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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १७५ मुनि को कूप, तालाब आदि खुदाने का न उपदेश देना चाहिए और न निषेध करना चाहिए-इसका यह विचार है। प्रश्न-साधु के सिवा अन्यदर्शनी को श्रावक भक्त आदि का दान देते हैं, तब श्रावक को सम्यक्त्व में दोष लगता है या नहीं? उन्हें दिया जाए तो अन्यदर्शनी असाधु साधु के समान हो जाते हैं और अगर उन्हें न दिया जाए तो वह लोकविरुद्ध कार्य है और निर्दयता लगती है। इसलिए क्या करना चाहिए? उत्तर-परमार्थ-दृष्टि में अन्यदर्शनी को धर्म-बुद्धि से दान दिया जाए, तब सम्यक्त्व में दोष लगता है। अनुकम्पा बुद्धि से दे, उसे कौन रोकने वाला है। जैसे-आवश्यक बृहद्वृत्ति के श्रावक-सम्यक्त्वाधिकार में हरिभद्र सूरि ने कहा है-इसमें कौन-सा दोष है, जिससे मिथ्यादृष्टियों को अशनादि दान का प्रतिषेध है ? उनके भक्तों का मिथ्यात्व स्थिर होता है। उन्हें धर्म-बुद्धि से दे तो सम्यक्त्व में दोष लगता है तथा आरम्भ आदि दोष बढ़ते हैं। करुणा के क्षेत्र में आपद्ग्रस्तों को अनुकम्पापूर्वक देना चाहिए भी-इसलिए कहा है- 'दुर्जय राग, द्वेष, मोह को जीतने वाले तीर्थंकरों ने प्राणी की अनुकम्पा के लिए दिए जाने वाले दान का कहीं भी प्रतिषेध नहीं किया हैं।' दीक्षा से पूर्व तीर्थंकर अनुकम्पापूर्वक वार्षिक दान देते हैं। षडावश्यक की वृत्ति में 'सुहिएसु' इस गाथा की दूसरी व्याख्या में ऐसे दान को उचित दान के रूप में देय बतलाया है । अथवा सुखित यानी असंयती, दुःखित यानी पार्श्वस्थ-इन्हें रागद्वेषपूर्वक दान दिया हो, उसकी इस गाथा के द्वारा श्रावक निन्दा और गर्दा करता है न कि दीन आदि को जो अनुकम्पा-दान दिया जाता है, उसकी । 'कृपण, अनाथ, दरिद्र, कष्ट-ग्रस्त, रोगी, शोक-हत व्यक्तियों को अनुकम्पा की बुद्धि से जो दिया जाता है, वह अनुकम्पा दान है।" और कहा है--'यह जो पात्र और अपात्र की विचारणा है, वह मोक्षार्थ-दान यानी मोक्ष-फल वाले दान के लिए है। जो दया दान है, उसका सर्वज्ञों ने कहीं भी निषेष नहीं किया है। धर्माधर्म के निर्णय की कसौटी विरति है, वेश नहीं वेश या लिंग नितान्त व्यावहारिक है। वह धर्म-अधर्म, संयती-असंयती का निर्णायक नहीं होता। केवल वेश को देखकर दान देना या न देना—यह भी कोई १. कृपणेऽनाथदरिद्र, व्यसनव्याप्ते च रोगशोकहते। तद्दीयते कृपाथ, अनुकम्पातो भवेद् दानम् ॥ २. इयं मोक्षफले दाने, पात्राऽपात्र विचारणा। दयादानं तु सर्वज्ञैः, कुत्रापि न निषिभ्यते ।। -समयसुन्दरोपाध्यायविरचित विशेषशतक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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