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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन विषय-भोग में आसक्त मनुष्य पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और त्रस जीवों की हिंसा करते हैं। उन्हें इस हिंसा का भान तक नहीं होता। यह उनके लिए हितकर तो है ही नहीं, परन्तु सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए बाधक है। स्थावर जीवों की दशा और वेदना एकेन्द्रिय जीव अत्राण, अशरण, अनाथ और अबन्धु हैं, कर्म-शृंखला से बँधे हुए हैं । अकुशल विचार वाले मंद-बुद्धि व्यक्तियों द्वारा दुर्गम्य हैं।' जैसे कोई किसी अन्धे मनुष्य को छेदे-भेदे या मारे-पीटे तो वह उसे न देखते हुए भी दुःख का अनुभव करता है, वैसे ही पृथ्वी न देखते हुए भी अपने ऊपर होने वाले शस्त्रप्रहार के दुःख का अनुभव करती है । हिंसा-सबके लिए समान सावद्य अनुष्ठान करने वाले अन्यतीथिक मुक्त नहीं होते, वैसे ही सावध कर्मसेवी स्व तीथिक भी मुक्त नहीं होते। हिंसा, विरति का उपदेश जो आसक्ति के कारण पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं, उनको अपनी आसक्ति के सामने हिंसा का भान नहीं रहता। परन्तु पृथ्वी की हिंसा न करने वाले संयमी मनुष्यों को इसका पूरा भान रहता है। बुद्धिमान कभी पृथ्वी की हिंसा न करे, न कराए और न करने की अनुमति दे । जो मुनि अनेक प्रवृत्तियों से होने वाली पृथ्वी की हिंसा को अच्छी तरह जानता है, वही सच्चा मर्मज्ञ है। __ इसी प्रकार जल में अनेक जीव हैं। जिन प्रवचन में कहा गया है कि जल जीव ही है, इस कारण उसका उपयोग करना हिंसा है। जल का प्रयोग करते हुए दूसरे जीवों का भी नाश होता है। इसके सिवा, दूसरों के शरीर का उनकी इच्छा-विरुद्ध उपयोग करना चोरी भी तो है । अनेक मनुष्य ऐसा समझकर कि जल हमारे पीने और स्नान के लिए है, उसका उपयोग करते हैं और जल के जीवों की हिंसा करते हैं। यह उनको उचित नहीं है। जो मुनि जल के उपयोग से होने वाली हिंसा को यथावत् जानता है, वही सच्चा मर्मज्ञ है। इसलिए १. प्रश्नव्याकरण ११४ २. आचारांग १।१२७,२८ ३. सूत्रकृतांग २।२।४१ ४. आचारांग ११११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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