञिक कर्मों को कल्याणकारी समझकर इनकी प्रशंसा करते हैं, उन्हें पुनः-पुनः जरा और मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है। बन्धन और बन्धन-मुक्ति का विवेक लोग कहने लगे—'भीखणजी दया में पाप बतलाते हैं । दान में पाप बतलाते हैं।' दूर-दूर के लोग शब्द-जाल में फंस जाते हैं, पाप शब्द को सुन चौंक उठते हैं। पाप आखिर वस्तु क्या है, इसे समझिए तो सही। अन्य दर्शन जिसे बन्धन कहते हैं, वह जैन-दर्शन की भाषा में पाप कहलाता है । साधारणतया पाप शब्द का अर्थ समझा जाता है-दुष्ट, निन्दनीय, दुराचार, बुरा और जैन-दर्शन में उसका अर्थ होता है-अशुभ-कर्म-बन्धन। तत्त्व-मीमांसा में हम दूसरे दर्शनों से अधिक दूर नहीं हैं। सिर्फ शब्द की परिभाषा हमें बहुत दूर किए हुए हैं। दूसरे बहुत सारे आचार्य मोह-दया और असंयमी-दान को शुभ बन्ध का हेतु मानते हैं और हम अशुभ बन्ध का। इसे आत्म-शुद्धि का कारण या साधना का मार्ग न दूसरे धर्म मानते हैं और न हम भी। शुभ कर्म बन्ध भी बन्धन है, अशुभ कर्म बन्ध भी बन्धन । एक सोने की बेड़ी है, दूसरी लोहे की। ____ उपाध्याय विनयविजयजी के शब्दों में—'शुभ कर्म सोने की जंजीर है, जो मोक्ष-सुख या आत्म-स्वातन्त्र्य को रोके हुए है।" आचार्य कुंदकुंद के शब्दों में - 'सोने की और लोहे की दोनों प्रकार की बेड़ियां जैसे मनुष्य के लिए बन्धन हैं, वैसे ही शुभ और अशुभ कर्म-'पुण्य-पाप मनुष्य को बांधने वाले हैं। __ आचार्य भिक्षु के शब्दों में-'पुण्य संसार की दृष्टि से श्रीकार है, मोक्ष-सुख की तुलना में वह सुख है ही नहीं। पुण्य जन्य सुख पौद्गलिक हैं, क्षणभंगुर हैं, खुजली जैसे मीठे हैं। आत्मिक सुख या मोक्ष-सुख शाश्वत, अविकारी, स्वाभाविक और अपार है। १. शान्ति सुधारस, ७ २. समयसार १४६ ३. नवसद्भाव पदार्थ निर्णय ३।४६-५० Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अहिंसा तत्त्व दर्शन भगवान् महावीर ने बताया है-प्रमाद-बहुल जीव शुभ और अशुभ कर्म के द्वारा संसरण करता है-जन्म-मृत्यु की परम्परा में बहता है । मोक्ष तब होता है, जब शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के बन्धन टूट जाते हैं। गीता कहती है-बुद्धिमान् सुकृत और दुष्कृत दोनों छोड़ देता है, यानी मुक्ति दोनों के छूटने से होती है। 'पुण्य की इच्छा करना पाप है।"-आचार्य भिक्षु की यह वाणी बहुत गम्भीर अर्थ लिए हए है । अध्यात्मवाद का चरम साध्य है-मोक्ष । मोक्ष का अर्थ है पुण्यपाप से आत्यन्तिक मुक्ति। मोक्षार्थी जिससे मुक्ति चाहता है, उसी में फंसे यह गलत दिशा है। पुण्य का फल सुख होता है, पाप का फल दु:ख, इसलिए पुण्य और पाप के बन्ध में बहुत बड़ा अन्तर होना चाहिए-ऐसा विचार आ सकता है। किन्तु यह व्यवहार दृष्टि है । परमार्थ-दृष्टि में बात दूसरी होती है । जिनभद्र गणी के मतानुसार—'पुण्य फल तत्वतः दुःख है।'५ आचार्य भिक्षु ने कहा : शेष रह्या काम संसार ना, तिण कीधां बंधसी कर्म । बांछ मरणो जीवणो, ते धर्म तणो नहीं अंश । ए अनुकम्पा कियां थकां, वधे कर्म नो वंश । अनुकम्पा इहलोक री, कर्म तणो बंध होय। ज्ञान, दर्शन, चारित्र बिना, धर्म न जाणो कोय ॥" जिनभद्र गणी कहते हैं- 'परमार्थ दृष्टि में पुण्य-फल अशुभ-कर्म का जनक होने के कारण दुःख ही है।' यहां पहुंचने पर ऐसा लगता है कि दोनों विचारों का निष्कर्ष एक रेखा पर है। इसलिए शब्द की खींचातानी में हमें रस नहीं लेना चाहिए । हम जो तत्त्व देना चाहते हैं, उसे जिस शब्द से लोग सहजतया पकड़ सकें, उसी शब्द को प्रयोग में लाना चाहिए। मोह-दया आत्म-साधना से दूर ले जाती है-इस तत्त्व को पाप शब्द के द्वारा १. उत्तराध्ययन १०।१५ २. वही २११२४ ३. गीता २।५० : बुद्धियुक्तो जहातीह, उभे सुकृतदुष्कृते । ४. नव सद्भाव ३ ५. विशेषाकश्यक भाष्य : २००४-२००५ ६. अनुकम्पा चौपाई, ३।१, दोहा ७. वही, २।१, दोहा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १५१ लोग समझें तो पाप कहना चाहिए। लोक-धर्म, लौकिक पुण्य और सामाजिक कर्तव्य के द्वारा समझे तो इन्हें व्यवहृत करना चाहिए । हमें तत्त्व देने से मतलब है । लोगों को भड़काएं, यह हमारा उद्देश्य नहीं है। समय के साथ-साथ शब्द-प्रयोग बदलता रहता है। आचार्य तुलसी ने मोह-दया आदि सामाजिक प्रवृत्तियों के लिए लौकिक पुण्य, लोक-धर्म आदि शब्दों का प्रयोग कर तत्त्व-मीमांसा का मार्ग सरल कर डाला। लोग कहते हैं-आचार्य श्री ने दया-दान में परिवर्तन कर डाला। यह सही भी है और नहीं भी। कुनैन जैसी कड़वी दवा और विष भी आवश्यकतानुसार दिए जाते थे, अब भी दिए जाते हैं। अन्तर इतना आया है कि पहले सीधा दिया जाता था और आजकल चीनी-लिप्त दिया जाता है। इसे हम कह सकते हैं कि परिवर्तन हुआ है और नहीं भी हुआ। यही बात आचार्यश्री की तत्त्व-निरूपण पद्धति के लिए समझिए। तत्त्व मूल का है। उसे जिस रूप में सुलभतया ले सके, भाषा वैसी उठो और उठाओ-जागो और जगाओ आचार्य भिक्षु ने भगवान् महावीर की वाणी का सार समझाते हुए कहाव्रत धर्म है, अव्रत अधर्म । त्याग धर्म है, भोग अधर्म । संयम-जीवन धर्म है, असंयम-जीवन अधर्म । पंडित-मृत्यु धर्म है, बाल-मृत्यु अधर्म । वीतराग-भाव धर्म है, राग अधर्म । अद्वेष-भाव धर्म है, द्वेष अधर्म । उन्होंने बताया -'जीना और मरना आत्मा की अमरता के दो पहलू है । जीना-मरना धर्म नहीं है, धर्म त्याग है। असंयमी जीवन और असंयमी मृत्यु की इच्छा करना अधर्म है। संयमी जीवन का संयमानुकूल पोषण करना धर्म है । असंयमी जीवन का पोषण करना धर्म नहीं है।" ___ 'जो जीव अव्रती है, छह काय की हिंसा करने का जिसे सर्वथा त्याग नहीं है, उसका जीवन असंयमी है। जिसने सर्व सावद्य-सर्व हिंसा का त्याग कर दिया उसका जीवन संयमी है।'२ आचार्य भिक्षु की सूत्र-वाणी के आधार पर आचार्यश्री तुलसी ने कहा--उठो और उठाओ-जागो और जगाओ। आचार्यवर के शब्दों में 'जीओ और जीने १. अनुकम्पा चौपई ७६० २. वही ८।१७; १११४५, १२।७, ४२,६२, ६।३८ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अहिंसा तत्त्व दर्शन दो – यह सिद्धान्त पारमार्थिक नहीं है । इसमें सिर्फ अधिकार की ध्वनि है । जीना परमार्थ नहीं । परमार्थ है जीवन को संयममय बनाना । जीने दो यानी मत मारो । मारने का तुम्हें अधिकार नहीं है । किन्तु, परमार्थ इससे आगे बढ़ता है । यह वह है - मत मारो, वह तुम्हारा गुण है, तुम्हारी अहिंसा या दया है, तुम्हारा कल्याण है । इससे उनका क्या बना ? उन्हें संयम का तत्त्व समझाकर संयमी बनाओ । इसमें तुम्हारा और उनका दोनों का कल्याण है । इसलिए यही परम पुरुषार्थ है । जैन परम्परा के आरोह-अवरोह समय-चक्र के परिवर्तन के साथ धर्म - शासन में भी उतार-चढ़ाव आते हैं । धर्म का मौलिक रूप ह्रास से परे होता है, किन्तु उसके प्रकार की या अनुयायी वर्ग की सीमा का ह्रास या विकास होता रहता है । गहराई या मौलिकता की दृष्टि से धर्म का महत्त्व आंकने वाले विरले होते हैं । जन-साधारण अनुयायी वर्ग की संख्या के अनुसार धर्मं को बड़ा या छोटा मानते हैं। बाहरी मर्यादा में ऐसा भी होता है । अल्पसंख्यकों को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए बहुमत के सामने झुकना पड़ता है । इसके बाद कुमा विक्रम की सहस्राब्दी तक जैन-धर्म जनता का धर्म रहा। रिल, आचार्य शंकर आदि आदि वैदिक विद्वानों के इतने तीव्र प्रहार हुए कि वह सिमटता - सिमटता नाम मात्र का रह गया । वौद्ध धर्म के उत्कर्ष काल में जैन-धर्म में कुछ शिथिलता आयी । अहिंसा की सीमा में करुणा को घुसने का कुछ मौका मिला। फिर भी उस समय जैन प्रभुत्व भी शक्तिशाली था, इसलिए वह उससे अधिक प्रभावित नहीं हुआ । वैदिक विद्वानों का प्रहार श्रमण परम्परा की मुख्य दो शाखाओं - जैन और बौद्ध पर था । सांख्य, जो श्रमण परम्परा का ही एक अंग था, वह अर्द्धवैदिक बन गया । बौद्ध भारत से बाहर चले गए। जैन धर्म का अपनी विशेषताओं के कारण अस्तिस्व मिटा नहीं किन्तु इसके बाद धीरे-धीरे उसमें विकार घुसते गए । जर्मन विद्वान् प्रो० हेमल्ट ग्लजनेप ने 'जैनिज्म' नामक पुस्तक में इस विषय पर बड़ा सुन्दर प्रकाश डाला है । वे लिखते हैं- 'वैदिक यज्ञकाण्ड के पुनरुद्धारक कुमारिल ने और मायावाद, ब्रह्मवाद के स्थापक महान् शंकर ने वेद धर्म विरोधी जैन-धर्म के विरुद्ध अपने तमाम शास्त्रीय शस्त्रों के द्वारा युद्ध किया और यह युद्ध धीरे-धीरे ऐसा बलवान् हुआ कि जैन धर्म को नम्रीभूत हो जाना पड़ा । दक्षिण भारत में वैष्णव और शैव सम्प्रदाय ने जैन धर्म पर भयंकर प्रहार किया ।' 'हिन्दू धर्म की विशिष्ट कला के कारण जैन-धर्म के अनेक शिष्य उस धर्म में Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १५३ चले गए। इतना ही नहीं मगर अभी इसके जो शिष्य हैं, उनमें भी हिन्दू-धर्म के अनेक आचार-विचार प्रवेश कर गए हैं। इसी प्रकार से हिन्दू-धर्म के जिन देवीदेवताओं को जैनों में किंचित् मात्र भी स्थान नहीं था, उनमें उन देवी-देवताओं का प्रवेश हो गया । वेदान्त के प्रभाव से अनेक पारिभाषिक शब्द भी जैन - साहित्य में घुस गए हैं । भावनाओं और सामाजिक जीवन में भी जैन लोग हिन्दू-भाव स्वीकार करते जा रहे हैं ।' भगवान् महावीर ने जातिवाद का घोर विरोध किया । आचारांग और सूत्रकृतांग में जाति के मिथ्या अभिमान को चूर करने वाली उक्तियां भरी पड़ी हैं । फिर भी आज के बहुसंख्यक जैन जातिवाद को अपनी बपौती की वस्तु माने बैठे हैं | श्वेताम्बर और दिगम्बर के आचार्य जातिवाद के खण्डन में प्रकरण के प्रकरण लिख चले । उन्हीं के अनुज जातिवाद के पोषक बन गए और जैन - साहित्य में स्पृश्य-अस्पृश्य की व्यवस्था भी घुस आयी । ' 'श्रद्धा, तर्पण, गोमय लेपन, शुद्धि का अतिरेक आदि के विचार जैन परम्परा में घुस आए और उनसे वह विकृत बन गई ।' जैन आगमों की टीकाएं भी मूलस्पर्शी नहीं रही हैं जैसा कि पं० बेचरदास ने लिखा है— 'हूं, सूत्रों नी टीकाओं सारी रीते जोइ गयो छू, परन्तु तेमां मने घणे ठेकाणे मूल नूं मूसल करवा जेवुं लाग्युं छै । उत्तरवर्ती साहित्य में तो बहुत ही विकार आया। जैन परम्परा का मूल रूप ढूंढ निकालना कठिन हो गया। परम्परा के विकारों के संकेत हमें पुरानी गाथाओं में भी मिलते हैं । एक आचार्य ने लिखा है- ' पण्डितैर्भ्रष्टचारित्रः, बठरैश्च तपोधनैः । शासनं जिन चंद्रस्य, निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ - 'चरित्र - भ्रष्ट पंडितों ने जैन-शासन को मलिन बना डाला ।' इसी प्रकार संचपट्टक की प्रस्तावना में अभयदेव सूरि का मत दर्शाते हुए प्रस्तावना - लेखक ने लिखा है - "आवी रीते वीर प्रभु थी एक हजार वर्ष पर्यन्त सरखी परम्पराए तेवा साधुओं नो सीधो कारभार चालू रह्यो – छतां भगवान् थी आठ सौ पचास वर्षे थोड़ाक यतियोए वीर प्रभु ना शासन थी बे दरकार बनी उग्र विहार छोड़ी चैत्यवास नी शुरूआत करी हती । पण मुख्य भाग तो वसतिवासीज रह्यो हतो अने ते भाग मां अग्रसर तरीके ओलखाता देवद्धिगणी क्षमाश्रमणे भाग १. महापुराण १६।१८६ २. जैन साहित्य मां विकार थवा थी थयेली हानि, पृ० १२३ ३. ग्रन्थ परीक्षा १, भाग ३, ले० जुगलकिशोर मुख्त्यार Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अहिंसा तत्त्व दर्शन वान् श्री १८० मां वर्षे बल्लभीपुर मां संघ ने एकत्रित करी जैन सूत्रों ने पुस्तकारूढ़ कर्या छ । सद्गुरुदेवद्धिगणी भगवान् श्री १००० वर्ष स्वर्गवासी थया अने ते साथ खरूं जिन-शासन गुम थई तेना स्थान चैत्यवासिओए पोताना दोर अने जोर चलाववा मांड्यो। आ माटे नवांगी वृत्तिकार, श्री अभयदेव सूरि 'आगम अढोतरी' नाम ना ग्रन्थ मां नीचे ती गाथा आपे छेके देवढिखमासमणजा, परंपरं भावओ वियाणेमि । . सिढिलाचारे ठविया, दव्वेण परंपरा बहुहा ॥ -देवद्धि क्षमाश्रमण सुधी भाव-परम्परा हं जाणुं छु, बाकी ते पछी तो शिथिलाचारिरओए अनेक प्रकारे द्रव्य-परम्परा स्थापित करी छ । आ रीते भगवान् थी ८५० वर्षे चैत्यवास स्थापयो तो पण तेनं खरेखरूं जो वीर प्रभु थी हजार वर्ष बीत्या केड़े वधवा मांड्यु। आ अरसा मां चैत्यवास ने सिद्ध करवा माटे आगम ना प्रतिपक्ष तरीके निगमना नाम तले उपनिषदों ना ग्रन्थों गुप्त रीते रचव। मां आव्या अने तेओ दृष्टिवाद नाम ना बारमा अंग ना त्रटेला ककड़ा छे एम लोको ने समाजवमां आव्यं । ए ग्रन्थों मां एवं स्थापन करवा मां आव्युं छे के आज काल ना साधुओ ए चैत्य मां वास करवो वाजबी छे तेमज तेमणे पुस्तकादि ना जरूरी काम मां खपलागे माटे यथायोग्य पैसा टका पण संघखा जोइये । इत्यादिक अनेक शिथिलाचार नी ते ओ ए हिमायत करवा भांडी अने जे थोड़ा घणा वसतिबासी मुनिओ रह्या हता तेमनी अनेक रीते अवगणना करवा मांडी।" ___इस विकार-काल में प्रवर्तक-धर्म की पुण्यस्कन्ध वाली विचारधारा जैनसाहित्य में प्रवाहित हुई-ऐसा अनुमान करना दुरूह नहीं है। जैन-धर्म का आधार जैन-धर्म केवल मोक्ष के साधन के रूप में प्रतिष्ठित है। वह समाज का नियमन या व्यवस्था नहीं करता। जैन के प्रामाणिक आगम-सूत्रों में समाज-व्यवस्था का कोई नियम नहीं मिलता। समाज की परिवर्तनशील धारणा या स्थिति में अपरिवर्तनशील सत्य के नियामक धर्म को उलझाना भी नहीं चाहिए । धर्म के शाश्वतिक रूप के साथ-साथ समाज की अशाश्वत धारणाएं पलती हैं, इससे रूढ़िवाद का जन्म होता है। देश-काल के अनुसार समाज की स्थितियों में परिवर्तन वांछनीय माना जाता है किन्तु धर्म की तरह सामाजिक संस्कारों की जड़ जम जाए तब उन्हें उखाड़ फेंकना सहज नहीं रहता। - जैन-धर्म आत्म-धर्म के रूप में प्रतिष्ठित बना और है, इसीलिए वह सामा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दशन जिक संगठन की मजबूत नींव नहीं डाल सका। इस्लाम-धर्म में विश्वास करने वाला जैन जैसे मुसलमान जाति के रूप में बदल जाता है, वैसे जैन-धर्म में विश्वास रखने वाले को जैन जाति के रूप में बदलना जरूरी नहीं होता। वैदिक धर्म में समाजव्यवस्था का पूरा स्थान है। इसलिए सामाजिक प्राणी के लिए वह अधिक आकर्षक है। जैन-धर्म समाज की व्यवस्था से सम्बन्ध जोड़कर चल भी नहीं सकता और न चलना चाहता भी है। क्योंकि इससे उसका धार्मिक रूप नष्ट होकर वह केवल समाज-व्यवस्था का नियामक मात्र रह जाता है। जैन-धर्म की आत्यन्तिक आध्यात्मिकता का कारण है--उसकी अहिंसा वति । वह धर्म के क्षेत्र में अहिंसा को ही एकमात्र परम तत्त्व मानकर चलता है। करुणा का क्षेत्र सामाजिक है। निषेधक रूप में करुणा धर्म से जुड़ी हुई है। जैसे-न मारना, न सताना, पशुओं पर अधिक भार न लादना, खान-पान में अन्तराय न डालना आदि-आदि । विधायक रूप में करुणा की कड़ी धर्म से जुड़ी हुई है भी और नहीं भी। आत्मा की पापमूलक प्रवृत्तियों को मिटाने के लिए जो रागहीन करुणा पैदा होती है, वह धर्म है । प्राणी की दुःख-दुविधाओं को मिटाने के लिए जो रागमय करुणा पैदा होती है, वह धर्म नहीं; समाज का उपयोगी, धारक या पोषक तत्त्व है। हिंसक या क्रूर समाज की अपेक्षा अहिंसक या कोमल भावना वाले समाज में करुणा का विकास अधिक होता है और ऐसा हुआ भी है। करुणा के इस सतत प्रवाही विकास ने जैन-धर्म की मौलिकता में विकार ला दिया। कालक्रम के अनुसार यह पुण्य और धर्म माना जाने लगा। जैन-विचार संयम पर विकसित हुए हैं। उनमें व्यक्ति, जाति या स्थिति की विशेषता नहीं है। जन्मना जाति के समर्थकों ने आर्द्र कुमार से कहा-'दो हजार स्नातकों को जिमाने वाला महान् पुण्य-स्कन्ध का उपचय कर स्वर्ग जाता है-यह वेदवाक्य है।' यह सुनकर आर्द्र कुमार बोले-'असंयमी ब्राह्मणों को जिमाने वाला नरक में जाता है।' __इसका यह अर्थ नहीं कि असंयमी को जिमाने वाला नरक में ही जाता है। इस तत्त्व को कटु-सत्य के रूप में रखा गया है। तत्त्व इतना ही है कि यह मोक्षधर्म या पुण्य का मार्ग नहीं है। विचार-परिवर्तन __ एक ओर जैन आगम उक्त विचारधारा देते हैं। दूसरी ओर उत्तरवर्ती जैन-. १. सूत्रकृतांग ३।४।६७ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अहिंसा तत्त्व दर्शन ग्रन्थ इसके विरुद्ध उनका समर्थन करते हैं, जिसका भगवान् महावीर ने प्रचुरविरोध किया। पुण्य-स्कन्ध का जो विचार ब्राह्मण परम्परा का अंग रहा, वही जैन-परम्परा में ऐसे आ घुसा कि आज मौलिक विचार तक पहुंचना कठिन हो रहा है । जैन-धर्म के उत्कर्ष में जैसे अहिंसा, तपस्या और अकिंचनता के विचारों ने जैनेतर धर्मों को प्रभावित किया, जिसे लोकमान्य तिलक जैसे विद्वानों ने भी स्वीकार किया है, वैसे ही वैदिक धर्म के उत्कर्ष में वैदिक विचारों ने जैन-धर्म पर प्रभाव डाला। उदाहरण के रूप में जातिवाद को लीजिए। भगवान् महावीर जन्मना जाति के विरुद्ध होने वाली क्रान्ति के मुख्य उन्नायक थे। सूत्रकृतांग, जो भगवान् महावीर के दार्शनिक दष्टिबिन्दु का प्रतिनिधि सूत्र है, में जातिवाद पर मार्मिक प्रहार किया गया। वीर-निर्वाण की अनेक शताब्दियों तक जैन-परम्परा जातिवाद से मुक्त रही, इसके खण्डन में बड़े-बड़े ग्रन्थों के पृष्ठ लिखे पड़े हैं। आगे चलकर स्थिति बदल गई। जैन-धर्म के अपकर्ष-काल में जातिवाद उस पर छा गया। आज जैनों के लिए यह समझना कठिन हो रहा है कि उनके महान् तीर्थंकर भगवान् महावीर जातिवाद के विरोधी थे। वही दशा पुण्य-स्कन्ध के विचार की है। सूत्रकृतांग जिसे पुण्य मानने का निषेध करता है, उसे आज बहुत से जैन पोषण दे रहे हैं। पड़ोसी धर्मों का एक-दूसरे पर असर होता है और अपने-अपने प्रभाव-काल में वे दूसरों पर अधिक असर डालते हैं-यह अस्वाभाविक नहीं। समन्वय की मनोवृत्ति के कारण कुछ जैनाचार्यों ने शाब्दिक समन्वय साधा तो कुछ ने व्यावहारिक रूप भी बदल डाला । जैनाचार्यों ने श्राद्ध को तत्त्वतः स्वीकार नहीं किया। शाब्दिक रूप में उसे जैन-साहित्य में स्थान मिला। अमितगतिश्रावकाचार में श्राद्ध की व्याख्या मिलती है। इसी प्रकार तर्पण का भी समन्वय किया गया। यह हमें नीतिवाक्यामृत' और यशस्तिलकचंपू में मिलता है। यह शाब्दिक समन्वय है। इनमें तत्त्व नहीं बदला । तत्त्व-विकार के कुछ नमूने देखिए--जो जैन-धर्म अपरिग्रह की मर्यादा को मुख्य मानकर चलता है, उसका एक अनुयायी भी यह विचार रखे कि सोने, चांदी, मूंगे और मोती की माला से जप करने से हजार उपवास जितना फल होता है। १. सूत्रकृतांग १।१।३१७,८,१०,११,१६; १।६।२७,२०३ २. नीतिवाक्यामृत पत्र २८९ ३. वही; पत्र २८६ ४. यशस्तिलकचम्पू, पत्र १०८ ५. भाव-संग्रह, देवसेनसूरि : सुवर्णरौप्यविद्व म-मौक्तिका जपमालिका। उपवाससहस्राणां, फलं यच्छन्ति जन्तवः।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अंगूठे पर जप करने से मोक्ष मिलता है; तर्जनी पर जप किया जाए तो उपचार सही होता है; मध्यमा-जप से धन-सुख आदि मिलते हैं। अनामिका जप से शान्ति होती है। अन्त्यजों द्वारा खोदे हुए कुएं, बावड़ी, पोखरणी, तालाब आदि का पानी स्नान-पान के लिए नहीं लेना चाहिए। __ व्रत-भ्रष्ट व्यक्ति और अन्त्यज व्यक्ति के दीखने पर, उनकी वाणी सुनने पर, छींक आने पर, अधोवात होने पर जप छोड़ देना चाहिए।' उक्त धारणाएं विकार हैं और वे जैनतत्त्व की नींव पर प्रहार करने वाली हैं। ये सब तान्त्रिक और ब्राह्मण-परम्परा के प्रभाव की प्रतिरेखाएं हैं। आचार्य हरिभद्र का दानाष्टक बढ़ती हुई दान की प्रवृत्ति का वास्तविक चित्र उपस्थित करता है। उसमें भगवान् महावीर को महात्मा बुद्ध से इसलिए महान् बताया है कि उन्होंने दीक्षा के पूर्व अधिक दान दिया था। पौराणिक युग में अर्थवाद की सीमा ने यथार्थवाद पर परदा डाल दिया। धार्मिक लोगों ने अपने-अपने पूज्य देवों के लिए इतनी लम्बी-चौड़ी कल्पनाएं गढ़ीं कि उनसे उनका यथार्थ जीवन ढंक गया। देव, गुरु और धर्म की महत्ता का मानदण्ड अतिशयोक्तियां बन गईं। जैन पुराणों में भगवान् शान्तिनाथ के पूर्व-जन्मों का विवरण दिया है। उनमें उनके तीर्थंकर-गोत्र बंधने की जो प्रवत्ति उल्लिखित की है, वह करुणा की ओर जैनों के झुकाव का संकेत देती है। बाज से कबूतर को छुड़ाने के लिए राजा ने अपना मांस दिया। उस कर्म से वे तीर्थंकर बने-ऐसा लिखा गया। सही स्थिति में यह महाभारत की शिवि द्वारा अपना मांस देने की प्रसिद्ध कथा का अनुकरण है और यह लोकाकर्षण के लिए किया गया है। इसमें संदेह का अवकाश नहीं । बौद्धों में भी बुद्ध की जीवन-घटनाओं में ऐसी घटना जुड़ी १. धर्मरसिक : अंगुष्ठजापो मोक्षाय, उपाचारे तु तर्जनी। मध्यमा धनसौख्याय, शान्त्यर्थं तु अनामिका ॥ २. धर्मरसिक ३१५६ : अन्त्यजः खनिताः कूपा, वापी पुष्करिणी सरः । तेषां जलं न तु ग्राह्य, स्नानपानाय च क्वचित् ।। ३. धर्मरसिक ३३ : व्रतच्युतान्त्यजातीनां, दर्शने भाषणे श्रुते । क्षुतेऽधोवातगमने, भणे जपमुत्सृजेत् ॥ ४. महाभारत वनपर्व Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अहिंसा तत्त्व दर्शन है । बौद्ध, वैदिक और जैन इन तीनों के पौराणिक चरित्रों में ऐसी अनेक बातें हैं, जिनका आपस में आदान-प्रदान हुआ है । मांस-दान की घटना जैन-धर्म की मौलिक मान्यता नहीं है । इसकी पुष्टि के लिए दूसरा प्रमाण लीजिए । एक और जैन परम्परा के पौराणिक आचार्य मांसदान की प्रवृत्ति को तीर्थंकर बनने का हेतु मानते हैं, दूसरी ओर दार्शनिक आचार्य महात्मा बुद्ध को कोसते हैं | आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं' - ' स्वमांसदानेन वृथा कृपालु : ' - यह आपेक्ष बुद्ध की मांस देने की प्रवृत्ति पर किया गया । इसी का विस्तृत रूप उनकी दूसरी रचना 'योगशास्त्र' (२1१ ) में मिलता है : निपत्य ददतो व्याघ्रयाः स्वकायं कृमिसंकुलम् । देयादेयविमूढस्य, दयाबुद्धस्य कीदृशी ॥ 'देय और अदेय का विवेक रखे बिना बुद्ध ने बाघिन को अपना मांस खिलाया वह कैसी दया ?" आचार्य सिद्धसेन ने भी यही जताया है : कृपां वहन्तः कृपणेषु जन्तुषु, स्वमांसदानेष्वपि मुक्तचेतसः । त्वदीयमप्राप्य कृतार्थ कौशलं, स्वतः कृपां सज्जनयन्त्यमेधसः । दूसरी बात यह है कि जैन आचार्य किसी भी स्थिति में मांस-दान को अनुचित मानते रहे हैं । जैसे : न य अगणियमहुदाणं, सु कथए समयपडिसेहा । इसी के आगे 'तथाहि' और 'अन्यत्राप्युक्त' इनके द्वारा दो गाथाएं उद्धृत की हैं : तथाहि : महुमज्ज मंस मूल, भेसज्ज सत्यग्गिजंतमंताई । न कथा विहु कायत्वा, सड्ढेहिं पापभीरुहि ॥ अन्यत्राप्युक्त : न ग्राह्याणि न देयानि पंचद्रव्याणि पंडितैः । 1 अग्निविषं तथा शस्त्रं, मद्यं मांसं च पंचमम् ॥ इनका तात्पर्य यही है कि श्रावक को अग्नि, विष, शस्त्र, मद्य- मांस आदि का दान नहीं देना चाहिए । अब कुछ विचार करिए। यदि मांस-दान से मेघवाहन तीर्थंकर बनने की क्षमता पैदा करता है, तब महात्मा बुद्ध की मांस-दान की प्रवृत्ति की निन्दा १. अयोगव्यवच्छेदिका ६ २. धर्मरत्न प्रकरण, विमल कथा १३ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १५६ क्यों? और यदि मांस-दान से मेघवाहन तीर्थंकर बना तो किसी भी स्थिति में मांस देने का निषेध क्यों ? परन्तु इन विरोधी प्रवृत्तियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह स्थिति अन्तर्द्वन्द्वका परिणाम है। एक ओर जैन-परम्परा मोहजन्य करुणा को धर्म साधना नहीं मानती थी, दूसरी ओर उसे धर्म मानने वालों का संख्या-बल प्रबल हो चुका था। जैन इन दोनों स्थितियों के बीच में थे। उनकी आन्तरिक श्रद्धा मोहजन्य प्रवृत्तियों (राग की परिणितियों) को धर्म मानने से इनकार करती थी और जनमत उन्हें इस ओर खींच रहा था । फलतः प्रारम्भ में वे कुछ झुके। उन्होंने अनुकम्पा-कृत कार्यों को अनिषिद्ध बताया। इसकी चर्चा हमें अनुकम्पा दान का भगवान् ने निषेध नहीं किया। इस रूप में अनेक ग्रन्थों में मिलती है। आगे चलकर यह पुण्य-स्कन्ध के रूप में प्रतिष्ठित हो गया । वर्तमान में कई जैन इसे धर्म-मोक्ष-साधना भी कहने लगे हैं। जैन-धर्म आत्म-धर्म के सिवा और कुछ नहीं। सामाजिक प्राणी को व्यवहारधर्म चाहिए। वैदिक विद्वानों ने इस पहल को मुख्य बनाकर पूरा लाभ उठाया। जैनों को अपनी ओर खींचने लगे । दूसरे उन्होंने भक्ति-मार्ग का ऐसा स्रोत बहाया कि जनता उसमें बह चली । त्याग-तपस्यामूलक कठोर जैन-धर्म जनता से परे हो चला । जैन-आचार्य इस स्थिति से लड़ते रहे। आखिर उन्हें स्थिति से समझौता भी करना पड़ा । उसका संकेत हमें एक प्राचीन श्लोक में मिलता है। वैदिको व्यहर्तव्यः, ध्यातव्यः परमः शिवः ।। श्रोतव्यः सौगतो धर्मः, कर्तव्यः पुनरार्हतः ।। 'व्यवहार वैदिक धर्म का पालन करना चाहिए, ध्यान शैव पद्धति से करना चाहिए, बौद्ध-धर्म सुनना चाहिए और जैन-धर्म की आराधना करनी चाहिए।' सोमदेव सूरि ने लिखा है : सर्व एवहि जैनानां, प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानि न, यत्र न व्रतदूषणम् ।। यह उसी स्थिति में लिखा गया है, जब जैनों पर दूसरे लोग यह आक्षेप करते कि ये व्यवहार को मानकर नहीं चलते। उन्होंने बताया कि जैन श्रावकों को वे सब लौकिक विधियां मान्य हैं, जिनसे सम्यक्त्व और व्रत में दोष न लगे। उपाध्याय समयसुन्दर जी ने 'विशेष शतक' में हरिभद्र सूरि की 'आवश्यक वृहद्वृत्ति' का उल्लेख करते हुए बताया है कि श्रावक अन्य-दर्शनी को धर्म-बुद्धि से दान दे तो सम्यक्त्व में दोष लगता है। अनुकम्पा-बुद्धि से दे तो वह दूसरी बात है । उसका निषेध नहीं है। आगे चलते-चलते एक श्लोक उद्धृत किया है, उसका अर्थ है-'पात्र और अपात्र का विचार सिर्फ मोक्ष-दान के प्रसंग में होता है । दयादान का कहीं भी निषेध नहीं है। जगह-जगह यह लिखा गया है कि अनुकम्पा दान Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अहिंसा तत्त्व दर्शन या दया-दान का निषेध नहीं है। इससे यह जान पड़ता है कि जैन-आचार्यों ने इसे रक्षा-सूत्र के रूप में बरता है। इसके द्वारा उन्होंने लोक व्यवहार उठाने के आरोप का समाधान किया, तीर्थंकरों ने करुणा-दान या मोह-दया-जो व्यावहारिक प्रवृत्तियां हैं, में पुण्य है-यह नहीं बताया। व्यवहार से लड़ते-लड़ते भी उन्होंने तत्त्व को यकायक नहीं बदला-यह मध्यवर्ती साहित्य के मनन से स्पष्ट होता है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन की समग्र दृष्टि और हिंसा-अहिंसा विविध मान्यताओं के कारण धारणाएं संकुल बन जाती हैं-यह संस्कारप्रधान-वृत्ति है । जैन-दर्शन के विविध अंग गुण-स्थान, कर्मशास्त्रक्रियावाद, साधनाविधान आदि-आदि सभी का सार एक है-'अहिंसा या विरति मुक्ति-मार्ग है और हिंसा या अविरति संसार-मार्ग।' प्रत्याख्यान मोह का क्षयोपशम होने पर भी पांचवें गुण-स्थान वाले व्यक्ति का जीवन देश-विरति होता है। वह कुछ विरत होता है, शेष अविरत रहता है। वह जो विरत-अविरत है यह तो स्थिति है।' इसका विवेक यह है, जितनी विरति उतना धर्म-पक्ष और जितनी अविरति उतना अधर्म पक्ष, इसलिए देश-विरति को सुप्त-जागृत, धर्माधर्मी, बाल-पंडित कहा जाता है। ये (बाल, पंडित आदि) जीवन के दो पक्ष हैं, किन्तु मिश्रण नहीं। विरतिअविरति-दोनों एक जीवन में होते हैं, किन्तु उनका स्वरूप एक नहीं होता। विरति की अपेक्षा व्यक्ति धर्मी और पंडित होता है और अविरति की अपेक्षा अधर्मी और बाल। यह संकुलता आधार की है, अध्यवसाय या प्रवृत्ति की नहीं। मनुष्य हिंसक-अहिंसक दोनों होता है, इसे कौन अस्वीकार करता है ? अस्वीकार इस बात का है कि हिंसा-अहिंसा का स्वरूप और उनकी कारण-सामग्री एक नहीं हो सकती । साधना-काल में पाप और पुण्य दोनों हो सकते हैं किन्तु साधना में पुण्य और पाप दोनों नहीं होते। तात्पर्य की भाषा में साधना का अर्थ है-विरति। विरति से पाप-बन्ध नहीं होता। प्रकारान्तर से ऐसे कहा जा सकता है कि विरति होती है, उसी से पाप-बन्ध रुकता है। अविरति जो शेष रहती है, उससे पाप का बन्ध नहीं रुकता। इसकी चर्चा भगवान् महावीर की वाणी में इस प्रकार है : १. भगवती १६।६; १७।२ २. सूत्रकृतांग २।२।३२ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अहिंसा तत्त्व दर्शन गौतम ने पूछा- भगवन् ! बाल-पंडित मनुष्य क्या नैरयिक का आयुष्य बांधता है ? यावत् देवता का ? भगवान् ने कहा—गौतम ! वह नैरयिक का आयुष्य नहीं बांधता, देवता का बांधता है। गौतम-भगवन् ! इसका क्या कारण है ? भगवान्-गौतम ! बाल-पंडित मनुष्य तथारूप श्रमण-ब्राह्मण से आर्य-धर्म का वचन सुनकर कुछेक हिंसा आदि से विरत होता, कुछेक से नहीं होता। कुछेक हिंसा आदि का प्रत्याख्यान करता है, कुछेक का नहीं करता। इसलिए वह देश-विरति होता है। वह कुछेक हिंसा आदि का प्रत्याख्यान करता है, उसी देश-प्रत्याख्यान के कारण वह नैरयिक का आयुष्य नहीं बांधता, यावत् देव-आयुष्य बांधता है। ____ अप्रत्याख्यान-मोह का क्षयोपशम होने पर सर्व-विरति होता है । यह साधुजीवन है। यह हिंसा-अहिंसा-संकुल नहीं है। इसमें भी प्रमाद-जनित हिंसा हो सकती है। अविरति की हिंसा, जो पांचवें गुण-स्थान तक सतत प्रवाहित रहती है और जीवन को निरन्तर हिंसा-संकुल बनाए रखती है, वह इसके नहीं होती। इसीलिए संयमी या सविरति के जीवन-निर्वाह के साधन संयममय होते हैं। अविरति या देश-विरति के जीवन-निर्वाह के साधन उस कोटि में नहीं आते। समूचे प्रपंच का सार दो शब्दों में है-वस्तु-वृत्ति के स्वरूप-भेद और काल-भेद की अपेक्षा एक व्यक्ति का जीवन हिंसा-अहिंसा-संकुल हो सकता है, किन्तु हिंसाअहिंसा, अविरति-विरति, पाप-पुण्य की कारक शक्ति संकुल नहीं हो सकती।। बड़ी हिंसा को छोड़ छोटी हिंसा को करना—यह साधना का मार्ग नहीं है। साधना का अंश उतना ही है, जितना कि हिंसा का परित्याग। शेष जो हिंसा है, वह साधना नहीं है। हिंसा का अल्पीकरण होते-होते साधना का क्रम आगे बढ़ता है। आवश्यकता का बन्धन शिथिल होते-होते एक दिन चरम या परम कोटि की साधना प्राप्त हो जाती है। फिर संसार शेष नहीं रहता। सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने इसे कथंचित् आर्य और पारम्पर्य रूप में सब दुःख के क्षय का मार्ग और एकान्त सम्यक्त्व बतलाया है। हिंसा और अहिंसा का विवेक गुण-स्थान के आधार पर हिंसा और अहिंसा का विवेक कर लेना अच्छा होगा। यह सही है-वास्तविक हिंसा आत्म-दोष-जनित होती है। व्यावहारिक १. भगवती १८ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १६३ और वास्तविक, दोनों कोटि की हिंसा की निवृत्ति अयोगी-दशा (चतुर्दश गुणस्थान्) में होती है। वीतराग के शेष तीन गुण-स्थानों में व्यावहारिक यानी काययोग-जनित हिसा हो सकती है, वास्तविक नहीं। अवीतराग गुण-स्थानों (सातवें से दसवें तक) में कषायांशजनित अन्तर्-परिणति रूप हिंसा होती है। छठे में प्रमाद-जीवन अशुभ योग रूप हिंसा हो सकती है, अविरतिजनित हिंसा नहीं। शेष पांचों में प्रमाद-जनित हिंसा कादाचित्क होती है और अविरति रूप हिंसा नैरन्तरिक। छठे गुणस्थान वाले मुनि अविरति रूप हिंसा-निवृत्ति की दृष्टि से ही अहिंसक हैं। प्रमाद-जनित हिंसा की दृष्टि से वे कदाचित् हिंसक भी हो सकते हैं। भगवती सूत्र का एक प्रकरण देखिए : गौतम ने पूछा-भगवन् ! जीव क्या आत्मारम्भ-आत्म-हिंसक है या परारम्भ-परहिंसक या उभयारम्भ-उभयहिंसक या अनारम्भ-अहिंसक? भगवान्-गौतम ! जीव आत्मारम्भ भी होते हैं, परारम्भ भी, उभयारम्भ भी और अनारम्भ भी। __ गौतम-भगवन् ! वह कैसे ? भगवान् गौतम ! जीव दो प्रकार के होते हैं—संसारी और सिद्ध । सिद्ध अनारम्भ होते हैं। संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं-संयत और असंयत । संयत दो प्रकार के होते हैं--प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत। अप्रमत्तसंयत अनारम्भ होते हैं। प्रमत्त-संयत शुभ योग की अपेक्षा अनारम्भ होते हैं और अशुभ योग की अपेक्षा आत्मारम्भ, परारम्भ और उभयारम्भ-तीनों होते हैं, अनारम्भ नहीं होते। असंयत अविरति की अपेक्षा आत्मारम्भ, परारम्भ और उभयारम्भ होते हैं, अनारम्भ नहीं होते। साधु और गृहस्थ में इतना अन्तर हैगृहस्थ अविरति की अपेक्षा सदा सर्वथा हिंसक होता है, उस स्थिति में छठे गुणस्थान का अधिकारी कदाचित् प्रमाद-काल में ही हिंसक होता है, शेष काल में नहीं। पुण्य और धर्म स्वरूप-भेद पुण्य धर्म से नहीं होता। पाप जैसे अधर्म से जुड़ा हुआ है, वैसे पुण्य धर्म से जुड़ा हुआ नहीं है। जहां अधर्म, वहां पाप-बन्ध-जैसी व्याप्ति है। पुण्य की धर्म के साथ एकान्त-व्याप्ति नहीं है। धर्म के दो क्रम हैं -संवर और निर्जरा। संवर से कर्म मात्र का निरोध होता है। निर्जरा के साथ पुण्य का थोड़ा-सा लगाव है। निर्जरा से पुण्य नहीं होता। वह निर्जरा का सहचारी है। निर्जरा होती है, वहां पुण्य-बन्ध होता है, वह भी एकान्ततः नहीं। सर्वनिर्जरा (चतुर्दश-गुणस्थान की Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अहिंसा तत्त्व दर्शन निर्जरा) के समय वह नहीं होता। वह देश निर्जरा के साथ आता है। पुण्य के साथ निर्जरा की व्याप्ति है, निर्जरा के साथ पूण्य की व्याप्ति नहीं है। जहां पुण्य-बन्ध है, वहां निर्जरा अवश्य है। किन्तु जहां निर्जरा है, वहां पुण्य-बन्ध है भी और नहीं भी। अधर्म के सहज रूप चार हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद तथा कषाय। ये चार पाप के हेतु हैं। धर्म के सहज रूप पांच हैं—सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय तथा अयोग। ये पांच पाप और पुण्य दोनों के हेतु नहीं हैं। जीव की एक दशा और बाकी है। वह है योग । विवाद-स्थल यही है। मन, वाणी और शरीर के प्रयत्न मात्र की समष्टि संज्ञा योग है। योग अपने आप में शुभ-अशुभ कुछ भी नहीं है। चार आस्रवों से अनुगत होता है, तब वह अशुभ हो जाता है और सम्यक्त्व आदि से अनुगत होता है, तब शुभ। कर्म-शास्त्र की भाषा में मोह के उदय से प्रेरित हो प्रवर्तने वाला (औदयिक) वीर्य अशुभ और मोह के क्षयोपशम से प्रेरित हो प्रवर्तने वाला (क्षायोपशमिकादि) वीर्य शुभ । शुभ योग से निर्जरा होती है। निर्जरा के समय होने वाला बन्ध पाप का नहीं होता। आत्मा की प्रवृत्ति, स्पन्दन या एजन है, वहां बन्ध अवश्य होता है। किन्तु पुण्य-पाप दोनों का बन्ध एक साथ नहीं होता, सहज रूप से बंधने वाले पाप के साथ-साथ पुण्य भी बंधता है, यह दूसरी बात है। चार आस्रव का पाप-बन्ध निरंतर और सहज होता है। अशुभ योग से बंधने वाला पाप निरन्तर नहीं होता। सहज भी नहीं। वह अशुभ प्रयत्न होने पर ही बंधता है । पुण्य निरन्तर और सहज भाव से नहीं बंधता। उसका बन्ध शुभ प्रयत्न से ही होता है। पुण्य बन्ध होता है, उस समय भी सहज भाव से पूर्ववर्ती चार आस्रव द्वारा पाप बन्ध होता रहता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि पुण्य और पाप एक साथ भी होते हैं किन्तु प्रवृत्ति रूप में पुण्य-पाप का बन्ध एक साथ नहीं होता। कारण साफ है। प्रवृत्ति रूप पुण्य-पाप के हेतु शुभ-अशुभ योग हैं। वे दोनों एक साथ नहीं होते। योग शुभ या अशुभ होता है, मिश्र नहीं।२ अध्यवसाय की दो ही राशि हैं-१. शुभ २. अशुभ । तीसरी राशि नहीं है। क्रिया दो प्रकार की होती है- सम्यक् और असम्यक् । उसका मिश्र रूप नहीं होता । गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा : १. (क) आवश्यक चूणि २; (ख) नव सद्भाव पदार्थ निर्णय ११६६ २. विशेषावश्यक भाष्य ११३५ : सुभो वाऽसुभोवा सएण समयम्मि। ३. विशेषावश्यक भाष्यवृत्ति ११३६ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन __ भगवन् ! अन्य तीथिक ऐसा कहते हैं, प्रज्ञापना और प्ररूपणा करते हैंएक जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है। वे दो क्रियाएं हैं-सम्यक् और मिथ्या। जिस समय सम्यक क्रिया करता है, उस समय मिथ्या भी करता है और जिस समय मिथ्या क्रिया करता है, उस समय सम्यक् क्रिया भी करता है। सम्यक् क्रिया करने के द्वारा मिथ्या क्रिया करता है और मिथ्या क्रिया करने के द्वारा सम्यक् क्रिया करता है। इस प्रकार एक जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है। यह कैसे, भगवन् ? __ भगवान् ने कहा--गौतम ! एक जीव एक समय दो क्रियाएं करता है, यह जो कहा जाता है, वह सच नहीं है। मैं इस प्रकार कहता हूं, प्रज्ञापना और प्ररूपणा करता हूं, एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है-सम्यक् या मिथ्या। जिस समय सम्यक् क्रिया करता है, उस समय मिथ्या क्रिया नहीं करता और जिस समय मिथ्या क्रिया करता है, उस समय सम्यक् क्रिया नहीं करता। सम्यक् क्रिया करने के द्वारा मिथ्या क्रिया नहीं करता और मिथ्या क्रिया करने के द्वारा सम्यक् क्रिया नहीं करता। इस प्रकार एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है-सम्यक् या मिथ्या। मन, वचन और काय का व्यायाम एक समय में एक ही प्रकार का होता है। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम भी एक समय में एक ही होता है। ___कर्मशास्त्र की दृष्टि से भी एक समय में एक ही प्रकार का अध्यवसाय होता है। उदाहरण के लिए वेदनीय कर्म को लीजिए, उसकी दो प्रकृतियां हैं -सात और असात। उसका बंध सात, असात-इन दो ही प्रकृतियों के रूप में होता है। सातासात जैसी मिश्र प्रकृति का बन्ध नहीं होता। गौतम ने पूछा-भगवन् ! जीव सात वेदनीय कर्म करते हैं ? भगवान्– हां, गौतम ! करते हैं। गौतम-भगवन् ! जीव असात वेदनीय कर्म करते हैं ? भगवान् - हां, गौतम ! करते हैं। कर्म-ग्रन्थ भी यही बताता है-वेदनीय की एक समय में एक ही प्रकृति बंधती है।" १. जीवाभिगम ३।२।१०४ २. स्थानांग १ ३. वही, १ ४. भगवती ७।६।२८६ ५. कर्मग्रन्थ ५८१ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अहिंसा तत्त्व दर्शन सात और असात-ये दोनों अध्रुवबंधी और अधू वोदयी प्रकृतियां हैं। ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, इसलिए इनका एक साथ न बन्ध होता है और न उदय । इनकी वेदना भी एक साथ नहीं होती। यद्यपि वेदना' को मिश्र बताया है किन्तु वह व्यावहारिक है, स्थूलकाल की संकलना मात्र है, तात्विक नहीं। जैसाकि टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने लिखा है-'अत्रापि तावन्तं विवक्षितकालमेकं विवक्षितत्वात् सातासातानुभवो युगपत् प्रतिपादितः परमार्थतस्त्वेकव वेदितव्य इति।' ऊपर के सभी प्रमाणों से यही जान पड़ता है कि आत्म-वीर्य (योग) मिश्र नहीं होता। वह मात्र-पुण्यहेतुक या मात्र-पापहेतुक होता है। सकषाय जीवन : एक और अखण्ड वीतराग के पाप का बन्ध होता ही नहीं। उसके केवल पुण्य का बन्ध हेता है। अवीतराग या सकषाय व्यक्ति के पाप का बन्ध निरन्तर होता रहता है। इसीलिए पुण्य-बन्ध के समय भी उसके केवल निर्जरा या केवल पुण्य-बन्ध होता है-- ऐसी मान्यता नहीं है। आचार्य भिक्षु की मान्यता यह है कि कर्तव्य रूप दो कार्य (योग की प्रवृत्ति से बंधने वाले पुण्य-पाप) एक साथ नहीं हो सकते। पुण्य-बंध, जिस प्रवृत्ति का सहचारी है, उससे पाप नहीं बंधता और जिससे पाप-बन्ध होता है, उसके साथ पुण्य का बन्ध नहीं होता। सकषाय जीवन एक और अखण्ड होता तो उसके जैसे पाप का बन्ध निरन्तर और बिना प्रयत्न के भी होता रहता है, वैसे पुण्य का बन्ध भी निरन्तर और सहज ही होता। किन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए कहा जा सकता है कि सकषाय जीवन का प्रत्येक क्षण पुण्य-पाप-मिश्रित नहीं होता। पुण्य-बन्ध के समय मिथ्यात्व आदि की आन्तरिक मलिनता द्वारा सहज पाप बंधता है, इस दृष्टि से वे क्षण मिश्रित कहे जा सकते हैं, किन्तु योगरूप प्रवृत्ति और उसके परिणामस्वरूप वंधने वाले पुण्य-पाप के क्षण मिश्रित नहीं होते। सकषाय जीवन में शुभ योग होता है। उस समय कषाय विद्यमान रहता है पर शुभ योग तज्जनित नहीं होता। वह चारित्र मोह के विलय जनित होता है। योग कषाय से वासित होकर शुभ नहीं होता किन्तु कषाय के यावत् मात्र विलय से वासित होकर वह शुभ होता है। कर्मशास्त्र की भाषा में मोह-कर्म का औदयिक भाव-योग शुभ नहीं होता। किन्तु मोह-कर्म का क्षायोपशमिकभाव-योग शुभ होता है। पुण्य-पाप के हेतु को स्वतंत्र मानने से गुणस्थान की व्यवस्था विशृंखल नहीं बनती। १. प्रज्ञापना ३५॥३२८ : तिविहावेयणा पण्णत्ता तंजहा-साता, असाता, सातासाता। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १६७ गुणस्थान मोह-विलय की क्रमिक दशाएं हैं। आस्रव और मोह का ज्यों-ज्यों विलय होता है, त्यों-त्यों आत्मिक गुणों का विकास होता चला जाता है। इनमें पहले तीन गुणस्थानों में निर्जरा, शुभ-अशुभ योग जनित पुण्य-पाप और मिथ्यात्वादि आस्रव जनित नैरन्तरिक पाप-ये सब होते हैं। ___ चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व आस्रव नहीं होता। शेष सब होते हैं। छठे में अविरति नहीं होती। प्रमाद आदि शेष सब होते हैं। सातवां अप्रमादी है। यहां से अशुभ-योग-जनित पाप-बन्ध रुक जाते हैं। दसवें गुणस्थान तक केवल नैरन्तरिक पाप-बन्ध होता है। ग्यारहवें से लेकर आगे वह सूक्ष्म अध्यवसाय-जनित नैरन्तरिक पाप भी नहीं होता। वहां तेरहवें तक केवल पुण्य-बन्ध और निर्जरा होती है तथा चतुर्दश गुणस्थान में केवल निर्जरा होती है। इन चौदह गुणस्थानों में यथोचित निर्जरा, पुण्य व पाप-इन तीनों के स्थान हैं । किन्तु एक प्रवृत्ति से पुण्य-पाप का कोई स्थान नहीं है। इसलिए पुण्य-पाप के निमित्तभूत योग को अमिश्र मानने पर कुछ भी बाधा आए-ऐसा नहीं लगता। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान-मीमांसा आचार्य भिक्षु ने कहा-'संयमी दान मोक्ष का मार्ग है और असंयमी दान संसार का ।' 'समुच्चय दान में धर्म है'.-ऐसा कहने वाले जिन-धर्म की शैली नहीं पकड़ सके। उन्होंने गाय और आक के दूध का मिश्रण कर डाला-आचार्य भिक्षु का यह मत था।' असंमी को दान दो, मत दो-यह उनका प्रतिपाद्य विषय नहीं था। देने वाला देता है, लेने वाला लेता है, उस समय साधु दान के गुण-दोष नहीं बताता। कारण यह है कि साधु किसी के अन्तराय देने का इच्छुक नहीं। तत्त्वचर्चा या तत्त्व-निरूपण के समय जो वस्तु-स्थिति है उसे प्रकट करना ही चाहिए। असंयमी-दान को धर्म न मानना परोक्ष रूप में उसका निषेध नहीं तो क्या है ? स्थूल दृष्टि में कुछ ऐसी ही उलझन आती है ? पर आचार्य भिक्षु ने इसे बड़ी मामिकता से सुलझाया है। वे कहते हैं-असंयमी दान का निषेध करना और असंयमी दान को संसार-मार्ग या अशुभ कर्म-बन्ध का हेतु बताना एक बात नहीं है। निषेध वह होता है यदि दान देते को रोके या टोके । किन्तु पाप यानी अशुभ-कर्मबन्ध को अशुभ-कर्म-बन्ध कहा जाए, यह तो निर्मल ज्ञान है, है को है कहना है, वस्तु. स्थिति का सही स्वीकार है । साधु भिक्षा के लिए गया तब उसे एक घर में गाली और आक्रोश मिला, दूसरे घर में अपने यहां आने का निषेध मिला। साधु गाली मिली, वहां फिर जा सकता है किन्तु निषेध किया, वहां नहीं जा सकता। इससे साफ होता है कि कठोर शब्द और निषेध दो वस्तुएं हैं। असंयमी दान पाप या अशुभ कर्म-बन्ध का हेतु है तो कोई क्यों देगा? यह १. व्रताव्रत चौपई : समचे दान में धर्म कहै तो, नहिं जिन धर्म सेली रे । ___ आक ने गाय नो दूध अज्ञानी, कर दियो भेल सभेली रे॥ २. वही ३।१० ३. वही ३।१७,२६ ४. वही ३।३६,४०,४२,४३ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १६६ प्रश्न आता जरूर है पर मूल्यवान् नहीं है। कोई नहीं देगा-इसलिए क्या संसार-मार्ग को मोक्ष-मार्ग बता जनता को भुलावे में डालना चाहिए ? 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' जैसे संकल्प को पूरा करने वाला दर्शन 'ज्योतिषो मा तमो गमय' के पथ पर नहीं चल सकता और न उसे चलना ही चाहिए। सुपात्र-कुपात्र 'तेरापंथी साधु-साध्वियों के सिवाय संसार के सब जीव कुपात्र हैं ।' तेरापंथ की यह मान्यता कतई नहीं है । आचार्य भिक्षु ने व्यक्तिपरक सिद्धान्त-विवेचन कभी नहीं किया। उन्होंने अमुक सुपात्र और अमुक कुपात्र - यह नहीं कहा-उन्होंने सुपात्र-कुपात्र के लक्षण बताए-इनकी व्याख्या दी।' अध्यात्मवाद के अनुसार सुपात्र-कुपात्र की चर्चा मुख्यतया दान के प्रसंग में आती है। सुपात्र का अर्थ होता है-दान के योग्य और कुपात्र का अर्थ है-दान के अयोग्य । दान के योग्य या दान का अधिकारी एकमात्र संयमी है। वह भिक्षा-मात्रजीवी होता है। भगवान् महावीर ने 'नव कोटि शुद्ध'-भिक्षा का निर्देश किया है, वह संयमी के लिए ही है । वह संयमी जीवों को न मारता है, न मरवाता है और न मारने वाले का अनुमोदन करता है, वह न भोजन पकाता है, न दूसरों से पकवाता है और न पकाने वाले का अनुमोदन ही करता है, वह किसी वस्तु को न मोल लेता है, न लेने की प्रेरणा देता है और न अनुमोदन ही करता है। गृहस्थ इस नवकोटि भिक्षा का अधिकारी नहीं है । गृहस्थ गृहस्थ को वस्तु का दान देता है, उसे असंयत-धर्म और द्रव्य-धर्म कहा है। दान की दृष्टि से संयमी इसलिए सुपात्र है कि उसका खान-पान समूचा अहिंसामय होता है। संयमी अहिंसक वृत्ति से प्राप्त भिक्षा को अहिंसक शरीर के निर्वाह के लिए अहिंसा-विधि से खाता है। उसका खाना संयममय है, इसलिए उसका भिक्षा पाना भी संयममय है। जिसका खाना संयममय नहीं, उसका पाना भी संयममय नहीं होता । गृहस्थ असंयमी होता है, इसलिए उसका खान-पान अहिंसक शरीर का पोषक नहीं माना जाता। वह न तो अहिंसक विधि से भोजन पाता है और न अहिंसक शरीर के निर्वाह के लिए भोजन करता है । इसलिए वह दान का अधिकारी नहीं और इसी १. देखें भिक्षुदृष्टान्त ६६, १०० २. स्थानांग ६६८१ ३. सूत्रकृतांग १११४ असाहु धम्मे .. ४, वही ११६ : वृत्ति। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अहिंसा तत्त्व दर्शन लिए उसे दान की दृष्टि से कुपात्र यानी दान के लिए अयोग्य कहा जाता है । आचार्य भिक्षु ने गृहस्थ को एकान्ततः कुपात्र नहीं माना है । उसके जीवन को दो भागों में बांटा है—संयम - जीवन और असंयम- जीवन अथवा त्याग - जीवन और भोग - जीवन | संयम - जीवन की दृष्टि से गृहस्थ सुपात्र है और असंयम - जीवन की दृष्टि से कुपात्र । सूत्रकृतांग अध्ययन ११ में तीन पक्ष बताए हैं- धर्म, अधर्म और मिश्र [ धर्मअधर्म] सर्व-विरति संयमी धर्म पक्ष में आता है, असूयमी अधर्म पक्ष में, देशविरति जो व्रती और अव्रती दोनों में होता है वह मिश्र पक्ष में । श्रावक गृहस्थ के व्रत धर्म और अव्रत अधर्म होता है, इसीलिए उसे धर्मी- अधर्मी, संयमी - असंयमी व्रती -अव्रती और बाल - पंडित कहा गया है । व्रत की दृष्टि से श्रावक धर्मी, संयमी, ती और पंडित होता है और अव्रत की दृष्टि से अधर्मी, असंयमी, अव्रती और बाल । गृहस्थ या श्रावक का खान-पान असंयममय है, इसलिए वह स्वयं खाए या दूसरा उसे खिलाए, वह मोक्ष धर्म नहीं है । गृहस्थ स्वयं पाए या दूसरा उसे दे, मोक्ष धर्म नहीं है । आचार्य भिक्षु गृहस्थ जीवन की हिंसक प्रवृत्तियों की सुपात्रता स्वीकार नहीं करते, यह उनका मार्मिक दृष्टिकोण है । वे कहते हैं - जो लोग हिंसा की वृत्ति को सुपात्र मानते हैं, वे जिन-धर्म या वीतराग - मार्ग के अनजान हैं । गृहस्थ एकान्ततः सुपात्र हो कैसे सकता है ? हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह का सेवन करने वालों को एकान्त सुपात्र मानने वाले अंधेरे में हैं । एक प्राणी को मारने का त्याग करने वाला भी श्रावक हो जाता है । वह उसकी सुपात्रता है किन्तु Tata की जो हिंसामय प्रवृत्ति है, वह सुपात्रता नहीं हो सकती । गृहस्थ मात्र को एकान्ततः कुपात्र कहते हैं वे भी भूले जा रहे हैं । कहना होगा - उन्होंने आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण समझा नहीं । उन्होंने जयाचार्य की वाणी का मर्म नहीं छुआ । आचार्य भिक्षु और जयाचार्य ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की अपेक्षा गृहस्थ को सुपात्र ' और इनके अभाव की अपेक्षा उन्हें कुपात्र कहा है । इसका प्रमाण उन्हीं की रचनाएं दे रही हैं । पात्र-अपात्र या सुपात्र - कुपात्र की चर्चा भारतीय साहित्य में विपुल मात्रा में १. व्रताव्रत चौपई ४११८-२०, ३२-४० २ . वही ४।२० ३. वही ४।२३ ४. वही ४ । ३१ - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १७१ मिलती है। मोक्ष-दान के लिए संयमी के सिवा और कोई सुपात्र नहीं माना जाता। आचार्य भिक्षु ने इसी तत्त्व को साफ-साफ और क्रान्त रूप में रखा। यह उनका प्रतिपाद्य विषय नहीं था कि गृहस्थों को एकान्त कुपात्र कहा जाए । उनके विचारों से मतभेद रखने वाले कुछ लोगों द्वारा ऐसा भ्रम फैलाया गया और व्यावहारिक बातें खड़ी कर लोगों को उलझाने की चेष्टाएं की गईं किन्तु सही स्थिति वैसी है नहीं। पात्र-कुपात्र-विचार सुपात्रायाप्यपात्राय, दानं देयं यथोचितम । पात्रबुद्ध या निषिद्धं स्याद्, निषिद्धं न कृपाधिया । ___ यह दिगम्बर पं० राजमल्ल का अभिमत है-'पात्र और अपात्र दोनों को यथोचित दान देना चाहिए किन्तु अपात्र को पात्र-बुद्धि से दान देना निषिद्ध है। उसे कृपा-बुद्धि या अनुकम्पा-बुद्धि से दान देना निषिद्ध नहीं है।' तात्पर्य यह होगा कि मोक्ष-दान के लिए जो अपात्र या कुपात्र है वह भी अनुकम्पा दान के लिए पात्र है। मोक्ष-दान का पात्र संयमी होता है। अनुकम्पा-दान का पात्र होता है-दीन, दुःखी, भूखा, प्यासा, रोगी, म्लान। आचार्य हरिभद्र के विचारानुसार : सीलव्वयरहियाणं, दाणं जं दिज्जइ कुपत्ताणं । तं खलु धोवई वत्थं, रुदिरकयं लोहितेणेव ॥ शीलव्रत-रहित व्यक्ति कुपात्र हैं। उन्हें दान देना वैसा है, जैसे लहू से भरे कपड़े को लहू से धोना। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं : सप्पुरिसाणं दाणं, कप्पतरुण फलाण सोहं वा । लोहीणं दाणं जइ, विमाण सोहासव्वस्स जाणेइ॥ सत्पुरुषों को दान देना कल्पतरु की भांति फल देने वाला है-शोभा लाता है। लोभी को दान देना मृतक की रथी की शोभा जैसा है। अमृतचन्द्रसूरि के विचार पढ़िए : हिंसायाः पर्यायो लोभ:--लोभ हिंसा का पर्याय है-दूसरा नाम है। लोभी जो है, वह हिंसक है। पिण्डनियुक्ति (४५५) में लिखा है : २. रयणसार २६ १. हारिभद्रीय अष्टक अध्याय २१ । ३. अमितगति-श्रावकाचार Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाणं न होइ अफलं, पत्तमपत्तेसु सन्निजुज्जंतं। इय विभणिए वि दोसा, पसंसओ किं पुण अपत्ते॥ पात्र या अपात्र किसी को दो, दान अफल नहीं होता-ऐसा कहना भी दोष है, तब भला अपात्र-दान की प्रशंसा करे, उसका तो कहना ही क्या ? 'अपात्र-दान का फल पाप के सिवा कुछ नहीं है। बालुकणों को पीलने वाला केवल खेद ही प्राप्त करता है । असंयमी को दान देकर जो पुण्य' की इच्छा करता है, वह आग में बीज डालकर अनाज पैदा करना चाहता है' -आचार्य अमिगति के ये विचार उनके शब्दों में इस प्रकार है : 'अपात्रदानतः किंचित्, न फलं पापतः परम् । लभ्यते हि फलं खेदो, बालुका-पिण्डपीडने ।' 'वितीर्य यो दानमसंयमात्मने, जनः फलं कांक्षति पुण्यलक्षणम् । वितीर्य बीजं ज्वलिते स पावके, समीहते शस्यमपास्तदूषणम् ।। आदिपुराण में लिखा है-'अपात्र को दान देने वाला 'कुमानुषत्व' पाता हैनीच मनुष्य बनता है। लोहमय नौका जैसे पार नहीं पहुंचाती, वैसे ही दोषवान् व्यक्ति संसार के पार नहीं लगाता। जैसे : । कुमानुषत्वमाप्नोति, जन्तुर्दददपात्रके। नहिं लोहमयं यानपात्र-मुत्तारयेत् परम् ॥ १४१ तथा कर्मभराभ्रान्तो, दोषवान् नैव तारकः ॥१४४ महापुराण के दान-संबन्धी विचार : पात्रं रागादिभिर्दोषः, अस्पृष्टो गुणवान् भवेत् । तच्च त्रेधा जघन्यादि-भेदैर्भेदमुपेयिवत् ॥ जघन्यं शीलवान् मिथ्या-दृष्टिश्च पुरुषो भवेत् । सदृष्टिमध्यमं पात्रं, निःशीलवतभावतः। सदृष्टिः शीलसम्पन्न:, पात्रमुत्तममिष्यते। कुदृष्टिर्यो विशीलश्च, नैवपात्रमसौ मतः ।। कुमानुषत्वमाप्नोति, जन्तुर्दददपात्रके । अशोधितमिवालाबु, तद्धि दानं प्रदूषयेत् ॥ आमपात्रे यथा क्षिप्तं, मक्ष क्षीरादि नश्यति । अपात्रेपि तथा दत्तं, तद्धि स्वं तच्च नाशयेत् ॥ दोषवान् नैव तारकः । ततः परमनिर्वाण-साधनरूपमुद्वहन् । २. अमितगति-श्रावकाचार Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १७३ कायस्थित्यर्थमाहार-मिच्छन् ज्ञानादिसिद्धये ॥ न वांछन् बलमायुर्वा, स्वाद वा देहपोषणम् । केवलं प्राणधृत्यर्थं, सन्तुष्टो ग्रासमात्रया ।। पात्रं भवेद गुणरेभिः, मुनिः स्वपरतारकः । तस्मै दत्तं पुनात्यन्नं, अपुनर्जन्मकारणम् ।। __महापुराण, पर्व २० । १३६-१४५ इस प्रकार पचासों ग्रन्थों में पात्र-कुपात्र या अपात्र का विचार मिलता है किन्तु ध्यान रखिए-यह सब दान के प्रसंग में हुआ है। दान के लिए पात्र कौर और कुपात्र कौन, दूसरे शब्दों में दान का अधिकारी कौन और अनधिकारी को या दान के योग्य कौन और अयोग्य कौन ---यह चर्चा गया है। यह विचा अध्यात्म-दर्शन या धर्मशास्त्रों के द्वारा हुआ है, इसलिए सांसारिक दान की दृषि से अनुकम्पा की परिस्थिति में सभी प्राणी दान के पात्र, आज की भाषा में सह योग के अधिकारी माने गए हैं और मोक्षदान की दृष्टि से पात्र केवल संयमी मा गए हैं और असंयमी कुपात्र । तात्पर्य यह है कि असंयमी व्यक्ति मोक्षार्थ दान ले के अयोग्य हैं। प्रायः सभी आचार्यों ने पात्र-कुपात्र का विवेचन करते हुए आध्यात्मिक गुरु को मा दण्ड माना है। वसुनन्दि-श्रावकाचार में लिखा है.---'जो सम्यक्त्व, शी और व्रत रहित है, वह अपात्र है। व्रत, नियम और संयम को धारण करने वार साधु उत्तम पात्र होता है।' आदिपुराण में भी ऐसी ही व्यवस्था है-'पांच अणुव्रतों को पालने वाल सम्यक् दृष्टि मध्यम पात्र है, साधु उत्तम पात्र है और कुदृष्टि और शील रहि व्यक्ति पात्र नहीं है।' ___ एक दूसरी व्यवस्था और लीजिए-संयमी उत्कृष्ट पात्र है, अणुव्रती मध्य पात्र है, सम्यग् दृष्टि जघन्य पात्र है, सम्यग्दृष्टि नहीं किन्तु व्रती है, वह कुप है और जो न सम्यग्दृष्टि है, न व्रती है वह अपात्र है। मूल श्लोक पढ़िए: 'उत्कृष्टपात्रमनगारमणुव्रताढ्यं, मध्यं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यम् । निदर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं, युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ॥' अब आचार्य भिक्षु के विचार पर मनन करिए। वे कहते हैं. एकान्ततः सुर संयमी है। श्रावक यानी अणुव्रती सुपात्र भी है और कुपात्र भी। जितनी सीमा व्रती है, उतनी सीमा तक सुपात्र है और अव्रत की सीमा में वह कुपात्र है। सर दृष्टि सुपात्र भी है और कुपात्र भी। सम्यग्दृष्टि ज्ञान, तपस्या आदि गुणों Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अपेक्षा सुपात्र और दोष की अपेक्षा कुपात्र है। मिथ्यादृष्टि और अव्रती कुपात्र है। यह व्यवस्था व्यक्तिपरक नहीं, गुणपरक है। आत्म-गुण या निरवद्य प्रवृत्ति की अपेक्षा व्यक्ति को सुपात्र और आत्म-विचार या सावद्य प्रवृत्ति की अपेक्षा उसे कुपात्र कहा जाता है। असंयमी का खान-पान निरवद्य नहीं है। इसलिए वह खानपान की दृष्टि से संयमी नहीं है । इसे संयम की दृष्टि से परखिए। कोई उलझन नहीं होगी। आचार्य भिक्षु के विचारानुसार कुपात्र का अर्थ है-असंयमी । असंयमी कुपात्र है और संयमी सुपात्र या ऐसे कहना चाहिए कि कुपात्र भाव का आधार असंयम है और सुपात्र भाव का आधार संयम । वे असंयमी के लिए कुपात्र शब्द का प्रयोग करते हैं : 'असंजती नै जीवां बचावियां, बले असंजती नै दियां दान।' 'कुपात्र जीवां नै बचावियां, कुपात्र नै दियां दान ।' पहली गाथा में जिस अर्थ में असंजती-असंयमी शब्द का प्रयोग किया है, उसी अर्थ में इसकी अगली गाथा में कुपात्र शब्द का प्रयोग किया है। पुरानो परम्परा प्रश्न-प्यासे को पानी पिलाने से महान् उपकार होता है। पानी का मूल स्रोत है--कूप, तालाब आदि। इसलिए साधु इनकी खुदाई का उपदेश दे या नहीं? उत्तर-साधु को ऐसा उपदेश देना ठीक नहीं और न इनका निषेध करना चाहिए। ये दोनों सदोष हैं, इसलिए निषिद्ध हैं । जैसाकि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन के पांचवें उद्देशक में कहा है-मुनि प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों की घात न करे । स्वतः अनाशातक -हिंसा न करने वाला दूसरों से हिंसा न कराने वाला और हिंसा करते व्यक्ति का अनुमोदन न करने वाला मुनि जैसे प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों को पीड़ा न उपजे, वैसा धर्म कहे। ___जो व्यक्ति लौकिक, कुप्रावचनिक और पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधु के दान की प्रशंसा करते हैं, कुएं और तालाब बनाने का समर्थन करते हैं तो इनमें पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसा होती है और यदि इनका निषेध करते हैं तो दूसरों के अन्तराय होता है। वह भी बन्ध-विपाक का कारण है। जैसा कि कहा है-जो दान की प्रशंसा करते हैं, वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं और जो उसका प्रतिषेध करते हैं, वे वृत्तिच्छेद करते हैं । इसलिए मुनि को उक्त दान तथा कूप, तालाब आदि का विधि-प्रतिषेध किए बिना शुद्ध दान की प्ररूपणा करनी चाहिए। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १७५ मुनि को कूप, तालाब आदि खुदाने का न उपदेश देना चाहिए और न निषेध करना चाहिए-इसका यह विचार है। प्रश्न-साधु के सिवा अन्यदर्शनी को श्रावक भक्त आदि का दान देते हैं, तब श्रावक को सम्यक्त्व में दोष लगता है या नहीं? उन्हें दिया जाए तो अन्यदर्शनी असाधु साधु के समान हो जाते हैं और अगर उन्हें न दिया जाए तो वह लोकविरुद्ध कार्य है और निर्दयता लगती है। इसलिए क्या करना चाहिए? उत्तर-परमार्थ-दृष्टि में अन्यदर्शनी को धर्म-बुद्धि से दान दिया जाए, तब सम्यक्त्व में दोष लगता है। अनुकम्पा बुद्धि से दे, उसे कौन रोकने वाला है। जैसे-आवश्यक बृहद्वृत्ति के श्रावक-सम्यक्त्वाधिकार में हरिभद्र सूरि ने कहा है-इसमें कौन-सा दोष है, जिससे मिथ्यादृष्टियों को अशनादि दान का प्रतिषेध है ? उनके भक्तों का मिथ्यात्व स्थिर होता है। उन्हें धर्म-बुद्धि से दे तो सम्यक्त्व में दोष लगता है तथा आरम्भ आदि दोष बढ़ते हैं। करुणा के क्षेत्र में आपद्ग्रस्तों को अनुकम्पापूर्वक देना चाहिए भी-इसलिए कहा है- 'दुर्जय राग, द्वेष, मोह को जीतने वाले तीर्थंकरों ने प्राणी की अनुकम्पा के लिए दिए जाने वाले दान का कहीं भी प्रतिषेध नहीं किया हैं।' दीक्षा से पूर्व तीर्थंकर अनुकम्पापूर्वक वार्षिक दान देते हैं। षडावश्यक की वृत्ति में 'सुहिएसु' इस गाथा की दूसरी व्याख्या में ऐसे दान को उचित दान के रूप में देय बतलाया है । अथवा सुखित यानी असंयती, दुःखित यानी पार्श्वस्थ-इन्हें रागद्वेषपूर्वक दान दिया हो, उसकी इस गाथा के द्वारा श्रावक निन्दा और गर्दा करता है न कि दीन आदि को जो अनुकम्पा-दान दिया जाता है, उसकी । 'कृपण, अनाथ, दरिद्र, कष्ट-ग्रस्त, रोगी, शोक-हत व्यक्तियों को अनुकम्पा की बुद्धि से जो दिया जाता है, वह अनुकम्पा दान है।" और कहा है--'यह जो पात्र और अपात्र की विचारणा है, वह मोक्षार्थ-दान यानी मोक्ष-फल वाले दान के लिए है। जो दया दान है, उसका सर्वज्ञों ने कहीं भी निषेष नहीं किया है। धर्माधर्म के निर्णय की कसौटी विरति है, वेश नहीं वेश या लिंग नितान्त व्यावहारिक है। वह धर्म-अधर्म, संयती-असंयती का निर्णायक नहीं होता। केवल वेश को देखकर दान देना या न देना—यह भी कोई १. कृपणेऽनाथदरिद्र, व्यसनव्याप्ते च रोगशोकहते। तद्दीयते कृपाथ, अनुकम्पातो भवेद् दानम् ॥ २. इयं मोक्षफले दाने, पात्राऽपात्र विचारणा। दयादानं तु सर्वज्ञैः, कुत्रापि न निषिभ्यते ।। -समयसुन्दरोपाध्यायविरचित विशेषशतक । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अहिसा तत्त्व दर्शन बड़ा तत्त्व नहीं है। अमुक वेश वाले को दान दिया जाए, अमुक को नहीं, ऐसा विधान सम्भवतः कोई भी सम्प्रदाय नहीं करता। संयमी-दान मोक्ष-हेतुक है और असंयमी-दान संसार-हेतुक । संयमी-दान परिग्रह की विरति है, इसलिए वह मोक्ष का हेतु है । असंयमी-दान परिग्रह की विरति नहीं है, इसलिए वह संसार का हेतु है। यह वस्तु-स्थिति है । व्यवहार में संयमी-असंयमी दान का विवेक अपनी-अपनी मान्यता है । तत्त्ववेत्ता का कार्य उसका विश्लेषण करना है। व्यवहार चलाना उनका काम होता है जो व्यवहार में रहते हैं । आचार्य भिक्षु ने यह कभी नहीं कहा कि अमुक को मत दो, उन्होंने सिर्फ दान और दाता का विश्लेषण करते हुए बताया-- पात्र-कुपात्र हर कोई ने देवै, तिणने कहीजे दातार । पात्र-दान मुक्ति रो पावड़ियो, कुपात्र सूं रुले संसार । इसका सार यही है कि दाता पात्र यानी संयमी और अपात्र यानी असंयमीदोनों को देता है। उसमें जो संयमी-दान है, वह मोक्ष का मार्ग है और असंयमीदान संसार का । दाता दान के समय परीक्षा करने नहीं बैठता । और न कहीं ऐसा देखने-सुनने में भी आया है कि कोई भी व्यक्ति संयमी को ही दे, अन्य किसी को न दे। गृहस्थ जीवन में विरति-अविरति दोनों होते है। वह दोनों को एक रूप न समझ बैठे, यह विवेक ही बड़ी बात है। दान की कोटि का निर्णय न केवल दाता की भावना से होता है, न केवल ग्राहक की योग्यता से। उसकी कोटि का निर्णय दाता की भावना, ग्राहक की योग्यता और देय वस्तु की शुद्धि, इन तीनों पर निर्भर है। हमें देखना होगा, दाता की भावना परिग्रह-मुक्ति की है या उसके विनियोग की ? ग्राहक परिग्रह-मुक्त है या परिग्रह-युक्त । अपरिग्रही अममत्व भाव से साधन मात्र लेता है । वह अपरिग्रही है, इसलिए अपरिग्रहात्मक दान आत्म-शुद्धि का साधन बनता है। परिग्रही ग्राहक देय वस्तु को ममत्व बुद्धि से लेता है, इसलिए उस दान में दाता परिग्रह का विनियोग कर देगा किन्तु उसकी (परिग्रह की) क्रिया से वह नहीं बचेगा। इस सूक्ष्म मीमांसा की भूमिका में पहुंचकर हमें कहना होगा कि वह दान वस्तुवृत्त्या आत्म-मुक्ति का मार्ग नहीं है। दान की कोटि का निर्णय करते समय हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि भविष्य के परिणामों से उसका तात्त्विक सम्बन्ध नहीं होता। ग्राहक आगे पुण्य या पाप, धर्म या अधर्म, जो कुछ करेगा, उस पर से दान का स्वरूप निश्चित नहीं होता। उसके स्वरूप-निश्चय में ग्राहक की वर्तमान अवस्था ही आधारभूत मानी जाती है। दस प्रकार के दान स्थानांग सूत्र में दान के दस प्रकार बतलाए हैं : Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १. अनुकम्पा - दान —— गरीब, दीन-दुःखी को देना । २. संग्रह - दान - कष्ट - दशा में सहायता करने के लिए देना । ३. भय-दान - भयवश देना । ४. कारुणिक - दान - मृतक के पीछे देना । ५. लज्जा-दान- -लाज - शर्मवश देना । ६. गौरव - दान - कीर्ति के लिए देना । ७. अधर्म-दान- वेश्या आदि को देना । ८. धर्म-दान - संयमी व्यक्ति को देना । ६. कृतिमिति दान - अमुक ने सहयोग किया था, इसलिए उसे देना । १०. करिष्यति - दान - यह आगे सहयोग देगा इसलिए देना । दान के ये प्रकार बताकर आगमकार ने केवल वस्तु-स्थिति का निरूपण किया है। कौन - सा दान अच्छा या बुरा है - इसका विश्लेषण इसमें नहीं है । इनका मूल्यांकन समाजशास्त्र की दृष्टि से किया जाए तो 'अधर्म-दान' बुरा है और शेष दान कभी अच्छे माने जाते रहे हैं और कभी बुरे भी। समाज की धारणा स्वयं अस्थिर है, बदलती रहती है, तब इनका मूल्यांकन स्थिर कैसे होगा ? अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से धर्म-दान उपयोगी है । शेष उसके लिए उपयोगी नहीं है। उपयोगी नहीं- - इसका अर्थ यह नहीं कि वेश्या-दान और कीर्ति दान दोनों एक कोटि के हैं । तात्पर्य यह है कि आत्म-साधना से इनका कोई लगाव नहीं है । १७७ इन दस दानों को उपयोगिता की दृष्टि से बांटें तो धर्म-दान आत्म-साधना के लिए उपयोगी है । शेष में से कुछ समाज के लिए उपयोगी हैं और कुछ उसके लिए भी अनुपयोगी हैं । दान के स्वरूप में मिश्रण नहीं हो सकता । एक ही दान में सिद्धान्त की भाषा में पुण्य और पाप व व्यवहार की भाषा में सामाजिक उपयोगिता और आध्यात्मिक उपयोगिता - ये दोनों नहीं हो सकते । धर्म-दान के तीन प्रकार हैं : १. ज्ञान-दान, २. अभय-दान, ३. संयमी दान । ये तीनों आत्म-साधना के अंग हैं । ज्ञान-दान- - आत्म-साधना का सहायक ज्ञान देना, अहिंसक पद्धति से देना ज्ञानदान है । अभय-दान- मनसा वाचा कर्मणा छह काय के जीवों को मारने, मरवाने और मारने वाले को भला समझने का त्याग करना, प्राणीमात्र को भय Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ अहिंसा तत्त्व दर्शन नहीं उपजाना अभय-दान है। संयमी-दान-अतिथि यानी सर्वहिंसा-त्यागी, पचन-पाचन-निवृत्त, भिक्षा-जीवी मुनि को शुद्ध और निर्जीव जीवन-निर्वाह के साधन देना संयमी दान (अतिथि संविभाग) है। दया और दान-ये दोनों अहिंसा से जड़े हुए हैं। इन्हें बड़ी बारीकी से देखना होगा। पुराने मूल्यों को नए दृष्टिकोण से देखना होगा। एक युग में सामाजिक कर्तव्यों के पीछे पुण्य-पाप की प्रेरणा थी। इसलिए समाज के कर्तव्यों के साथ भी पुण्य-पाप का सम्बन्ध जुड़ गया। अब उस कल्पना में प्रेरकता नहीं रही है। वर्तमान का बुद्धिवादी मनुष्य सामाजिक कर्तव्य का मूल्यांकन उपयोगिता की दृष्टि से करता है । दान की इतनी महिमा हुई, वह एक विशेष प्रकार की सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है। जैसा कि दादा धर्माधिकारी ने लिखा है-'हमारे यहां सब शास्त्रों में इस विषय में जो कहा है, उसका आशय है-'दरिद्रान् भर कौन्तेय !'हे कौन्तेय ! दरिद्रों का भरण कर। ईसाई धर्म में कहा है-'अमीर को दान का मौका मिले, इसीलिए गरीबी का निर्माण किया है।' यह तो भगवान् पर वैषम्य और नैघुण्य का दोष लगाने जैसा है। दान को प्राचीन विद्वानों ने संग्रह का प्रायश्चित माना है। प्राचीन संस्कृति और धर्म इस मुकाम तक पहुंचकर ठिठक गए। क्योंकि वे सब विषमता पर आधारित थे। मार्क्स ही वह पहला व्यक्ति हुआ जिसने कहा---'गरीबी-अमीरी भगवान् ने नहीं बनाई। यह नैसर्गिक तो है किन्तु अपरिहार्य नहीं है । नियति या विधि-विधान नहीं है, यह परिहार्य है।२।। दान कोई सहज तत्त्व नहीं है । स्वयं-भूत तत्त्व है-असंग्रह। मुमुक्षु व्यक्ति कुछ भी संग्रह न करे। मुमुक्षु-वृत्ति का जागरण हो। उसकी मर्यादा है-अपनी आवश्यकताओं से अधिक संग्रह न करे। संग्रह करते रहना और दान देते रहनाइसका कोई अर्थ नहीं होता। वास्तविक दान असंग्रह है। श्री मोहनलाल मेहता ने लिखा है-'सच्चा त्यागी वह है जो पैसा जोड़कर त्याग नहीं करता अपितु पैसा छोड़कर त्याग करता है। जोड़कर छोड़ने की अपेक्षा पहले से ही न जोड़ना सच्चा त्याग है-वास्तविक दान है। जिसकी आपको आवश्यकता ही नहीं, उसका संग्रह क्यों करते हैं ? इसीलिए न कि आप इस संग्रह के दान से दानी कहलाएंगे। यह ठीक नहीं, इस प्रकार की आपकी मनोवृत्ति से समाज में विषमता फैलती है।' १. व्रताव्रत चौपई ६।१६ २. नई क्रान्ति, पृ० २४ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १७९ 'आप संग्रह का मूल्य समझते हैं, परिग्रह की कीमत आंक सकते हैं किन्तु आपकी दृष्टि में त्याग का मूल्य नहीं है, अपरिग्रह की कीमत नहीं के बराबर है । आप कहेंगे-जो धन का त्याग करता है, उसे दानवीर कहते तो हैं। और त्याग का मूल्य क्या होता है ? आपका यह उत्तर ठीक नहीं, क्योंकि आप वास्तव में परिग्रही को दानवीर कहते हैं, त्यागी को नहीं।" विनोबा के मतानुसार 'भूदान' आज का युग-धर्म है । यह होता है । समाज की समय-समय की आवश्यकता और उसी के अनुरूप मांग होती है। समय के प्रवर्तक उसे सामयिक धर्म के रूप में ही रखते हैं। किन्तु आगे चलकर वह रूढ़ हो जाती है, एक शाश्वत धर्म का रूप ले लेती है और उसमें विकार आ घुसते हैं। दान का रूप भी कम विकृत नहीं हुआ है। इसलिए दान पर आज हमें फिर एक बार नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। १. श्रमण, जनवरी, १९५३ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की कुछ अपेक्षाएँ _ 'अहिंसा पोथी की चीज है' यह धारणा सौ में नब्बे की है। कुछ अंशों में सही भी है। अहिंसा के बारे में जितना लिखा गया, कहा गया, उपदेश दिया गया, उतना उसका आचरण नहीं हुआ। फिर भी अहिंसा जीवन में उतरी है। मनुष्य का सामाजिक रूप अहिंसा की भावना का एक छोटा प्रतिबिम्ब है। अनाक्रमण और भाईचारे का बर्ताव अहिंसा नहीं तो क्या है ? अगर मनुष्य हिंसा-परायण ही होता तो वह अपने को सामूहिक जीवन के ढाँचे में ढाल नहीं पाता। मनुष्य का विवेक, विचारशीलता और बुद्धि का विकास देखते वह प्रश्न फिर आंखों के सामने आता है कि मनुष्य में अहिंसा की मात्रा कम है। उसे जितना अहिंसक होना चाहिए, उतना वह नहीं है। उसकी थोड़ी अहिंसा, अहिंसा जैसी लगती ही नहीं। हिंसक पशु भी भूख और भय से आक्रान्त न हों तो सहसा प्रहार नहीं करते। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि वे अहिंसक हैं। बहुत सारे पशुपक्षी सामुदायिक जीवन भी बिताते हैं। हिंसक पशु सामूहिक जीवन बिताने में रस नहीं लेते, फिर भी उनमें आपसी आक्रमण प्रायः नहीं होता। यही कारण है कि सामान्य स्थिति में अनाक्रमण, भाईचारा और सामूहिक जीवन-यापन से अहिंसा के परिणाम नहीं बनते, दूसरे शब्दों में इनसे उनकी उद्बुद्ध अहिंसा का परिचय नहीं मिलता। आक्रमण को अनाक्रमण से जीते, यह अहिंसा का जागृत स्वरूप है; जिसकी मनुष्य जैसे बुद्धिमान् प्राणी से ही अपेक्षा की जा सकती है। पशु कार्य कर सकता है, उसका परिणाम नहीं सोच सकता। मनुष्य अतीत से शिक्षा ले सकता है और भविष्य की कल्पना कर सकता है। उसका कार्य इन दो शृंखलाओं से जुड़ा हुआ होता है। मनुष्य कार्य करते-करते लाभ-अलाभ, हित-अहित और इष्ट-अनिष्ट की चिन्ताओं से घिरा रहता है। इरा स्थिति में यह प्रश्न होता है कि क्या अभी तक मनुष्य अहिंसा का मूल्य आंक नहीं सका है अथवा उसे समझकर भी उसका आचरण करने में असमर्थ है ? दूसरी बात में हमारा मानसिक समाधान मिलता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अहिंसा तत्त्व दर्शन अहिंसा को समझ लेना ही काफी नहीं है। अहिंसक बनने के लिए उसके योग्य सामर्थ्य का विकास करना आवश्यक है। पंडित और साधक-ये दो चीजें हैं। जानना पंडिताई का काम हो सकता है किन्तु करने में साधना चाहिए। पशु और पंडित में जितना भेद है, उतना ही भेद पंडित और साधक में है। पशु अहिंसा की भाषा नहीं जानता जबकि पंडित जानता है। साधक वह है जो उसकी भाषा जानने तक ही न रहे, उसकी साधना करे। ____ अब हम पशुओं की बात छोड़ दें, अपनी बात करें। जहां तक देखा जाता है, हममें अहिंसा के पंडित अधिक हैं, साधक कम, इसीलिए अहिंसा का विकास कम हुआ है। मनुष्य ज्ञान के क्षेत्र में अन्य प्राणियों से आगे है। उसकी बड़ी-चढ़ी तर्कणा शक्ति ने उसे अधिक स्वार्थी बनने में सहयोग दिया है। उसके पास ऐसे तर्क हैं, जिनके द्वारा वह अपने लिए होने वाली दूसरों की हिंसा को क्षम्य ही नहीं, निर्दोष बता सकता है। आखिर यह होता है कि अहिंसा आत्मा तक बिना पहुंचे ही शब्दों के जाल में उलझ जाती है। हिंसा जीवन की कमजोरी है-अशक्यता है किन्तु स्वभाव नहीं। इसीलिए हिंसा मिटाई जा सकती है और मिटाई जानी चाहिए। प्रयत्न की जरूरत है। कमजोरियों से छुट्टी पाए बिना हिंसा छूट नहीं सकती, इसीलिए हमें इस विषय पर सोचना चाहिए कि जीवन में अहिंसा का प्रयोग कैसे किया जाए। हिंसा और अहिंसा के परिणामों को जानने से हिंसा के प्रति ग्लानि और अहिंसा के प्रति रुचि पैदा हो सकती है, इसलिए आचार्यों ने हमें उनकी परिभाषाएं दीं। वे समझने की चीजें हैं। उनसे हमारा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। बननेबिगड़ने की बात हमारे कार्यों से पैदा होती है। हमारी हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध हमारे कार्यों से है। उनके पीछे भय, स्वार्थ, अहं, क्रोध, आग्रह, छल-कपट आदि अनेक भावनाएं होती हैं। उन्हीं के कारण वृत्तियां कलुषित बनती हैं, हिंसा का वेग बढ़ जाता है। जीवन में अहिंसा लानी है तो हमें दो काम करने होंगेएक तो भावनाओं को पवित्र करना होगा और दूसरे कार्यों को बदलना होगा। उनको कैसे बदलें ? भावनओं को पवित्र कैसे बनाएं ? इस पर कुछ विचार करना है। अहिंसा का मानदण्ड निजी जीवन नहीं होता, साधना के उत्कर्ष-काल में हो सकता है। यह बात प्रारम्भिक दशा की है। मनुष्य दूसरों की हिंसा को जितनी स्पष्टता से समझ सकता है, उतनी स्पष्टता से अपनी हिंसा को नहीं समझ सकता। अपनी भूलों के पीछे कोई न कोई तर्क या युक्ति लगी रहती है। वह अपनी भूलों को ज्यों-त्यों सही करने की चेष्टा में लगा रहता है, दूसरे की भूल Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १८५ साफ-साफ समझने में आती है। वहां सफाई सामने नहीं आती। कोई सफाई लगाए तो वह बुरी मालूम होती है । कारण साफ है। दूसरे की बुराई को समझने में कठिनाई इसलिए नहीं होती कि उसके प्रति हमारी आंखें मोह से ढंकी हुई नहीं हैं, बीच में कोई आवरण नहीं है। भावनाओं में भी न्याय है। हम स्वयं को या अपनों को इसलिए ठीक नहीं कूत सकते कि हममें अपने प्रति अब भी मोह और अन्याय करने की भावना विद्यमान है। १. अहिंसा का पहला प्रयोग यही होना चाहिए-हम स्व-पर की भूमिका से ऊपर उठे। अहिंसा के विकास में सबसे बड़ी बाधा अगर कोई है तो यह स्व और पर का भेद है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से लड़ता है। लड़ने का कारण हैउसके लड़के की दूसरे आदमी के लड़के के साथ कहा-सुनी हो गई। दोषी दोनों हैं, फिर भी वह पक्ष अपने पुत्र का लेगा, कारण कि वह उसका है। दूसरा दूसरा है। उससे क्या मतलब ? व्यवहार में ये बातें चलती हैं। ऐसी छोटी-छोटी बातों पर बड़ी-बड़ी लड़ाइयां छिड़ जाती हैं। किन्तु अहिंसा इन्हें नहीं सह सकती । अहिंसा के सामने स्व-पर जैसी कोई चीज ही नहीं होती। वहां यह भावना ही नहीं होती कि यह मेरा है, इसलिए इसके दोष को छिपाऊं, दोषों का प्रतिकार न करूं । अहिंसक अपने दोषों को छिपाने की बात भी नहीं जानता। वह साफ होता है, उतना साफ जितना कि स्फटिक । हिंसक व्यक्ति भूलों को छिपाकर रखने में जहां गौरव मानते हैं, वहां अहिंसक भूलों को दूसरे के सामने रखकर अपने को हलका अनुभव करते हैं। इसके पीछे आत्म-बल होना चाहिए। अहिंसा के लिए शरीर-बल से कहीं अधिक आत्म-बल की अपेक्षा है। मानसिक कमजोरी आयी, छिपाने-दबाने की बात आयी कि अहिंसा नौ-दो-ग्यारह हो जाती है। छिपाने का अर्थ है-वक्रता, उसका मतलब है-हिंसा। ____ आत्म-बल स्वयं साधना का फल है। यह अहिंसा की रुचि से बढ़ता है। उससे अहिंसा का विकास होता है।। २. अहिंसक के सामने आगे बढ़ने का एक पवित्र लक्ष्य होना चाहिए। उसके बिना वह आत्म-बल बटोर नहीं सकता। अहिंसक सरलता से बोलता है, सरलता से चलता है और सरलता से करता है। सरलता के सामने कुटिलता का पर्दाफाश होता है, इसलिए हिंसा का अहिंसा पर प्रहार होने लगता है। वह प्रहार अनेकमुखी होता है-कभी व्यक्तियों द्वारा भी; कभी परिस्थितियों द्वारा, तो कभी-कभी उसकी अपनी निजी प्रवृत्तियों द्वारा भी; कभी प्रतिकूल तो कभी मनोनुकूल । इस हालत में अगर एक निश्चित लक्ष्य न हो तो साधक फिसले बिना नहीं रह सकता। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन आत्म-विकास का लक्ष्य लेकर चलने वाला कहीं कष्ट पाए, गालियां सुने, मारा-पीटा जाए, फिर भी कतराता नहीं । वह सोचता है कि स्व-प्रशंसा और पूजा से मैं ऊंचा नहीं उठा तो इससे नीचा भी नहीं होऊंगा । ये दोनों पौद्गलिक जगत् के परिणाम हैं। मुझे आत्म-जगत् में जाना है । सुखी रहूं चाहे दुःखी, प्रशंसा सुनूं चाहे निन्दा, पूजा जाऊं चाहे पीटा जाऊं; इनसे होना जाना क्या है ? मेरा लक्ष्य मिलेगा - मेरी समता से । वह बनी रहनी चाहिए। अनुकूलता में राग या उत्कर्ष, प्रतिकूलता में द्वेष या अपकर्ष नहीं होना चाहिए। यही आत्म-बल है । विश्वविजेता मल्ल या योद्धा अपनी निन्दा सुनकर दुमना हो जाता है किन्तु अहिंसक नहीं होता । यो द्रा का लक्ष्य साधक के लक्ष्य से भिन्न है । सोचने की दृष्टि भी एक नहीं है | योद्धा सोचेगा, निन्दक ने मेरा अनिष्ट किया । साधक सोचेगा, मेरा निष्ट करने वाला कोई है ही नहीं । निन्दक अपने आप अपना अनिष्ट कर रहा है । यह अन्तर है लक्ष्य का । निन्दा के द्वारा योद्धा के लक्ष्य में बाधा आ सकती है किन्तु साधक के लक्ष्य में कोई बाधा नहीं आ सकती, इसलिए वह निन्दाकाल में भी समदृष्टि रह सकता है । ३. लक्ष्य की निश्चितता से जैसे आत्मबल बढ़ता है, वैसे निर्भयता भी बढ़ती है । निर्भयता अहिंसा का प्राण है । भय से कायरता आती है । कायरता से मानसिक कमजोरी और उससे हिंसा की वृत्ति बढ़ती है । अहिंसा के मार्ग में सिर्फ अँधेरे का डर ही बाधक नहीं बनता, और भी बनते हैं। मौत का डर, कष्ट का डर, अनिष्ट का डर, अलाभ का डर, जाने-अनजाने अनेक डर सताने लग जाते हैं, तब अहिंसा से डिगने का रास्ता बनता है । पर निश्चित लक्ष्य वाला व्यक्ति नहीं डिगता । वह जानता है - ऐश्वर्य जाए तो चला जाए; मैं उसके पीछे नहीं हूं । वह सहज भाव से मेरे पीछे चला आ रहा है । यही बात मौत के लिए तथा औरों के लिए है । मैं सच बोलूंगा । अपने प्रति व औरों के प्रति सच रहूंगा । फिर चाहे कुछ भी क्यों न सहना पड़े ! अहिंसक को धमकियां और बन्दर - घुड़कियाँ भी सहनी पड़ती हैं। वह अपनी जागृत वृत्ति के द्वारा चलता है, इसलिए नहीं घबराता । इन सब बातों से भी एक बात और बड़ी है। वह है-कल्पना का भय । जब-तब यह भावना बन जाती है - अगर मैं ऐसे चलूंगा तो अकेला रह जाऊंगा, कोई भी मेरा साथ नहीं देगा, यह अहिंसा के मार्ग में कांटा है। अहिंसक को अकेलेपन का डर नहीं होना चाहिए । उसका लक्ष्य सही है, इसलिए वह चलता चले । आखिर एक दिन दुनिया उसे अवश्य समझेगी | महात्मा ईसा का जीवन इसका ज्वलन्त प्रमाण है । आचार्य भिक्षु भी इसी कोटि के महापुरुष थे। दूसरों के आक्षेप, असहयोग आदि की उपेक्षा कर निर्भीकता से चलने वाला ही अहिंसा के पथ पर आगे बढ़ सकता है । पिछली पंक्तियों में जो थोड़ा-सा विचार किया गया, उसका फलित यह १८६ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १८७ होगा~जो व्यक्ति स्व-पर के भेदभाव में ऊंचा उठा हुआ है, जिसके सामने पवित्र लक्ष्य है, जिसका आत्म-बल विकसित है और जो निर्भय है, वही अहिंसक बन सकता है। यह अहिंसा की भूमि है। अब तक उसी की चर्चा हुई है । अहिंसा की कसौटी क्या है ? अहिंसा का तेज कहाँ निखरता है ? इस पर भी कुछ ध्यान दे लें। __एकान्तवास में आदमी अहिंसक बन सकता है किन्तु अहिंसा की परख वहां नहीं हो सकती। इसका क्षेत्र है-सहवास। सबके साथ रहकर या सबके बीच रहकर जो अहिंसक रहता है, वहां उसकी परख होती है।। एक साथी क्रोधी है, दूसरा अभिमानी है, तीसरा मायावी है और चौथा लोभी है-उनके साथ कैसे बरता जाए? (क) साथी बात-बात में गुस्सा करता है, अंट-संट बोलता है, बकवास करने में भी नहीं चूकता, समय पर गालियां भी सुना देता है। 'शठे शाठ्यं समाचरेत्'-इसका मतलब है-हिंसा। सामने के व्यक्ति को अहिंसक रहना है और साथी को भी साथ लिए चलना है। अगर वह शान्त भाव से सब कुछ सहता चला जाता है तो लोग उसे कायर बताते हैं । अब वह क्या करे? __ अहिंसक में चैतन्य होना चाहिए। निर्जीव अहिंसा दीनता का ही दूसरा रूप है। अहिंसक क्रोधी के आवेग को सहे अवश्य, किन्तु दीन बनकर नहीं। क्रोधी को यह भान होते रहना चाहिए कि अहिंसक में प्रतिकार करने की शक्ति है, फिर भी वह अपने धर्म की रक्षा के लिए सब कुछ सहता है। क्रोधी एकपक्षीय क्रोध आखिर कब तक करेगा? उसे क्रोध करने का पूरा अवसर मिलता है तो निश्चित समझिए उसका क्रोध खतरे में है । क्रोध क्रोध से बढ़ता है। क्रोध के बदले क्षमा मिलती है, तब वह स्वयं पछतावे में बदल जाता है। ऐसे चलते-चलते क्रोध स्वयं निस्तेज हो जाता है और क्षमा उस पर विजय पा लेती है। (ख) साथी अभिमानी है, वह चाहता है-पूजा, प्रशंसा और गुणानुवाद । अहिंसक को यह न रुचे । वह उसका उत्कर्ष न साध सके, तब संघर्ष होता है। उसकी आत्म-सन्तुष्टि अथवा संघर्ष को टालने के लिए क्या अहिंसक चलती बाते करे ? अगर न करे तो उसका परिणाम होता है-आपसी अनबन। इस स्थिति में वह कौन-सा मार्ग चुने ? पहला या दूसरा? प्रत्येक व्यक्ति में न्यूनाधिक मात्रा में विशेषताएं होती हैं। अहिंसक उन्हें सामने रखकर चले। निःसंकोचतया उन्हें प्रकाश में लाए। ईर्ष्या न करे । एक विशेषता बताकर आदमी दस कमियां बताए तो वे अखरती नहीं, पर कभीकभी अखर भी जाती हैं। केवल भूलें ही भूलें सामने रखी जाएं तो सुनने वाला उकता जाता है या पहल में ही चिढ़ जाता है। सामान्यतया अपनी प्रशंसा सुनने में हरेक ब्यक्ति को दिलचस्पी होती है। हम उसकी विशेषता बताएंगे तो वह Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अहिंसा तत्त्व दर्शन जरूर हमारे प्रति आकृष्ट होगा । आकर्षण में अपनत्व होता है। अपनत्व के नाते आदमी कड़वे यूंट भी पी सकता है। रोगी को पहले विश्वास होना चाहिए कि इस दवा से मुझे लाभ होगा, तभी उसे कटुक या कुटज पिलाया जा सकता है। अहिंसक को सबके दिलों में विश्वास पैदा करना चाहिए। विश्वास के द्वारा जब दूसरों के दिलों को वह जीत लेता है, तब उसकी कठिनाई मिटती तो नहीं, किन्तु हां, कम जरूर होती है। मूल बात यह है कि अहिंसक ललचाये नहीं। वह दूसरे को प्रसन्न रखने की चेष्टा करे किन्तु इसलिए नहीं कि उसके द्वारा उसे लाभ मिले या स्वार्थ सधता रहे । यह हिंसा की भावना है, आत्मा की कमजोरी है। अहिंसक अपनी मर्यादा तोड़कर किसी को प्रसन्न रखने की बात नहीं सोच सकता। प्रसन्नता का अधिक से अधिक अर्थ तो यह हो कि आपसी सद्भावना या गुणानुराग या गुणोत्कीर्तन से दूसरे को अपनी ओर खींचना। खींचने का मतलब बांधने की बुद्धि नहीं, केवल भाईचारा बढ़ाने की भावना है। ___ यह तो कभी नहीं हो सकता कि अहिंसक थोथी बड़ाई के पुल बांधकर किसी को टिकाए। यह दोष आत्म-श्लाघा से कम नहीं है। इस प्रवृत्ति से केवल अहिंसक ही टोटे में नहीं रहता, सामने वाले व्यक्ति को भी बड़ा धक्का लगता है; उस समय वह समझे या न समझे। झूठी प्रशंसा से उसके अभिमान का पारा और बढ़ जाता है। उसका उत्कर्ष उसे फिर वहां ले जाता है जहां कि उसे नहीं जाना चाहिए अथवा वहां जाने का अर्थ होता है उसका पतन। झूठी प्रशंसा आदमी को आगे नहीं ले जाती। यह वेश्या है, जो एक बार ललचाकर सदा के लिए गिरा देती है। जहां तक सम्भव हो अहिंसक आपसी अनबन टालने की चेष्टा करे किन्तु उसका मूल्य ज्यों-त्यों किसी को रिझाना ही हो तो उसके लिए वह बाध्य नहीं हो सकता। वह स्वयं अनबन के रास्ते पर न जाए। दूसरा कोई जाए तो उसकी जिम्मेदारी अहिंसक नहीं ले सकता। ___अहिंसक को नम्र होना चाहिए किन्तु दूसरों की बुराइयों को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं। दूसरे के गुणों के प्रति और अपनी वृत्ति के प्रति जो नम्रता होती है, उसी का नाम नम्रता है। बुराई के सामने झुकना नम्रता नहीं है। लालची वृत्ति से झुकना भी नम्रता नहीं है। __अहिंसक बुराई के साथ कभी भी समझौता नहीं कर सकता, इसलिए उसे जितना नम्र होना चाहिए उतना कठोर भी। 'वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि'-यह बात अहिंसक के लिए सोलह आने सही है। कठोर किसी व्यक्ति के Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १८६ प्रति नहीं, अपनी वृत्तियों के प्रति होना चाहिए ताकि बुराई से समझौता न करने के कारण पैदा होने वाली कठिनाइयों का दृढ़ता से सामना कर सके । (ग) साथी मायावी है। वह छल से चलता है। कहता कुछ है और करता कुछ है। मन में कुछ है और बाहर से कुछ ही दिखाता है। इस हालत में अहिंसक उसके साथ कैसे चले? अहिंसक का दिल साफ होना चाहिए। चलते-चलते पैतरा बदलना उसके लिए उचित नहीं। माया वह करता है, जो अन्दर की कमजोरियों के बावजूद भी अपने को बहुत बड़ा व्यक्ति सिद्ध करना चाहता है। अहिंसक में बड़ा बनने की भूख नहीं होनी चाहिए। फिर वह माया क्यों करे ? वह हर काम सचाई के साथ करे। जो बात दिल में आए, वह साफ-साफ कह दे। कहने का अवसर न हो तो मौन रख ले किन्तु दिल में कुछ और कहे कुछ, ऐसा कभी न करे। किसी को झूठा विश्वास दिलाना बहुत बड़ी हिंसा है। अहिंसक को चाहिए कि वह अपनी कमजोरियों को छिपाए नहीं। दूसरों को धोखे में रखना बड़ी भूल है। मायावी की चालों को समझना जरूर चाहिए । चालाकी को समझना हिंसा नहीं है । हिंसा है चालाकी करना । अहिसक में फलाशा नहीं होनी चाहिए। एक के बदले दस पाने की लालसा नहीं होनी चाहिए। इससे माया की वृत्ति बढ़ती है। सरलता से बरतने वाला दूसरों को भी सरल बना देता है। सम्भव है कोई न भी बने, फिर भी अहिंसक के लिए तो सरलता के सिवा दूसरा विकल्प ही नहीं है। (घ) साथी लोभी है। वह हर काम लालच से करता है, स्वार्थ को आगे किए चलता है। अपनी चीजों पर ममत्व है। उनकी चिन्ता करता है। दूसरों की वस्तुओं का प्रयोग करता है। अच्छी चीजों पर टूट पड़ता है। उसकी चीजों का दूसरा कोई उपयोग करे तो बिगड़ जाता है। खान-पान की भी आसक्ति है। अहिंसक को उसे कैसे पाना चाहिए। अहिंसक की भूमिका परमार्थ की होती है। वह परमार्थ को आगे कर स्वार्थ से लड़े। वह सोचे-ये पौद्गलिक वस्तुएं बिगड़ने वाली हैं, नष्ट होने वाली हैं, उपयोग होगा तो भी बिगड़ेंगी, उपयोग नहीं होगा तो भी बिगड़ेंगी। तब फिर आसक्ति क्यों ? यों सोचकर उनकी चिन्ता से मुक्त बने, अभ्यास करे। असम्भव दीखने वाली बात भी अभ्यास से सम्भव बन जाती है। किसी ने अपनी वस्तु का उपयोग कर लिया तो कर लिया, इसमें बिगड़ा क्या? इस तुच्छ बात को लेकर स्वयं बिगड़ जाए, यह कितना बुरा है। ऐसी स्थिति में वही व्यक्ति आपे से बाहर होता है, जो आसक्त होता है। अहिंसक का पहला लक्षण है-अनासक्ति । वह Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अहिंसा तत्त्व दर्शन संयम के लिए और संयमपूर्वक खाए, पीए, पहने और जीए । अच्छा खान-पान, अच्छा रहन-सहन, अच्छा वस्त्र सहज मिले तो न ले; यह कोई बात नहीं किन्तु उनके लिए मारा-मारा न फिरे। उनकी फिक्र में न रहे। परिस्थिति बदलने पर सहज मिलने वाली चीजें भी त्याग दे। अगर आसक्ति के भाव बढ़ने की सम्भावना हो, उसको समाज अच्छा न समझे, दूसरों को वह असह्य हो उठे, समाज में असन्तोष की मात्रा बढ़ती हो, सबको या बहुतों को वे चीजें सुलभ न हों, ऐसी स्थिति में अहिंसक को अपनी अनासक्ति का भाव अधिक जगाना चाहिए, त्याग का विशेष परिचय देना चाहिए। ऐसा करके वह साथी को ममत्व के जाल से बाहर निकाल सकता है। ___अहिंसक को यह सोचकर नहीं रह जाना चाहिए कि दूसरे ईर्ष्या करते हैं, मैं उनकी ओर क्यों ध्यान दूं? ठीक है, ईर्ष्या बुरी है। अनधिकारी किसी दूसरे की विशेषता पर सोचे, वह ईा हो सकती है किन्तु अपने वर्ग में असामंजस्य न आए, भेदभाव न बढ़े, इस दृष्टि से सोचना ईर्ष्या नहीं है। दूसरे की स्थिति को ठीक आंकना चाहिए। लालची के साथ लालची जैसा बर्ताव करने पर स्थिति बिगड़ती है। लालची के साथ सन्तोष-परितृप्ति बरतने से उसकी अतृप्ति अपने आप सिकुड़ जाती है। हवा को रोकिए, उसका वेग बढ़ेगा, शक्ति बढ़ेगी। उसे खुले स्थान में छोड़ दीजिए, वह अपने आप बिखर जाएगी। यही बात बिगड़े लालच की है। लालची स्वयं समझकर उसका वेग रोके तो रुक सकता है। अगर कोई दूसरा व्यक्ति उसके वेग को बलात् रोकना चाहे तो वह रुकने के बजाय उभर जाता है अथवा दूसरी बुराई के रूप में बदल जाता है इस जगह अहिंसक को आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति से काम लेना चाहिए। एलोपैथिक पद्धति उसके लिए उपयोगी नहीं है। वह रोग को तेज दवा से दबाती है। उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। एक बार रोग दब जाता है। शान्ति मिलती है पर दबा हुआ रोग दूसरे भयंकर रोग के रूप में सामने आता है। आयुर्वेदीय दवा रोगी को एकाएक शान्ति नहीं पहुंचाती, धीरे-धीरे उसके रोग की जड़ काटती है। अहिंसक भी एकाएक किसी को दबाता नहीं। उसकी सन्तोषपूर्ण प्रवृत्तियां धीमे-धीमे लालच को उखाड़ फेंकती हैं। अन्याय का प्रतिकार सहवास में एक ओर जहाँ आपसी वैयक्तिक झमेले उठते हैं, वहाँ दूसरी ओर अनधिकार चेष्टा तथा अन्याय के थोपे जाने का खतरा रहता है। ऐसी स्थिति में Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन .१६१ अहिंसक को चुप्पी साधनी चाहिए या प्रतिकार करना चाहिए। अहिंसक के लिए मौन अच्छा साधन है। मौन साधने पर भी अन्याय नहीं टल सके तो उसके लिए एकमात्र प्रतिकार का रास्ता बाकी रहता है। हिंसात्मक प्रतिकार उसके लिए है नहीं। अहिंसात्मक तरीकों से वह चले । कष्ट आए उन्हें झेले, उनके सामने घुटने न टेके, झुके नहीं। अन्याय को प्रोत्साहन देने वाले तत्त्वों से सहयोग न करे। नम्रता को भी न छोड़े। तिरस्कार, उद्दण्डता, अवज्ञा-ये सब हिंसा हैं। अहिंसक किसी भी हालत में इन्हें नहीं चुन सकता । अहिंसा में दब्बूपन भी नहीं है, यह ध्यान रहे ? अहिंसक झंझटों में क्यों फंसे, क्यों बोले, सब कुछ सहना ही उसका धर्म हैयह समझना भारी भूल है। क्षमा का अर्थ है-अपनी वृत्तियाँ उत्तेजित न हों। अन्याय में सहयोगी बने, यह क्षमा नहीं, कमजोरी है। क्षमा को वीरों का भूषण कहा गया है। वह कायरता का आवरण नहीं होना चाहिए । ___ अहिंसक के लिए अन्याय का प्रतिकार करने की बात दूसरी है। पहली बात है-वह स्वयं किसी के प्रति अन्याय न करे। जो दूसरों के प्रति अन्याय न करे, उसे ही अन्याय का प्रतिकार करने का हक है। इसलिए अहिंसक को चाहिए कि वह अपनी वृत्तियों को पूर्ण संयत करे। अन्याय का मतलब है-असंयम । असंयम व्यक्ति में रहे, वह भी बुरा है। अपना असंयम दूसरों पर प्रभाव डाले, यह तो और अधिक बुरा है । अहिंसा का मूल मंत्र है-संयम । भगवान् महावीर ने कहा है—“अहिंसक वह है जो हाथों का संयम करे, पैरों का संयम करे, वाणी का संयम करे और इन्द्रियों का संयम करे।' संयम ही अहिंसा है। यह आत्म-निष्ठा से फलित होती है, इसीलिए उसका सिद्धान्त अध्यात्मवाद कहलाता है। अध्यात्म के विचार-बिन्दु १. आकांक्षा का अभाव अध्यात्म है। २. विचार का अभाव अध्यात्म है। ३. चारित्रिक कर्मण्यता अध्यात्म है। ४. अकर्मण्यता अलसता नहीं किन्तु निवृत्ति है। वह अध्यात्म है। एक १. दशवैकालिक १०/१५ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अहिंसा तत्त्व दर्शन शब्द में आत्मा का सहज रूप अध्यात्म है। ५. अध्यात्म का चरम या परम रूप है-अकर्मण्यता यानी दूसरे पदार्थ के सहयोग का अस्वीकार-सर्वथा आत्म-निर्भरता यह मुक्ति-स्थिति है। जीवनकाल में-कर्मण्यता में अकर्मण्यता का जो अंश है वह अध्यात्म है अथवा कर्मण्यता में असत् कर्मण्यता का जो अभाव है, वह अध्यात्म है। ६. अध्यात्मवाद से आकांक्षा की तृप्ति नहीं, उसका अभाव हो सकता है। ७. अध्यात्मवाद से आवश्यकता की पूर्ति नहीं, उसकी पूर्ति के साधनों का विकार मिट सकता है। ८. अध्यात्म से पदार्थ की प्राप्ति नहीं, प्राप्त पदार्थ पर होने वाला ममकार या बन्धन छूट सकता है। ६. भौतिक प्राप्ति के लिए भौतिक साधन अपेक्षित होते हैं और आत्मप्राप्ति के लिए आत्मिक साधन । १०. भौतिकता से दूर रहने के लिए आत्मिक साधन उपयोगी हैं। ११. भौतिकता को सीमित करने के लिए आत्मिक साधन चाहिए । १२. भौतिक जीवन का स्तर ऊंचा होगा, आवश्यकताएं बढ़ेंगी, शान्ति कम होगी। १३. आध्यात्मिक जीवन उठेगा, आवश्यकताएं कम होंगी, शान्ति बढ़ेगी। १४. पदार्य के अभाव में अशान्ति और भाव में शान्ति, ऐसी व्याप्ति नहीं बनती। १५. मानसिक नियन्त्रण से मानसिक साम्य होता है और वही शान्ति है । मानसिक अनियन्त्रण से मानसिक वैषम्य बढ़ता है, वही अशान्ति है। १६. जहां आकांक्षा है, वहां अशान्ति है और जहां आकांक्षा नहीं, वहां शान्ति है। १७. आवश्यकता है, वहां श्रम होगा, अशान्ति नहीं। १८. आवश्यकता की पूर्ति सम्भव है, आकांक्षा की पूर्ति असम्भव । १६. शोषण का मूल जीवन की आवश्यकताएं नहीं, मानसिक अतृप्ति है। २०. अहिंसा का आधार कायरता नहीं, अभय, समता और संयम है। २१. अपरिग्रही वह नही, जो दरिद्र है । अपरिग्रही वह है, जो त्यागी है । २२. भोग समाज की संघातक या संघटक शक्ति है और त्याग विघातक या विघटक शक्ति । २३. भोग समाज की अपेक्षा है और त्याग उसकी अति का नियन्त्रण । २४. भोग आत्मा का विकार है और त्याग आत्मा का स्वरूप । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १६३ २५. असंयम में बाह्य नियन्त्रण रहता है, इसलिए असंयमी दूसरों के सामने अन्याय करने में झिझकता है । २६. संयम में अपना नियन्त्रण होता है, इसलिए संयमी एकान्त में भी अन्याय नहीं करता। २७. मर्यादाहीन जीवन कहीं भी मान्य नहीं होता। स्व-मर्यादा नहीं होती, वहां दूसरे मर्यादा करते हैं। अध्यात्मवाद स्वयं मर्यादा है। हीन भावना न आए, इसलिए अध्यात्मवादी मानता है-मैं स्वयं परमात्मा हूं। २८. गर्व न आए, इसलिए अध्यात्मवादी मानता है-सब जीव समान हैं। सब जीव एक हैं। २६. परमात्मा बनने के लिए और मिथ्याभिमान से बचने के लिए अध्यात्मवाद का सूत्र है-संयम की साधना। ३०. अध्यात्मवादी वह होता है, जो दूसरों से न डरे, न दूसरों को डराए, न स्वयं दूसरे को ऊंच-नीच समझे और न दूसरों से स्वयं को ऊंच-नीच समझे, सबके प्रति समभाव बरते । निष्क्रिय अहिंसा का उपयोग ____ कई व्यक्ति निषेधात्मक अहिंसा को निठल्लों का हथियार बताते हैं । प्रवृत्तिशून्य जीवन उन्हें रुचता नहीं। सब कुछ करते हुए अहिंसा का पालन करना, यही उनके सिद्धान्त का सार है। यह सिद्धान्त न एकान्ततः सारहीन है और न एकान्ततः सारयुक्त । देह-दशा में पूर्ण निष्क्रियता हो नहीं सकती, यह वस्तुस्थिति है। किन्तु इससे प्रवृत्ति मात्र में अहिंसात्मकता नहीं आती । असंयमांश मिट जाता है, वही प्रवृत्ति अहिंसात्मक होती है । इसलिए प्रवृत्ति को शुद्ध करने के लिए निवृत्ति आवश्यक है। दया का भाव आता है, तब हिंसा की निवृत्ति होती है। हिंसा की निवृत्ति होती हैं, तब दया का विकास होता है। मुनि पूर्ण दयालु होता है, इसलिए वह सभी जीवों का त्रायी—पूर्ण अहिंसक होता है । गृहस्थ की शक्यता अधूरी होती है। वह सब प्रवृत्तियों के असंयमांशों को छोड़ने में क्षम नहीं होता, इसलिए वह पूर्ण दयालु नहीं होता। पूर्ण दयालु नहीं होता, इसलिए वह पूर्ण अहिंसक नहीं होता। युद्ध की प्रवृत्ति हिंसा है किन्तु उसमें भी निरपराध को न मारने, निहत्यों पर प्रहार न करने की वृत्ति जो हो, वह अहिंसा है। व्यापार करना अहिंसा नहीं किन्तु व्यापार करने में झूठा तोल-माप व शोषण न करने और न ठगने की वृत्ति अहिंसा है। सिद्धान्त की भाषा में कहा जा सकता है कि राग द्वेष से जितना बचाव किया जाए, वही अहिंसा है। राग-द्वेष प्रवृत्ति है और उनसे बचाव करना Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अहिंसा तत्त्व दर्शन निवृत्ति' । निवृत्ति का अर्थ केवल प्रवृत्ति का निषेध ही नहीं किन्तु प्रवृत्ति के रागांश या द्वेषांश का वर्जन भी है— इसीलिए निवृत्त्यात्मक अहिंसा को निठल्लों का हथियार नहीं कहा जा सकता । सक्रिय अहिंसा जीवन की कुछ - एक घड़ियों में होती है । निष्क्रिय अहिंसा का उपयोग जीवन के प्रत्येक क्षण में किया जा सकता है, किन्तु उसका उपयोग वही कर सकता है, जो सच्चा वीर हो । प्रवृत्ति की अपेक्षा सत्प्रवृत्ति दुष्कर है, वैसे ही सत्प्रवृत्ति की अपेक्षा निवृत्ति दुष्कर है । I अहिंसा का समग्र रूप 'धर्म पवित्र आत्मा में ठहरता है ।" अहिंसा धर्म है । व्यवहार की भाषा में वह पवित्र आत्मा में उद्भूत होती है । निश्चय की भाषा में आत्मा की स्वाभाविक स्थिति ही पवित्रता है और वही अहिंसा है । स्वाभाविकता का चरम रूप विदेहदशा में प्रकट होता है । यह सिद्ध दशा है । साधना काल में स्वाभावोन्मुख प्रवृत्ति होती है, वह अहिंसा है । उसका दूसरा नाम है - मोक्ष मार्ग । मोक्ष के चार साधन हैं : १. ज्ञान, २. दर्शन (श्रद्धा), ३. चारित्र, ४. तप । पदार्थों की जानकारी मात्र से न बन्धन होता है और न मुक्ति । ज्ञान सत्य का हो चाहे असत्य का वह स्वभावतया निरवद्य होता है । मन, वाणी और कर्म के साथ संयुक्त होकर वह क्रियात्मक दृष्टि से सावद्य और निरवद्य-दोनों बनता है | मोहरंजित मन, वाणी और कर्म का सहवर्ती ज्ञान सावद्य होता है और मोहविमुक्त मन, वाणी और कर्म का सहवर्ती ज्ञान निरवद्य। वह क्रियात्मक निरवद्य ज्ञान आत्म-मुक्ति का साधन बनता है । अध्यात्मशास्त्र में इसी को सम्यग् ज्ञान कहा जाता है । सत्य की रुचि का नाम है-श्रद्धा । मिथ्या विश्वास हिंसा का ही रूप है । उससे आत्मा आवृत होती है । १. जातिवाद - जाति विशेष को अछूत समझना, उससे घृणा करना मानसिक व्यामोह है । २. पुत्र पैदा किये बिना स्वर्ग नहीं मिलता । १. आत्मानुशासन २३७ : रागद्वेषौ प्रवृत्ति स्याद्, निवृत्तिस्तन्निरोधनम् । २. उत्तराध्ययन ३।१२ : धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठई | Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १९५ ३. युद्ध में मरने वाला स्वर्ग जाता है। ४. सारी सृष्टि मनुष्य के भोग के लिए है, वह सर्वोत्तम प्राणी है, आदिआदि मिथ्या विश्वास हैं। अपुत्र की गति नहीं होती, 'युद्ध में मरने वाला स्वर्ग जाता है'—ये सामयिक अपेक्षाएं हो सकती हैं, अहिंसा-धर्म नहीं। वैदिक विचार' से जैन विचार का यह मौलिक भेद है। मनुष्य सर्वोत्तम प्राणी है-यह सही है। सर्वोत्तम के लिए अल्पोत्तम की उपेक्षा की जाए, यह गलत है, हिंसा की दृष्टि है। "हिंसा का अनिरुद्ध स्रोत चलता है, उसका आधार यही है कि मनुष्य अपने आपको सबसे ऊंचा मानता है। मनुष्य-हित के लिए सब कुछ किया जाना उचित है- इस मिथ्या धारणा के बल पर वैज्ञानिक प्रयोगों की वेदी पर लाखों-करोड़ों जीवों की बलि चढ़ती है। जीने का अधिकार सबको है। सुख-दुःख की अनुभूति सबको है। जीवन प्रिय और मृत्यु अप्रिय सबको है। इसको भुलाकर मूक जीवों की निर्मम हत्या करने वाले एक महान् सत्य से आँखें मूंदते हैं । खाद्य और विलास के लिए भी बड़ी-बड़ी हिंसाएं चलती हैं। सारी सृष्टि मनुष्य के लिए ही है। यदि पशु न मारे जाएं तो वे सारे जमीन पर छा जाएं-ऐसी धारणाएं हैं। उन्हें उखाड़ फेंके बिना जीव-दया का मूल्य नहीं बढ़ेगा।" चारित्र का अर्थ है-विरति या संयम । यह आत्म-शोधन की निरोधात्मक प्रक्रिया है। इससे पूर्व-मालिन्य का शोधन नहीं होता किन्तु भविष्य के मालिन्य का निरोध होता है । आत्मा नए सिरे से अशुद्ध नहीं बनती। पूर्व-मल-शोधन की प्रक्रिया तप है। जितनी भी निवृत्ति-संवलित प्रवृत्ति है अथवा मन, वाणी और कर्म का जितना भी अहिंसात्मक व्यापार है, वह सब तपस्या है। ये चारों (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप) समुदित दशा में मुक्ति के साधन हैं अतः इन चारों की समिष्ट ही अहिंसा का समग्र रूप है। स्वास्थ्य-साधना अहिंसक की वृत्तियां आवेग-रहित होनी चाहिए । आवेग हैं : १. क्रोध २. मान १. (क) अपुत्रस्य गति स्ति। (ख) हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम् ... २. जाया य पुत्ता न हवन्ति ताण'.. --उत्तराध्ययन १७ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ३. माया ४. लोभ ५. चुगली ६. निंदा ७. आरोपकरण घृणा - तिरस्कार ८. ६. कलह १०. पक्ष का आग्रह ११. भय । शारीरिक वेग दूसरी कोटि के हैं । आयुर्वेद की दृष्टि से शारीरिक वेग (मल, उनका वेग रोकने से स्वास्थ्य की हानि रोकने के बारे में आयुर्वेद और धर्म अहिंसा तत्त्व दर्शन मूत्र आदि का वेग ) नहीं रोकना चाहिए । होती है । किन्तु इन मानसिक आवेगों को शास्त्र दोनों एकमत हैं । १. अहिंसक को क्रूर नहीं होना चाहिए । क्रोध क्रूरता लाता है, प्रेम का नाश करता है । २. अहिंसक नम्र होगा, उद्दण्ड नहीं । दूसरों को तुच्छ समझने की भावना हिंसा है । जाति, कुल, बल, रूप, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और तप — ये आठ मद हैं । अहिंसक को इनका अहंकार नहीं करना चाहिए । उद्दण्डता से विनय नष्ट हो जाता है । उद्दण्डता जैसे हिंसा है, वैसे गुलामी और हीन भावना भी हिंसा है । अहिंसा का मर्म मध्यस्थ वृत्ति या संयम है । सफलता में उत्कर्ष और असफलता में अपकर्ष - ये दोनों नहीं होने चाहिए। दोनों में सम रहना अहिंसा है। लाभ-अलाभ, सुखदु:ख, जीवन-मृत्यु, निंदा - प्रशंसा, मान-अपमान में जो समवृत्ति होता है, वही अहिंसक है । ' अहिंसक में विवेक होता है, इसलिए वह लाभ और अलाभ को सम नहीं मानता । किन्तु उसमें आत्माभिमुखता होती है, इसलिए वह दोनों स्थितियों में अपनी वृत्तियों को सम रख जाता है । अहिंसा आत्म-निष्ठा की उपासना है । हीन भावना के त्याग के लिए आत्मा की उपासना परम तत्त्व के रूप में होती है - 'जो परम तत्त्व है वह मैं हूं ।' अहंकार-त्याग के लिए उसकी उपासना समता के रूप में होती है— 'आत्मा मात्र समान है ।' ३. अहिंसक को काय ऋजु, भाषा- ऋजु, भाव ऋजु होना चाहिए। उसके १. उत्तराध्ययन १६ - ६१ : लाभा लाभे सुहे दुखे, जोविए मरणे तहां । समो निंदापसंसासु, तहा मणावमाणओ || Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ૨૨૭ शरीर, वाणी और मन का व्यापार सरल होना चाहिए। वक्रता हिंसा है । माया भी हिंसा है। इससे मैत्री का नाश होता है । ४. पदार्थों के लिए या उनके व्यवहार में आसक्ति नहीं होनी चाहिए । आसक्ति और असंतोष हिंसा है । यह सद्गुणों का नाश करता है । ५-६. परोक्ष में बुराई करना चुगली और सामने बुराई करना निन्दा है । अहिंसक बुराई को मिटाना चाहता है, इसलिए वह दूसरों की बुराई कर नहीं सकता । बुराई का प्रकाशन करने से बुरा भला नहीं बनता । बुरे को सुधारने का उपाय है— उसके हृदय में बुराई के प्रति ग्लानि उत्पन्न कर देना । ७-८-१. दूसरों पर आरोप लगाना, लड़ना-झगड़ना, घृणा करना, ये सब मानसिक असन्तोष के परिणाम हैं । १०. पक्ष का आग्रह मिथ्याभिमान का परिणाम है । ११. भय हिंसा का कार्य और कारण दोनों है । भय से हिंसा वृत्ति उत्पन्न होती है और हिंसा से भय बढ़ता है । संस्कारी दशा में वृत्तियों की दशा बदलती उनका उन्मूलन नहीं होता । इन आवेगों के नियन्त्रण से निम्न वृत्तियां फलती हैं : १. क्षमा या क्रोध का उपशम २. नम्रता या मृदुता ३. ऋजुता ४. अनासक्त भाव और सन्तोष ५. पर - गुणग्राहकता ६. स्व - श्लाघा - वर्जन ७. स्व - दोष-दर्शन ८. प्रेम या मैत्री ६. शांति १०. सत्यग्राही दृष्टि ११. अभय अथवा ऐसे कहा जा सकता है कि ये वृत्तियाँ उनके नियन्त्रण के साधन हैं । बुराई से बुराई को मिटाने की बात हिंसा का सिद्धान्त है । जैसे आग से आग नहीं बुझती, वैसे ही क्रोध से क्रोध नहीं मिटता । क्रोध की विजय का उपाय है— अक्रोध या उपशम । अहिंसक को धीर, गम्भीर और शान्त होकर वेगात्मक वृत्तियों पर विजय पानी चाहिए | आवेग - मुक्ति, भय मुक्ति, वासना - मुक्ति और व्यसन मुक्ति होने से रोग मुक्ति स्वयं हो जाती है। आवेग - विजय का अर्थ है - स्वास्थ्य, Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अहिंसा तत्त्व दर्शन स्वस्थता, आत्म-स्थिति। अहिंसा का विवेक अहिंसा की साधना कठोर है, इसलिए उसके साधक को कष्ट-सहिष्णु होना आवश्यक है। भगवान् महावीर ने कहा-“दैहिक कष्टों को सहनशीलता पूर्वक सहने से महान् फल होता है।'' इसका यह अर्थ नहीं कि कष्ट ही कष्ट सहते रहना चाहिए। अहिंसा का सिद्धान्त है-हिंसा पर विजय पाने के लिए जितना कष्ट सहना पड़े, वह सब सहा जाए। इसी सिद्धान्त के आधार पर तपस्या का विकास हुआ। इन्द्रिय और मन को जीते बिना अहिंसा जीवन में नहीं आ सकती। इनकी विजय के लिए बाह्य वस्तुओं—विषयों का त्याग आवश्यक है। वही तपस्या है। उससे बाह्य वस्तुओं का सम्बन्ध छूट जाता है। फिर भी उनकी वासनाएँ शेष रह जाती हैं। उन्हें निर्मूल करने के लिए ध्यान है। वह भी तपस्या है। पहली बाह्य तपस्या है और दूसरी अन्तरंग । एक से बाह्य-शुद्धि होती है और दूसरी से अंतरंग शुद्धि । वस्तु-त्याग के रूप हैं : १. अनशन- खान-पान का त्याग, एक दिन के लिए या उससे अधिक । २. ऊनोदरिका: (१) खान-पान में कमी, भूख से कम खाना, कम चीजें खाना आदि (२) क्रोध आदि की कमी करना। ३. वृत्ति-संक्षेप-जीवन-निर्वाह के साधनों का संक्षेपीकरण । ४. रस-परित्याग-सुस्वादु व गरिष्ठ भोजन का त्याग या सीमाकरण । ५. काय-क्लेश-आसन आदि के द्वारा शरीर को साधना । अहिंसा की साधना में आने वाले कष्टों को सहना । ६. प्रतिसंलीनता : (१) इन्द्रियों के विषयों का त्याग । (२) क्रोध आदि का त्याग--अनुदित क्रोध का त्याग और उदित क्रोध का विफलीकरण । (३) अकुशल मन, वाणी और कर्म का निरोध; कुशल मन, वाणी और कर्म की उदीरणा । (४) विकारहेतुकमकान और आसन का त्याग । जीवन के अन्तर-शोधन की प्रक्रिया के तत्त्व ये हैं : (१) प्रायश्चित्त-किए हुए पापों की आलोचना। १. दशवैकालिक ८ : देहे दुक्खं महाफलं Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २. विनय - मन, वाणी और कर्म की नम्रता । ३. वैयावृत्त्य (सेवा) - अपनी शक्तियों का दूसरे के निश्रेयस् के लिए व्यापार । १६६ ४. स्वाध्याय-- - मुक्तिकारी विद्या का अध्ययन, मनन, चिन्तन । ५. ध्यान — मन की वृत्तियों का स्थिरीकरण । ६. व्युत्सर्ग- शरीर का स्थिरीकरण या शरीर और चेतन के भेद का ज्ञान | वस्तुओं का त्याग व्यावहारिक या स्थूल होता है, वासनाओं का त्याग आन्तरिक या सूक्ष्म । आन्तरिक शोधन के लिए विकार के बाहरी साधनों का वर्जन आवश्यक है । यह साध्य की सिद्धि नहीं है । उसकी सिद्धि, आन्तरिक वासनाएँ गहरी जड़ें जमाए हुए हैं, उनके निर्मूलन से होती है । खाद्य-विवेक खान-पान के बिना जीवन नहीं टिकता, इसलिए वह जीवन की मुख्य प्रवृत्ति है और वह हिंसक तथा अहिंसक दोनों के लिए समान है - जीवन की आवश्यकता की दृष्टि से, फल की दृष्टि से नहीं । अहिंसा की साधना देह-मुक्ति की साधना है, इसलिए उसमें मुख्य बात देह-पोषण की नहीं होती । 'अहिंसा अखण्ड रहे, देह भले छूट जाए' - अहिंसक ऐसा व्रत लिए चलता है । अहिंसा में आपद्-धर्म का कोई स्थान नहीं है । देह को टिकाए रखने की भावना मुख्य बनते ही अहिंसा गौण हो जाती है । जीवन टिका न रहे तो अहिंसा की साधना कैसे हो ? कौन करे ? इसलिए अहिंसा की साधना करने के लिए जीवन को बनाये रखना आवश्यक है । जीवन को बनाए रखने का मुख्य साधन खान-पान है । इस दशा में खान-पान की हिंसा अहिंसा का ही एक अंग बन जाती है - इस कोटि का चिन्तन भी प्रस्तुत किया जाता है । किन्तु यह अहिंसा की मर्यादा के प्रतिकूल है । भविष्य की अहिंसा के लिए वर्तमान की हिंसा अपना रूप नहीं त्यागती — अहिंसा के लिए की जानेवाली हिंसा अहिंसा नहीं बनती। 'मुनि अपने जीवन की सब प्रवृत्तियों में अहिंसा का विचार लिए चलता है । वह खान-पान के लिए भी हिंसा नहीं करता ।' अपने लिए बनाया हुआ भोजन नहीं लेता । उसकी भिक्षा नव-कोटि-परिशुद्ध होती है । 1 गृहस्थ के लिए इतना कठोर व्रत सम्भव नहीं । उसकी भूमिका भिक्षावृत्ति की नहीं होती । भिक्षा तीन प्रकार की होती हैं : 1 १. पौरुषघ्नी, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अहिंसा तत्त्व दर्शन २. वृत्तिघ्नी, ३. सर्व सम्पत्करी। कार्य करने में समर्थ गृहस्थ भीख मांगता है-वह 'पौरुषघ्नी भिक्षा' है। यह समाज की निम्न-दशा का चिह्न है। अपंग व्यक्ति भीख मांगते हैं वह 'वृत्तिघ्नी भिक्षा' है। यह समाज-व्यवस्था का दोष है। 'सर्व संपत्करी भिक्षा' मुनि की होती है। वह न आलसी बनकर भीख मांगता है और न हीन बनकर। वह भिक्षा को कष्ट मानकर उसे सहता है। दूसरों के सामने हाथ पसारना कठोर मार्ग है, फिर भी मुनि के लिए इसके सिवा जीवन-निर्वाह का दूसरा कोई विकल्प नहीं होता। इसलिए उसे भिक्षा मांगनी होती है। गृहस्थ पूर्ण अहिंसा की भूमिका में नहीं होता, इसलिए उसे खान-पान के लिए भी हिंसा करनी पड़ती है। किन्तु जिसकी गति अहिंसा की ओर हो । उसमें खाद्य-विवेक अवश्य होना चाहिए। ____ अहिंसाव्रती को वैसी वस्तुएं नहीं खानी चाहिए, जिनसे आवश्यकता-पूर्ति कम हो और हिंसा अधिक। उसे स्वाद के लिए कुछ भी नहीं खाना चाहिए और मादक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। मांस-त्याग का आधार यही (खाद्य-विवेक) है। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है। उसे खाने के पीछे स्वाद-वृत्ति, पौष्टिकता आदि भावनाएं होती हैं। मादकता, उत्तेजकता आदि उसके कुपरिणाम हैं। उससे वृत्तियों की तामसिकता बढ़ती है। मांस-भोजन के लिए बड़े जीवों की ही नहीं, उनके अतिरिक्त असंख्य छोटे जीवों की भी हिंसा होती है। ऐसे अनेक प्रसंग मिलकर मांसाहार त्याग के निमित्त बनते हैं। कोमल वृत्ति का जागरण होने पर व्यक्ति का विवेक किस प्रकार जाग उठता है वह निम्न घटना में पढ़िए : जब बीमार पड़े हुए बर्नार्डशा से डॉक्टरों ने कहा कि 'यदि आप गाय का मांस नहीं खाते हैं तो मर जाएंगे। तब बुद्धिमान् शा ने 'लन्दन डेली क्रोनिकल' नामक दैनिक पत्र में इस प्रकार अपने विचार व्यक्ति किए : ___ "मेरी स्थिति बड़ी गम्भीर है। मुझे जीवन-दान इस शर्त पर दिया जा रहा है कि मैं गाय या बछड़े का मांस खाऊँ। परन्तु मेरी श्रद्धा है कि प्राणी मात्र का शव भक्षण करने की अपेक्षा मृत्यु कहीं अधिक अच्छी है। मेरे जीवन की अन्तिम आकांक्षा मेरी अन्त्येष्टि क्रिया के लिए मार्गदर्शन करती है कि मेरी मृत्यु के पश्चात् भेड़ें, दूध देने वाले पशु तथा छोटी-छोटी मछलियाँ आदि सभी जीव मेरी मृत्यु का शोक न मनाकर अपने गलों पर शुभ्र वस्त्र बाँधकर ऐसे व्यक्ति के सम्मान में प्रसन्नतापूर्वक समारोह मनाएं, जिसने जीव-जन्तुओं का मांस खाने के स्थान पर मर जाना अधिक अच्छा समझा। मेरी अन्तिम यात्रा 'नोहाअर्क' के अपवाद को Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ अहिंसा तत्त्व दर्शन छोड़कर सबसे निराली घटना होगी।"१ अन्तर्मुखी दृष्टि अहिंसक की दृष्टि अन्तर्मुखी होनी चाहिए। बहिर्मुखी दृष्टि वाला व्यक्ति बुराई करते समय 'कोई देख न ले' इसका बचाव करता है, अपना बचाव नहीं करता। इससे बुराई गूढ़ बन जाती है। प्रकट रोग से छिपा रोग और अधिक जटिल होता है। दृष्टि अन्तर्मुखी होने पर व्यक्ति का सहज प्रयत्न बुराई से बचने का होता है, फिर चाहे कोई देखे या न देखे। दिन और रात, एकान्त और सहवास, शयन और जागरण में जिसका हिंसा से बचने का समान प्रयत्न हो, थोड़ा भी अन्तर न आए, वही व्यक्ति अहिंसा या अन्तर्मुखी दृष्टि वाला है। बुराई में जिसको अपना अनिष्ट दीख पड़े, वही व्यक्ति बुराई को छोड़ सकता है। लज्जा, भय या अनुशासन के द्वारा बुराई गूढ़ बन जाती है, मिटती नहीं। आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में-"मारने वाले को जीव-हिंसा में अपना अनिष्ट दीख जाए, तभी वह उसे छोड़ सकता है, नहीं तो नहीं।" आत्मानुशासन का स्रोत अन्तर्मुखी दृष्टि ही है। आत्मानुशासन का अर्थ है-अपने पर अपना अनुशासन । इसका जागरण होने पर अहिंसा का विकास हो जाता है। विकार-परिहार को साधना विकार-विजय का अर्थ है-आत्म-विजय। विकार व्यक्ति-हेतुक भी होते हैं और समाज-हेतुक भी। हिंसा और परिग्रह, वासना और भूख-प्यास-ये वैयक्तिक विकार हैं। असत्य और चोरी सामाजिक विकार हैं। अकेलेपन में भी व्यक्ति छोटे-बड़े जीवों की हिंसा करता है, पदार्थ का संग्रह करता है। असत्य और चोरी, ये अकेलेपन में नहीं होते। इसलिए ये दोनों सामाजिक जीवन के सहचारी हैंऐसा स्पष्ट जान पड़ता है। वासना और भूख-प्यास जैसे देह-सम्बद्ध हैं, वैसे असत्य और चोरी देह-सम्बद्ध नहीं हैं। वे जैसे व्यक्ति को सताते हैं वैसे असत्य चोरी और नहीं सताते । ये देह की अपेक्षाएं नहीं हैं, सहवास की स्थिति में उत्पन्न मानसिक विकृतियां हैं। भूख और प्यास विकार हैं पर वासना की कोटि के नहीं। वासना के पीछे मोह का जो तीव्र वेग होता है, वह भूख-प्यास की अभिलाषा के पीछे नहीं होता। विषय का स्मरण, चिन्तन, इच्छा, स्नेह और भोग-ये वासना के स्थिरीकरण के हेतु हैं। पदार्य और शरीर—ये दो वासना के क्षेत्र हैं। पाँच १. धर्मयुग, वर्ष ५ अंक ५ ता० ७।११।५४ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अहिंसा तत्त्व दर्शन इन्द्रियों के पांच विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द हैं। मन का प्रधान विषय संकल्प है। इसीलिए कहा गया है- "काम ! मैं तुझे जानता हूं। तू संकल्प से पैदा होता है। मैं तो तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा। इसीलिए तू मुझमें उत्पन्न नहीं होगा। ___ पदार्थ में आकर्षण होता है-स्पर्श की कोमलता, रस का माधुर्य, गन्ध की मादकता, रूप की मोहकता, शब्द की प्रियता होती है। इन्द्रियां इन्हें मन तक पहुंचाती हैं और वह इन्हें पाने के लिए अधीर हो उठता है और देह को भी अधीर बना देता है। व्यक्ति में पदार्थ से अधिक आकर्षण होता है। व्यक्ति के शरीर को चैतन्य की विशेषता प्राप्त होती है, इसलिए उसमें दूसरों को आकृष्ट करने की इच्छा, भावाभिव्यंजना और भाषा-ये विशेष गुण होते हैं। इनमें पदार्थ की अपेक्षा अधिक मोहकता और मादकता होती है। अहिंसक की दुनिया कोई दूसरी नहीं होती। वह इसी दुनिया में पदार्थ और प्राणी के आकर्षण के बीच रहता है। वह खाता-पीता है। उसे रूप दिखाई देते हैं। शब्द भी सुनता है। विषय से बचना एकान्ततः आवश्यक नहीं। एकान्तिक आवश्यक है--विकार से बचना। रूप को जानना चक्षु-इन्द्रिय का विषय है। वह न अच्छा है और न बुरा। रूप में आसक्ति आती है, तब वह विषय नहीं रहता, विकार बन जाता है। विचार हिंसा है। मन निविकार बने बिना अहिंसा नहीं आती। अतएव अहिंसक के लिए विकार परिहार की साधना आवश्यक होती है। पदार्थ और प्राणी दोनों के प्रति विकार पैदा होता है पर वे उसके मूल स्रोत नहीं हैं। अपना शरीर विकार की अभिव्यक्तियों की प्रयोगशाला है, फिर भी विकार का मूल स्रोत नहीं है। आत्मा भी स्वभाव से विकारी नहीं हैं। विकार का मूल स्रोत है-मोह। वह आत्मा की अशुद्ध-दशा में उस पर छाया रहता है। मोह की परम्परा आगे बढ़ती चलती है। मोह-मुग्ध व्यक्ति अपनी देह को ही आत्मा मानने लगता है। इससे उसमें देहासक्ति उत्पन्न होती है। स्व-देहासक्ति प्रबल होने पर पर-देहासक्ति और उसके बाद पदार्थासक्ति बनती है। वह विकार-विकास का क्रम है। विकार-परिहार का क्रम है : १. विवेक-दर्शन, २. आत्म-दर्शन, ३. बहियापार-वर्जन , १. काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे । नाहं संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २०३ विवेक-दर्शन चेतन और देह के भेद का ज्ञान-~मैं चेतन हूं, मेरा शरीर अचेतन है। मैं अविनाशी हूं, यह नश्वर है । मैं पुनर्भवी हूं, यह एकभवी है। इसलिए हम दोनों दो हैं । इस विवेक-दर्शन से स्वदेहासक्ति का विलय होता है । आत्म-दर्शन आत्म-दर्शन का अर्थ है, दूसरों में अपने जैसी आत्मा का साक्षात्कार करना । इससे प्रेम पवित्र बन जाता है। शरीर-सम्बन्धी प्रेम विकारी होता है । सही अर्थ में वह प्रेम होता ही नहीं। आज एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ शारीरिक प्रेम में बंधता है। वहां प्रेम का आधार है-शरीर का आकर्षण । कल मानो छूत की बीमारी हो गई तब प्रेम टूट जाता है। पवित्र और विराट् प्रेम का आधार होता है -- आत्म-दर्शन । इसके साथ जो प्रेम आता है, उसमें बीमारी और बुढ़ापा-ये बाधक नहीं बनते । जिसमें आत्म-दर्शन की शक्ति प्रबल हो जाती है, वह विकारी प्रेम में नहीं फँसता। बहिर्व्यापार-वर्जन इन्द्रिय और मन का व्यापार अन्तर्मुखी होता है, पदार्थों का अनावश्यक चिन्तन, दर्शन और ध्यान नहीं होता, तब पदार्थासक्ति छूट जाती है। अहिंसक के लिए इन तीनों की आराधना आवश्यक है। ऐसा किए बिना विकारों का परिहार नहीं होता। अहिंसा का अर्थ है-निर्विकार-दशा। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय परिवर्तन की समस्या मानव विविध-जातीय संस्कारों का संग्रहालय है। भलाई और बुराई–दोनों के बीज उसमें अंकुरित होते हैं । परिस्थितियां निमित्त मात्र हैं। उनका सहयोग पा बीज अंकुरित हो जाना है। बीज न हो तो वे किसे अंकुरित करें। परिस्थितियों की अपेक्षा व्यक्ति अधिक बलवान् होता है। वह उनसे अप्रभावित रह सकता है। यह भी सच है, उनकी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती। आज का युग नाना वादों का केन्द्र बन रहा है। कोई युग धार्मिक मत-वादों का था। आज प्रत्येक समस्या को राजनैतिक स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया जाता है। राजनीति की धुरी अर्थ-तन्त्र है। इसलिए आज का युग राजनीतिक वाद या अर्थवाद का अखाड़ा बन रहा है । विचारों और वादों का इतना संघर्षण है कि उनकी चिनगारियां अग्नि को शान्त नहीं होने देतीं। अपने आपको भुलाकर दूसरों को जगाने की वृत्ति जो आज है, वह पहले कभी इतनी उग्र हुई, ऐसा नहीं मिलता। विश्व-शान्ति की मांग भी आज अभूतपूर्व है। विज्ञान का युग है। प्रत्येक तथ्य कसौटी पर कसा जाता है। श्रद्धा को स्थान नहीं रहा। पुरुषार्थ की गाथाएं गायी जाती हैं किन्तु सिद्धान्त के रूप में। कार्य-रूप में पहला स्थान परिस्थितियों को मिल रहा है। 'परिस्थितियां ऐसी हैं, हम क्या करें ?" यह उत्तर आप बिना किसी कठिनाई के सुन सकते हैं । आश्चर्य की बात यह है-व्यक्ति अच्छे या बुरे कार्य करता है। उनके अच्छे या बुरे पणिाम होते हैं। अच्छे कार्यों और उनके अच्छे परिणामों का दायित्व वह स्वयं लेना चाहता है। बुरे कार्यों और उनके बुरे परिणामों का दायित्व वह दूसरों पर डाल देता है। और कोई न मिले तो परिस्थितियां तो हैं ही। वे कभी इस प्रवृत्ति का विरोध तक नहीं करती। यह क्या है परिस्थितिवाद या पुरुषार्थवाद ? यह सही है-परिस्थितियां व्यक्ति को प्रभावित करती हैं किन्तु तभी जब उपादान शक्तिहीन होता है । समर्थ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २०५. व्यक्ति परिस्थितियों का दास बनकर कभी नहीं चलता। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियां न्यूनाधिक मात्रा में सदा सब जगह और सबके जीवन में रहती हैं। उनसे भय खाने वाले लड़खड़ा जाते हैं और उनसे लड़ने वाले विजयी बन जाते हैं। लड़ने की दो पद्धतियां हैं-एक लम्बा-चौड़ा मार्ग और एक संकरी पगडंडी। पहला मार्ग बल-प्रयोग का है। इसमें बुराई न मिटने की स्थिति में बुरे को मिटाने की क्षमता है। दूसरी जो पगडंडी है, वह इसलिए संकरी है कि उसमें बुरे को मिटाने की कल्पना तक नहीं होती। ___व्यक्ति की अपनी दुर्बलताएं होती हैं-काम-वासना, क्रोध, लालच, आरामतलबी आदि-आदि। इन पर जो नियंत्रण पा जाता है, उसे परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। पर वे उसे दबा नहीं सकतीं। जो अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं पर नियंत्रण करना नहीं जानता या नहीं चाहता, उसे परिस्थितियां निगल जाती हैं। परिस्थितिवाद निराशावाद है। इसकी परंपरा निरन्तर चलती है। पुराने लोग कर्मवाद या भाग्यवाद की ओट में अपनी कमजोरियों को पालते थे। आज उनका लालन-पालन परिस्थितिवाद के सहारे हो रहा है । यह सच है-कर्म, भाग्य, परिस्थिति का अपना-अपना स्थान है किन्तु व्यक्ति उनसे घबराकर अपना पुरुषार्थ खो बैठे-यह अस्थानीय है। सार यही है कि सब बुराइयों की जड़ व्यक्ति की अपनी दुर्बलताएं हैं। परिस्थितियां उनको पोषण देती हैं, उन्हें मूर्त बनाती हैं। क्रोध व्यक्ति की दुर्बलता है किन्तु उसे उभारने वाली स्थिति बने बिना वह मूर्त नहीं बनता। गाली सुनते ही वह भभक उठता है। परिस्थिति ने इतना किया कि छिपी हुई बुराई को उखाड़ दिया। बुराई को नए सिरे से उत्पन्न करने की शक्ति उसमें नहीं होती। मूल में भूल है। युग का प्रमुख विचार बन रहा है-परिस्थितियों को सुधारो, तात्पर्य कि बुराई की शाखा को मिटा दो। होना यह चाहिए कि बुराई के मूल को सुधारो । मूल सुधारे बिना शाखाएं बनती-बिगड़ती रहेंगी, अर्थ कुछ नहीं होगा। परिस्थितियां परिवर्तित होती रहती हैं। एक परिस्थिति में सुधार आता है और उससे पोषण पाने वाली बुराई छिप जाती है। दूसरी परिस्थिति बनती है और दूसरे प्रकार की बुराई साकार बनने लग जाती है। उदाहरण से समझिए-एक युवक अविवाहित दशा में अप्राकृतिक मैथुन' का व्यसनी बन जाता है। विवाह होता है, स्थिति बदल जाती है; अप्राकृतिक क्रिया छूट जाती है। अब नई स्थिति उसे नई बुराई का शिकार बना डालती है। गृह की चिन्ता से वह व्यापारी बनता है और पत्नी को सन्तुष्ट रखने की चिन्ता से शोषक । अच्छे कपड़े चाहिए, गहने चाहिए, सौन्दर्य-प्रसाधन की सामग्री चाहिए, साज-सज्जा की वस्तुएं चाहिए, वह सब कुछ चाहिए जो दूसरों को सुलभ है। शोषण के बिना यह सब आए कहाँ से? Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन न्याय का दरवाजा इतना बड़ा नहीं है। आखिर यह सब अन्याय के द्वारा आता है। धन का संग्रह बढ़ता है। सुविधाएं बढ़ती हैं। ऐश्वर्य और यश भी बढ़ते हैं। स्थिति का चक्का घूमता है और उस पर विलास छा जाता है। अब न व्यापार की चिन्ता रहती है और न किसी दूसरी वस्तु की। वह बढ़ता है और इतना बढ़ता है कि आखिर सारी पूंजी को चट कर जाता है। यह गति समस्याओं और उनके समाधान की है। एक परिस्थिति में रोटी की समस्या है। दूसरी स्थिति में उसका समाधान मिलता है किन्तु वैयक्तिक स्वातन्त्र्य सीमा से अधिक बंध जाता है। नई स्थिति नई समस्या को जन्म न दे, यह लगभग असंभव-सा है। इसीलिए यह मानना होगा कि परिस्थिति का परिवर्तन नई परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है किन्तु व्यक्ति को परिस्थिति के प्रभाव से मुक्त नहीं कर सकता। व्रत की परम्परा या हृदय-परिवर्तन में परिस्थिति-परिवर्तन से पहले उसे प्रभावित रहने की बात मुख्य है। आन्तरिक दुर्बलता मिटने पर बुरी परिस्थिति व्यक्ति की कसौटी भर बन सकती है, राक्षसी बन उसे डकार नहीं सकती। कुछ समस्याएं दैहिक होती हैं और कुछ मानसिक । कई बाहरी (पर-कृत) होती हैं और कुछ आन्तरिक (स्वकृत)। कुछ सामूहिक होती हैं और कुछ वैयक्तिक । दैहिक, बाहरी और सामूहिक समस्याओं को प्राथमिकता मिलती है। दैहिक समस्याएं न सुलझें तो देह टिके कैसे? बाहरी समस्याएं सहज बुद्धिगम्य हो जाती हैं- उनकी बुराई समझने में कोई तार्किक कठिनाई नहीं होती। सामूहिक समस्याएं विस्फोट कर सकती हैं। यही कारण है, मनुष्य की सारी चेष्टाएं इनके समाधान की ओर मुंह किए चल रही हैं। १. रोटी की समस्या, कपड़े और मकान की समस्या-ये एक कोटि की समस्याएं हैं। दूसरी कोटि की समस्याएं हैं-सौन्दर्य और विलास के साधनों की दुर्लभता। २. पड़ोसी स्वभाव का चिड़चिड़ा है। वह बिना मतलब बकवास करता है, कलह करता है, शान्ति से नहीं रहने देता। पति कुछ चाहता है और पत्नी कुछ। पिता-पुत्र के विचार मेल नहीं खाते। भाई-भाई की रुचि भिन्न है। ऐसी-ऐसी असंख्य उलझनें बाहर से आती हैं। ३. सामाजिक समस्याओं से भी कौन कैसे बच सकता है ? एक व्यक्ति दहेज देना नहीं चाहता किन्तु वह (दहेज) दिए बिना बेटी की गति नहीं। जहां कन्याओं की सुलभता है, वहां वे बिकती हैं और जहां कुमार सुलभ हैं, वहाँ वे बिकते हैं। कोई इन्हें बेचना न चाहे तो उनके कुमार भाव को वरदान मान बैठा रहे। रिश्वत देने की इच्छा नहीं। अनिच्छा का कारण रुपये जाते हैं, यह भी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २०७ नहीं । उसका मूल हेतु है-अनीति न बढ़े। किन्तु वह दिए बिना सत्य भी बदल जाता है। टिकट नहीं मिलती। लाइसेन्स नहीं मिलते । बड़ों से मुलाकात नहीं हो सकती। सार्वजनिक हॉस्पिटल में भी रोगी को सही चिकित्सा की गारण्टी नहीं मिलती। ये सभी अखरते हैं-एक को, दो को और बहुतों को। इसलिए इन्हें सुलझाने के लिए समाजवाद, साम्यवाद, प्रजातन्त्र आदि-आदि शासन-पद्धतियां, नागरिक सभ्यता और सामाजिक सुधार के कार्यक्रम चलते हैं। किन्तु मानसिक, आन्तरिक और वैयक्तिक समस्याओं की उपेक्षा हो रही है। ध्यान देना होगा; कहीं सारी समस्याओं का मूल यही तो नहीं है ? दैहिक आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं, फिर भी उत्तरोत्तर अतृप्ति बढ़ती है। अमुक रोग या अमुक स्थिति में अमुक पदार्थ खाना हितकर नहीं किन्तु वह स्वादिष्ट है, इसलिए खा लिया जाता है। अधिक अब्रह्मचर्य से शारीरिक और मानसिक शक्तियां क्षीण होती हैं किन्तु संयम नहीं रहता । अनावश्यक संग्रह से चिन्ता, भय और प्रतिशोध बढ़ते हैं किन्तु उसके बिना मानसिक सन्तुष्टि नहीं होती। बाहरी और सामूहिक समस्याएं परिवर्तित होने पर क्या व्यक्ति आनन्द से भर जाता है ? ऐसा नहीं होता। महत्त्वाकांक्षा केवल उन्नति की आकांक्षा नहीं किन्तु सर्वोच्च बनने के लिए दूसरों को गिराने की प्रवृत्ति, यशोलालसा ईर्ष्या असहिष्णुता आदि-आदि ऐसी वृत्तियां हैं; जो व्यक्ति की आन्तरिक शान्ति को कुरेदती रहती हैं। ___सर्व सुविधा सम्पन्न राष्ट्र के नागरिक, जिन्हें जीवन की अनिवार्यताएं नहीं सताती, क्या इन वृत्तियों से मुक्त हैं ? पर्याप्त सुविधाएं मिलने पर भी उनमें संयम की चेतना न जागे तो शान्ति नहीं आती । दो व्यक्ति हैं। एक प्रेम करना चाहता है, दूसरा नहीं चाहता। चाह पूरी नहीं होती, मन अशान्ति से भर आता है। चाह या अपेक्षाएं अनेक होती हैं। जिनसे जो अपेक्षाएं हैं, वे उन्हें सफल नहीं बनाते, अपेक्षा रखने वाला खाक हो जाता है। सम्पन्न व्यक्तियों के जीवन में भी उलझनें आती हैं। कई चिन्ता में प्राण होम डालते हैं। कई आत्महत्या से भी नहीं चुकते। तात्पर्य में मत भूलिए-सुविधाओं से जीवन सरस बन जाता है, यह मनुष्य के सिर में सींग होने की बात से कम मिथ्या नहीं है। ___मोटर का ड्राइवर चाहता है-मैं सेठ जैसा धनी बनें । सेठ मन ही मन प्रार्थना करता है-मुझे ड्राइवर जैसी निश्चिन्त नींद आए। ड्राइवर शान्ति के मूल्य पर सुविधाएं चाहता है। यह सच है, सुविधा का स्वाद चखे बिना शान्ति का मूल्य समझ में नहीं आता। अभाव में प्रत्येक वस्तु मूल्यवान् बन जाती है । शान्ति की खोज सुविधाओं के अभाव से नहीं निकलती। वह उनके अतिरेक से उत्पन्न होती Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अहिंसा तत्त्व दर्शन है। इतिहास देखिए-बड़े-बड़े धनपति सुविधाओं का भोग करते-करते थक गए, तृप्ति नहीं मिली। उस अतृप्ति ने उन्हें तृप्ति-मार्ग ढूढने को प्रेरित किया और वे सुविधाओं को ठुकराकर कठोर पथ की ओर चल पड़े। त्याग की अकिंचनता ने उन्हें तृप्त बना दिया। पदार्थ का अभाव सताता है, उसका भाव असन्तोष पैदा करता है । संयम स्वस्थ बनाता है। एक व्यक्ति मोटर दौड़ाए जाता है। गरीब को ईर्ष्या हो जाती है। उसे पैदल चलने में दीनता जान पड़ती है। वह एक बारगी तड़प उठता हैमोटर के लिए। एक संयमी ने भी उसे देखा किन्तु स्पर्धा नहीं बनी। उसने पादविहार का व्रत वाहन-यात्रा से अधिक महत्त्वपूर्ण मान स्वीकार किया है। तात्पर्य की भाषा में पढ़िए-तृप्ति अभाव में भी नहीं है, भाव में भी नहीं है, यह उनसे परे है। यह जो परे की वृत्ति है, वही हृदय-परिवर्तन है । समस्या यह है--गरीबों की धन में निष्ठा है। वे सुविधाओं को ही सर्वस्व मान बैठे हैं। धन से परे भी सुख-शान्ति है-यह भी उनकी समझ से परे है। दूसरी ओर धनपति पूंजी के दलदल में फंसे हुए हैं। उनकी शान्ति की चाह सुविधा के व्यामोह को चीरकर आगे नहीं बढ़ पाती। धोबी का कुत्ता भूख के मारे ढांचा-भर रह गया। मित्र कुत्तों ने उस धर को छोड़ स्वतन्त्र घूमने की सलाह दी । वह भी इसे महसूस करता था किन्तु वैसा हो नहीं सका। कुत्ते का नाम था 'सताबा'। धोबी की दोनों पत्नियां लड़तीं, तब एक-दूसरे को 'सताबे की बेर' कहकर पुकारती । गाली-गलौच में उनके पति होने का मोह वह नहीं छोड़ सकता। भूख ने उसके प्राण ले लिए। चारों ओर ऐसा व्यामोह छा रहा है। जीवन के मूल्य स्वयं अनीति के पोषक बन रहे हैं। इस स्थिति में हृदय-परिवर्तन का प्रश्न बड़ा जटिल बन जाता है। इसे जटिल बनाने वाला दूसरा एक कारण और भी है। धनपतियों के शोषण ने गरीबों के दिल में एक प्रतिशोध की भावना उत्पन्न कर दी। अब वे केवल धनपतियों के ही विरोधी नहीं किन्तु उनकी दार्शनिक मान्यताओं के भी विरोधी बन गए। धनपति अध्यात्म और संतोष की बातें करते हैं, उन्हें वह ढकोसला लगता है। धर्म को भी वे शोषण का आलम्बन मान बैठे हैं । उनके मानने के पीछे एक तथ्य भी है। शोषण के द्वारा धन-संग्रह करते हैं, पीछे शुद्धि की भावना से थोड़ा धन खर्च कर वे धर्म-वीर बन जाते हैं। धर्म-आराधना की यह सीधी क्रिया उन्हें शोषण से दूर होने का अवसर ही नहीं देती। __ आज के विश्व-मानस का अध्ययन कीजिए, आपको लगेगा, राजनीतिकवाद जनता के मन पर छा गए। आत्मा, धर्म, ईश्वर, परलोक, सद्गति और पारमार्थिक शान्ति की चर्चा नहीं भाती। चरम लक्ष्य हो रहा है-इसी जीवन की अधितकम उन्नति । हृदय-परिवर्तन की अपेक्षा उन्हें है, जो आत्मशान्ति में विश्वास Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २०४ रखते हैं, हिंसा को यहां और आगे अशान्ति बढ़ाने वाली मानते हैं। जिन्हें आगामी जीवन से कोई लगाव नहीं, चाल जीवन में हिंसा द्वारा सुविधाएं सुलभ होती हैं, तब उन्हें हृदय-परिवर्तन की बात कैसे रुचे? भौतिक सुख-सुविधाएं ही जिनका चरमसाध्य है, वे अहिंसा को क्यों महत्त्व दें। यह धूप जैसा साफ है, अधिक चोरबाजारी करने वाले अधिक धनी बने। भलाई को लिए बैठे रहे, वे मुंह ताकते रह गए। दुनिया धन से बिक चुकी। चोरबाजार करने वाले बड़े हैं। भलों को पूछे कौन ? उनके पास वैसा कुछ है भी नहीं। वे न किसी को नौकरी दे सकते, न रिश्वत, न सहायता, न चन्दा, न प्रीतिभोज और न और-और । कहिए, दूसरे भले क्यों बनें? आखिर उन्हें भला बनने से क्या लाभ ? भलाई के साथ सहानुभूति है ? पुराने संस्कार शब्दों में उतर आते होंगे, आचरण में तो नहीं हैं। भलाई को प्रोत्साहन कैसे मिले ? जो दुनियावी बातों से लगाव रखते हैं, एषणाओं में रस लेते हैं; यज्ञ, प्रतिष्ठा, संतान और सुविधाएं चाहते हैं; वे भले नहीं बन सकते। भले आदमी उस दुनिया के प्राणी हो सकते हैं, जिन्हें इन बातों से कोई लगाव नहीं । पदार्थ की, मान-सम्मान की, बड़प्पन की निरपेक्षा विरक्ति से आती है। विरक्ति मोह के न्यून होने से आती है और मोह की न्यूनता, आत्मा और पुद्गल (चेतन और अचेतन) का भेद जानने से होती है। हृदय-परिवर्तन का असली रूप यही निरपेक्षता है। सामाजिक जीवन रहा सापेक्ष । निरपेक्षता है-वैयक्तिक जीवन की स्थिति । एक सामाजिक व्यक्ति उसे कैसे स्वीकार कर ले ? इस बिन्दु पर विचार रुक जाता है। वर्तमान समस्याओं का मूल यही लगता है। सापेक्षता के एकांगी स्वीकार से कठिनाइयां बढ़ती हैं। सापेक्षता से स्पर्धा, स्पर्धा से हिंसा और हिंसा से अशान्ति-यह क्रम चल रहा है। हिंसा को प्रयुज्य मानने वाले भी शान्ति में विश्वास रखते हैं, विसैन्यीकरण या सैन्य के अल्पीकरण और निरस्त्रीकरण की चर्चा करते हैं। तब लगता है-हिंसा में उनका विश्वास तो नहीं है। वे उसे अच्छी भी नहीं समझते । वे सिर्फ विवशता की स्थिति में उसके प्रयोग का समर्थन करते हैं। जैसे-कई धार्मिक सम्प्रदायों ने 'आपद्-धर्म' के रूप में हिंसा का समर्थन किया। रूप में थोड़ा अन्तर है; भावना में शायद नहीं। आपद्-धर्म आक्रमण के प्रतिकार के लिए हिंसा का समर्थन करता है और आज का नयावाद जीवन की अव्यवस्था के प्रतिकार के लिए। आखिर हिंसा जो सबके लिए खतरा है; उत्तम मार्ग तो हो ही नहीं सकता। हिंसा करने वाले के विरुद्ध भी तो हिंसा बरती जा सकती है। हिंसा बुराई का प्रतिकार नहीं, बुरे व्यक्ति का प्रतिकार है । बुरा कौन नहीं ? न्यूनाधिक मात्रा में सब बुरे हैं । हृदय-परिवर्तन का मार्ग है-बुराई मिटे, बुरे-भले बन जाएं । व्यक्ति को मिटाने की परम्परा गलत है। मिटाने की जो प्रकृति बन जाती है, वह फिर बुरा-भला नहीं देखती। अपने को Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अहिंसा तत्त्व दर्शन नहीं रुचा, उसी को मिटाने की भावना उभर आती है। विवशता व्यक्ति को क्रूर बनाती है। क्रूरता हिंसा बन फूट पड़ती है। ऐसी स्थितियां पहले भी हईं, अब भी होती हैं और जब कभी भी हो सकती हैं। कारण साफ है-हिंसा प्रतिशोध लाती है । हिंसा के प्रति हिंसा बनती है । शोषण, क्रूरता और दुर्व्यवस्था करने वालों के प्रति हिंसा बढ़ती जाती है, उसमें कोई आश्चर्य नहीं। किन्तु हिंसा के प्रयोग को दार्शनिक व सैद्धान्तिक रूप जो मिलता है, वह कुछ आश्चर्य जैसा है। कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहेगा कि उसके विरुद्ध कोई हिंसा बरते। दल या राष्ट्र के लिए भी यही बात है। यह भी लगभग सच है- सहजतया (स्थूल रूप में) कोई हिंसा करना भी नहीं चाहता। बड़ी हिंसा की प्रेरणा काल्पनिक स्वार्थों से मिलती है । व्यक्ति समाज में बंधता जरूर है किन्तु मूल प्रकृतियों में परिवर्तन नहीं आता। वह राष्ट्रीय रूप में व्यापक बनता है किन्तु वह अपने राष्ट्र की परिधि में बंधकर अति-राष्ट्रीयतावादी बन जाता है। अपना प्रान्त, अपना गांव, अपना घर, अपना परिवार, अपना शरीर-इस प्रकार की विभाजक मनोवृत्ति उसे सही माने में व्यक्ति ही बनाये रखती है। सामाजिकता सिर्फ काल्पनिक या कार्यवाहक जैसी होती है। अपने लिए समाज से कुछ मिलता है, तब तक वह सामाजिक बना रहता है। किन्तु जहां अपने स्वार्थ की क्षति मालूम होती है, वहां समाज उसके लिए कौड़ी के मूल्य का भी नहीं होता। इस अति-स्वार्थवाद से ही विषमताएं और शोषण आदि बुराइयां बढ़ती हैं । वैयक्तिक-रूप संकुचितता उत्पन्न करता है किन्तु वह वस्तुस्थिति है। उसे मिटाया नहीं जा सकता। अपने शरीर, अपनी पत्नी और अपने पुत्र के प्रति या साधारणतया अपनी रुचि के अनुकूल पदार्थ के प्रति जो ममता हो सकती है, वह दूसरों के प्रति नहीं हो सकती। वैयक्तिक सम्पत्ति के प्रति जितना ध्यान दिया जाता है, उतना सामाजिक सम्पत्ति के प्रति नहीं। 'मेरी है,' 'इसका लाभ मुझे मिलेगा'-इसमें कोई विकल्प नहीं होता। 'सबकी है,' 'इसका लाभ सबको होगा'-यहां अनेक विकल्प खड़े हो जाते हैं । जैसे—फिर मैं अकेला इसकी चिन्ता क्यों करूं ? मैं अधिक श्रम क्यों करूं ? मैं स्पर्धा क्यों करूं? मैं लेखा-जोखा क्यों करूं ?... वैयक्तिक सत्ता कोई बुरी वस्तु नहीं है, अगर वह हित-अहित के दायित्व के रूप में हो। व्यक्ति के अच्छे और बुरे कार्य का परिणाम आज या आगे उसी में होगा- यह धारणा व्यक्ति को बुराई से बचाती है। कार्य के परिणाम का दायित्व व्यक्ति पर नहीं रहता, तब अच्छाई में उसे रस नहीं आता और बुराई से वह सकुचाता नहीं। इन्द्रियां लोलुप होती हैं और मन चपल। उन्हें इच्छा पूर्ति के सुन्दर से सुन्दर साधन चाहिए। कार्य का परिणाम भुगतने की Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन चिन्ता नहीं होती, तब उनकी प्राप्ति की बात मुख्य होती है। वे कैसे मिलते हैं-यह बात मुख्य नहीं होती। इसी मनोवृत्ति ने मनुष्य को भोगी बना रखा है। हृदय-परिवर्तन का अर्थ है-त्याग की ओर झुकाव। त्याग में व्यक्ति का अकेलापन निखरता है। यह हो नहीं रहा है। आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में-"व्यक्ति समाजवाद के क्षेत्र में व्यक्तिवादी और व्यक्तिवाद के क्षेत्र में समाजवादी बन जाता है।" धन का संग्रह करते समय वह नहीं सोचता--सबके पास इतना संग्रह नहीं है या सब इतना संग्रह नहीं करते, मैं अकेला यह क्यों करूं? यह व्यक्तिवादी मनोवृत्ति समाज की ओर नहीं झाँकती। भलाई के स्वीकार में व्यक्तिवादी मनोवृत्ति होनी चाहिए, वहां सोचने का ढंग यह होता है कि दूसरे लोग अन्याय से पैसा कमा आनन्द लूटते हैं, तब मैं ही क्यों उससे बचने का प्रयत्न करूं? यहां हृदय-परिवर्तन की स्थिति स्पष्ट होती है। व्यक्ति आत्मानुशासन के द्वारा ही बुराई से बच सकता है। आत्मानुशासन के स्रोत दो हैं : आत्म-समर्पण और आत्म-नियन्त्रण। आत्म-समर्पण से सहयोग और प्रेम बढ़ता है, आत्म-नियन्त्रण से विशुद्धि । आत्मानुशासन में कर्तव्य धर्म की निष्ठा होती है, इसलिए वह दूसरे की बुराई को अपनी बुराई के लिए प्रोत्साहित नहीं बनने देता। व्यक्ति का यह रूप तब समझ में आता है, जब हम उसे परिस्थितियों से नियन्त्रित न मान उनसे स्वतन्त्र भी मानते हैं। इसके अनुसार निरपेक्षता व्यक्ति का स्वतन्त्र मूल्य है, उपचरित मूल्य है सापेक्षता। नग्नता स्वाभाविक है और लज्जा उपचरित। नग्नता निरपेक्ष है और लज्जा सापेक्ष । लज्जा की मर्यादा के बारे में सब एकमत नहीं हो सकते किन्तु नग्नता सहज है-इसमें दो मत होने की बात नहीं। देश, काल और स्थिति के अनुसार मनुष्य-समाज के संस्कार बनते-बिगड़ते हैं। उनकी सचाई की कसौटी रुचि बन सकती है, जो मान्यता का सत्य है। वस्तु-स्थिति का संस्कार से लगाव नहीं होता। व्यक्ति को समाज व समाजजनित परिस्थितियों से बद्ध मानने वालों की दृष्टि में परिवर्तन की दिशा सामूहिक ही हो सकती है, वैयक्तिक नहीं। स्थितियां बदलने पर व्यक्ति को स्वयं बदलना पड़ता है। व्यक्ति का हृदय बदलना ऐच्छिक है। समाज की मर्यादा बदलने पर व्यक्ति को बदलना अनिवार्य है। इतिहास के प्रोफेसर बताते हैं -जब कभी समाज में परिवर्तन आया, वह जनता की सामूहिक क्रान्ति से आया, व्यक्ति-व्यक्ति के परिवर्तन से नहीं। जन-क्रान्ति को ही दूसरे शब्दों में सत्ता की क्रान्ति समझिए। परिवर्तन की अनिवार्यता सत्ता में है। सत्ता ऊपर से नीचे की ओर नहीं सरकती, तब तक मौलिक परिवर्तन नहीं आता। शोषक-वर्ग का शासन शोषित-वर्ग की कठिनाइयों को नहीं समझ सकता। शोषित Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अहिंसा तत्त्व दर्शन और शोषक का वर्ग-भेद तभी मिट सकता है जब सत्ता शोषक के हाथ से लुढ़ककर शोषित के हाथ में आ जाए। यह भी परिवर्तन है, हृदय का नहीं किन्तु परिस्थिति का। हृदय का परिवर्तन व्यक्ति के अपने विवेक से होता है और स्थिति का परिवर्तन सत्ता से। सत्ता विवेक-शून्य होती है, उसमें परिवर्तन की मौलिकता को देखने की दृष्टि नहीं होती, इसलिए उसमें चलते-चलते विकार आ जाता है। राजतंत्र का इतिहास देखिए । वह किस रूप में चला और उसकी अन्त्येष्टि किस रूप में हुई। हृदयपरिवर्तन में सामूहिक स्थिति के परिवर्तन की अनिवार्यता नहीं है। किन्तु यह ए. दिशा है, जो सर्वव्यापी न होने पर भी सबको सही मार्ग दिखा सकती है। संस्कार-परिवर्तन से विचार-परिवर्तन, विचार-परिवर्तन से हृदय-परिवर्तन, हृदय-परिवर्तन से स्थिति का परिवर्तन होता है। यह क्रम अच्छाई और बुराई दोनों का है। शोषण के लिए हृदय में स्वार्थ चाहिए और उसे छोड़ने के लिए परभार्थ। अपनी सुख-सुविधाओं के लिए दूसरे की सुख-सुविधाओं को न लूटने की वृत्ति जाग जाए, वैसा संस्कार बन जाए, यही हृदय-परिवर्तन का सिद्धान्त है। वह विवाद से परे का वाद है, इसलिए इसकी सबको अपेक्षा है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की प्रमुख कृतियां ० मन के जीते जीत ० किसने कहा मन चंचल है • एकला चलो रे • मेरी दृष्टि : मेरी सुष्टि ० मनन और मूल्यांकन • मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता • अपने घर में ० कर्मवाद • अप्पाणं शरणं गच्छामि ० शक्ति की साधना ० आभामण्डल • एसो पंच णमोक्कारो • जैन दर्शन : मनन और मीमांसा ० अहिंसा तत्त्व दर्शन ० घट-घट दीप जले ० अणुव्रत दर्शन ० तट दो: प्रवाह एक ० नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण विचार का अनुबन्ध चेतना का ऊर्वारोहण ० जैन योग • अहम ० जीव-अजीव ० तेरापंथ : शासन-अनुशासन • बन्दी शब्द : मुक्त भाव ० अनुभव : चिन्तन मनन आदि-आदि। Vain ESO Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________