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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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प्रश्न आता जरूर है पर मूल्यवान् नहीं है।
कोई नहीं देगा-इसलिए क्या संसार-मार्ग को मोक्ष-मार्ग बता जनता को भुलावे में डालना चाहिए ? 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' जैसे संकल्प को पूरा करने वाला दर्शन 'ज्योतिषो मा तमो गमय' के पथ पर नहीं चल सकता और न उसे चलना ही चाहिए।
सुपात्र-कुपात्र
'तेरापंथी साधु-साध्वियों के सिवाय संसार के सब जीव कुपात्र हैं ।' तेरापंथ की यह मान्यता कतई नहीं है । आचार्य भिक्षु ने व्यक्तिपरक सिद्धान्त-विवेचन कभी नहीं किया। उन्होंने अमुक सुपात्र और अमुक कुपात्र - यह नहीं कहा-उन्होंने सुपात्र-कुपात्र के लक्षण बताए-इनकी व्याख्या दी।' अध्यात्मवाद के अनुसार सुपात्र-कुपात्र की चर्चा मुख्यतया दान के प्रसंग में आती है। सुपात्र का अर्थ होता है-दान के योग्य और कुपात्र का अर्थ है-दान के अयोग्य ।
दान के योग्य या दान का अधिकारी एकमात्र संयमी है। वह भिक्षा-मात्रजीवी होता है। भगवान् महावीर ने 'नव कोटि शुद्ध'-भिक्षा का निर्देश किया है, वह संयमी के लिए ही है । वह संयमी जीवों को न मारता है, न मरवाता है और न मारने वाले का अनुमोदन करता है, वह न भोजन पकाता है, न दूसरों से पकवाता है और न पकाने वाले का अनुमोदन ही करता है, वह किसी वस्तु को न मोल लेता है, न लेने की प्रेरणा देता है और न अनुमोदन ही करता है। गृहस्थ इस नवकोटि भिक्षा का अधिकारी नहीं है । गृहस्थ गृहस्थ को वस्तु का दान देता है, उसे असंयत-धर्म और द्रव्य-धर्म कहा है। दान की दृष्टि से संयमी इसलिए सुपात्र है कि उसका खान-पान समूचा अहिंसामय होता है। संयमी अहिंसक वृत्ति से प्राप्त भिक्षा को अहिंसक शरीर के निर्वाह के लिए अहिंसा-विधि से खाता है। उसका खाना संयममय है, इसलिए उसका भिक्षा पाना भी संयममय है।
जिसका खाना संयममय नहीं, उसका पाना भी संयममय नहीं होता । गृहस्थ असंयमी होता है, इसलिए उसका खान-पान अहिंसक शरीर का पोषक नहीं माना जाता। वह न तो अहिंसक विधि से भोजन पाता है और न अहिंसक शरीर के निर्वाह के लिए भोजन करता है । इसलिए वह दान का अधिकारी नहीं और इसी
१. देखें भिक्षुदृष्टान्त ६६, १०० २. स्थानांग ६६८१ ३. सूत्रकृतांग १११४ असाहु धम्मे .. ४, वही ११६ : वृत्ति।
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