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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ११५ देना चाहिए। साधारण व्यक्ति के लिए रहस्य रहस्य ही रहता है। भगवान् महावीर से पूछा गया-क्या देवों को संयमी कहना चाहिए? भगवान् बोले-नहीं, वे संयमी नहीं हैं। -क्या उन्हें संयमासंयमी कहना चाहिए ? - नहीं, उनके नाम मात्र का भी संयम नहीं होता। ----क्या उन्हें असंयमी कहना चाहिए? —नहीं, असंयमी शब्द रूखा है-कठोर है। - तो भगवन् ! क्या कहना चाहिए? तब भगवान् बोले-नो-संयमी-संयमी नहीं है, ऐसा कहना चाहिए। यह एक शिक्षा है, जो हमें भाषा का उपयोग सिखाती है। वह सोलह आना सही है-तत्त्व यथार्थ रूप में रखना चाहिए। उसे छिपाना कायरता है। यह भी एक महान् सत्य है कि तत्त्व रखने में जितनी निर्भीकता होनी चाहिए उससे कहीं अधिक विवेक होना चाहिए । इसीलिए आचार्य भिक्षु ने कहा है ___ 'साची ने साची कहणी निसंक स्यूं, ते पिण अवसर जोय ।' तत्त्व-निरूपण का अर्थ यह है कि लोग समझें। तत्त्व-निरूपण करने वाला इससे पहले ही उन्हें उभार दे, यह विवेक नहीं होता। गुरु-तत्त्व-चर्चा में कुशल वैद्य बनकर चलते हैं। कुशल वैद्य वह होता है, जो रोगी की मनःस्थिति पर नियंत्रण पा ले । पहले दिन ही रोग को उभारकर वह रोगी का हित साध नहीं सकता। जैसा सह सके, वैसा करते-करते वह भी मिटा देता है और रोगी को भी डिगने नहीं देता। जिज्ञासु या श्रोता को शब्द-प्रयोग से चौंकाने वाला तत्त्व आचार्य दे नहीं सकता। अपवाद की दशा में मत सोचिए। विषम स्थिति में वैद्य को भी पहली बार कड़वी बूंट पिलानी पड़ती है। किन्तु सब जगह कड़वी घुट पिलाने की बात सही नहीं होती। एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से कहा- 'सूत्र में साधु ने जीव राखणां कह्या ।' तब स्वामीजी बोले-'ए तो ठीक है-छै ज्यूं रा ज्यूं राखणा, किणहीनै दुःख देणो नहीं। आचार्य भिक्षु की रचना और उत्तर-शैली के मर्मज्ञ यह नहीं कह सकते कि वे एक ही भाषा को टानकर चले ।। उन्होंने एक ही तत्त्व को अनेक रूपों में रखा। प्रश्नकर्ता की मनःस्थिति, योग्यता और जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उसी के अनुसार वे चले। उदाहरण के रूप में देखिए-'किण पूछ्यो-भीखणजी ! कोई बकरा मरता नै बचाया तिण ने कांई थयो ? तब स्वामी जी ने उत्तर दिया-ज्ञान सूं समझाय ने हिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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