SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०१ अहिंसा तत्त्व दर्शन छोड़कर सबसे निराली घटना होगी।"१ अन्तर्मुखी दृष्टि अहिंसक की दृष्टि अन्तर्मुखी होनी चाहिए। बहिर्मुखी दृष्टि वाला व्यक्ति बुराई करते समय 'कोई देख न ले' इसका बचाव करता है, अपना बचाव नहीं करता। इससे बुराई गूढ़ बन जाती है। प्रकट रोग से छिपा रोग और अधिक जटिल होता है। दृष्टि अन्तर्मुखी होने पर व्यक्ति का सहज प्रयत्न बुराई से बचने का होता है, फिर चाहे कोई देखे या न देखे। दिन और रात, एकान्त और सहवास, शयन और जागरण में जिसका हिंसा से बचने का समान प्रयत्न हो, थोड़ा भी अन्तर न आए, वही व्यक्ति अहिंसा या अन्तर्मुखी दृष्टि वाला है। बुराई में जिसको अपना अनिष्ट दीख पड़े, वही व्यक्ति बुराई को छोड़ सकता है। लज्जा, भय या अनुशासन के द्वारा बुराई गूढ़ बन जाती है, मिटती नहीं। आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में-"मारने वाले को जीव-हिंसा में अपना अनिष्ट दीख जाए, तभी वह उसे छोड़ सकता है, नहीं तो नहीं।" आत्मानुशासन का स्रोत अन्तर्मुखी दृष्टि ही है। आत्मानुशासन का अर्थ है-अपने पर अपना अनुशासन । इसका जागरण होने पर अहिंसा का विकास हो जाता है। विकार-परिहार को साधना विकार-विजय का अर्थ है-आत्म-विजय। विकार व्यक्ति-हेतुक भी होते हैं और समाज-हेतुक भी। हिंसा और परिग्रह, वासना और भूख-प्यास-ये वैयक्तिक विकार हैं। असत्य और चोरी सामाजिक विकार हैं। अकेलेपन में भी व्यक्ति छोटे-बड़े जीवों की हिंसा करता है, पदार्थ का संग्रह करता है। असत्य और चोरी, ये अकेलेपन में नहीं होते। इसलिए ये दोनों सामाजिक जीवन के सहचारी हैंऐसा स्पष्ट जान पड़ता है। वासना और भूख-प्यास जैसे देह-सम्बद्ध हैं, वैसे असत्य और चोरी देह-सम्बद्ध नहीं हैं। वे जैसे व्यक्ति को सताते हैं वैसे असत्य चोरी और नहीं सताते । ये देह की अपेक्षाएं नहीं हैं, सहवास की स्थिति में उत्पन्न मानसिक विकृतियां हैं। भूख और प्यास विकार हैं पर वासना की कोटि के नहीं। वासना के पीछे मोह का जो तीव्र वेग होता है, वह भूख-प्यास की अभिलाषा के पीछे नहीं होता। विषय का स्मरण, चिन्तन, इच्छा, स्नेह और भोग-ये वासना के स्थिरीकरण के हेतु हैं। पदार्य और शरीर—ये दो वासना के क्षेत्र हैं। पाँच १. धर्मयुग, वर्ष ५ अंक ५ ता० ७।११।५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy