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अहिंसा तत्त्व दर्शन
अहिंसा और दया की एकात्मकता
अहिंसा और दया दोनों एक हैं। शब्द की उत्पत्ति की दृष्टि से दोनों में भेद जान पड़ता है । अर्थ की दृष्टि से पाप से बचने या बचाने की जो वृत्ति है, वही अहिंसा है और वही दया है । यह दया के आध्यात्मिक स्तर की बात है । उसका लौकिक स्तर अहिंसा से अलग होता है । उसकी दृष्टि में सुख-सुविधा और जीवन
स्थायित्व का मूल्य होता है । अहिंसा-दृष्टि का उद्देश्य होता है - संयम - विकास | लौकिक करुणा की वृत्ति होती है— जीवन मरे यानी मरनेवाला मौत से बच जाय । अहिंसा की दृष्टि है - मरने वाला पाप से बचे - उसकी हिंसा छूटे । मारने वाला हिंसा के पाप से बच जाए, ऐसी करुणा या दया होती है, वह अहिंसा ही है । मरने वाला मौत से बच जाए - ऐसी दया या करुणा का अहिंसा से सम्बन्ध नहीं होता । अहिंसा के स्थान में दया का प्रयोग होता है, वह हिंसा से बचने - बचाने के अर्थ में ही होता है। उत्तराध्ययन में लिखा है ' - प्राणी दया के लिए मुनि आहार न ले- तात्पर्य कि सूक्ष्म जीव जमीन पर छा जाए, ऐसी स्थिति में मुनि उन जीवों की रक्षा के लिए यानी हिंसा से बचने के लिए भिक्षा के लिए न जाए । सूत्रकृतांग में बताया है.
'सब जीवों की दया के निमित्त मुनि अपने लिए बनाया हुआ भोजन न ले ।' यहां दया का प्रयोग हिंसा से बचाव करने के अर्थ में हुआ है । इसलिए यह दया अहिंसा ही है ।
जो हिंसा नहीं करता, वह सभी जीवों की दया करता है । 'प्रासुक और निर्दोष आहार का सेवन करता हुआ मुनि धर्म का अतिक्रमण नहीं करता - -धर्म का अतिक्रमण नहीं करता हुआ त्रस तथा स्थावर जीवों की अनुकम्पा करता है ।
आत्म-दया और लौकिक दया
'दान - दया दोनूं मारग मोख रा' - दान और दया दोनों मोक्ष के मार्ग हैं । किन्तु इन्हें समझना होगा। बिना समझे मार्ग कैसे मिलेगा । वे कहते हैं
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दया- दया सब कोइ कहै, ते दया धर्म छै ठीक । दया ओलख नै पालसी, त्यां रे मुक्ति नजीक ॥४
मोक्ष के लिए जो दया है, वह अभय-दान है । जो प्राणी मात्र को मनसा,
१. उत्तराध्ययन २६।३५
३. भगवती १18
५. वही, ६।२, दोहा
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२. सूत्रकृतांग वृत्ति ३।६।४० ४. अनुकम्पा चौपई ८ । १
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