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________________ १६० अहिंसा तत्त्व दर्शन संयम के लिए और संयमपूर्वक खाए, पीए, पहने और जीए । अच्छा खान-पान, अच्छा रहन-सहन, अच्छा वस्त्र सहज मिले तो न ले; यह कोई बात नहीं किन्तु उनके लिए मारा-मारा न फिरे। उनकी फिक्र में न रहे। परिस्थिति बदलने पर सहज मिलने वाली चीजें भी त्याग दे। अगर आसक्ति के भाव बढ़ने की सम्भावना हो, उसको समाज अच्छा न समझे, दूसरों को वह असह्य हो उठे, समाज में असन्तोष की मात्रा बढ़ती हो, सबको या बहुतों को वे चीजें सुलभ न हों, ऐसी स्थिति में अहिंसक को अपनी अनासक्ति का भाव अधिक जगाना चाहिए, त्याग का विशेष परिचय देना चाहिए। ऐसा करके वह साथी को ममत्व के जाल से बाहर निकाल सकता है। ___अहिंसक को यह सोचकर नहीं रह जाना चाहिए कि दूसरे ईर्ष्या करते हैं, मैं उनकी ओर क्यों ध्यान दूं? ठीक है, ईर्ष्या बुरी है। अनधिकारी किसी दूसरे की विशेषता पर सोचे, वह ईा हो सकती है किन्तु अपने वर्ग में असामंजस्य न आए, भेदभाव न बढ़े, इस दृष्टि से सोचना ईर्ष्या नहीं है। दूसरे की स्थिति को ठीक आंकना चाहिए। लालची के साथ लालची जैसा बर्ताव करने पर स्थिति बिगड़ती है। लालची के साथ सन्तोष-परितृप्ति बरतने से उसकी अतृप्ति अपने आप सिकुड़ जाती है। हवा को रोकिए, उसका वेग बढ़ेगा, शक्ति बढ़ेगी। उसे खुले स्थान में छोड़ दीजिए, वह अपने आप बिखर जाएगी। यही बात बिगड़े लालच की है। लालची स्वयं समझकर उसका वेग रोके तो रुक सकता है। अगर कोई दूसरा व्यक्ति उसके वेग को बलात् रोकना चाहे तो वह रुकने के बजाय उभर जाता है अथवा दूसरी बुराई के रूप में बदल जाता है इस जगह अहिंसक को आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति से काम लेना चाहिए। एलोपैथिक पद्धति उसके लिए उपयोगी नहीं है। वह रोग को तेज दवा से दबाती है। उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। एक बार रोग दब जाता है। शान्ति मिलती है पर दबा हुआ रोग दूसरे भयंकर रोग के रूप में सामने आता है। आयुर्वेदीय दवा रोगी को एकाएक शान्ति नहीं पहुंचाती, धीरे-धीरे उसके रोग की जड़ काटती है। अहिंसक भी एकाएक किसी को दबाता नहीं। उसकी सन्तोषपूर्ण प्रवृत्तियां धीमे-धीमे लालच को उखाड़ फेंकती हैं। अन्याय का प्रतिकार सहवास में एक ओर जहाँ आपसी वैयक्तिक झमेले उठते हैं, वहाँ दूसरी ओर अनधिकार चेष्टा तथा अन्याय के थोपे जाने का खतरा रहता है। ऐसी स्थिति में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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