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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अंगूठे पर जप करने से मोक्ष मिलता है; तर्जनी पर जप किया जाए तो उपचार सही होता है; मध्यमा-जप से धन-सुख आदि मिलते हैं। अनामिका जप से शान्ति होती है। अन्त्यजों द्वारा खोदे हुए कुएं, बावड़ी, पोखरणी, तालाब आदि का पानी स्नान-पान के लिए नहीं लेना चाहिए। __ व्रत-भ्रष्ट व्यक्ति और अन्त्यज व्यक्ति के दीखने पर, उनकी वाणी सुनने पर, छींक आने पर, अधोवात होने पर जप छोड़ देना चाहिए।' उक्त धारणाएं विकार हैं और वे जैनतत्त्व की नींव पर प्रहार करने वाली हैं। ये सब तान्त्रिक और ब्राह्मण-परम्परा के प्रभाव की प्रतिरेखाएं हैं। आचार्य हरिभद्र का दानाष्टक बढ़ती हुई दान की प्रवृत्ति का वास्तविक चित्र उपस्थित करता है। उसमें भगवान् महावीर को महात्मा बुद्ध से इसलिए महान् बताया है कि उन्होंने दीक्षा के पूर्व अधिक दान दिया था। पौराणिक युग में अर्थवाद की सीमा ने यथार्थवाद पर परदा डाल दिया। धार्मिक लोगों ने अपने-अपने पूज्य देवों के लिए इतनी लम्बी-चौड़ी कल्पनाएं गढ़ीं कि उनसे उनका यथार्थ जीवन ढंक गया। देव, गुरु और धर्म की महत्ता का मानदण्ड अतिशयोक्तियां बन गईं। जैन पुराणों में भगवान् शान्तिनाथ के पूर्व-जन्मों का विवरण दिया है। उनमें उनके तीर्थंकर-गोत्र बंधने की जो प्रवत्ति उल्लिखित की है, वह करुणा की ओर जैनों के झुकाव का संकेत देती है। बाज से कबूतर को छुड़ाने के लिए राजा ने अपना मांस दिया। उस कर्म से वे तीर्थंकर बने-ऐसा लिखा गया। सही स्थिति में यह महाभारत की शिवि द्वारा अपना मांस देने की प्रसिद्ध कथा का अनुकरण है और यह लोकाकर्षण के लिए किया गया है। इसमें संदेह का अवकाश नहीं । बौद्धों में भी बुद्ध की जीवन-घटनाओं में ऐसी घटना जुड़ी १. धर्मरसिक : अंगुष्ठजापो मोक्षाय, उपाचारे तु तर्जनी। मध्यमा धनसौख्याय, शान्त्यर्थं तु अनामिका ॥ २. धर्मरसिक ३१५६ : अन्त्यजः खनिताः कूपा, वापी पुष्करिणी सरः । तेषां जलं न तु ग्राह्य, स्नानपानाय च क्वचित् ।। ३. धर्मरसिक ३३ : व्रतच्युतान्त्यजातीनां, दर्शने भाषणे श्रुते । क्षुतेऽधोवातगमने, भणे जपमुत्सृजेत् ॥ ४. महाभारत वनपर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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