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अहिंसा तत्त्व दर्शन
८७ का मनुष्य कर्तव्य के नाम पर आगे बढ़ गया है। वह समाज के दायित्व को सामाजिक कर्तव्य के रूप में अधिक कौशल के साथ निभाता है । अथवा ऐसे समझिए कि आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण एक नया प्रयोग है । उनके अनुयायी सामाजिक आवश्यकताओं को धर्म-पुण्य न मानते हुए भी कर्तव्य की दृष्टि से उन्हें पूरा करते हैं। सांसारिक स्थितियां आत्मा को मुक्ति देने वाली नहीं हैं। फिर भी बन्धन में फंसे हुए व्यक्ति अपनी मर्यादा नहीं तोड़ सकते। इसलिए वे कर्तव्य-प्रेरित होकर उन्हें किया करते हैं । वर्तमान युग सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति धर्म-पुण्य के नाम पर नहीं किन्तु सामाजिक न्याय और अधिकार के स्तर पर करना सिखाता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो हीनता और उच्चता की भावना बनी, उसमें दान द्वारा पुण्य कमाने की धारणा प्रमुख है। भगवान् महावीर ने इसके विरुद्ध क्रान्ति की। सूत्रकृतांग और आचारांग पढ़ जाइए, तथ्य सामने आ जाएंगे। आचार्य भिक्षु ने उसी तथ्य का पुनः प्रकाशन किया। लोग उसका मर्म समझ नहीं सके। उनके संस्कार वैयक्तिक जीवनवादी व्यवस्था के थे। इसलिए वे विचार सहजतया समझ में न आएं-इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं। सामाजिक साथियों को हीन-दीन रखकर उनके प्रति दया और परोपकार का व्यवहार करना-ये सब तथ्य वैयक्तिक जीवनवादी व्यवस्था के थे। इस युग में जहां समानाधिकार का स्वर सफल हो रहा है, उनका निर्वाह करने की आवश्यकता नहीं रही। समाजवादी जीवन-व्यवस्था में सबके साथ समानता की अनुभूति की जाती है। यह आमूल परिवर्तन है। एक हीन-दीन रहे और दूसरा उस पर दया कर धर्म-पुण्य कमाए-इसका कोई महत्त्व नहीं रहा। आज उसे महत्त्व दिया जाता है, जिसमें कोई हीन-दीन रहे ही नहीं।
__ सामाजिक व्यक्तियों की हीनता से उत्पन्न करुणा सचमुच समाज की दुर्व्यवस्था को चुनौती होती है। उसे धार्मिक रूप देने वाले प्रकारान्तर से दुर्व्यवस्था को प्रश्रय देते हैं। किसी युग में यह भावुकता उपयोगी रही होगी, किन्तु अधिकारजागरण के इस युग में तो इसका कोई उपयोग नहीं दीख पड़ता । युग की परिवर्तित चेतना को समझने के लिए प्रोफेसर नगेन्द्रनाथ के विचार देखिए-'एक समय था जब सामाजिक कल्याण और परोपकार की भावना से प्रेरित होकर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अन्धों को सहायता और सुख पहुंचाने के लिए उन्हें कुछ सिखाना-पढ़ाना शुरू किया था। समाज का बोझ हल्का करने के लिए उन्होंने अंधों के लिए विद्यालय और आश्रम भी खोले। लोक-चेतना के विकास और व्यापक जन-जागृति के कारण आज हर अन्धे बच्चे का शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार माना जाने लगा है। अधिकांश सभ्य देशों में आज अन्धों की शिक्षा अनिवार्य है और सरकार तथा जनता शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्हें उपयुक्त कार्य और सामाजिक अवसर देने की भरपूर चेष्टा कर रही है।'
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