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अहिंसा तत्त्व दर्शन अहिंसा का उद्देश्य __ जीवन को बनाए रखना, यह अहिंसा का उद्देश्य नहीं है। उसका उद्देश्य है-- संयम का विकास करना।
संयम का विकास जीवन-सापेक्ष है। जीवन ही न रहे, तब संयम का विकास कौन करे? अतः संयम का विकास करने के लिए जीवन को बनाए रखना आवश्यक है । इस प्रकार जीवन को बनाए रखना भी अहिंसा का उद्देश्य है-यह फलित होता है। यह प्रश्न हो सकता है किन्तु अहिंसा का सीधा सम्बन्ध संयम से है, इसलिए इसे कोई महत्त्व नहीं दिया जा सकता। जीवन बना रहे और संयम न हो तो वह अहिंसा नहीं होती। संयम की सुरक्षा में जीवन चला जाए तो भी वह अहिंसा है। आगे के संयम के लिए वर्तमान का असंयम संयम नहीं बनता, आगे की अहिंसा के लिए वर्तमान की हिंसा अहिंसा नहीं बनती। इसलिए जीवन को बनाए रखना, यह अहिंसा का साध्य या उद्देश्य नहीं हो सकता।
साधन-मीमांसा में इतना ही बस होगा कि अहिंसा के साधन हिंसात्मक नहीं हो सकते।
स्वरूप-मीमांसा-अहिंसा का स्वरूप है असंयम से बचना, संयम करना । कष्ट संयम हो सकता है और सुख असंयम, इसलिए कष्ट से बचाव करना और सुख प्राप्त करना यह अहिंसा का स्वरूप नहीं बन सकता। उपवास व अनशन जैसी कठोर तपस्याएं कष्टकर अवश्य हैं, फिर भी अहिंसात्मक हैं। भोगोपभोग सुख है, फिर भी हिंसा है। अहिंसा की दृष्टि संयम की ओर होनी चाहिए । अमुक कष्ट से बचा या नहीं बचा, अहिंसा के लिए यह शर्त नहीं होती। उसकी शर्त हैअसंयम से बचा या नहीं। पहले विकल्प के तीनों रूप शरीर-रक्षा की कोटि के हैं। __ इसमें साध्य सही है। साधना की प्रक्रिया साध्य के प्रति भ्रम उत्पन्न करती है। संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक साधन बरते जाएं, वहां संयम नहीं रहता। इसलिए संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक साधनों को अपनाना मानसिक भ्रम जैसा लगता है।
जीवन को बनाए रखने का उद्देश्य मुख्य होने पर हिंसा से बचाव करने की बात गौण हो जाती है। संयम जीवन से अलग नहीं होता। संयम को बनाए रखने के साथ जीवन का अस्तित्व अपने-आप आता है। इसलिए अहिंसा का रूप जीवन के अस्तित्व को प्रधानता नहीं देता । उसमें संयम की प्रधानता होती है।
संयम को बनाए रखने के लिए हिंसा से बचाव करना, यह सही है किन्तु हिंसा से कैसे बचा जाए, इसका विवेक होना चाहिए। हिंसा से बचाव करने के
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