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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ४३ १. कायिकी, २. आधिकरणिकी, ३. प्राद्वेषिकी, ४. पारितापनिकी, ५. प्राणातिपातिकी, कायिकी शरीर से होने वाली असंयत प्रवृत्ति को कायिकी क्रिया कहते हैं । वह दो प्रकार की होती है-अनुपरत और दुष्प्रयुक्त । असंयम में प्रवृत्ति नहीं किन्तु निवृत्त भी नहीं, उस आत्मा की शारीरिक प्रवृत्ति 'अनुपरत कायिकी' कहलाती है। 'दुष्प्रयुक्त कायिकी' शरीर की दुष्प्रवृत्ति के समय होती है । यह संयति मुनि के भी हो सकती है । अविरति की अपेक्षा मुनि हिंसक नहीं होता। सर्व-पाप-कर्म की विरति करने वाला ही मुनि होता है। उसके प्रमादवश कभी दुष्प्रवृत्ति हो जाती है, वह हिंसा है। जो सर्व-विरति नहीं होते, वे अविरति की अपेक्षा से भी हिंसक होते हैं । हिंसा में प्रवृत्ति न करते समय प्रवृत्ति की अपेक्षा अहिंसक होते हुए भी अविरति की अपेक्षा अहिंसक नहीं होते। इसी दष्टि से सर्व-विरति को पंडित और धर्मी, अपूर्ण विरति को बालपंडित और धर्माधर्मी तथा अविरति को बाल और अधर्मी कहा है। आधिकरणिकी हिंसा के साधन-यंत्र, शस्त्र-अस्त्र आदि का निर्माण करना और पहले बने हुए यंत्र आदि को प्रयोग के लिए तैयार करना क्रमशः निर्वर्तनाधिकरणी और संयोजनाधिकरणी क्रिया कहलाती है । प्राद्वेषिकी अपने आप पर या दूसरों पर अथवा दोनों पर द्वेष करना । पारितापनिकी अपने आप को कष्ट देना, दूसरों को कष्ट देना या दोनों को कष्ट देना। प्राणातिपातिकी अपनी घात करना, दूसरों की घात करना अथवा दोनों की घात करना। इस क्रिया-पंचक की अपेक्षा जीव सक्रिय और अक्रिय दोनों प्रकार के होते एक जीव दूसरे जीव की अपेक्षा कदाचित् त्रिक्रिय होता है, कदाचित् चतुष्क्रिय १. भगवती ११११४६ २. वही, १७।२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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