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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन 'जगत् में कई जीव त्रस हैं और कई जीव स्थावर । एक पर्याय में होना या दूसरी पर्याय में होना कर्मों की विचित्रता है । अपनी-अपनी कमाई है. जिससे जीव त्रस या स्थावर होते हैं।' ____'एक ही जीव, जो एक जन्म में त्रस होता है, दूसरे जन्म में स्थावर हो सकता है । त्रस हों या स्थावर, सब जीवों को दु:ख अप्रिय होता है-यह समझकर मुमुक्षु सब जीवों के प्रति अहिंसा-भाव रखें।" अहिंसा की मर्यादा मनसा, वाचा और कर्मणा जो स्वयं जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या जो जीव-हिंसा का अनुमोदन करता है वह (प्रतिहिंसा को जगाता हुआ) वैर की वृद्धि करता है। ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् तीनों लोक में जो भी त्रस और स्थावर जीव हैं, उन सबके प्राणातिपात से विरत होना चाहिए। सब जीवों के प्रति वैर की शान्ति को ही निर्वाण कहा है। ___मन, वचन और काया-इनमें से किसी एक के द्वारा किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है । ऐसे जीवन का निरन्तर धारण ही अहिंसा है। अहिंसा का व्यावहारिक हेतु सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए निर्ग्रन्थ प्राणीवध का वर्जन करते हैं । सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है. सुख अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है। वध सबको अप्रिय है, जीना सबको प्रिय है। सब जीव लम्बे जीने की कामना १. सूत्रकृतांग, ११११८ २. वही १।१।१।३ : सयं तिवायए पाणे, अदुवन्नेहिं घायए। हणन्तं वाणुजाणाइ, वेरं वड्ढइ अप्पणो । ३. वही, ११११११३ : उड्ढे अहे च तिरियं, जे केइ तसथावरा। सव्वत्थ विरई कुज्जा, संति निव्वाणमाहियं । ४. दशवेकालिक ८।३ : तेसिं अच्छणजोएण, निच्चं होयव्वयं सिया। मणसा कायवक्केण, एवं हवइ संजए । ५. वही, ६।१० : सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविउं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं, णिग्गंथा वज्जयंति णं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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