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अहिंसा तत्व दर्शन प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निषेध होता ही है। निषेधात्मक अहिंसा में सत्-प्रवृत्ति और सत्प्रवृत्त्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होता है। हिंसा न करने वाला यदि आन्तरिक प्रवृत्तियों को शुद्ध न करे तो वह अहिंसा नहीं होगी। इसलिए निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति की अपेक्षा रहती है, वह बाह्य हो चाहे आन्तरिक, स्थूल हो चाहे सूक्ष्म । सत्-प्रवृत्त्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होना आवश्यक है। इसके बिना कोई प्रवृत्ति सत् या अहिंसा नहीं हो सकती, यह निश्चय-दृष्टि की बात है। व्यवहार में निषेधात्मक अहिंसा को निष्क्रिय अहिंसा और विध्यात्मक अहिंसा को सक्रिय अहिंसा कहा जाता है।
प्रो० तान-युन शान ने अहिंसा के दो रूपों की चर्चा करते हुए लिखा है'अहिंसा भारतीय एवं चीनी संस्कृति का सामान्यतया प्रमुख अंग है। भारत में निषेधात्मक अहिंसा की व्याख्या प्रचलित है और चीन ने विधि रूप।' गांधीजी ने भारतीय दृष्टिकोण का स्पष्टीकरण करते हुए कहा था-'इस देह में जीवन-धारण करने में कुछ न कुछ हिंसा होती है। अतः श्रेष्ठ धर्म की परिभाषा में हिंसा न करना रूप निषेधात्मक अहिंसा की व्याख्या की गई है। ___ आत्म-तुला के मर्म को समझे बिना हिंसा-वृत्ति नहीं छूटती। इसीलिए अहिंसा में मैत्री-रूप विधि और अमैत्री-त्याग रूप निषेध-दोनों समाए हुए हैं। ___ सब जीवों को अपने समान समझो और किसी को हानि मत पहुंचाओ-इन शब्दों में अहिंसा का द्वयर्थी सिद्धान्त--विधेयात्मक और निषेधात्मक सन्निहित है। विधेयात्मक में एकता का संदेश है—'सब में अपने आपको देखो।' निषेधात्मक उससे उत्पन्न होता है-'किसी को भी हानि मत पहुंचाओ।' सब में अपने आपको देखने का अर्थ है-सबको हानि पहुंचाने से बचना। यह हानि-रहितता सबमें एक की कल्पना से विकसित होती है।
नकारात्मक अहिंसा
स्थानांग-सूत्र में संयम की परिभाषा बताते हए लिखा है-सूख का व्यपरोपण या वियोग न करना और दुःख का संयोग न करना-संयम है।' यह निवृत्ति-रूप अहिंसा है।
आचारांग-सूत्र में धर्म की परिभाषा बताते हुए लिखा है-सब प्राणियों को
१. अमृतबाजार पत्रिका, पृ० १८, दिनांक ३१ अक्टूबर १९४४ । २. हिन्दुस्तान, दिनांक २८ मार्च, १९५३, पृ० ४० : भगवान् महावीर-उनका
जीवन और संदेश। ३. स्थानांग ४।४।
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