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________________ १५४ अहिंसा तत्त्व दर्शन वान् श्री १८० मां वर्षे बल्लभीपुर मां संघ ने एकत्रित करी जैन सूत्रों ने पुस्तकारूढ़ कर्या छ । सद्गुरुदेवद्धिगणी भगवान् श्री १००० वर्ष स्वर्गवासी थया अने ते साथ खरूं जिन-शासन गुम थई तेना स्थान चैत्यवासिओए पोताना दोर अने जोर चलाववा मांड्यो। आ माटे नवांगी वृत्तिकार, श्री अभयदेव सूरि 'आगम अढोतरी' नाम ना ग्रन्थ मां नीचे ती गाथा आपे छेके देवढिखमासमणजा, परंपरं भावओ वियाणेमि । . सिढिलाचारे ठविया, दव्वेण परंपरा बहुहा ॥ -देवद्धि क्षमाश्रमण सुधी भाव-परम्परा हं जाणुं छु, बाकी ते पछी तो शिथिलाचारिरओए अनेक प्रकारे द्रव्य-परम्परा स्थापित करी छ । आ रीते भगवान् थी ८५० वर्षे चैत्यवास स्थापयो तो पण तेनं खरेखरूं जो वीर प्रभु थी हजार वर्ष बीत्या केड़े वधवा मांड्यु। आ अरसा मां चैत्यवास ने सिद्ध करवा माटे आगम ना प्रतिपक्ष तरीके निगमना नाम तले उपनिषदों ना ग्रन्थों गुप्त रीते रचव। मां आव्या अने तेओ दृष्टिवाद नाम ना बारमा अंग ना त्रटेला ककड़ा छे एम लोको ने समाजवमां आव्यं । ए ग्रन्थों मां एवं स्थापन करवा मां आव्युं छे के आज काल ना साधुओ ए चैत्य मां वास करवो वाजबी छे तेमज तेमणे पुस्तकादि ना जरूरी काम मां खपलागे माटे यथायोग्य पैसा टका पण संघखा जोइये । इत्यादिक अनेक शिथिलाचार नी ते ओ ए हिमायत करवा भांडी अने जे थोड़ा घणा वसतिबासी मुनिओ रह्या हता तेमनी अनेक रीते अवगणना करवा मांडी।" ___इस विकार-काल में प्रवर्तक-धर्म की पुण्यस्कन्ध वाली विचारधारा जैनसाहित्य में प्रवाहित हुई-ऐसा अनुमान करना दुरूह नहीं है। जैन-धर्म का आधार जैन-धर्म केवल मोक्ष के साधन के रूप में प्रतिष्ठित है। वह समाज का नियमन या व्यवस्था नहीं करता। जैन के प्रामाणिक आगम-सूत्रों में समाज-व्यवस्था का कोई नियम नहीं मिलता। समाज की परिवर्तनशील धारणा या स्थिति में अपरिवर्तनशील सत्य के नियामक धर्म को उलझाना भी नहीं चाहिए । धर्म के शाश्वतिक रूप के साथ-साथ समाज की अशाश्वत धारणाएं पलती हैं, इससे रूढ़िवाद का जन्म होता है। देश-काल के अनुसार समाज की स्थितियों में परिवर्तन वांछनीय माना जाता है किन्तु धर्म की तरह सामाजिक संस्कारों की जड़ जम जाए तब उन्हें उखाड़ फेंकना सहज नहीं रहता। - जैन-धर्म आत्म-धर्म के रूप में प्रतिष्ठित बना और है, इसीलिए वह सामा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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