Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 225
________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन चिन्ता नहीं होती, तब उनकी प्राप्ति की बात मुख्य होती है। वे कैसे मिलते हैं-यह बात मुख्य नहीं होती। इसी मनोवृत्ति ने मनुष्य को भोगी बना रखा है। हृदय-परिवर्तन का अर्थ है-त्याग की ओर झुकाव। त्याग में व्यक्ति का अकेलापन निखरता है। यह हो नहीं रहा है। आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में-"व्यक्ति समाजवाद के क्षेत्र में व्यक्तिवादी और व्यक्तिवाद के क्षेत्र में समाजवादी बन जाता है।" धन का संग्रह करते समय वह नहीं सोचता--सबके पास इतना संग्रह नहीं है या सब इतना संग्रह नहीं करते, मैं अकेला यह क्यों करूं? यह व्यक्तिवादी मनोवृत्ति समाज की ओर नहीं झाँकती। भलाई के स्वीकार में व्यक्तिवादी मनोवृत्ति होनी चाहिए, वहां सोचने का ढंग यह होता है कि दूसरे लोग अन्याय से पैसा कमा आनन्द लूटते हैं, तब मैं ही क्यों उससे बचने का प्रयत्न करूं? यहां हृदय-परिवर्तन की स्थिति स्पष्ट होती है। व्यक्ति आत्मानुशासन के द्वारा ही बुराई से बच सकता है। आत्मानुशासन के स्रोत दो हैं : आत्म-समर्पण और आत्म-नियन्त्रण। आत्म-समर्पण से सहयोग और प्रेम बढ़ता है, आत्म-नियन्त्रण से विशुद्धि । आत्मानुशासन में कर्तव्य धर्म की निष्ठा होती है, इसलिए वह दूसरे की बुराई को अपनी बुराई के लिए प्रोत्साहित नहीं बनने देता। व्यक्ति का यह रूप तब समझ में आता है, जब हम उसे परिस्थितियों से नियन्त्रित न मान उनसे स्वतन्त्र भी मानते हैं। इसके अनुसार निरपेक्षता व्यक्ति का स्वतन्त्र मूल्य है, उपचरित मूल्य है सापेक्षता। नग्नता स्वाभाविक है और लज्जा उपचरित। नग्नता निरपेक्ष है और लज्जा सापेक्ष । लज्जा की मर्यादा के बारे में सब एकमत नहीं हो सकते किन्तु नग्नता सहज है-इसमें दो मत होने की बात नहीं। देश, काल और स्थिति के अनुसार मनुष्य-समाज के संस्कार बनते-बिगड़ते हैं। उनकी सचाई की कसौटी रुचि बन सकती है, जो मान्यता का सत्य है। वस्तु-स्थिति का संस्कार से लगाव नहीं होता। व्यक्ति को समाज व समाजजनित परिस्थितियों से बद्ध मानने वालों की दृष्टि में परिवर्तन की दिशा सामूहिक ही हो सकती है, वैयक्तिक नहीं। स्थितियां बदलने पर व्यक्ति को स्वयं बदलना पड़ता है। व्यक्ति का हृदय बदलना ऐच्छिक है। समाज की मर्यादा बदलने पर व्यक्ति को बदलना अनिवार्य है। इतिहास के प्रोफेसर बताते हैं -जब कभी समाज में परिवर्तन आया, वह जनता की सामूहिक क्रान्ति से आया, व्यक्ति-व्यक्ति के परिवर्तन से नहीं। जन-क्रान्ति को ही दूसरे शब्दों में सत्ता की क्रान्ति समझिए। परिवर्तन की अनिवार्यता सत्ता में है। सत्ता ऊपर से नीचे की ओर नहीं सरकती, तब तक मौलिक परिवर्तन नहीं आता। शोषक-वर्ग का शासन शोषित-वर्ग की कठिनाइयों को नहीं समझ सकता। शोषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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