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अहिंसा तत्त्व दर्शन
इन्द्रियों के पांच विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द हैं। मन का प्रधान विषय संकल्प है। इसीलिए कहा गया है- "काम ! मैं तुझे जानता हूं। तू संकल्प से पैदा होता है। मैं तो तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा। इसीलिए तू मुझमें उत्पन्न नहीं होगा। ___ पदार्थ में आकर्षण होता है-स्पर्श की कोमलता, रस का माधुर्य, गन्ध की मादकता, रूप की मोहकता, शब्द की प्रियता होती है। इन्द्रियां इन्हें मन तक पहुंचाती हैं और वह इन्हें पाने के लिए अधीर हो उठता है और देह को भी अधीर बना देता है।
व्यक्ति में पदार्थ से अधिक आकर्षण होता है। व्यक्ति के शरीर को चैतन्य की विशेषता प्राप्त होती है, इसलिए उसमें दूसरों को आकृष्ट करने की इच्छा, भावाभिव्यंजना और भाषा-ये विशेष गुण होते हैं। इनमें पदार्थ की अपेक्षा अधिक मोहकता और मादकता होती है। अहिंसक की दुनिया कोई दूसरी नहीं होती। वह इसी दुनिया में पदार्थ और प्राणी के आकर्षण के बीच रहता है। वह खाता-पीता है। उसे रूप दिखाई देते हैं। शब्द भी सुनता है। विषय से बचना एकान्ततः आवश्यक नहीं। एकान्तिक आवश्यक है--विकार से बचना। रूप को जानना चक्षु-इन्द्रिय का विषय है। वह न अच्छा है और न बुरा। रूप में आसक्ति आती है, तब वह विषय नहीं रहता, विकार बन जाता है। विचार हिंसा है। मन निविकार बने बिना अहिंसा नहीं आती। अतएव अहिंसक के लिए विकार परिहार की साधना आवश्यक होती है। पदार्थ और प्राणी दोनों के प्रति विकार पैदा होता है पर वे उसके मूल स्रोत नहीं हैं। अपना शरीर विकार की अभिव्यक्तियों की प्रयोगशाला है, फिर भी विकार का मूल स्रोत नहीं है। आत्मा भी स्वभाव से विकारी नहीं हैं। विकार का मूल स्रोत है-मोह। वह आत्मा की अशुद्ध-दशा में उस पर छाया रहता है। मोह की परम्परा आगे बढ़ती चलती है। मोह-मुग्ध व्यक्ति अपनी देह को ही आत्मा मानने लगता है। इससे उसमें देहासक्ति उत्पन्न होती है। स्व-देहासक्ति प्रबल होने पर पर-देहासक्ति और उसके बाद पदार्थासक्ति बनती है। वह विकार-विकास का क्रम है। विकार-परिहार का क्रम है :
१. विवेक-दर्शन, २. आत्म-दर्शन, ३. बहियापार-वर्जन ,
१. काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे ।
नाहं संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥
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