Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 211
________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ૨૨૭ शरीर, वाणी और मन का व्यापार सरल होना चाहिए। वक्रता हिंसा है । माया भी हिंसा है। इससे मैत्री का नाश होता है । ४. पदार्थों के लिए या उनके व्यवहार में आसक्ति नहीं होनी चाहिए । आसक्ति और असंतोष हिंसा है । यह सद्गुणों का नाश करता है । ५-६. परोक्ष में बुराई करना चुगली और सामने बुराई करना निन्दा है । अहिंसक बुराई को मिटाना चाहता है, इसलिए वह दूसरों की बुराई कर नहीं सकता । बुराई का प्रकाशन करने से बुरा भला नहीं बनता । बुरे को सुधारने का उपाय है— उसके हृदय में बुराई के प्रति ग्लानि उत्पन्न कर देना । ७-८-१. दूसरों पर आरोप लगाना, लड़ना-झगड़ना, घृणा करना, ये सब मानसिक असन्तोष के परिणाम हैं । १०. पक्ष का आग्रह मिथ्याभिमान का परिणाम है । ११. भय हिंसा का कार्य और कारण दोनों है । भय से हिंसा वृत्ति उत्पन्न होती है और हिंसा से भय बढ़ता है । संस्कारी दशा में वृत्तियों की दशा बदलती उनका उन्मूलन नहीं होता । इन आवेगों के नियन्त्रण से निम्न वृत्तियां फलती हैं : १. क्षमा या क्रोध का उपशम २. नम्रता या मृदुता ३. ऋजुता ४. अनासक्त भाव और सन्तोष ५. पर - गुणग्राहकता ६. स्व - श्लाघा - वर्जन ७. स्व - दोष-दर्शन ८. प्रेम या मैत्री ६. शांति १०. सत्यग्राही दृष्टि ११. अभय अथवा ऐसे कहा जा सकता है कि ये वृत्तियाँ उनके नियन्त्रण के साधन हैं । बुराई से बुराई को मिटाने की बात हिंसा का सिद्धान्त है । जैसे आग से आग नहीं बुझती, वैसे ही क्रोध से क्रोध नहीं मिटता । क्रोध की विजय का उपाय है— अक्रोध या उपशम । अहिंसक को धीर, गम्भीर और शान्त होकर वेगात्मक वृत्तियों पर विजय पानी चाहिए | आवेग - मुक्ति, भय मुक्ति, वासना - मुक्ति और व्यसन मुक्ति होने से रोग मुक्ति स्वयं हो जाती है। आवेग - विजय का अर्थ है - स्वास्थ्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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