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अहिंसा तत्त्व दर्शन
या दया-दान का निषेध नहीं है। इससे यह जान पड़ता है कि जैन-आचार्यों ने इसे रक्षा-सूत्र के रूप में बरता है। इसके द्वारा उन्होंने लोक व्यवहार उठाने के आरोप का समाधान किया, तीर्थंकरों ने करुणा-दान या मोह-दया-जो व्यावहारिक प्रवृत्तियां हैं, में पुण्य है-यह नहीं बताया। व्यवहार से लड़ते-लड़ते भी उन्होंने तत्त्व को यकायक नहीं बदला-यह मध्यवर्ती साहित्य के मनन से स्पष्ट होता है।
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