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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन आत्मा चैतन्य स्वरूप है और कर्म अचेतन-पौदगलिक है। इन दोनों का संयोग बन्धन है और वियोग मुक्ति। बन्धन के कारण हैं-राग और द्वेष । निवृत्त-आत्मा कर्मों को नहीं बांधती । प्रवृत्त आत्मा के वे बंधते हैं। आत्मा की प्रवृत्ति राग-द्वेषप्रेरित होती है, तब अशुभ कर्म बंधते हैं। उसकी प्रवृत्ति राग-द्वेष-अप्रेरित होती है, तब निर्जरा होती है और शुभ कर्मों का बन्ध होता है। ज्यों-ज्यों संवर (निवृत्ति) बढ़ता है, त्यों-त्यों कर्म-बन्ध शिथिल हो जाता है। वह (संवर) जब समग्र हो जाता है, तब कर्म-बन्ध सर्वथा रुक जाता है, पहले के कर्म-बन्धन टूट जाते हैं और आत्मा मुक्त बन जाती है। प्रवर्तक-धर्म में स्वर्ग का जो महत्त्व है, वह निवर्तक-धर्म में नहीं। उसमें मुक्ति का महत्त्व है । स्वर्ग भी संसार-भ्रमण का अंग है। उसे पा लेने पर भी जन्म-मृत्यु की परम्परा समाप्त नहीं होती। उसकी समाप्ति असंयमी जीवन और प्राणधारणात्मक जीवन के प्रति मोह-त्याग करने से होती है। संक्षेप में निवर्तक-धर्म का स्वरूप और लक्ष्य इस प्रकार है : १. आत्म-स्वभाव में परिणति धर्म। २. आत्म-स्वभाव में परिणत होने का साधन धर्म । ३. वही साधन धर्म है जो साधकतम हो, अनन्तर हो। ४. धर्म का लक्ष्य-मुक्ति (विदेह-दशा)। ५. आत्मा और देह का संयोग-प्रवृत्ति । ६. शरीरोन्मखी या असंयमोन्मुखी प्रवृत्ति-बंध हेतु । ७. आत्मोन्मुखी या संयमोन्मुखी प्रवृत्ति-मोक्ष-हेतु। ८. आत्मा और देह का वियोग-निवृत्ति । प्रवर्तक धर्म की तुलना में निवर्तक धर्म का फलित रूप अध्यात्मवाद है। उसके फलाफल की एकमात्र कसौटी अहिंसा और हिंसा का विचार है। प्रवर्तक-धर्म का फलित रूप हैमानवतावाद। उसकी फलाफल निर्णायक दृष्टि अहिंसा और हिंसा की अपेक्षा मानव-सेवा पर अधिक निर्भर है। निवर्तक-धर्म प्राणीमात्र समभावी है, इसलिए वह सब स्थितियों में मानव को १. शुभ-प्रवृत्ति मोह कर्म का क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव होता है, इसलिए प्रधानतया इससे कर्मों की निर्जरा (विलय) होती है। और गौण रूप में इसके सहचारी नाम कर्म के उदय से पुण्य का बन्ध होता है। २. सूत्रकृतांग १।१५।२२-२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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