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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १२१ प्रश्न – उक्त निर्णय से नई और जटिल समस्या पैदा होती है, वह यह है कि इस सिद्धान्त से प्रत्येक मनुष्य भी हिंसा करता हुआ अपने को अहिंसक कहने का साहस कर सकेगा । क्योंकि उसके पास 'मेरी भावना शुद्ध है - यह एक अमोघ साधन आ जाता है | उत्तर -- उक्त निर्णय प्राणी मात्र के लिए चरितार्थ नहीं, यह केवल संयमी पुरुषों पर ही लागू होता है । वे अहिंसा के उपासक हैं, उनका एकमात्र ध्येय अहिंसा है । वे हिंसा से सर्वथा परांङ्मुख रहते हैं । इनसे भिन्न जो असंयमी पुरुष हैं, उनके लिए उपर्युक्त निर्णय ठीक नहीं। क्योंकि न उनके मन, वचन एवं शरीर संयत है और न हिंसक प्रवृत्तियों से सर्वदा विमुख रहने का उन्होंने निश्चय ही किया है । वे हिंसा में जुटे हुए हैं अतएव उनके द्वारा जो प्राणी-वध होता है या किया जाता है, वह हिंसा ही है, अहिंसा नहीं । प्रश्न- संयमी पुरुषों के लिए जो विधान किया जाता है, क्या उससे उनमें शिथिलता की सम्भावना नहीं ? उत्तर - नहीं । क्योंकि संयमी पुरुष भी असावधानी से जो करते हैं, वह सब हिंसा है । इस दृष्टि से वे और अधिक सावधान रहते हैं। अहिंसक होने पर भी हम कहीं हिंसक न बन जाएं-- इसका उन्हें हर समय विचार रहता है । सहज ही एक प्रश्न हो सकता है कि संयमी जन भी सब वीताराग नहीं होते तो फिर उनकी भावना राग-रहित कैसे मानी जा सकेगी ? इसका उत्तर है -सतो पि कषायान् निगृह्णाति सो पि तत्तुल्यः -- कषाय सहित होते हुए भी वे संयमी जन कषाय का निग्रह कर संयत प्रवृत्तियों से अहिंसक बन सकते हैं । ६. अहिंसा का सम्बन्ध जीवित रहने से नहीं, उसका सम्बन्ध तो दुष्प्रवृत्ति की निवृत्ति से है । निवृत्ति एकान्त रूप से अहिंसा है - यह तो निर्विवाद विषय है पर राग, द्वेष, मोह, प्रमाद आदि दोषों से रहित प्रवृत्ति भी अहिंसात्मक है । जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में एक वर्णन है शिष्य - प्रभो ! कृपा करके आप बताएं कि हम कैसे चलें, कैसे खड़े हों, किस तरह बैठें, किस प्रकार लेटें, कैसे खाएं और किस तरह बोलें, जिनसे पाप कर्म का बन्ध न हो ? " गुरु - आयुष्मन् ! यत्नापूर्वक चलने से, यत्नापूर्वक खड़े होने से, यत्नापूर्वक बैठने से यत्नपूर्वक लेटने से, यत्नापूर्वक भोजन करने से और यत्नापूर्वक बोलने से पाप-बन्ध नहीं होता । १. दशवैकालिक ४।७ २ वही, ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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