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अहिंसा तत्त्व दर्शन
श्रमण लोग उन्हें प्रथम तीर्थंकर (धर्म-प्रवर्तक) मानते हैं और वैदिक लोग उन्हें आठवां अवतार मानते हैं। ___ आज के इतिहासकार भारतीय सीमा से परे भी उनकी प्रतिष्ठा का दर्शन करते हैं। प्रो० आर० जी० मार्श ने अलासिया (साइप्रस) से प्राप्त ई० पू० बारहवीं शती की रेशेफ मूर्ति पर गवेषणात्मक लेख लिखकर यह प्रमाणित किया है कि रेशेफ भारतीय ऋषभ का ही नाम है ।। ध्वनिशास्त्रीय दृष्टि से भी इसमें सचाई प्रतीत होती है। रेशेफ और ऋषभ के उच्चारण में जो अन्तर है, वह मात्र भौगोलिक स्थितिकृत है, वास्तविक नहीं है।
भगवान् ऋषभ के अहिंसा-सिद्धान्त से समूचा विश्व लाभान्वित हुआ, यह कहने के लिए मुझे कोई आधार प्राप्त नहीं है पर उससे विश्व का बहुत बड़ा भाग लाभान्वित हुआ, यह कहना असंगत नहीं है।
ऋषभ ने लम्बे समय तक सामाजिक प्रवृत्तियों का संचालन किया। फिर अन्त में राज्य का दायित्व भरत के कन्धों पर डाल मुनि बन गए। सामाजिक दायित्व सँभाला तब ऋषभ ने प्रवृत्तियों का विकास किया और जब साधना के लिए आगे बढ़े तब उस दायित्व से मुक्त हो गए।
अहिंसा को पूर्णरूप से स्वीकार करने वालों के दो संघ बने-साधु और साध्वी। उसे यथाशक्ति स्वीकार करने वालों के भी दो संघ बने-श्रावक और श्राविका। इतने प्राचीन काल में अहिंसा के आचरण के लिए संघ की स्थापना का यह पहला वर्णन मिलता है। किन्तु यह प्रागैतिहासिक घटना है। इतिहास के आलोक में भगवान् पार्श्वनाथ को ही यह श्रेय मिलता है।
प्राणातिपात विरमण और अहिंसा
ऋषभ ने जो साधना अपनायी वह अहिंसा की थी। उन्होंने सर्व प्राणातिपात का विरमण किया। यहीं से अहिंसा का स्रोत बहा । उपदेशलब्ध धर्म का प्रवर्तन हुआ। दूसरों का प्राण नाश करना मनुष्य के हित में नहीं है इस भावना ने प्राणातिपात-विरति का सूत्रपात किया। उसका विकास होते-होते वह चतूरूप बन गई।
१-२. पर-प्राण-वध जैसे पाप है, वैसे स्व-प्राण-वध भी पाप है।
३-४. पर के आत्म-गुण का विनाश करना जैसे पाप है, वैसे अपने आत्म-गुण का विनाश करना भी पाप है।
1. R.G. Marse-The historic importance of bronze statue of
Reshief, discovered in Syprus (Bulletin of the Deccan College Research Institute, Poona, Vol. XIV, PP. 230-36)
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