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________________ १७६ अहिसा तत्त्व दर्शन बड़ा तत्त्व नहीं है। अमुक वेश वाले को दान दिया जाए, अमुक को नहीं, ऐसा विधान सम्भवतः कोई भी सम्प्रदाय नहीं करता। संयमी-दान मोक्ष-हेतुक है और असंयमी-दान संसार-हेतुक । संयमी-दान परिग्रह की विरति है, इसलिए वह मोक्ष का हेतु है । असंयमी-दान परिग्रह की विरति नहीं है, इसलिए वह संसार का हेतु है। यह वस्तु-स्थिति है । व्यवहार में संयमी-असंयमी दान का विवेक अपनी-अपनी मान्यता है । तत्त्ववेत्ता का कार्य उसका विश्लेषण करना है। व्यवहार चलाना उनका काम होता है जो व्यवहार में रहते हैं । आचार्य भिक्षु ने यह कभी नहीं कहा कि अमुक को मत दो, उन्होंने सिर्फ दान और दाता का विश्लेषण करते हुए बताया-- पात्र-कुपात्र हर कोई ने देवै, तिणने कहीजे दातार । पात्र-दान मुक्ति रो पावड़ियो, कुपात्र सूं रुले संसार । इसका सार यही है कि दाता पात्र यानी संयमी और अपात्र यानी असंयमीदोनों को देता है। उसमें जो संयमी-दान है, वह मोक्ष का मार्ग है और असंयमीदान संसार का । दाता दान के समय परीक्षा करने नहीं बैठता । और न कहीं ऐसा देखने-सुनने में भी आया है कि कोई भी व्यक्ति संयमी को ही दे, अन्य किसी को न दे। गृहस्थ जीवन में विरति-अविरति दोनों होते है। वह दोनों को एक रूप न समझ बैठे, यह विवेक ही बड़ी बात है। दान की कोटि का निर्णय न केवल दाता की भावना से होता है, न केवल ग्राहक की योग्यता से। उसकी कोटि का निर्णय दाता की भावना, ग्राहक की योग्यता और देय वस्तु की शुद्धि, इन तीनों पर निर्भर है। हमें देखना होगा, दाता की भावना परिग्रह-मुक्ति की है या उसके विनियोग की ? ग्राहक परिग्रह-मुक्त है या परिग्रह-युक्त । अपरिग्रही अममत्व भाव से साधन मात्र लेता है । वह अपरिग्रही है, इसलिए अपरिग्रहात्मक दान आत्म-शुद्धि का साधन बनता है। परिग्रही ग्राहक देय वस्तु को ममत्व बुद्धि से लेता है, इसलिए उस दान में दाता परिग्रह का विनियोग कर देगा किन्तु उसकी (परिग्रह की) क्रिया से वह नहीं बचेगा। इस सूक्ष्म मीमांसा की भूमिका में पहुंचकर हमें कहना होगा कि वह दान वस्तुवृत्त्या आत्म-मुक्ति का मार्ग नहीं है। दान की कोटि का निर्णय करते समय हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि भविष्य के परिणामों से उसका तात्त्विक सम्बन्ध नहीं होता। ग्राहक आगे पुण्य या पाप, धर्म या अधर्म, जो कुछ करेगा, उस पर से दान का स्वरूप निश्चित नहीं होता। उसके स्वरूप-निश्चय में ग्राहक की वर्तमान अवस्था ही आधारभूत मानी जाती है। दस प्रकार के दान स्थानांग सूत्र में दान के दस प्रकार बतलाए हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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