Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 219
________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २०५. व्यक्ति परिस्थितियों का दास बनकर कभी नहीं चलता। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियां न्यूनाधिक मात्रा में सदा सब जगह और सबके जीवन में रहती हैं। उनसे भय खाने वाले लड़खड़ा जाते हैं और उनसे लड़ने वाले विजयी बन जाते हैं। लड़ने की दो पद्धतियां हैं-एक लम्बा-चौड़ा मार्ग और एक संकरी पगडंडी। पहला मार्ग बल-प्रयोग का है। इसमें बुराई न मिटने की स्थिति में बुरे को मिटाने की क्षमता है। दूसरी जो पगडंडी है, वह इसलिए संकरी है कि उसमें बुरे को मिटाने की कल्पना तक नहीं होती। ___व्यक्ति की अपनी दुर्बलताएं होती हैं-काम-वासना, क्रोध, लालच, आरामतलबी आदि-आदि। इन पर जो नियंत्रण पा जाता है, उसे परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। पर वे उसे दबा नहीं सकतीं। जो अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं पर नियंत्रण करना नहीं जानता या नहीं चाहता, उसे परिस्थितियां निगल जाती हैं। परिस्थितिवाद निराशावाद है। इसकी परंपरा निरन्तर चलती है। पुराने लोग कर्मवाद या भाग्यवाद की ओट में अपनी कमजोरियों को पालते थे। आज उनका लालन-पालन परिस्थितिवाद के सहारे हो रहा है । यह सच है-कर्म, भाग्य, परिस्थिति का अपना-अपना स्थान है किन्तु व्यक्ति उनसे घबराकर अपना पुरुषार्थ खो बैठे-यह अस्थानीय है। सार यही है कि सब बुराइयों की जड़ व्यक्ति की अपनी दुर्बलताएं हैं। परिस्थितियां उनको पोषण देती हैं, उन्हें मूर्त बनाती हैं। क्रोध व्यक्ति की दुर्बलता है किन्तु उसे उभारने वाली स्थिति बने बिना वह मूर्त नहीं बनता। गाली सुनते ही वह भभक उठता है। परिस्थिति ने इतना किया कि छिपी हुई बुराई को उखाड़ दिया। बुराई को नए सिरे से उत्पन्न करने की शक्ति उसमें नहीं होती। मूल में भूल है। युग का प्रमुख विचार बन रहा है-परिस्थितियों को सुधारो, तात्पर्य कि बुराई की शाखा को मिटा दो। होना यह चाहिए कि बुराई के मूल को सुधारो । मूल सुधारे बिना शाखाएं बनती-बिगड़ती रहेंगी, अर्थ कुछ नहीं होगा। परिस्थितियां परिवर्तित होती रहती हैं। एक परिस्थिति में सुधार आता है और उससे पोषण पाने वाली बुराई छिप जाती है। दूसरी परिस्थिति बनती है और दूसरे प्रकार की बुराई साकार बनने लग जाती है। उदाहरण से समझिए-एक युवक अविवाहित दशा में अप्राकृतिक मैथुन' का व्यसनी बन जाता है। विवाह होता है, स्थिति बदल जाती है; अप्राकृतिक क्रिया छूट जाती है। अब नई स्थिति उसे नई बुराई का शिकार बना डालती है। गृह की चिन्ता से वह व्यापारी बनता है और पत्नी को सन्तुष्ट रखने की चिन्ता से शोषक । अच्छे कपड़े चाहिए, गहने चाहिए, सौन्दर्य-प्रसाधन की सामग्री चाहिए, साज-सज्जा की वस्तुएं चाहिए, वह सब कुछ चाहिए जो दूसरों को सुलभ है। शोषण के बिना यह सब आए कहाँ से? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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