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________________ १८४ अहिंसा तत्त्व दर्शन अहिंसा को समझ लेना ही काफी नहीं है। अहिंसक बनने के लिए उसके योग्य सामर्थ्य का विकास करना आवश्यक है। पंडित और साधक-ये दो चीजें हैं। जानना पंडिताई का काम हो सकता है किन्तु करने में साधना चाहिए। पशु और पंडित में जितना भेद है, उतना ही भेद पंडित और साधक में है। पशु अहिंसा की भाषा नहीं जानता जबकि पंडित जानता है। साधक वह है जो उसकी भाषा जानने तक ही न रहे, उसकी साधना करे। ____ अब हम पशुओं की बात छोड़ दें, अपनी बात करें। जहां तक देखा जाता है, हममें अहिंसा के पंडित अधिक हैं, साधक कम, इसीलिए अहिंसा का विकास कम हुआ है। मनुष्य ज्ञान के क्षेत्र में अन्य प्राणियों से आगे है। उसकी बड़ी-चढ़ी तर्कणा शक्ति ने उसे अधिक स्वार्थी बनने में सहयोग दिया है। उसके पास ऐसे तर्क हैं, जिनके द्वारा वह अपने लिए होने वाली दूसरों की हिंसा को क्षम्य ही नहीं, निर्दोष बता सकता है। आखिर यह होता है कि अहिंसा आत्मा तक बिना पहुंचे ही शब्दों के जाल में उलझ जाती है। हिंसा जीवन की कमजोरी है-अशक्यता है किन्तु स्वभाव नहीं। इसीलिए हिंसा मिटाई जा सकती है और मिटाई जानी चाहिए। प्रयत्न की जरूरत है। कमजोरियों से छुट्टी पाए बिना हिंसा छूट नहीं सकती, इसीलिए हमें इस विषय पर सोचना चाहिए कि जीवन में अहिंसा का प्रयोग कैसे किया जाए। हिंसा और अहिंसा के परिणामों को जानने से हिंसा के प्रति ग्लानि और अहिंसा के प्रति रुचि पैदा हो सकती है, इसलिए आचार्यों ने हमें उनकी परिभाषाएं दीं। वे समझने की चीजें हैं। उनसे हमारा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। बननेबिगड़ने की बात हमारे कार्यों से पैदा होती है। हमारी हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध हमारे कार्यों से है। उनके पीछे भय, स्वार्थ, अहं, क्रोध, आग्रह, छल-कपट आदि अनेक भावनाएं होती हैं। उन्हीं के कारण वृत्तियां कलुषित बनती हैं, हिंसा का वेग बढ़ जाता है। जीवन में अहिंसा लानी है तो हमें दो काम करने होंगेएक तो भावनाओं को पवित्र करना होगा और दूसरे कार्यों को बदलना होगा। उनको कैसे बदलें ? भावनओं को पवित्र कैसे बनाएं ? इस पर कुछ विचार करना है। अहिंसा का मानदण्ड निजी जीवन नहीं होता, साधना के उत्कर्ष-काल में हो सकता है। यह बात प्रारम्भिक दशा की है। मनुष्य दूसरों की हिंसा को जितनी स्पष्टता से समझ सकता है, उतनी स्पष्टता से अपनी हिंसा को नहीं समझ सकता। अपनी भूलों के पीछे कोई न कोई तर्क या युक्ति लगी रहती है। वह अपनी भूलों को ज्यों-त्यों सही करने की चेष्टा में लगा रहता है, दूसरे की भूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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