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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन जो शरीर एकमात्र संयम का साधन बन जाए, जिसका निर्वाह संयम के लिए और संयम की मर्यादा के अनुकूल हो, वैसा शरीर बना रहे । इसमें जीने की इच्छा नहीं किन्तु यह संयम के साधन को बनाए रखने की भावना है। जो शरीर असंयम का साधन रहते हुए उचित आंशिक संयम का साधन बन जाए, उसका निर्वाह केवल संयम के लिए और संयम की मर्यादा के अनुकूल नहीं होता, इसलिए वैसा शरीर बना रहे-यह भावना संयम-मार्ग की नहीं हो सकती। वह न रहे-यह भी नहीं हो सकती। कारण कि मरने से क्या होगा? संयम न जीने से आता है और न मरने से। वह मोह का त्याग करने से आता है, इसलिए भगवान महावीर ने कहा है-'समूचे संसार को समता की दृष्टि से देखने वाला न किसी का प्रिय करे और न किसी का अप्रिय।१ ___ कोई व्यक्ति जीवित रहे, तब संयम साध सके। वह जीता न रहे तो संयम कौन साधे ? इस पर से जीने की साधना भी संयम की मर्यादा के अन्तर्गत होनी चाहिए - ऐसा आभास होता है किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। जीने की वही साधना संयममय हो सकती है, जो संयम के लिए और संयम की मर्यादा के अनुकूल हो। ____ संयम के व्यवहित या दूरवर्ती साधन के संयममय होने का नियम नहीं बनता। जैन आचार्यों ने सन्निकर्ष (इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग) को इसलिए प्रमाण नहीं माना कि वह पदार्थ-निर्णय का व्यवहित साधन है। साधकतम साधन का ही साध्य के अनुरूप होने का नियम हो सकता है, सामान्य साधन का नहीं। वास्तव में साधन वही होता है, जो साधकतम हो यानी अनन्तर--साध्य और उसके बीच में कोई अन्तर न हो। परस्पर साधनों की शृंखला इतनी लम्बी होती है कि उसका कहीं अन्त भी नहीं आता। उदाहरण के रूप में-संयम के लिए शरीर, शरीर के लिए खान-पान, खान-पान के लिए व्यापार, व्यापार के लिए पूंजी, पूंजी के लिए संग्रह-वृत्ति, संग्रह-वृत्ति के लिए आत्मा का विकार--इस प्रकार क्रम आगे बढ़ता जाता है । समस्या आती है- इनमें से किसे संयम का साधन माना जाए ? आत्म-विकार को या संग्रह-वृत्ति को? पूंजी को या व्यापार को ? खान-पान को या शरीर को? इनमें से एक भी संयम का स्वयंभूत साधन नहीं है। साधन के लिए निम्नांकित अपेक्षाएं होती हैं : १. जिसकी प्रवृत्ति के बिना जो न बन सके और २. जिसकी प्रवृत्ति होने पर जो अवश्य बने। १. सूत्रकृतांग १११०७ २. प्रमाणनयतत्वालोक ११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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