SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन है। जैसे-मृत्यु से लेकर रोम उखाड़ने तक से मुझे दुःख और भय होता है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्वों को होता है-यह सोचकर किसी भी प्राणी, भूत, जीव व सत्व को नहीं मारना चाहिए, उस पर हुकूमत नहीं करनी चाहिए। यह धर्म ध्रव और शाश्वत है।' ___आत्म-तुला के सिद्धान्त को प्रधान नहीं मानते, उन्हें समझाने के लिए भगवान् महावीर ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है - मान लीजिए कि किसी जगह कुछ प्रावादुक एकत्रित होकर मण्डलाकार बैठे हों, वहां कोई सम्यग्दृष्टि पुरुष अग्नि के अंगारों से भरी हुई एक पात्री को संडासी से पकड़कर लाए और कहे कि 'हे प्रावादुको! आप लोग अंगार से भरी हुई इस पात्री को अपने-अपने हाथों में थोड़ी देर तक रखें। आप संडासी की सहायता न लें तथा एक-दूसरे की सहायता न करें।' यह सुनकर वे प्रावादुक उस पात्री को हाथ में लेने के लिए हाथ फैलाकर भी उसे अंगारों से पूर्ण देखकर हाथ जल जाने के भय से अवश्य ही अपने हाथों को हटा लेंगे। उस समय वह सम्यग्दृष्टि उनसे पूछे कि 'आप लोग अपने हाथों को क्यों हटा रहे हैं ?' तो वे वहीं उत्तर देंगे कि हाथ जल जाने के भय से हम हाथ हटा रहे हैं। फिर सम्यग्दृष्टि उनसे पूछे कि 'हाथ जल जाने से क्या होगा?' वे उत्तर देंगे कि दुःख होगा। उस समय सम्यग्दृष्टि उनसे यह कहे कि जैसे आप दुःख से भय करते हैं, इसी तरह सभी प्राणी दुःख से डरते हैं। जैसे आपको दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है, इसी तरह दूसरे प्राणियों को भी दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है। इसलिए किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिए। अहिंसा के दो रूप ___ अहिंसा का शब्दानुसारी अर्थ-हिंसा न करना। न+-हिंसा-इन दो शब्दों से अहिंसा शब्द बना है। इसके पारिभाषिक अर्थ निषेधात्मक एवं विध्यात्मकदोनों हैं। राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राण-वध न करना या प्रवृत्ति मात्र का निरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है। सत्-प्रवृत्ति करना, स्वाध्याय, अध्यात्मसेवा, उपदेश, ज्ञान-चर्चा आदि-आदि आत्महितकारी क्रिया करना विध्यात्मक अहिंसा है। संपनी के द्वारा अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाता है, वह भी निषेधात्मक अहिंसा है यानी हिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है, विध्यात्मक अहिंसा में सत्-क्रियात्मक सक्रियता होती है। यह स्थूल दृष्टि का निर्णय है। गहराई में पहुंचने पर बात कुछ और है। निषेध में १. आचारांग ११५।१०१-१०३ २. सूत्रकृतांग २।२।४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy