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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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'आप संग्रह का मूल्य समझते हैं, परिग्रह की कीमत आंक सकते हैं किन्तु आपकी दृष्टि में त्याग का मूल्य नहीं है, अपरिग्रह की कीमत नहीं के बराबर है । आप कहेंगे-जो धन का त्याग करता है, उसे दानवीर कहते तो हैं। और त्याग का मूल्य क्या होता है ? आपका यह उत्तर ठीक नहीं, क्योंकि आप वास्तव में परिग्रही को दानवीर कहते हैं, त्यागी को नहीं।"
विनोबा के मतानुसार 'भूदान' आज का युग-धर्म है । यह होता है । समाज की समय-समय की आवश्यकता और उसी के अनुरूप मांग होती है। समय के प्रवर्तक उसे सामयिक धर्म के रूप में ही रखते हैं। किन्तु आगे चलकर वह रूढ़ हो जाती है, एक शाश्वत धर्म का रूप ले लेती है और उसमें विकार आ घुसते हैं। दान का रूप भी कम विकृत नहीं हुआ है। इसलिए दान पर आज हमें फिर एक बार नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।
१. श्रमण, जनवरी, १९५३
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