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________________ ५२ अहिंसा तत्त्व दर्शन शोधन । अध्यात्म की दृष्टि से अहिंसा का आचरण इसलिए अच्छा है कि वह आत्म-शोधन के अनुरूप है । आत्म-शोधन और अहिंसा की एकात्मकता है। आत्मशोधन के लिए जो कुछ करे, वह धर्म नहीं किन्तु आत्म-शोधन अनात्म-भाव की विरति से होता है। इसलिए आत्म-शोधन की दृष्टि से विरति धर्म है, अविरति अधर्म है। हेतु और क्रिया का सामंजस्य हो (दोनों की एकरूपता हो), वहां यह रूप बन सकता है: हेतु अच्छा-कार्य अच्छा। हेतु बुरा-कार्य बुरा। परिणाम अच्छा--कार्य अच्छा। परिणाम बुरा-कार्य बुरा। जिस कार्य का हेतु अपवित्र होता है वह कार्य अपवित्र ही है, यह एकांगिता भी उचित नहीं। जैसे हेतु के पवित्र होने मात्र से कार्य पवित्र नहीं होता, वैसे ही हेतु के अपवित्र होने मात्र से कार्य अपवित्र नहीं होता। पवित्रता और अपवित्रता अपने-अपने स्वरूप में निहित होती है। हेतु इतना बलवान् हो कि वह कार्य के स्वरूप को ही बदल डाले अथवा कार्य इतना बलवान् हो कि वह हेतु के स्वरूप को ही बदल डाले, वहां वे पवित्र हों या अपवित्र, उनकी एकरूपता होती ही है। उसी का नाम है—हेतु और क्रिया का सामंजस्य, जिसके रूप ऊपर बताए जा चुके हैं। किन्तु जहां दोनों एक-दूसरे को आत्मसात् नहीं कर पाते, वहां वे एकांगी अवश्य होते हैं । पर उनका स्वरूप परस्परावलम्बी नहीं होता। जैसे कोई व्यक्ति, अमुक हिंसक को समझाकर अहिंसक बनाऊं या अमुक अहिंसक हिंसा में जा रहा है, उसे फिर से अहिंसा में स्थिर करूं-इस पवित्र उद्देश्य को लिए चला । किन्तु चला असावधानी से, मार्ग में कीड़ों को कुचलते हुए चला। उसके जाने का उद्देश्य पवित्र है किन्तु जाना इसलिए पवित्र नहीं रहा कि उसका (जाने का) स्वरूप स्वयं हिंसात्मक हो गया। यदि वह सावधानीपूर्वक जाता, जीवों को नहीं मारता तो उसका जाना भी पवित्र होता । किन्तु जाने में हिंसा हुई, इसलिए वह वैसा नहीं हुआ। दूसरा मुख्य कार्य है-हिंसक को अहिंसक बनाना या अहिंसक को फिर से अहिंसा में स्थिर करना। हिंसक अहिंसक बनेगा या नहीं और अहिंसक फिर से अहिंसा में स्थिर होगा या नहीं, यह तो उसी के विवेक पर निर्भर है। किन्तु जो समझाने चला, वह उन्हें समझाने के अपने प्रयत्नों को अहिंसक नहीं रख सका। उन्होंने उसकी बात नहीं मानी, वह क्रोध के मारे आग-बबूला हो गया, बकवास करने लगा । उद्देश्य पवित्र था, किन्तु कार्य पवित्र नहीं हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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