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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन मत मारो, उन पर अनुशासन मत करो, उनको अधीन मत करो, दास-दासी की तरह पराधीन बनाकर मत रखो, परिताप मत दो, प्राण-वियोग मत करो। यह धर्म ध्र व, नित्य और शाश्वत है। खेदज्ञ तीर्थंकरों ने इसका उपदेश किया है। यह भी निवृत्ति रूप अहिंसा है। गणधर गौतम ने भगवान् से पूछा-भगवन् ! जीवों के सात-वेदनीय कर्म का बन्ध कैसे होता है ? भगवान ने कहा-प्राण, भूत, जीव और सत्व की अनुकम्पा करने से, दुःख न देने से, शोक उपजाने से, खेद उत्पन्न नहीं करने से, वेदना न देने से, न मारने से, परिताप न देने से जीव सात वेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं। अनुकम्पा से यानी सन्ताप आदि न देने से सुख-वेदनीय कर्म का बन्ध होता है। यही तत्त्व इसके पूर्ववर्ती पाठ में मिलता है। गौतम ने पूछा-भगवन् ! जीवों के अकर्कश वेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? भगवान ने कहा-प्राणातिपात-विरति यावत् परिग्रह की विरति से क्रोधत्याग यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के त्याग से जीव अकर्कश वेदनीय कर्म का बंध करते हैं। भगवान् महावीर ने प्रवृत्ति रूप अहिंसा का भी विधान किया है, किन्तु सब प्रवृत्ति अहिंसा नहीं होती। चारित्र में जो प्रवृत्ति है, वही अहिंसा है। अहिंसा के क्षेत्र में आत्मलक्षी प्रवृत्ति का विधान है और संसारलक्षी या पर-पदार्थ-लक्षी प्रवृत्ति का निषेध । ये दोनों क्रमशः विधि-रूप अहिंसा और निषेधरूप अहिंसा बनते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-पमिति-सत्-व्यापार, यह प्रवृत्ति-धर्म है और गुप्ति-असत्-व्यापार का नियंत्रण, यह निवृत्ति धर्म है। 'सर्व प्राणियों के साथ मैत्री रखो'५-यह भी प्रवृत्ति रूप अहिंसा का विधान करता है। वस्तु-तत्त्व को जानने वाले व्यक्ति प्राणी मात्र को आत्म-तुल्य समझकर पीड़ित नहीं करते । वे समझते हैं-जैसे कोई दुष्ट पुरुष मुझे मारता है, गाली देता है, बलात्कार से दास-दासी बना अपनी आज्ञा का पालन कराता है, तब मैं जैसा दु:ख अनुभव करता हूं, वैसे ही दूसरे प्राणी भी मारने-पीटने, गाली देने, बलात्कार से दास-दासी बना आज्ञा-पालन करने से दुःख अनुभव करते होंगे। इसलिए किसी १. आचांरांग १।४।१,२ : सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सम्वे सत्ता न हन्तव्वा, न अज्जावेयव्वा न परितव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे धुए, नियए, सासए.. २. भगवती ७६ ३. भगवती ७६ ४. उत्तयध्ययन २४।२६ ५. उत्तराध्ययन ६।२ : मेत्ति भएसु कप्पए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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