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________________ १८८ अहिंसा तत्त्व दर्शन जरूर हमारे प्रति आकृष्ट होगा । आकर्षण में अपनत्व होता है। अपनत्व के नाते आदमी कड़वे यूंट भी पी सकता है। रोगी को पहले विश्वास होना चाहिए कि इस दवा से मुझे लाभ होगा, तभी उसे कटुक या कुटज पिलाया जा सकता है। अहिंसक को सबके दिलों में विश्वास पैदा करना चाहिए। विश्वास के द्वारा जब दूसरों के दिलों को वह जीत लेता है, तब उसकी कठिनाई मिटती तो नहीं, किन्तु हां, कम जरूर होती है। मूल बात यह है कि अहिंसक ललचाये नहीं। वह दूसरे को प्रसन्न रखने की चेष्टा करे किन्तु इसलिए नहीं कि उसके द्वारा उसे लाभ मिले या स्वार्थ सधता रहे । यह हिंसा की भावना है, आत्मा की कमजोरी है। अहिंसक अपनी मर्यादा तोड़कर किसी को प्रसन्न रखने की बात नहीं सोच सकता। प्रसन्नता का अधिक से अधिक अर्थ तो यह हो कि आपसी सद्भावना या गुणानुराग या गुणोत्कीर्तन से दूसरे को अपनी ओर खींचना। खींचने का मतलब बांधने की बुद्धि नहीं, केवल भाईचारा बढ़ाने की भावना है। ___ यह तो कभी नहीं हो सकता कि अहिंसक थोथी बड़ाई के पुल बांधकर किसी को टिकाए। यह दोष आत्म-श्लाघा से कम नहीं है। इस प्रवृत्ति से केवल अहिंसक ही टोटे में नहीं रहता, सामने वाले व्यक्ति को भी बड़ा धक्का लगता है; उस समय वह समझे या न समझे। झूठी प्रशंसा से उसके अभिमान का पारा और बढ़ जाता है। उसका उत्कर्ष उसे फिर वहां ले जाता है जहां कि उसे नहीं जाना चाहिए अथवा वहां जाने का अर्थ होता है उसका पतन। झूठी प्रशंसा आदमी को आगे नहीं ले जाती। यह वेश्या है, जो एक बार ललचाकर सदा के लिए गिरा देती है। जहां तक सम्भव हो अहिंसक आपसी अनबन टालने की चेष्टा करे किन्तु उसका मूल्य ज्यों-त्यों किसी को रिझाना ही हो तो उसके लिए वह बाध्य नहीं हो सकता। वह स्वयं अनबन के रास्ते पर न जाए। दूसरा कोई जाए तो उसकी जिम्मेदारी अहिंसक नहीं ले सकता। ___अहिंसक को नम्र होना चाहिए किन्तु दूसरों की बुराइयों को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं। दूसरे के गुणों के प्रति और अपनी वृत्ति के प्रति जो नम्रता होती है, उसी का नाम नम्रता है। बुराई के सामने झुकना नम्रता नहीं है। लालची वृत्ति से झुकना भी नम्रता नहीं है। __अहिंसक बुराई के साथ कभी भी समझौता नहीं कर सकता, इसलिए उसे जितना नम्र होना चाहिए उतना कठोर भी। 'वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि'-यह बात अहिंसक के लिए सोलह आने सही है। कठोर किसी व्यक्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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