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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन व्यक्ति भी दूसरे के लिए धर्म-अधर्म नहीं होता। वस्तु के साथ जैसे धर्म-अधर्म के रूप में वृत्ति जुड़ती है, वैसे ही व्यक्ति के साथ भी वह धर्म-अधर्म के रूप में जुड़ती है। वृत्ति सामने रहे व्यक्ति के अनुसार नहीं बनती, वह निजी संस्कारों के अनुसार बनती है । जिस व्यक्ति के प्रति मनुष्य के जैसे संस्कार होते हैं, उसके प्रति वैसे ही संस्कार, वैसी ही वृत्ति बन जाती है। अपना साथी और भिखमंगा-दोनों एक ही बीमारी के शिकार हैं। साथी को देखकर समवेदना की वृत्ति बनेगी और भिखमंगे को देखकर करुणा की। साथी के प्रति समानता के संस्कार बंधे हुए होते हैं और भिखमंगे के प्रति दीनता के । वृत्ति के साथ-साथ व्यक्ति का महत्त्व नहीं होता तो अपने साथी और परिवार के प्रति होने वाली समवेदना धर्म या पुण्य नहीं मानी जाती और हीन-दीन के प्रति होने वाली करुणा धर्म या पुण्य मानी जाती है, यह भेद क्यों? वृत्ति या व्यक्ति से कोई लगाव न हो तो एक मां अपने बेटे को रोटी खिलाए, वह धर्म-पुण्य नहीं और भिखमंगे को रोटी दे, वह धर्म-पुण्य-इस भेद का क्या कारण है ? अगर कहा जाए, बेटे के प्रति ममता की वृत्ति है और भिखमंगे के प्रति करुणा की। ममता पाप है, करुणा धर्म, तो कहना होगा-बेटा भी भूखा है और भिखमंगा भी। स्थिति समान है, दोनों भूखे हैं। फिर क्या कारण है कि एक के प्रति करुणा नहीं और दूसरे के प्रति है ? समाधान यही आता है कि बेटे का रोटी में अधिकार है, भिखमंगे का उसमें अधिकार नहीं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अधिकार-वंचित व्यक्ति दीन होता है, दीन के प्रति करुणा की वृत्ति बनती है और धर्म-पुण्य कमाने की साधना है। यह सारी कल्पना धार्मिक तो क्या, सामाजिक भी नहीं लगती। सामाजिक भाई के प्रति होने वाली हीनता के संस्कार और उनसे उत्पन्न होने वाली करुणा क्या असामाजिक तत्त्व नहीं है? समाज की दुर्व्यवस्था में ये संस्कार बने और आगे चलकर धर्म-कर्म के साथ जुड़ गए। आज हीन-दीन के प्रति करुणा लाकर धर्म-पुण्य कमाने की भावना चल रही है। तत्त्व इतना ही है कि व्यक्ति के साथ जुड़ने पर हमारी वृत्ति का स्वरूप वैसा ही बनता है, जैसाकि वह व्यक्ति है। वृत्ति त जुड़े हुए व्यक्ति को छोड़कर कोरी वृत्ति का मूल्य नहीं आंका जा सकता। अगर ऐसा होता तो चेतन-अचेतन पशु-पक्षी सभी को पवित्र वृत्ति से नमस्कार करने में धर्म होता। विनयवाद का ऐसा अभिप्राय हो भी सकता है किन्तु व्यक्ति के गुणावगुण पर नमस्कार की अर्हता मानने वालों द्वारा ऐसा नहीं माना जाता। इसलिए वस्तु, व्यक्ति और वृत्ति के समन्वित रूप को छोड़कर किसी एक को ही शुद्ध-अशुद्ध के निर्णय का मानदण्ड नहीं बनना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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