________________
अहिंसा तत्त्व दर्शन
२०३
विवेक-दर्शन
चेतन और देह के भेद का ज्ञान-~मैं चेतन हूं, मेरा शरीर अचेतन है। मैं अविनाशी हूं, यह नश्वर है । मैं पुनर्भवी हूं, यह एकभवी है। इसलिए हम दोनों दो हैं । इस विवेक-दर्शन से स्वदेहासक्ति का विलय होता है ।
आत्म-दर्शन
आत्म-दर्शन का अर्थ है, दूसरों में अपने जैसी आत्मा का साक्षात्कार करना । इससे प्रेम पवित्र बन जाता है। शरीर-सम्बन्धी प्रेम विकारी होता है । सही अर्थ में वह प्रेम होता ही नहीं। आज एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ शारीरिक प्रेम में बंधता है। वहां प्रेम का आधार है-शरीर का आकर्षण । कल मानो छूत की बीमारी हो गई तब प्रेम टूट जाता है। पवित्र और विराट् प्रेम का आधार होता है -- आत्म-दर्शन । इसके साथ जो प्रेम आता है, उसमें बीमारी और बुढ़ापा-ये बाधक नहीं बनते । जिसमें आत्म-दर्शन की शक्ति प्रबल हो जाती है, वह विकारी प्रेम में नहीं फँसता।
बहिर्व्यापार-वर्जन
इन्द्रिय और मन का व्यापार अन्तर्मुखी होता है, पदार्थों का अनावश्यक चिन्तन, दर्शन और ध्यान नहीं होता, तब पदार्थासक्ति छूट जाती है।
अहिंसक के लिए इन तीनों की आराधना आवश्यक है। ऐसा किए बिना विकारों का परिहार नहीं होता। अहिंसा का अर्थ है-निर्विकार-दशा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org