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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन पक्ष बनते हैं (१) अधर्म पक्ष । (२) धर्म पक्ष । (३) धर्म-अधर्म पक्ष। सर्वथा अविरित होती है, वह अधर्म पक्ष है। सर्वथा विरति होती है, वह धर्म पक्ष है । कुछ विरति और कुछ अविरति होती है, वह धर्म-अधर्म पक्ष है। अधर्म पक्ष हिंसा का स्थान है, धर्म पक्ष अहिंसा का स्थान है, धर्म-अधर्म पक्ष अहिंसा और हिंसा का स्थान है । हिंसा जीवन की परवशता __ अहिंसा में मैत्री है, सद्भावना है, सौहार्द है, एकता है, सुख और शान्ति है। अहिंसा का स्वरूप है उपशम, मदुता, सरलता, सन्तोष, अनासक्ति और अद्वेष । अहिंसा हमारे मन में है, वाणी में है और कार्यों में है, यदि इनके द्वारा हम न किसी दूसरे को सताते हैं और न अपने आपको । अहिंसा हमारी स्वाभाविक क्रिया है। हिंसा हमारे स्वभाव के प्रतिकूल है । हिंसा में मनुष्य को परवशता का भान होना चाहिए। बिना खाए, बिना पीए, बिना कुछ किए शरीर चल नहीं सकता । शरीर के सामर्थ्य के बिना खाने-पीने का साधन नहीं जुटाया जा सकता। इस प्रकार की क्रमबद्ध शृंखलाओं की अनिवार्य प्रेरणाओं से मनुष्य व्यापार करता है। धन का अर्जन करता है। उसकी रक्षा करना है। उपभोग करता है। चोरलुटेरों से अपने स्वत्व को बचाता है। दण्ड-प्रहार करता है। शासन-व्यवस्था करता है और अपने विरोधियों से लोहा लेता है। यह सब हिंसा है। पूर्ण आत्म-संयम के बिना सब प्रकार की हिंसा को नहीं त्यागा जा सकता और सब प्रकार की हिंसा को त्यागने के पश्चात् ये सब काम नहीं किए जा सकते । कितनी जटिल समस्या है अहिंसा और हिंसा के बीच । हिंसा के बिना गृहस्थ जी नहीं सकता और अहिंसा के बिना वह मानवीय गुणों को नहीं पा सकता । ऐसी स्थिति में बहुधा विचार-शक्तियाँ उलझ जाती हैं और अहिंसा का मार्ग कठोर प्रतीत होने लगता है । जैन आचार्यों ने मनोवैज्ञानिक तरीकों से मानसिक विचारों का अध्ययन किया, उनकी गहरी छानबीन की और तत्पश्चात् एक तीसरे हिंसा और अहिंसा के बीच के मार्ग (मध्यय मार्ग) का निरूपण किया। यह मार्ग यथाशक्य अहिंसा के स्वीकार का है। जैन दर्शन के अनुसार उसका नाम अहिंसा-अणुव्रत है। गृहस्थ खाने के लिए भोजन पकाते हैं, पानी पीते हैं, रहने के लिए मकान बनवाते हैं, पहनने-ओढ़ने के लिए कपड़े बनवाते हैं—यह आरम्भी हिंसा है। खेती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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