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अहिंसा तत्त्व दर्शन
नहीं रुचा, उसी को मिटाने की भावना उभर आती है।
विवशता व्यक्ति को क्रूर बनाती है। क्रूरता हिंसा बन फूट पड़ती है। ऐसी स्थितियां पहले भी हईं, अब भी होती हैं और जब कभी भी हो सकती हैं। कारण साफ है-हिंसा प्रतिशोध लाती है । हिंसा के प्रति हिंसा बनती है । शोषण, क्रूरता और दुर्व्यवस्था करने वालों के प्रति हिंसा बढ़ती जाती है, उसमें कोई आश्चर्य नहीं। किन्तु हिंसा के प्रयोग को दार्शनिक व सैद्धान्तिक रूप जो मिलता है, वह कुछ आश्चर्य जैसा है। कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहेगा कि उसके विरुद्ध कोई हिंसा बरते। दल या राष्ट्र के लिए भी यही बात है। यह भी लगभग सच है- सहजतया (स्थूल रूप में) कोई हिंसा करना भी नहीं चाहता। बड़ी हिंसा की प्रेरणा काल्पनिक स्वार्थों से मिलती है ।
व्यक्ति समाज में बंधता जरूर है किन्तु मूल प्रकृतियों में परिवर्तन नहीं आता। वह राष्ट्रीय रूप में व्यापक बनता है किन्तु वह अपने राष्ट्र की परिधि में बंधकर अति-राष्ट्रीयतावादी बन जाता है। अपना प्रान्त, अपना गांव, अपना घर, अपना परिवार, अपना शरीर-इस प्रकार की विभाजक मनोवृत्ति उसे सही माने में व्यक्ति ही बनाये रखती है। सामाजिकता सिर्फ काल्पनिक या कार्यवाहक जैसी होती है। अपने लिए समाज से कुछ मिलता है, तब तक वह सामाजिक बना रहता है। किन्तु जहां अपने स्वार्थ की क्षति मालूम होती है, वहां समाज उसके लिए कौड़ी के मूल्य का भी नहीं होता। इस अति-स्वार्थवाद से ही विषमताएं और शोषण आदि बुराइयां बढ़ती हैं । वैयक्तिक-रूप संकुचितता उत्पन्न करता है किन्तु वह वस्तुस्थिति है। उसे मिटाया नहीं जा सकता। अपने शरीर, अपनी पत्नी और अपने पुत्र के प्रति या साधारणतया अपनी रुचि के अनुकूल पदार्थ के प्रति जो ममता हो सकती है, वह दूसरों के प्रति नहीं हो सकती। वैयक्तिक सम्पत्ति के प्रति जितना ध्यान दिया जाता है, उतना सामाजिक सम्पत्ति के प्रति नहीं। 'मेरी है,' 'इसका लाभ मुझे मिलेगा'-इसमें कोई विकल्प नहीं होता। 'सबकी है,' 'इसका लाभ सबको होगा'-यहां अनेक विकल्प खड़े हो जाते हैं । जैसे—फिर मैं अकेला इसकी चिन्ता क्यों करूं ? मैं अधिक श्रम क्यों करूं ? मैं स्पर्धा क्यों करूं? मैं लेखा-जोखा क्यों करूं ?...
वैयक्तिक सत्ता कोई बुरी वस्तु नहीं है, अगर वह हित-अहित के दायित्व के रूप में हो। व्यक्ति के अच्छे और बुरे कार्य का परिणाम आज या आगे उसी में होगा- यह धारणा व्यक्ति को बुराई से बचाती है। कार्य के परिणाम का दायित्व व्यक्ति पर नहीं रहता, तब अच्छाई में उसे रस नहीं आता और बुराई से वह सकुचाता नहीं। इन्द्रियां लोलुप होती हैं और मन चपल। उन्हें इच्छा पूर्ति के सुन्दर से सुन्दर साधन चाहिए। कार्य का परिणाम भुगतने की
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