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आध्यात्मिकता का मापदण्ड : विरति
किसी भी कार्य के दो पहल होते हैं लक्ष्य और परिणाम । पहले लक्ष्य बनता है, फिर कार्य और फिर परिणाम । लक्ष्य अतीत हो जाता है, कार्य वर्तमान रहता है और परिणाम भविष्य पर निर्भर होता है। लक्ष्य, कार्य और परिणाम–तीनों एक कोटि के होते हैं, तब वह कार्य सर्वांगपूर्ण होता है। लक्ष्य या कार्य में भेद होता है, कार्य या परिणाम में भेद होता है अथवा लक्ष्य, कार्य और परिणाम तीनों में भेद होता है, तब वे एकांगी बन जाते हैं।
किसी भी वस्तु का मापदण्ड निश्चित करने की दो दृष्टियां होती हैं : व्यवहार
और निश्चय।
व्यवहार-दृष्टि स्थूल होती है, इसलिए उसके अनुसार हेतु, कार्य और परिणाम-तीनों भिन्न हो सकते हैं । निश्चय-दृष्टि में ऐसी बात नहीं है। वह सूक्ष्म और तत्त्व-दर्शी है। इसलिए उसके अनुसार कार्य और उसका परिणामये भिन्न कोटिक नहीं हो सकते। परिणाम कार्य का अवश्यम्भावी फल है। वह कभी भी और किसी भी स्थिति में क्रिया के प्रतिकूल नहीं होता। क्रिया अच्छी और परिणाम बुरा, क्रिया बुरी और परिणाम अच्छा-यह जो दिखाई देता है, वह प्रासंगिक परिणाम के कारण होता है। क्रिया के मौलिक फल की क्रिया के साथ ऐकान्तिक और आत्यन्तिक एकरूपता होती है- अच्छी क्रिया का फल अच्छा होता है और बुरी क्रिया का बुरा । निश्चय-दृष्टि के परिणाम क्रिया की अच्छाई और बुराई के मापदण्ड बन सकते हैं-जिसका परिणाम अच्छा होता है, वह क्रिया अच्छी और जिसका परिणाम बुरा होता है, वह क्रिया बुरी। ये (निश्चय-दृष्टि के परिणाम) अधिकांशतया नियमगम्य या सैद्धान्तिक होते हैं । __अहिंसा का वास्तविक परिणाम आत्म-शुद्धि है, यह एक नियम या सिद्धान्त है । कोई व्यक्ति जान सके या नहीं किन्तु जहां अहिंसा होती है, वहां आत्म-शुद्धि
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