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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १८५ साफ-साफ समझने में आती है। वहां सफाई सामने नहीं आती। कोई सफाई लगाए तो वह बुरी मालूम होती है । कारण साफ है। दूसरे की बुराई को समझने में कठिनाई इसलिए नहीं होती कि उसके प्रति हमारी आंखें मोह से ढंकी हुई नहीं हैं, बीच में कोई आवरण नहीं है। भावनाओं में भी न्याय है। हम स्वयं को या अपनों को इसलिए ठीक नहीं कूत सकते कि हममें अपने प्रति अब भी मोह और अन्याय करने की भावना विद्यमान है। १. अहिंसा का पहला प्रयोग यही होना चाहिए-हम स्व-पर की भूमिका से ऊपर उठे। अहिंसा के विकास में सबसे बड़ी बाधा अगर कोई है तो यह स्व और पर का भेद है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से लड़ता है। लड़ने का कारण हैउसके लड़के की दूसरे आदमी के लड़के के साथ कहा-सुनी हो गई। दोषी दोनों हैं, फिर भी वह पक्ष अपने पुत्र का लेगा, कारण कि वह उसका है। दूसरा दूसरा है। उससे क्या मतलब ? व्यवहार में ये बातें चलती हैं। ऐसी छोटी-छोटी बातों पर बड़ी-बड़ी लड़ाइयां छिड़ जाती हैं। किन्तु अहिंसा इन्हें नहीं सह सकती । अहिंसा के सामने स्व-पर जैसी कोई चीज ही नहीं होती। वहां यह भावना ही नहीं होती कि यह मेरा है, इसलिए इसके दोष को छिपाऊं, दोषों का प्रतिकार न करूं । अहिंसक अपने दोषों को छिपाने की बात भी नहीं जानता। वह साफ होता है, उतना साफ जितना कि स्फटिक । हिंसक व्यक्ति भूलों को छिपाकर रखने में जहां गौरव मानते हैं, वहां अहिंसक भूलों को दूसरे के सामने रखकर अपने को हलका अनुभव करते हैं। इसके पीछे आत्म-बल होना चाहिए। अहिंसा के लिए शरीर-बल से कहीं अधिक आत्म-बल की अपेक्षा है। मानसिक कमजोरी आयी, छिपाने-दबाने की बात आयी कि अहिंसा नौ-दो-ग्यारह हो जाती है। छिपाने का अर्थ है-वक्रता, उसका मतलब है-हिंसा। ____ आत्म-बल स्वयं साधना का फल है। यह अहिंसा की रुचि से बढ़ता है। उससे अहिंसा का विकास होता है।। २. अहिंसक के सामने आगे बढ़ने का एक पवित्र लक्ष्य होना चाहिए। उसके बिना वह आत्म-बल बटोर नहीं सकता। अहिंसक सरलता से बोलता है, सरलता से चलता है और सरलता से करता है। सरलता के सामने कुटिलता का पर्दाफाश होता है, इसलिए हिंसा का अहिंसा पर प्रहार होने लगता है। वह प्रहार अनेकमुखी होता है-कभी व्यक्तियों द्वारा भी; कभी परिस्थितियों द्वारा, तो कभी-कभी उसकी अपनी निजी प्रवृत्तियों द्वारा भी; कभी प्रतिकूल तो कभी मनोनुकूल । इस हालत में अगर एक निश्चित लक्ष्य न हो तो साधक फिसले बिना नहीं रह सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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