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हृदय परिवर्तन की समस्या
मानव विविध-जातीय संस्कारों का संग्रहालय है। भलाई और बुराई–दोनों के बीज उसमें अंकुरित होते हैं । परिस्थितियां निमित्त मात्र हैं। उनका सहयोग पा बीज अंकुरित हो जाना है। बीज न हो तो वे किसे अंकुरित करें। परिस्थितियों की अपेक्षा व्यक्ति अधिक बलवान् होता है। वह उनसे अप्रभावित रह सकता है। यह भी सच है, उनकी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती।
आज का युग नाना वादों का केन्द्र बन रहा है। कोई युग धार्मिक मत-वादों का था। आज प्रत्येक समस्या को राजनैतिक स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया जाता है। राजनीति की धुरी अर्थ-तन्त्र है। इसलिए आज का युग राजनीतिक वाद या अर्थवाद का अखाड़ा बन रहा है । विचारों और वादों का इतना संघर्षण है कि उनकी चिनगारियां अग्नि को शान्त नहीं होने देतीं। अपने आपको भुलाकर दूसरों को जगाने की वृत्ति जो आज है, वह पहले कभी इतनी उग्र हुई, ऐसा नहीं मिलता। विश्व-शान्ति की मांग भी आज अभूतपूर्व है।
विज्ञान का युग है। प्रत्येक तथ्य कसौटी पर कसा जाता है। श्रद्धा को स्थान नहीं रहा। पुरुषार्थ की गाथाएं गायी जाती हैं किन्तु सिद्धान्त के रूप में। कार्य-रूप में पहला स्थान परिस्थितियों को मिल रहा है। 'परिस्थितियां ऐसी हैं, हम क्या करें ?" यह उत्तर आप बिना किसी कठिनाई के सुन सकते हैं । आश्चर्य की बात यह है-व्यक्ति अच्छे या बुरे कार्य करता है। उनके अच्छे या बुरे पणिाम होते हैं। अच्छे कार्यों और उनके अच्छे परिणामों का दायित्व वह स्वयं लेना चाहता है। बुरे कार्यों और उनके बुरे परिणामों का दायित्व वह दूसरों पर डाल देता है। और कोई न मिले तो परिस्थितियां तो हैं ही। वे कभी इस प्रवृत्ति का विरोध तक नहीं करती। यह क्या है परिस्थितिवाद या पुरुषार्थवाद ? यह सही है-परिस्थितियां व्यक्ति को प्रभावित करती हैं किन्तु तभी जब उपादान शक्तिहीन होता है । समर्थ
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