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दाणं न होइ अफलं, पत्तमपत्तेसु सन्निजुज्जंतं।
इय विभणिए वि दोसा, पसंसओ किं पुण अपत्ते॥ पात्र या अपात्र किसी को दो, दान अफल नहीं होता-ऐसा कहना भी दोष है, तब भला अपात्र-दान की प्रशंसा करे, उसका तो कहना ही क्या ?
'अपात्र-दान का फल पाप के सिवा कुछ नहीं है। बालुकणों को पीलने वाला केवल खेद ही प्राप्त करता है । असंयमी को दान देकर जो पुण्य' की इच्छा करता है, वह आग में बीज डालकर अनाज पैदा करना चाहता है' -आचार्य अमिगति के ये विचार उनके शब्दों में इस प्रकार है :
'अपात्रदानतः किंचित्, न फलं पापतः परम् । लभ्यते हि फलं खेदो, बालुका-पिण्डपीडने ।' 'वितीर्य यो दानमसंयमात्मने, जनः फलं कांक्षति पुण्यलक्षणम् । वितीर्य बीजं ज्वलिते स पावके, समीहते शस्यमपास्तदूषणम् ।।
आदिपुराण में लिखा है-'अपात्र को दान देने वाला 'कुमानुषत्व' पाता हैनीच मनुष्य बनता है। लोहमय नौका जैसे पार नहीं पहुंचाती, वैसे ही दोषवान् व्यक्ति संसार के पार नहीं लगाता। जैसे : ।
कुमानुषत्वमाप्नोति, जन्तुर्दददपात्रके। नहिं लोहमयं यानपात्र-मुत्तारयेत् परम् ॥ १४१
तथा कर्मभराभ्रान्तो, दोषवान् नैव तारकः ॥१४४ महापुराण के दान-संबन्धी विचार :
पात्रं रागादिभिर्दोषः, अस्पृष्टो गुणवान् भवेत् । तच्च त्रेधा जघन्यादि-भेदैर्भेदमुपेयिवत् ॥ जघन्यं शीलवान् मिथ्या-दृष्टिश्च पुरुषो भवेत् । सदृष्टिमध्यमं पात्रं, निःशीलवतभावतः। सदृष्टिः शीलसम्पन्न:, पात्रमुत्तममिष्यते। कुदृष्टिर्यो विशीलश्च, नैवपात्रमसौ मतः ।। कुमानुषत्वमाप्नोति, जन्तुर्दददपात्रके । अशोधितमिवालाबु, तद्धि दानं प्रदूषयेत् ॥ आमपात्रे यथा क्षिप्तं, मक्ष क्षीरादि नश्यति । अपात्रेपि तथा दत्तं, तद्धि स्वं तच्च नाशयेत् ॥ दोषवान् नैव तारकः । ततः परमनिर्वाण-साधनरूपमुद्वहन् ।
२. अमितगति-श्रावकाचार
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