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________________ ४४ अहिंसा तत्त्व दर्शन और कदाचित् पंचक्रिय' । तीन क्रिया प्रत्येक अविरत प्राणी में होती हैं। वह किसी को कष्ट देता है तब चार और प्राणघात करता है तब पांच क्रियाएँ होती क्रिया जैसे वर्तमान जीवन की अपेक्षा से होती है, वैसे अतीत जीवन की अपेक्षा से भी होती है। अतीत शरीर या उसका कोई भाग हिंसा में व्याप्त होता है, वह शरीर अधिकरण तो है ही। हिंसा सम्बन्धी अकुशल मन का प्रत्याख्यान नहीं होता, उसका व्यक्त शरीर या शरीर-भाग कष्ट देने में व्याप्त होता है, उससे प्राण-वियोग होता है--इस प्रकार अतीत शरीर से भी पांच क्रियाएँ होती हैं । अतीत शरीर की क्रिया द्वारा कर्म-बन्ध होता है, वह प्रवृत्ति रूप नहीं होता। किन्तु वह शरीर उस व्यक्ति के द्वारा व्युत्सृष्ट--- त्यक्त नहीं होता-उसने विरति द्वारा अतीत शरीर से अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ा, इसलिए अविरति-रूप पाप-कर्म का बंध होता है। जो व्यक्ति अतीत के शरीर और अधिकरण को तीन करण, तीन योग से त्याग देते हैं, वर्तमान शरीर के द्वारा भी इनमें से कोई क्रिया नहीं करते, वे अक्रिय होते हैं । देह-दशा में अक्रिय केवल सर्व विरति मुनि ही हो सकते हैं। एक व्यक्ति ने बाण फेंका । हरिण मरा । बाण फेंकने वाले व्यक्ति को पांच क्रियाएँ लगीं और जिन जीवों के शरीर से बाण बना, उन जीवों को भी पाँच क्रियाएँ लगीं। (१) बाण फेंकने वाला पाँच क्रिया से स्पष्ट हो—यह सही है किन्तु जिन जीवों के व्यक्त शरीर से बाण बना, वे भी पाँच क्रिया से स्पृष्ट हों-यह कैसे हो सकता है ? व्यक्त शरीर अचेतन हो जाता है। उसके द्वारा कोई दूसरा व्यक्ति हिंसा करे, तब उस शरीर के निष्पादक जीव को क्रिया क्यों लगे ? (२) और यदि लगे तो मुक्त जीव भी इस दोष से मुक्ति नहीं पा सकते। उनके त्यक्त शरीर का भी हिंसा में प्रयोग हो सकता है ।। (३) त्यक्त शरीर के दुष्प्रयोग से उनके निष्पादक जीवों के जैसे पाप-कर्म की क्रिया होती है, वैसे ही उनके शरीर धर्मोपकरण के रूप में धर्म के साधन बनें, तो उनके निष्पादक जीवों के पुण्य-कर्म की क्रिया भी होनी चाहिए। इनका समाधान इस प्रकार है१. प्रज्ञापना पद २२ २. वही, पद २२ वत्ति ३. वही, पद २२ वृत्ति ४. वही, पद २२ वृत्ति ५. भगवती ५।६।१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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