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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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शरीर, वाणी और मन का व्यापार सरल होना चाहिए। वक्रता हिंसा है । माया भी हिंसा है। इससे मैत्री का नाश होता है ।
४. पदार्थों के लिए या उनके व्यवहार में आसक्ति नहीं होनी चाहिए । आसक्ति और असंतोष हिंसा है । यह सद्गुणों का नाश करता है ।
५-६. परोक्ष में बुराई करना चुगली और सामने बुराई करना निन्दा है । अहिंसक बुराई को मिटाना चाहता है, इसलिए वह दूसरों की बुराई कर नहीं सकता । बुराई का प्रकाशन करने से बुरा भला नहीं बनता । बुरे को सुधारने का उपाय है— उसके हृदय में बुराई के प्रति ग्लानि उत्पन्न कर देना ।
७-८-१. दूसरों पर आरोप लगाना, लड़ना-झगड़ना, घृणा करना, ये सब मानसिक असन्तोष के परिणाम हैं ।
१०. पक्ष का आग्रह मिथ्याभिमान का परिणाम है ।
११. भय हिंसा का कार्य और कारण दोनों है । भय से हिंसा वृत्ति उत्पन्न होती है और हिंसा से भय बढ़ता है । संस्कारी दशा में वृत्तियों की दशा बदलती
उनका उन्मूलन नहीं होता ।
इन आवेगों के नियन्त्रण से निम्न वृत्तियां फलती हैं :
१. क्षमा या क्रोध का उपशम
२. नम्रता या मृदुता
३. ऋजुता
४. अनासक्त भाव और सन्तोष
५. पर - गुणग्राहकता
६. स्व - श्लाघा - वर्जन
७. स्व - दोष-दर्शन
८. प्रेम या मैत्री
६. शांति
१०. सत्यग्राही दृष्टि ११. अभय
अथवा ऐसे कहा जा सकता है कि ये वृत्तियाँ उनके नियन्त्रण के साधन हैं । बुराई से बुराई को मिटाने की बात हिंसा का सिद्धान्त है । जैसे आग से आग नहीं बुझती, वैसे ही क्रोध से क्रोध नहीं मिटता । क्रोध की विजय का उपाय है— अक्रोध या उपशम । अहिंसक को धीर, गम्भीर और शान्त होकर वेगात्मक वृत्तियों पर विजय पानी चाहिए | आवेग - मुक्ति, भय मुक्ति, वासना - मुक्ति और व्यसन मुक्ति होने से रोग मुक्ति स्वयं हो जाती है। आवेग - विजय का अर्थ है - स्वास्थ्य,
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