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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ८१ करने पर भी हिंसक है।' अविरति प्राणी को अतीत शरीर की अपेक्षा से भी हिंसा की क्रिया लगती है। पूर्ण विरति किए बिना प्रत्येक प्राणी का शरीर निरन्तर छह काय का अधिकरण--शस्त्र रहता है। यह ऐकान्तिक निवृत्ति का मार्ग है। समाज का आधार देह-दशा है। मोक्ष का स्वरूप है विदेह । देह का धर्म है प्रवृत्ति । निवृत्ति देह से विदेह की ओर जाने का मार्ग है। सामाजिक दृष्टि में प्रवृत्ति की शुद्धि के लिए निवृत्ति भी मान्य है किन्तु है एक सीमा तक। मोक्ष-साधना का ध्येय है आत्यन्तिक निवृत्ति, शरीर से भी निवृत्ति । इसमें भी एक सीमा तक प्रवृत्ति मान्य है, किन्तु वही जो संयममय हो । अहिंसा सम्बन्धी सामाजिक दृष्टिकोण इस बिन्दु पर इससे भिन्न पड़ जाता है। आत्मिक-दृष्टि में निवृत्ति का प्रभुत्व है, समाज-दृष्टि में प्रवृत्ति का। हिंसा और परिग्रह के बिना काम नहीं चलता किन्तु धर्म की मर्यादा को समझने वाले उनका अल्पीकरण करते हैं। इसलिए श्रावक को 'अल्पसावध कर्मार्य' कहा गया है। असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प-इन छहों कर्मों को करने वाले अविरत होते हैं, इसलिए उन्हें हिंसा-कर्मकारी कहा गया है। यही कारण है कि सर्व-विरति मुनि इनका उपदेश नहीं करते। हिंसात्मक कर्तव्य का उपदेश करने वाले मुनियों को कार्य की दृष्टि से गृहस्थों के समान कहा ____ केवल समाज या प्रवृत्ति धर्म को ही मानने वालों को यह दृष्टि ग्राह्य न भी हो सके किन्तु मोक्ष की साधना, जो देह-निवृत्ति का लक्ष्य लिए चलती है, में ऐसी मान्यता सहजतया फलित होती है। मोक्ष को साध्य मानने वाले व्यक्ति भी गहस्थ-दशा में हिंसा, परिग्रह, अब्रह्मचर्य-सेवन आदि कर्म करते हैं। यह प्रवत्ति और निवृत्ति का क्षेत्र-भेद है। निवृत्तिधर्म को समझ लेना एक बात है और उसके अनुसार आचरण करना दूसरी बात है। ज्ञानावरण और श्रद्धा-मोह का विलय होता है, तत्त्व सही रूप में समझ में आ जाता है । आचरण की बात अब भी शेष रहती है। आचरण सम्बन्धी मोह का विलय हुए बिना समझी हुई बात भी क्रियात्मक नहीं बनती। जिनके सर्व-विरति योग्य मोह-विलय नहीं होता, वे निवृत्ति-धर्म को मोक्ष का मार्ग समझते हुए भी उसे अपना नहीं सकते। तात्पर्य कि उसका अंगीकार मोह-विलय की मात्रा के अनु १. भगवती १६६१ २. प्रज्ञापना पद २२ ३. तत्त्वार्थ भाष्य (ऊमास्वाति) ४. तत्त्वार्थ राजवार्तिक (अकलंक) ५. सूत्रकृतांग १।१।४।१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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