SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ७५ विरोध नहीं होगा। समाजवाद अध्यात्मवाद की बहुत सारी मर्यादाओं को अव्यवहार्य मानता है। अध्यात्मवाद समाजवाद की मर्यादाओं को हिंसाविद्ध देखता है । यह उनका अपना-अपना दृष्टिकोण है। अध्यात्मवाद समाजवाद को मिटाने की सोच नहीं सकता क्योंकि उसके पास दण्ड-विधान नहीं है। बल-प्रयोग को वह हिंसा और हिंसा को सर्वथा वर्जनीय मानकर चलता है। समाजवाद के पास विधि और दण्ड-विधान है, इसलिए वह कभी-कभी आगे बढ़ता है-अध्यात्मवाद को अनुपयोगी समझकर उसे मिटाने के मार्ग पर चलने का दम भरता है। यह अनुचित है और हिंसा शक्ति का दुष्परिणाम है । होना यह चाहिए कि दोनों के अनुयायी दोनों के दृष्टिकोण, भाषा और निरूपण को उनकी अपनी-अपनी मर्यादा समझकर भ्रम में न फंसें । यदि हम इस दृष्टि को लिए चलेंगे तो समाज हमारे धर्म को आवश्यक या अनुपयोगी कहता है, वह हमें झुंझलाएगा नहीं और हम समाज की प्रवृत्तियों को हिंसा, अधर्म या पाप कहते हैं, इससे समाज के पोषकों को भी रोष नहीं होगा। ___ आचार्य भिक्षु ने अध्यात्म की भूमिका से अध्यात्म की भाषा में कहा है'मोह-दया पाप है, असंयमी-दान पाप है ।' तत्त्वत: यह सही है। अध्यात्मवाद मोह की परिणति को दया कब मानता है ? असंयमी को भिक्षा के योग्य कब मानता है ? जन साधारण ने तत्त्व नहीं पकड़ा, शब्द की आलोचनाएं बढ़ चलीं। मूल्यांकन के सापेक्ष दृष्टिकोण __ एक वस्तु के अनेक रूप होते हैं। अनेक को अनेक से देखें, दृष्टि सही होगी। एक से अनेक को देखें, सही तत्त्व हाथ आएगा। मानदण्ड भी सबके लिए एक नहीं होता। कोई भी वस्तु एक दृष्टि से अच्छी या बुरी, आवश्यक या अनावश्यक, उपयोगी या अनुपयोगी नहीं होती। ये सब सापेक्ष होते हैं। मोक्ष के लिए व्यापार का कोई उपयोग नहीं किन्तु समाज के लिए वह अनुपयोगी है, यह हम कैसे कहें। मोक्ष-धर्म के लिए धन अनावश्यक है किन्तु समाज के लिए आवश्यक नहीं, यह कौन मान सकता है ? प्रवृत्ति के दो रूप होते हैं-अहिंसक प्रवृत्ति और हिंसक प्रवृत्ति । अध्यात्म-दर्शन की भाषा में अहिंसा-प्रवृत्ति को शुभ योग और हिंसाप्रवत्ति को अशुभ योग कहा जाता है। शुभ योग के समय आत्मा पुण्य-कर्म से और अशुभ योग के समय आत्मा पाप-कर्म से बंधती है। इसलिए उपचार से शुभ योग को पुण्य और अशुभ योग को पाप कहा जाता है। समाज-दर्शन में शुभ या अशुभ योग और पुण्य-पाप जैसी कोई व्यवस्था नहीं है और इसलिए नहीं है कि समाज-दर्शन का मानदण्ड अहिंसा-हिंसा की दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy