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प्रथम संस्करण की भूमिका
लगभग सोलह वर्ष पहले की बात है मैं गोचरी करके आया और प्रथम दर्शन में ही आचार्य श्री ने पूछा-'क्या तुम लिखोगे? लिख सकोगे?' मैंने कहा-'हां ।' मेरी स्वीकारोक्ति में आत्म-विश्वास और आचार्य श्री के आशीर्वाद का संकेत था। आचार्य श्री कुछ संदिग्ध थे। उन्हें मेरी 'लेखनी' के बारे में कोई संदेह नहीं था, सन्देह था भाषा के बारे में। उससे पूर्व आचार्यश्री नहीं जानते थे कि मैंने हिन्दी में कुछ लिखा है या मैं लिख सकता हूं। मैं भी नही जानता था कि मैंने हिन्दी में कुछ लिखा है या मैं लिख सकता हूं। मैं भी नहीं जताना चाहता था कि मैंने हिन्दी में कुछ लिखा है । उस समय तक मैं अधिकांशतः संस्कृत में ही लिखता रहा। मन में संकोच था कि हिन्दी में लिखें उसे आचार्यश्री क्या समझेंगे? __ आचार्यश्री ने कहा, 'हीरालाल रसिकदास कापडिया का पत्र आया है। वे अहिंसा के विषय में एक पुस्तक लिख रहे हैं। उन्होंने आचार्य भिक्षु की व्याख्या के अनुसार एक अहिंसा विषयक निबन्ध मांगा है। हिन्दी में मांगा है। हिन्दी में लिखना है-लिख लोगे ?' मैंने कहा--'हां।' ___आचार्य भिक्षु को पढ़ने का पहला अवसर था। उनको पढ़ने का अर्थ था अहिंसा को पढ़ना। मेरे लिए अहिंसा और आचार्य भिक्षु एकार्थक जैसे बन गए। अब हिन्दी में लिखने का द्वार खुल गया। अहिंसा की गहराई में पैठने की भावना बल पकड़ती गई। निमित्त और अवसर मिलते गए। क्रम आगे बढ़ा। 'धर्म और लोक-व्यवहार,' 'उन्नीसवीं सदी का नया आविष्कार', 'वस्तु-दर्शन', 'दया-दान', 'अहिंसा और उसके विचारक', 'अहिंसा की सही समझ' आदि पुस्तकें और निबन्ध लिखे गए।
दो दशक भी पूरे नहीं हुए हैं। जन-साधारण के लिए तेरापंथ और आचार्य भिक्षु अज्ञेय थे। जो कुछ ज्ञेय था वह भी भ्रमपूर्ण । आचार्यश्री तुलसी इस स्थिति को बदलने में संलग्न थे। वे आचार्य भिक्षु के दृष्टिकोण को युग की भाषा में प्रस्तुत कर रहे थे। आचार्यश्री की वाणी में नए तर्क थे, नवीन पद्धति थी और स्पष्टोक्ति का नया प्रकार था। प्रतिपादन की इस पद्धति ने दूसरे लोगों को विस्मय में डाल दिया। वे अश्रुत को सुन रहे हों, वैसा मान रहे थे। कुछ तेरापंथी भी अपने को सम्हाल नहीं सके । इस स्थिति में यह अपेक्षा हुई कि एक दोहरा उपक्रम किया जाए-जो तेरापंथ के अनुयायी नहीं हैं उनके लिए जैनागम सूत्रों व अन्यान्य विचारकों के माध्यम से आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया
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